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Published on Mar 21, 2024 Updated 0 Hours ago

भारत की ऊर्जा संबंधी समस्या का मुख्य कारण यह है कि भारत में ऊर्जा की उपयुक्त एवं प्रभावी मांग का अभाव है. उपयुक्त एवं प्रभावी मांग का अभाव विशेषत: भारत के ग्रामीण इलाकों के गरीब आवासों और ऊर्जा के लिए अविकसित बाज़ार की वज़ह से है.

भारत में ऊर्जा आपूर्ति के विकेंद्रीकरण का सुझाव: यानी ‘सैशे’ में बिजली!

भारत में ऊर्जा की समस्या को अक्सर आपूर्ति संकट के दायरे में रखकर ही देखा जाता है. ऐसा माना जाता है कि भारत के पास ऊर्जा के पर्याप्त प्राथमिक स्रोत नहीं है और यहां यानी भारत के पास ऊर्जा निर्माण की क्षमता भी अपर्याप्त है. इसके चलते आपूर्ति में अक्सर कमी देखी जाती है. आपूर्ति में जो ख़ामी है उसे ही ऊर्जा ख़पत को मर्यादित करने के लिए ज़िम्मेदार माना जाता है. लेकिन हक़ीकत ये है कि भारत की ऊर्जा संबंधी समस्या का मुख्य कारण अथवा कुंजी यह है कि भारत में ऊर्जा की उपयुक्त एवं प्रभावी मांग का अभाव है. उपयुक्त एवं प्रभावी मांग का अभाव विशेषत: भारत के ग्रामीण इलाकों के गरीब परिवारों और ऊर्जा के लिए अविकसित बाज़ार की वज़ह से है. वैश्विक स्तर पर भले ही भारत को ऊर्जा के सबसे विशाल बाज़ार के रूप में देखा जाता है, लेकिन यह “विशालता” गुणवत्ता की वज़ह से नहीं देखी जा रही, बल्कि यह क्वॉन्टिटी यानी तादाद को ध्यान में रखकर देखी जाती है. भारत में बड़ी संख्या में आवासों में छोटे पैमाने पर भोजन पकाने अथवा प्रकाश की व्यवस्था करने के लिए ऊर्जा का उपयोग किया जाता है. जब इन छोटे-छोटे उपयोगकर्ताओं को एकत्रित किया जाता है तो यह संख्या काफ़ी विशाल हो जाती है. 2022 में भारत में प्रति व्यक्ति व्यावसायिक ऊर्जा की ख़पत (इसमें अनप्रोसेस्ड बायोमास ख़पत शामिल नहीं है) 25.7 Gigajules (GJ) प्रति वर्ष होने का अनुमान लगाया गया था. लेकिन यह वैश्विक औसत का केवल तीसरा हिस्सा है. इतना ही नहीं G20 देशों के बीच यह औसत सबसे कम है. इतना ही नहीं यह आंकड़ा ट्रॉपिकल देशों यानी उष्णकटिबंधीय देशों में ढंग का गुजर-बसर करने के लिए लगने वाली न्यूनतम ऊर्जा ख़पत से भी कम है. एनर्जी एक्सेस डेफिसिट में रहने वाली जनसंख्या में भारत का हिस्सा सर्वाधिक यानी 505 मिलियन का है. यह देखना मुश्किल नहीं होगा कि ऐसा क्यों है. 

भारत में बड़ी संख्या में आवासों में छोटे पैमाने पर भोजन पकाने अथवा प्रकाश की व्यवस्था करने के लिए ऊर्जा का उपयोग किया जाता है. जब इन छोटे-छोटे उपयोगकर्ताओं को एकत्रित किया जाता है तो यह संख्या काफ़ी विशाल हो जाती है.

भारत के ग्रामीण परिवारों के पास डिस्पोजेबल इनकम नहीं होती है. ऐसे में वे भोजन पकाने, प्रकाश व्यवस्था करने, शीत काल में बचने के उपकरण लगाने, परिवहन अथवा संचार पर ज़्यादा पैसा ख़र्च नहीं कर पाते. गरीब परिवार में कमाने वाले व्यक्ति को अक्सर साप्ताहिक वेतन मिलता है. ऐसे में वह ऊर्जा समेत अन्य आवश्यक वस्तुओं पर एक सीमित ख़र्च ही कर पाने की स्थिति में होता है. दक्षिण भारत के एक उद्यमी ने इस बात को समझा और 1980 के दशक में ग्रामीण इलाकों में साबून और शैम्पू जैसे सौंदर्य प्रसाधनों से जुड़ी सामग्री को सैशे यानी छोटे पाऊच या थैलियों में बेचना शुरू किया. इन सौंदर्य प्रसाधनों की छोटी मात्रा (3-4 ग्राम) वाले सैशे यानी पाऊच में उपलब्धता से हाइजिन और ग्रूमिंग प्रॉडक्ट्‌स के लिए ग्रामीण इलाकों में एक नया बाज़ार खोल दिया. छोटी मात्रा में मिलने वाली वस्तु को बार-बार ख़रीदने का मतलब यह था कि बड़ी मात्रा में यह सामग्री ख़रीदने वाले अमीर लोगों के मुकाबले गरीब व्यक्ति इस सामग्री के प्रति यूनिट पर ज़्यादा ख़र्च करता था. जब भारत में शैम्पू के सैशे या पाऊच का बाज़ार फलने-फुलने लगा तो मल्टीनेशनल कन्ज्यूमर गुड्‌स कंपनियों को भी इस व्यवस्था को अपनाने पर मजबूर होना पड़ा. अब इस प्रणाली को इंडियन “सैशे रिवोल्यूशन” कहकर बुलाया जाता है. यह प्रणाली अब बिजनेस सर्कल्स में बड़े अध्ययन का हिस्सा बन चुकी है. शैम्पू की कुल बिक्री में सैशे (सिंगल यूज) की हिस्सेदारी को लेकर अलग-अलग कयास लगाए जाते है. लेकिन अधिकांश अनुमानों का मानना है कि यह हिस्सेदारी 50 प्रतिशत से अधिक है. “सैशे रिवोल्यूशन” को मॉड्यूलर एनर्जी फॉर्म्स जैसे एलपीजी (लिक्विड पेट्रोलियम गैस कैनिस्टर्स) से जुड़ी ऊर्जा के संदर्भ में भी दोहराया जा सकता है. लिक्विड पेट्रोलियम गैस कैनिस्टर्स को विभिन्न साइज में तैयार करके सड़क, समुद्र अथवा रेल मार्ग से जहां चाहे वहां पहुंचाया जा सकता है. 

सैशे में ऊर्जा

UN (संयुक्त राष्ट्र) ने SDG7 हासिल करने के लिए ऊर्जा विकेंद्रीकरण को ही केंद्रबिंदु माना है. किसी जमाने में विकेंद्रीकृत एनर्जी सोल्यूशन्स को ग्रामीण भारत की दृष्टि से काफ़ी अहम माना जाता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है. क्योंकि अब ग्रीड-बेस्ड इलेक्ट्रिसिटी की आपूर्ति को लेकर बनाई जाने वाली नीति संबंधी प्राथमिकताओं के संदर्भ में इसे नज़रअंदाज किया जा रहा है. देशव्यापी बिजली आपूर्ति करने का ढांचा तो भारत में तैयार हो गया है. लेकिन ग्रामीण इलाकों तक बिजली पहुंचने पर आने वाला ख़र्च अब भी चुनौती बना हुआ है. ग्रामीण आवासों से बिजली की प्रभावी मांग आज साबून और शैम्पू की तरह ही बेहद कम है. इसका अर्थ यह है कि बिजली आपूर्ति करने वाली कंपनियों को ग्रामीण आवासों तक एक यूनिट बिजली पहुंचाने में अपनी जेब ढीली करनी पड़ती है. लंबी दूरी की वजह से तकनीकी हानि भी बढ़ती है, जिसकी वज़ह से आर्थिक नुक़सान होता है. 

ऊर्जा के मॉड्यूलर फॉर्म एलपीजी का वितरण, ट्रांसमिशन ग्रीड अथवा गैस पाइपलाइन पर आधारित नहीं है. अत: इस ऊर्जा को उस वक्त तक विकेंद्रीकृत पुल समझा जा सकता है जब तक स्टोरेज ऑप्शन्स के साथ RE ऊर्जा भरोसेमंद और किफ़ायती नहीं हो जाती. एलपीजी (प्रोपेन तथा ब्यूटेन) के छोटे कैनिस्टर्स भोजन पकाने, प्रकाश व्यवस्था तथा छोटे-मोटे औद्योगिकीकरण के लिए विकेंद्रीकृत ऊर्जा मुहैया करवा सकते हैं. इसकी सहायता से ही ग्रामीण आबादी को सब्सिडी पर एलपीजी मुहैया करवाने की ज़िम्मेदारी से भी मुक्त हुआ जा सकता है. IPCC (इंटरगर्वनमेंटल पैनल ऑन क्लायमेट चेंज) के वर्गीकरण के अनुसार एलपीजी, ग्रीनहाऊस गैस (GHG) नहीं है. इसी प्रकार WHO (वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन) की सूची में भी एलपीजी को क्लीन कुकिंग फ्यूल माना गया है. एलपीजी वहां पहुंच सकती है, जहां नैचुरल गैस और इलेक्ट्रिसिटी नहीं पहुंच सकती. छोटे कैनिस्टर्स में एलपीजी को कोई भी पुरुष अथवा महिला आसान और सुरक्षित तरीके से ले जा सकता है, जबकि बड़े कैनिस्टर्स का परिवहन ट्रक, ट्रेन और नाव के माध्यम से आसानी से किया जा सकता है. जब एलपीजी अन्य फ्यूल टेक्नोलॉजीस्‌ जैसे हिटिंग ऑयल, सॉलिड फ्यूल और इसके साथ ही ग्रीड बेस्ड इलेक्ट्रिसिटी का स्थान लेता है तो बेहद अहम मात्रा में कार्बन सेविंग्ज अथवा बचत होती है. 

देशव्यापी बिजली आपूर्ति करने का ढांचा तो भारत में तैयार हो गया है. लेकिन ग्रामीण इलाकों तक बिजली पहुंचने पर आने वाला ख़र्च अब भी चुनौती बना हुआ है. ग्रामीण आवासों से बिजली की प्रभावी मांग आज साबून और शैम्पू की तरह ही बेहद कम है. 

पर्याप्त आपूर्ति की बात करें तो एलपीजी को परंपरागत ऊर्जा में सबसे ज़्यादा सुरक्षित आपूर्ति वाली ऊर्जा माना जाता है. एलपीजी ऑयल रिफाइनिंग तथा नैचुरल गैस उत्खनन प्रक्रिया से शर्तिया मिलने वाला बायप्रोडक्ट है. जब तक  समाज इसकी मांग करता रहेगा तब तक ये दो प्रक्रियाएं चलती रहेंगी. एलपीजी वैश्विक स्तर पर आसानी से खरीद-बिक्री के लिए उपलब्ध है. इसी प्रकार पेट्रोल और डीजल दोनों ही OCED’s (ऑर्गनाइजेशन ऑफ इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट) ट्रेड ओपननेस इंडेक्स पर भी बेहतरीन प्रदर्शन करते है. यह एक ऐसा फ्यूल है जो राजनीतिक अस्थिरता से भी आसानी से प्रभावित नहीं होता, क्योंकि इसे दो स्रोतों से हासिल किया जा सकता है. इसके साथ ही एलपीजी का परिवहन करना भी आसान है. एलपीजी को जहाज, ट्रेन, नाव और ट्रक से आसानी से लाया जा सकता है. नैचुरल गैस तथा कच्चे तेल की कीमतों में काफ़ी ऊंच-नीच होती है, लेकिन एलपीजी के दाम इसके मुकाबले स्थिर होते है और इसका पूर्वानुमान भी लगाया जा सकता है. 

यह सुझाव कि ग्रामीण भारत को जीवाश्म ईंधन जैसे एलपीजी का उपयोग करने की बजाय तुरंत RE (नवीकरणीय ऊर्जा) आधारित उपकरणों को अपना लेना चाहिए, अपरिपक्व ही कहा जाएगा. यह आर्थिक दृष्टि से तो अपरिपक्व है ही, लेकिन इसे सामाजिक न्याय के दृष्टिकोण से भी असंतुलित ही कहा जाएगा. स्टोरेज क्षमता वाले विकेंद्रीत (ऑफ ग्रीड) RE सोल्यूशन्स शहरों में रहने वाले संपन्न परिवारों के लिए भी फ़िलहाल पहुंच से बाहर ही माने जाते हैं. अधिकांश शहरी परिवार आज भी एलपीजी अथवा पीएनजी (पाइप्ड नैचुरल गैस), पेट्रोल और डीजल तथा ग्रीड आधारित बिजली का ही उपयोग करते हुए अपनी घरेलू ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करते हैं. ऊर्जा के ये सारे स्रोत बड़े पैमाने पर कार्बन फुटप्रिंट छोड़ते है. ऐसे मे केवल ग्रामीण क्षेत्र के परिवारों पर ही RE आधारित सोल्यूशन्स का उपयोग करने की सख़्ती करना उनके साथ अन्याय करने जैसा होगा. ऐसा होने पर अपने लिए ऊर्जा का विकल्प चुनने की उनकी आजादी भी प्रभावित होगी. इसके अलावा इस तरह की सख़्ती उनकी जेब पर भी भारी पड़ेगी. दरअसल, ग्रामीण क्षेत्र के गरीब लोगों पर RE सोल्यूशन्स को अपनाने की सख़्ती को ऐसे देखा जा सकता है मानो ग्रामीण गरीब की जेब से शहरी अमीर लोग क्लायमेट सब्सिडी छीन रहे हो.

चुनौतियां

2023 में 14.2 किलो का एलपीजी कैनिस्टर सब्सिडी के साथ केवल 603 रुपए में मिल रहा था. लेकिन उस वक्त भी ये भारत के अनेक गरीब परिवारों के लिए महंगा ही था. भारतीय संसद के ऊपरी सदन में दिसंबर 2023 में दी गई जानकारी के मुताबिक देश में प्रति वर्ष प्रति परिवार सब्सिडी वाले सिलेंडर की ख़पत औसतन केवल 2.8 सिलेंडर ही थी. ये आंकड़ा कैसे निकाला गया इसकी तो जानकारी नहीं है. लेकिन आमतौर पर सब्सिडी के साथ बेचे जाने वाले सामान (जैसे की एलपीजी) को हासिल करने वाला ही उसका उपयोग कर रहा है, ये साबित करना असंभव होता है. अतः गरीब परिवारों द्वारा एलपीजी की ख़पत ऊपर दिए गए आंकड़ों से कम भी हो सकती हैं. शहरी आवासों में 14.2 किलो एलपीजी के 9 कैनिस्टर्स की औसतन ख़पत होती है. गरीब परिवारों में सब्सिडी वाले एलपीजी सिलेंडर की ख़पत कम होने का एक कारण यह भी है कि इन परिवारों की आय भी कम होती है. इस वजह से वे सब्सिडी वाले एलपीजी सिलेंडर भी नहीं ख़रीद पाते हैं. इन परिवारों में भोजन भी एक या दो बार ही तैयार किया जाता है और फिर इन परिवारों को बायोमास आधारित ईंधन बेहद कम दाम पर या थोड़ा सा परिश्रम करके (घर की महिलाओं को समय मिलने पर मेहनत करके) नि:शुल्क भी मिल जाता है. छोटे एलपीजी कैनिस्टर्स ग्रामीण क्षेत्रों में एलपीजी को अपनाकर उसकी ख़पत को बढ़ावा दे सकते हैं, लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र की तेल विपणन कंपनियों की ओर से 2010 के दशक में बाजार में उतारे गए 5 किलो के गैस सिलेंडर को उत्साहजनक प्रतिसाद नहीं मिला था. इसके अनेक कारणों में से एक कारण ये भी है कि 5 किलो वाले “फ्री ट्रेड”  एलपीजी कैनिस्टर्स के डीलर्स और रिटेलर्स की संख्या कम है और 5 किलो सिलेंडर की कीमत एकल आय आधारित ठेठ ग्रामीण परिवारों के बूते से बाहर है. 

छोटे एलपीजी कैनिस्टर्स शहरी क्षेत्रों में बगैर एड्रेस प्रूफ वाले नागरिकों को लक्षित करते हैं और ग्रामीण क्षेत्रों के गरीबों की ओर ध्यान नहीं दिया जाता. यदि 5 किलो वाले एलपीजी सिलेंडर ग्रामीण क्षेत्रों में प्रमुखता के साथ किफ़ायती कीमत पर, सब्सिडी के बगैर बेचें गए तो इनके वहां के घरों में स्थान बनाने की संभावना अधिक दिखाई देती है. ग्रामीण क्षेत्रों में एलपीजी का उपयोग अगर लाइटिंग और पावर जनरेशन में बढ़ाया गया तो इसकी वज़ह से लघु उद्योग के कारखानों को प्रोत्साहित कर वहां भी एलपीजी की मांग को बढ़ाया जा सकता है. एलपीजी का ऑफ ग्रीड RE सॉल्यूशंस के लिए मज़बूत और किफ़ायती बैकअप सोर्स के रूप में भी उपयोग किया जा सकता है. चूंकि एलपीजी आपूर्ति के लिए विशेष मूलभूत ढांचा विकसित नहीं करना पड़ता, अतः रिन्यूएबल एलपीजी, जब ये किफ़ायती और उपलब्ध होगी, तब एलपीजी को रिन्यूएबल एलपीजी (rLPG) के स्थान पर इस्तेमाल किया जा सकता है. ऐसा करने के लिए ये ज़रूरी है कि छोटे एलपीजी कैनिस्टर्स को बढ़ावा देकर इसका उपयोग भोजन पकाने में, कार्बन उत्सर्जन को कम करने और एनर्जी ट्रांजिशन यानी ऊर्जा परिवर्तन करने पर केंद्रित नीतियों पर अमल किए जाने की आवश्यकता है.

स्रोत - इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी


लिडिया पॉवेल ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में एक प्रतिष्ठित फेलो हैं.

अखिलेश सती ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में प्रोग्राम मैनेजर हैं.

विनोद कुमार तोमर ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में सहायक प्रबंधक हैं.

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Lydia Powell

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Ms Powell has been with the ORF Centre for Resources Management for over eight years working on policy issues in Energy and Climate Change. Her ...

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Akhilesh Sati

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Akhilesh Sati is a Programme Manager working under ORFs Energy Initiative for more than fifteen years. With Statistics as academic background his core area of ...

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Vinod Kumar Tomar

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Vinod Kumar, Assistant Manager, Energy and Climate Change Content Development of the Energy News Monitor Energy and Climate Change. Member of the Energy News Monitor production ...

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