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चीन की बेरुख़ी ने उसके पॉलिसी बैंकों को प्रोत्साहित किया है कि वो अपने आर्थिक हितों के आधार पर फ़ैसले लें. इस वजह से श्रीलंका के क़र्ज़ों की रिस्ट्रक्चरिंग की प्रक्रिया धीमी हो गई है.
ये लेख हमारी सीरीज़ दि चाइना क्रॉनिकल्स की 147वीं श्रृंखला है
जून में अपने चीन दौरे में श्रीलंका के विदेश मंत्री अली साबरी ने चीन के तत्कालीन विदेश मंत्री छिन गांग से मुलाक़ात की थी. इसके अलावा वो चीन के वित्त मंत्री लियु कुन, एग्ज़िम बैंक (ChEXIM) के चेयरमैन वू फुलिन से भी मिले. इन बैठको के बाद चीन ने श्रीलंका को द्विपक्षीय सहयोग देने का तो वादा किया. लेकिन, चीन ने आधिकारिक क़र्ज़दाताओं के मंच में शामिल होने से इनकार कर दिया. इसका मतलब ये है कि चीन, श्रीलंका के क़र्ज़ों की रिस्ट्रक्चरिंग के लिए भारत, जापान और पेरिस क्लब के सदस्यों के साथ मिलकर साझा वार्ता में शामिल नहीं होगा. चीन के इस फ़ैसले ने, सितंबर में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) की पहली समीक्षा के पूर्व, श्रीलंका के क़र्ज़ों की रिस्ट्रक्चरिंग की प्रक्रिया को और जटिल बना दिया है. क्योंकि ऋण की रिस्ट्रक्चरिंग न होने से मौजूदा सहायता कार्यक्रम को निलंबित किया जा सकता है.
चीन के ये पॉलिसी बैंक क़र्ज़ की रिस्ट्रक्चरिंग में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं. इसमें उन्हें सरकार की तरफ़ से मिलने वाली स्वायत्तता की बड़ी भूमिका होती है.
चीन का ये फ़ैसला दो कारणों का नतीजा है. पहला, भू राजनीति, और दूसरा लोन की रिस्ट्रक्चरिंग में पॉलिसी बैंकों की भूमिका. पहले कारण के बारे में तो सबको पता है. मगर जो दूसरी वजह है, यानी श्रीलंका के लोन रिस्ट्रक्चरिंग में चीन के नीतिगत बैंकों भूमिका के बारे में बहुत कम लिखा गया है. चीन के पॉलिसी बैंक असल में सरकार के मालिकाना हक़ वाले बैंक हैं, जिनकी स्थापना नीतिगत मामलों की फंडिंग और क़र्ज़ देने के लिए की गई थी. उनके ज़रिए चीन की सरकार अपने कई वित्तीय, राजनीतिक और भू-राजनीतिक हित साधती है. जैसे कि मूलभूत ढांचे और बुनियादी उद्योगों के लिए पूंजी मुहैया कराना और विदेश में निवेश करना वग़ैरह. चीन के ये पॉलिसी बैंक क़र्ज़ की रिस्ट्रक्चरिंग में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं. इसमें उन्हें सरकार की तरफ़ से मिलने वाली स्वायत्तता की बड़ी भूमिका होती है.
चीन, श्रीलंका को सबसे ज़्यादा द्विपक्षीय क़र्ज़ देने वाला देश है. जून 2022 तक श्रीलंका के ऊपर क़र्ज़ का जितना बोझ था, उसमें चीन की हिस्सेदारी 21 प्रतिशत यानी 8.5 अरब डॉलर थी. श्रीलंका ने चीन से जो लोन लिए हैं, उनमें से ज़्यादातर चीन के पॉलिसी बैंकों ने दिए हैं. श्रीलंका के क़र्ज़ संकट में पॉलिसी बैंकों की भूमिका समझने के लिए चीन के क़र्ज़ बांटने में शामिल अहम किरदारों को समझना बहुत ज़रूरी है.
पहला, प्रस्तावित परियोजनाओं को जो सहायता दी जाती है, वो किस तरह की होगी, इसमें चीन की सरकार बेहद अहम भूमिका निभाती है. मोटे तौर पर चीन की सरकार दो तरह की मदद मुहैया कराती है: विदेशी विकास सहायता (मदद, रियायती क़र्ज़ और ब्याज मुक्त लोन) और आधिकारिक सहायता (बाज़ार की या उनसे भी ज़्यादा ऊंची ब्याज दरों पर क़र्ज़ देना). जो देश क़र्ज़ लेना चाहते हैं, वो अपने यहां मौजूद चीन के दूतावास या कॉन्सुलेट को परियोजना के प्रस्ताव देते हैं, जो चीन की सरकार के पास भेजे जाते हैं. फिर उन देशों को किस तरह के क़र्ज़ दिए जाएंगे, ये फ़ैसला लेने में चीन के वित्त और विदेश मंत्रालय अहम भूमिका निभाते हैं. इन फ़ैसलों पर चीन की सरकार के राजनीतिक और आर्थिक हितों का गहरा असर होता है. इसके बाद पॉलिसी बैंक इन परियोजनाओं का भविष्य तय करते हैं. इन बैंकों की ज़िम्मेदारी होती है कि वो वित्तीय रिटर्न और मुनाफ़ा सुनिश्चित करें और इसका नतीजा ये होता है कि चीन के पॉलिसी बैंक अक्सर, क़र्ज़ लेने वाले देश को बाज़ार की ब्याज दरों पर लोन देते हैं.
व्यवहारिक तौर पर बात करें, तो ये बैंक उन परियोजनाओं में पूंजी लगाने से मना कर सकते हैं, जिनके बारे में उन्हें लगता है कि इनसे मुनाफ़ा नहीं होगा. लेकिन, चूंकि ये बैंक चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) के नेता चलाते हैं. इसलिए अक्सर, सरकार की पहल और हितों को तरज़ीह दी जाती है. बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) परियोजनाओं वाले देशों को जिस तरह रियायती शर्तों या छूट के साथ वित्तीय मदद दी जाती है, उससे ये बात और सही साबित होती है. और, जिन मामलों में सरकार, रियायती क़र्ज़ों पर परियोजनाओं की फंडिंग का फ़ैसला करते हैं, वहां बैंक सरकार से कहते हैं कि वो कारोबारी और रियायती लोन की दरों के अंतर की भरपाई करे.
पॉलिसी बैंक इन परियोजनाओं का भविष्य तय करते हैं. इन बैंकों की ज़िम्मेदारी होती है कि वो वित्तीय रिटर्न और मुनाफ़ा सुनिश्चित करें और इसका नतीजा ये होता है कि चीन के पॉलिसी बैंक अक्सर, क़र्ज़ लेने वाले देश को बाज़ार की ब्याज दरों पर लोन देते हैं.
इसके बाद नीतिगत बैंक, मुनाफ़ा तलाशने वाली चीन की सरकारी कंपनियों (SOEs) को पूंजी मुहैया कराते हैं. ये सरकारी कंपनियां हमेशा दूसरे देशों में ठेके पर काम की तलाश में रहती हैं. चीन की इन SOEs से अपेक्षा की जाती है कि वो क़र्ज़ पाने वाले देश की परियोजना को लागू करें. ये सरकारी कंपनियां भी चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नेता ही चलाते हैं, और इनके ऊपर चीन के आर्थिक हितों जैसे कि राजस्व पैदा करने; चीन की सरकारी कंपनियों की भूमिका, हिस्सेदारी और काम को बढ़ावा देने; चीन के उत्पादन और आपूर्ति श्रृंखलाओं को प्रोत्साहन देने; और विदेशी मुद्रा के भंडार में बढ़ोत्तरी करने की ज़िम्मेदारी होती है.
2000 के दशक से ही श्रीलंका में चीन की दिलचस्पी काफ़ी बढ़ गई है. इसकी एक वजह तो चीन की बढ़ती वैश्विक महत्वाकांक्षा है, तो दूसरी वजह भू-राजनीति में श्रीलंका का अहम ठिकाने पर होना है. 2004 में हिंद महासागर में आई सुनामी और फिर वहां के गृह युद्ध के आख़िरी वर्षों (2006-2009) के बाद से चीन ने ‘श्रीलंका के पुनर्निर्माण’ के नाम पर वहां अपनी गतिविधियां बढ़ाई थीं. उसके बाद से दोनों देशों के संबंध लगातार बढ़ते ही गए हैं.
श्रीलंका में चीन की सरकार की दिलचस्पी ने वहां और चीनी निवेश का मार्ग प्रशस्त किया. चीन के ये पूंजी निवेश दोनों ही तरह के, यानी रियायती और कारोबारी क़र्ज़ की शक्ल में श्रीलंका को मिले हैं. इत्तिफ़ाक़ से 1990 के दशक में श्रीलंका के क़र्ज़ में चीन की हिस्सेदारी 0.3 प्रतिशत थी, जो 2022 में बढ़कर 21 प्रतिशत पहुंच गई. इन बढ़ोत्तरी के तीन कारण रहे: पहला, श्रीलंका द्वारा कुछ परियोजनाओं की मांग करना; दूसरा, चीन की सरकारी कंपनियों की तरफ़ से लॉबीइंग जिसके कारण श्रीलंका की सरकार ने नई परियोजनाओं के प्रस्ताव दिए; तीसरा, श्रीलंका में चीन के राजनीतिक हितों ने चीन के पॉलिसी बैंकों और सरकारी कंपनियों को वहां निवेश करने के लिए प्रोत्साहित किया. मोटे तौर पर दो पॉलिसी बैंक, चीन का एग्ज़िम बैंक (ChEXIM) और चाइना डेवलपमेंट बैंक (CDB), दो सबसे बड़े क़र्ज़ देने वाले बैंक बनकर उभरे.
ChEXIM ने श्रीलंका को 4.3 अरब डॉलर के क़र्ज़ दिए हैं. ये क़र्ज़ आम तौर पर ख़ास परियोजनाओं के नाम पर दिए गए, जिनसे श्रीलंका में चीन की सरकारी कंपनियों की गतिविधियां और मौजूदगी बढ़ी है. चीन के आयात-निर्यात बैंक ने श्रीलंका को पहला कारोबारी ऋण 2011 में दिया था. उसके बाद से इस बैंक ने मूलभूत ढांचे को बढ़ावा देने के लिए चीन की सरकारी कंपनियों को काफ़ी लोन दिया है. इनमें हवाई अड्डे, बंदरगाह, कोयले के बिजलीघर, एक्सप्रेसवे और रेलवे लाइनें वग़ैरह शामिल हैं. इनमें से ज़्यादातर परियोजनाओं में बाद के वर्षों में विस्तार हुआ, जो BRI की अन्य परियोजनाओं के साथ साथ होते देखा गया. हालांकि ChEXIM ने श्रीलंका में ऐसी कई बहुचर्चित परियोजनाओं को भी पूंजी मुहैया कराई है, जो उस पर बोझ साबित हुई हैं. जैसे कि, हंबनटोटा बंदरगाह, मत्ताला राजपक्षे अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा और लोटस टावर.
श्रीलंका में CBD का ज़ोर, परियोजनाओं में पूंजी लगाने से ज़्यादा क़र्ज़ों को रिफाइनेंस करने पर रहा है. ये बैंक मोटे तौर पर भुगतान के संकट से उबरने में मदद करता रहा है.
वहीं दूसरी ओर, चाइना डेवलपमेंट बैंक ने श्रीलंका को लगभग 3 अरब डॉलर के क़र्ज़ दिए हैं. CBD ने श्रीलंका में 2011 से निवेश करना शुरू किया था. लेकिन, उसने सीमित मात्रा में ही पूंजी लगाई थी. श्रीलंका में CBD का ज़ोर, परियोजनाओं में पूंजी लगाने से ज़्यादा क़र्ज़ों को रिफाइनेंस करने पर रहा है. ये बैंक मोटे तौर पर भुगतान के संकट से उबरने में मदद करता रहा है. 2018 में CBD ने श्रीलंका को 1 अरब डॉलर की पूंजी उपलब्ध कराई थी. इसी तरह 2020 में इस बैंक ने श्रीलंका को 50 करोड़ डॉलर और 2021 में 70 करोड़ डॉलर दिए थे.
जब 2022 में श्रीलंका में आर्थिक संकट के संकेत साफ़ दिखने लगे, तो उसने चीन से 4 अरब डॉलर की आर्थिक मदद मांगी. इसमें 1 अरब डॉलर का नया क़र्ज़ 1.5 अरब डॉलर की क्रेडिट लाइन और 1.5 अरब डॉलर की करेंसी स्वैप सुविधा को दोबारा जारी करना शामिल था. चूंकि, सहायता की ये गुज़ारिश किसी ख़ास परियोजना के लिए नहीं थी, ऐसे में उम्मीद तो ये थी कि CBD श्रीलंका की मदद करेगा. हालांकि, श्रीलंका की इन अर्ज़ियों को चीन ने ठंडे बस्ते में डाल दिया. जब सितंबर 2022 में श्रीलंका और IMF के बीच स्टाफ स्तर का समझौता हो गया, तब जाकर क़र्ज़ की रिस्ट्रक्चरिंग करने की श्रीलंका की अर्ज़ियों पर काम शुरू किया गया.
मार्च 2023 में चीन आख़िरी देश था जिसने IMF को श्रीलंका के क़र्ज़ की रिस्ट्रक्चरिंग करने का वादा किया था, वो भी हिचकते हुए और आधे अधूरे मन से. जहां, ज़्यादातर क़र्ज़दाता देशों ने श्रीलंका को दिए गए लोन को अगले दस साल के लिए रिस्ट्रक्चर कर दिया है. वहीं, ChEXIM ने क़र्ज़ लौटाने में केवल दो साल की रियायत दी है. वहीं दूसरी तरफ़, CBD ने तो इतनी भी रियायत श्रीलंका को नहीं दी है. श्रीलंका के विदेश मंत्री अली साबरी की ChEXIM के चेयरमैन से जून में हुई मुलाक़ात इस बात का और संकेत देती है कि चाइना डेवलपमेंट बैंक, लोन रिस्ट्रक्चरिंग की प्रक्रिया से दूरी बनाए हुए है. श्रीलंका ने CBD से क़र्ज़ रिस्ट्रक्चर करने की आख़िरी अर्ज़ी नवंबर 2022 में दी थी. मामले को और पेचीदा बनाते हुए चीन ने क़र्ज़दाताओं के आधिकारिक मंच का हिस्सा बनने से भी इनकार कर दिया है, क्योंकि बैंक अपने विशेषाधिकार वाली शर्त से कोई समझौता नहीं करना चाहते और ये शर्त उन्हें सामूहिक रूप से रिस्ट्रक्चरिंग का हिस्सा बनने से अलग रखती है.
ऐसा लग रहा है कि रिस्ट्रक्चरिंग के ये प्रयास आधे अधूरे मन से इसलिए किए जा रहे हैं, क्योंकि चीन में इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव है. यहां ये बात साफ़ करना ज़रूरी है कि चीन, क़र्ज़ की रिस्ट्रक्चरिंग में कभी भी ढील नहीं दिखाता है. उसने 2014 और 2017 में भी श्रीलंका की ऐसी ही अर्ज़ियों को ख़ारिज कर दिया था. हालांकि, बाद में चीन ने क़र्ज़ों को रिफाइनेंस किया है या फिर नए क़र्ज़ देने का प्रस्ताव भी दिया है. हालांकि, श्रीलंका के मामले में इस बार ये विकल्प उपलब्ध नहीं हैं. जबकि, संकट के शिकार एक और देश पाकिस्तान को चीन से नए क़र्ज़ मिलते जा रहे हैं. श्रीलंका के प्रति ये बेरुख़ी शायद 2021 के आख़िरी महीनों से चीन के साथ कई मुद्दों पर उसके मतभेदों का नतीजा हैं. जैसे कि उर्वरक के मुद्दे पर टकराव, श्रीलंका द्वारा IMF से संपर्क साधना, क़र्ज़ के भुगतान को इकतरफ़ा तरीक़े से रद्द करना और उत्तरी श्रीलंका में चीन की सौर ऊर्जा परियोजना को रद्द करना वग़ैरह.
कुल मिलाकर, चीन के पॉलिसी बैंकों ने श्रीलंका में उसके हितों को बढ़ाने में अहम भूमिका अदा की है. व्यवहारिक स्तर पर इन बैंकों के पास क़र्ज़ देने और फ़ैसले लेने में कुछ स्वायत्त अधिकार हैं. लेकिन, ये बैंक अक्सर राजनीतिक या आर्थिक कारणों से सरकार के साथ तालमेल करके ही फ़ैसले लेते हैं.
इसी का नतीजा है कि शायद चीन ने श्रीलंका की अर्ज़ियों के प्रति बेरुख़ी अपना रखी है और उसको लेकर अपनी सरकारी कंपनियों और पॉलिसी बैंकों को फ़ैसले लेने की छूट दे दी है. जबकि, इसी दौरान श्रीलंका में नए चीनी निवेशों का सिलसिला जारी है. दूसरी संभावना ये है कि चीन की सरकार उन्हीं क़र्ज़ों को रिस्ट्रक्चर कर रही है, जिनसे उसे कम से कम आर्थिक और राजनीतिक नुक़सान हो. इसीलिए, उसने ChEXIM द्वारा दिए गए ऐसे कुछ क़र्ज़ों को रिस्ट्रक्चर किया है, जो रियायती भी हैं और कारोबारी भी. जबकि CBD के क़र्ज़ों (कारोबारी) में ऐसा कोई बदलाव नहीं किया गया है. इससे चीन ख़ुद को दूसरे ऐसे देशों के लिए भी कोई मिसाल पेश करने से रोक सकेगा, जो उसके साथ क़र्ज़ की रिस्ट्रक्चरिंग की बात कर रहे हैं.
कुल मिलाकर, चीन के पॉलिसी बैंकों ने श्रीलंका में उसके हितों को बढ़ाने में अहम भूमिका अदा की है. व्यवहारिक स्तर पर इन बैंकों के पास क़र्ज़ देने और फ़ैसले लेने में कुछ स्वायत्त अधिकार हैं. लेकिन, ये बैंक अक्सर राजनीतिक या आर्थिक कारणों से सरकार के साथ तालमेल करके ही फ़ैसले लेते हैं. लेकिन, जहां तक बात श्रीलंका के क़र्ज़ों की रिस्ट्रक्चरिंग की है, तो चीन की बेरुख़ी ने उसके बैंकों को अपने आर्थिक हितों के आधार पर फ़ैसले लेने का हौसला दिया है. इस कारण से श्रीलंका के क़र्ज़ों की रिस्ट्रक्चरिंग की प्रक्रिया बेहद धीमी हो गई है और इससे रिस्ट्रक्चरिंग की प्रक्रिया में चीन की सरकार की भूमिका की अहमियत भी स्पष्ट हो गई है.
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Aditya Gowdara Shivamurthy is an Associate Fellow with the Strategic Studies Programme’s Neighbourhood Studies Initiative. He focuses on strategic and security-related developments in the South Asian ...
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