Author : Akshat Upadhyay

Published on Jul 29, 2021 Updated 0 Hours ago

जम्मू हमले ने एक मॉडल को पहले से ही तैयार कर लिया है जो दो असमान एक्टर के बीच की विषमताओं का शोषण करता है जहां कमजोर पक्ष नॉन स्टेट एक्टर द्वारा इस्तेमाल में लाए जाने वाले तरीक़ों को संतुलित करने की कोशिश करता है.

तरीक़ा और तकनीक: जम्मू कश्मीर में छोटे युद्ध के प्रचलन की भविष्यवाणी

27 जून 2021 को जम्मू एयर फोर्स स्टेशन पर जिस तरह से हमला किया गया उसके तरीक़े को लेकर अब कई तरह के सवाल उठ रहे हैं. जिस तरीक़े से एयर फोर्स स्टेशन जैसे संवेदनशील इलाक़े पर हमला करने के लिए कमर्शियल-ऑफ-द-शेल्फ (सीओटीएस) एरियल ड्रोन के जरिए क्रूड बमों को डिलिवर किया गया, जिसके बारे में ना तो पता लग सका और ना ही जिसकी पहचान की जा सकी, वो दो बातों की ओर इशारा करती है. पहला, नॉन स्टेट एक्टर्स के ख़िलाफ़ प्रतिरोधक क्षमता की कमी और दूसरा ख़ास तौर पर आतंकरोधी अभियानों के दौरान तेजी से भेजी जा सकने वाली तकनीक जो किसी भी जंग के परिदृश्य को बदलने में सक्षम है. यह ऐसे अभियानों के लिए बराबर लग सकता है. पूर्ववर्ती राज्य जम्मू-कश्मीर  में जंग का मैदान आम तौर पर दूसरों के चलते पैदा किया हुआ एक बाधा है. सालों तक भारतीय सुरक्षा बलों के ख़िलाफ़ हमले के जिन तरीक़ों और तकनीक का इस्तेमाल किया जाता रहा है वह पश्चिम एशिया और उत्तर अफ्रीका (डब्ल्यू ए एन ए ) इलाक़े में आतंकी संगठनों द्वारा इस्तेमाल में लाए जा रहे तरीक़ों और तकनीकों की ही नकल है. इस लिहाज से भले ऐसे हमलों के वक़्त को तय नहीं किया जा सकता है लेकिन इन हमलों की प्रवृत्तियों की भविष्यवाणी तो की ही जा सकती है.

सालों तक भारतीय सुरक्षा बलों के ख़िलाफ़ हमले के जिन तरीक़ों और तकनीक का इस्तेमाल किया जाता रहा है वह पश्चिम एशिया और उत्तर अफ्रीका (डब्ल्यू ए एन ए ) इलाक़े में आतंकी संगठनों द्वारा इस्तेमाल में लाए जा रहे तरीक़ों और तकनीकों की ही नकल है. 

मानवरहित प्रणाली जैसी तकनीक एक राष्ट्र-राज्य और एक व्यक्ति को एक ही  मुकाम पर तब ला खड़ा करती है जबकि हिंसा को सियासी मक़सद से इस्तेमाल किया जाता है. इसमें दो राय नहीं कि यह नॉन स्टेट एक्टर्स को कुछ हद तक फायदा पहुंचाता है क्योंकि दंडात्मक कार्रवाई के लिए यह ज़रूरी होता है. जम्मू हमले के बाद शक की सुई भारत के पड़ोसी राज्य पर गई क्योंकि हो सकता है कि इस हमले के लिए ज़रूरी सूचना, विशेषज्ञता और यहां तक कि हथियार भी इसी पड़ोसी देश ने मुहैया कराई हो.

पश्चिम एशिया और उत्तर अफ्रीका का प्रभाव

संकटग्रस्त राज्य जम्मू कश्मीर में पहले चरमपंथी फिर आतंकवाद की शुरुआत के दो दशक से भी ज़्यादा वक़्त बीतने के बाद यहां हमेशा से पश्चिम एशिया और उत्तर अफ्रीका से आतंक के तरीक़ों और तकनीक को प्रयोग में लाया गया है. यह विश्लेषकों और विशेषज्ञों को घाटी में आतंकी घटनाओं के ख़िलाफ़ सुरक्षात्मक या फिर आक्रामक रवैया अख़्तियार करने के साथ साथ आतंक की नई प्रवृत्तियों की भविष्यवाणी करने के लिए जरूरी जानकारी देता है. आत्मघाती दस्ते, व्हीकल बेस्ड  इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस (वीबीआईईडी), अंतिम संस्कार को आतंकवादियों की भर्ती के रूप में इस्तेमाल करना और अब मानवरहित एरियल ड्रोन का प्रयोग – आतंकी हमले के यह सभी तरीक़े और तकनीक इराक, सीरिया, लीबिया, फिलिस्तीन के जंग के मैदान में  इस्तेमाल में लाए जा चुके हैं जिसे अब पूरी तरह से कश्मीर में आयातित किया जा रहा है. पहले इन तरीक़ों और तकनीकों को लड़ाके अपने साथ लेकर आए अब यह इनक्रिप्टेड ऐप और इंटरनेट पर उपलब्ध ख़ुद से करने योग्य मैनुअल के जरिए आसानी से कश्मीर पहुंच रहा है. ऐसे में अब सिर्फ़ आत्मबल और मंशा ही किसी व्यक्ति को एक आतंकवादी से अलग कर सकता है क्योंकि खुले बाज़ार में ऐसे टूल धड़ल्ले से बिक रहे हैं.

तेजी से प्रचलित होते मानवरहित एरियल सिस्टम (यूएएस) से इराक में मौजूद अमेरिकी सेना को इतना ख़तरा बढ़ गया कि अमेरिका की सेंट्रल कमांड (सीईएनटीसीओएम) के लिए काउंटर यूएएस (सी-यूएएस) बड़ी प्राथमिकता बन गई. मध्य एशिया में अमेरिकी सेना के लिए छोटे और मध्यम आकार के यूएएस को लगातार और ख़तरनाक श्रेणी की चुनौती बताया गया है.  वास्तव में कोरियन युद्ध के बाद अमेरिकी सेना को पहली बार वायु वर्चस्व को खोना पड़ा है. बावजूद इसके कि इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक और अल-शाम द्वारा क्रूड बम गिराने के लिए सबसे पहले एरियल ड्रोन का इस्तेमाल मोसूल की जंग में किया गया. इसके बाद से तो मध्य एशिया का इलाक़ा ऐसे ड्रोन हमलों का गवाह बना रहा और आतंकवादी संगठन इसे लगातार प्रभावी तरीक़े के तौर पर इस्तेमाल कर वायु मार्ग में अमेरिकी सेना के वर्चस्व को चुनौती देने लगे.

आतंकवादियों की भर्ती के रूप में इस्तेमाल करना और अब मानवरहित एरियल ड्रोन का प्रयोग – आतंकी हमले के यह सभी तरीक़े और तकनीक इराक, सीरिया, लीबिया, फिलिस्तीन के जंग के मैदान में  इस्तेमाल में लाए जा चुके हैं जिसे अब पूरी तरह से कश्मीर में आयातित किया जा रहा है. 

मध्य एशिया में छोटे जंग लड़ने के कई तरह के हथियार के लिए ईरान ज़िम्मेदार कहा जा सकता है.  ईरान के रिव्यूलेशनरी गार्ड ने तो घरेलू ड्रोन उत्पादन उद्योग को पैदा कर दिया, जिसमें जहाज़, जमीनी मार्ग और कार्गो जहाज़ के द्वारा यमन, लेबनान, इराक, सीरिया और यहां तक कि फिलिस्तीन में कई तरह के ड्रोन को अवैध तरीक़े से दाख़िल कराया. दूसरा सबसे बड़ा सप्लायर चीन है जिसके ड्रोन में बारूद रख कर आसमानी रास्ते से कहीं भी विस्फोट किया जा सकता है. हाउती की सरकार और उससे जुड़े लोगों पर हमला करने के लिए वहां के आतंकवादी संगठन ने ऐसे ड्रोन का ख़ूब इस्तेमाल किया.  हमास ने भी ईरान की तकनीक से बने कई तरह के ड्रोन का इस्तेमाल इज़रायल के ख़िलाफ़ किया हालांकि उसे इज़रायल के सैनिकों ने मार गिराया. नागर्नो-काराबाख के अहम हिस्सों पर फिर से कब्ज़ा जमाने के लिए अजेरिस ने आर्मेनिया के खिलाफ अत्याधुनिक हथियारों और ड्रोन का बख़ूबी इस्तेमाल किया. यह साफ है कि जंग के परिदृश्य को ड्रोन ने पूरी तरह से बदल दिया है. ऐसे में सवाल अब सिर्फ ‘कब’ का है ना कि ‘अगर’ का जब भारतीय उपमहाद्वीप में ड्रोन की दस्तक आतंक फैलाने के लिए होगी. हाल के एक दो साल में ड्रोन का इस्तेमाल भारत के पश्चिमी  लाइन ऑफ कंट्रोल और अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर ड्रग्स, करेंसी नोट और कभी कभी हथियार के स्मगलिंग के लिए की जाती है. जम्मू हमले ने एक मॉडल को पहले से ही तैयार कर लिया है जो दो असमान एक्टर के बीच की विषमताओं का शोषण करता है जहां कमजोर पक्ष नॉन स्टेट एक्टर द्वारा इस्तेमाल में लाए जाने वाले तरीकों को संतुलित करने की कोशिश करता है.

आतंकवादियों द्वारा इस्तेमाल किए गए तरीक़ों का पैटर्न

लंबे समय से आत्मघाती दस्ता को अनियंत्रित और पागल समूह का कृत्य माना जाता रहा है, जिसका इस्तेमाल हिज़बुल्लाह और लिबरेशन ऑफ तमिल टाइगर्स एलम (एलटीटीई) जैसे आतंकी संगठनों द्वारा किया जाता रहा है.
(LTTE). साल 1983 में हिज़बुल्ला के आतंकवादियों ने अमेरिकी और फ्रांसीसी सेना पर निशाना साधने के लिए आत्मघाती दस्ते का इस्तेमाल किया था, जिसने इस इलाक़े में अमेरिकी मानवतावादी हस्तक्षेप की अवधारणा को पूरी तरह ख़त्म कर दिया. इसके बाद इस तरीक़े को श्रीलंका के एलटीटीई आतंकवादियों ने श्रीलंकाई सरकार के ख़िलाफ़ साल 1987 से लेकर 2003 (273 हमले) तक इस्तेमाल किया. इसके बाद एक बार फिर आत्मघाती हमलों की गूंज मध्य एशिया में सुनाई देने लगी जहां अल कायदा और आईएसआईएस के आतंकवादियों ने इसका इस्तेमाल इराक के सैनिकों, नागरिकों और बाद में अमेरिकी और नाटो की सेना के जवानों पर हमला करने के लिए करने लगे. 19 अप्रैल 2000 को कश्मीर में पहला आत्मघाती हमला हुआ जब अफाक अहमद ने बादामी बाग छावनी इलाक़े में भारतीय सेना के 15 कॉर्प्स हेडक्वार्टर में विस्फोटकों से भरी एक कार से टक्कर मारने की कोशिश में खुद को विस्फोटों से उड़ा लिया था. तब उसका पीछा एक 24 साल के ब्रिटिश मूल का नागरिक मोहम्मद बिलाल कर रहा था जिसे आतंकी संगठन जैश ए मोहम्मद ने संगठन में भर्ती किया था. 25 दिसंबर 2000 की तारीख़ को जिस कार में वह बैठा था उसमें श्रीनगर के सेना छावनी के पास धमाका हुआ जिसमें भारतीय सेना के 6 जवान शहीद हो गए जबकि 3 नागरिकों की भी मौत हो गई. साउथ एशियन टेरेरिज्म पोर्टल (एसएटीपी) के मुताबिक राज्य भर में साल 2000-2019 तक 87 ऐसे आत्मघाती हमले हुए, जिसमें 139 नागरिक और 239 सुरक्षा बल के जवानों की मौत हुई.

व्हीकल बेस्ड इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस (वीबीआईईडी) जिसे सबसे पहले अल कायदा और हिज़बुल्ला के आतंकवादियों ने विस्फोट करने के लिए इस्तेमाल किया था वह पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका (डब्ल्यूएएनए) में कई आतंकी संगठनों का सबसे पसंदीदा हथियार बन गया. इन हथियारों का सबसे ज़्यादा इस्तेमाल इराक में अमेरिकी सेना के ख़िलाफ़ किया गया जिससे कि शहरी क्षेत्र में उनके अत्याधुनिक हथियारों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी जा सके. ऐसे हमलों को ख़ास तौर पर रोकने के लिए अमेरिकी सेना ने एक नया संगठन जिसे ज्वाइंट आईईडी डिफिट ऑर्गेनाइजेशन (जेआईईडीडीओ) कहा गया, उसे बनाया. इस तरह के हथियारों से मुकाबला करने के लिए अमेरिकी सेना ने करीब 75 बिलियन अमेरिकी डॉलर रिसर्च में ख़र्च किया और एक ख़ास वायु मार्ग पर ही अमेरिकी सेना को आगे बढ़ने दिया और उन्हें वायु सेना की मदद पर निर्भर रखा. आईएसआईएस ने कई तरह के ड्रोन, आत्मघाती दस्ता, और व्हीकल बेस्ड इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस का इस्तेमाल इराक के मोसूल और दूसरे शहरों पर कब्ज़ा जमाने के लिए किया और बाद में साल 2018 से इन इलाक़ों को बचाने के लिए आईएसआईएस ऐसे हथियारों का इस्तेमाल करना शुरू किया. भारतीय सुरक्षा जवानों को भी अक्सर वीबीआईडीडी हमलों से दो चार होना पड़ता रहा है. सबसे ताज़ा घटना साल 2018 में पुलवामा हमला रहा है. साल 2018 के बाद से कश्मीर में वीबीआईईडी हमलों की संख्या में बढ़ोतरी दर्ज़ की गई है. हालांकि, जैश ए मोहम्मद के कई हमलों को सुरक्षा बलों ने नाकाम कर दिया. हालांकि, यहां यह बताना अहम होगा कि कश्मीर में पाकिस्तान ने जैश ए मोहम्मद के आत्मघाती दस्ते और कार बम बनाने में विशेषज्ञता का पूरा शोषण किया. हालांकि, घाटी में सुरक्षा बलों को तब बड़ी कामयाबी हासिल हुई जब उन्होंने जैश ए मोहम्मद के आईईडी एक्सपर्ट वालीद भाई को साल 2020 में मार गिराया.

भारतीय सुरक्षा जवानों को भी अक्सर वीबीआईडीडी हमलों से दो चार होना पड़ता रहा है. सबसे ताज़ा घटना साल 2018 में पुलवामा हमला रहा है. साल 2018 के बाद से कश्मीर में वीबीआईईडी हमलों की संख्या में बढ़ोतरी दर्ज़ की गई है. 

इज़रायल के ख़िलाफ़ फिलिस्तीनी संघर्ष ने एक ऐसी संस्कृति को जन्म दिया जिसमें सुसाइड बॉम्बर के त्याग को बढ़ चढ़ कर सम्मान दिया जाने लगा. एक तरह से ऐसे सुसाइड बॉम्बर को शहीद का दर्जा देने की कोशिश की जाने लगी – जिसे इस्तीशद्दी भी कहा जाता है. रणनीतिक लिहाज से ऐसा करना कई मक़सद को पूरा करता है. इससे आने वाले समय में जंग के लिए शहीदों की भर्ती आसानी से होती है. किसी आतंकवादी को शहीद का दर्जा दिलाकर उसके माता पिता को भी फिलिस्तीन की आजादी के संघर्ष से जोड़ा जा सकता है. जबकि अंतर्राष्ट्रीय मीडिया के लिए यह इज़रायली सेना की बर्बरतापूर्ण कार्रवाई की ओर इशारा करता है जिसमें सुसाइड बॉम्बर की उम्र और उसकी नादानी को जानबूझकर रेखांकित किया जाता है. शहीदी समारोहों के साथ प्रदर्शन और संगीत को आतंकवादियों की भर्ती के लिए ताकतवर प्रोपेगैंडा की तरह इस्तेमाल किया जाता है. साल 1993 के बाद से ही फिलिस्तीनी आतंकवादी समूहों द्वारा शहीदी अभियानों का रणनीतिक और प्रोपेगैंडा फैलाने के मक़सद से प्रचार प्रसार किया जाता रहा है. और ठीक इसी तरह के हथकंडे कश्मीर में भी अपनाए गए जहां आतंकवादी की शवयात्रा में आतंकवादियों के साथ साथ उनकी भर्ती करने वाले ओवर ग्राउंड वर्कर्स (ओजीडब्ल्यू) भी मौजूद रहते हैं. इतना ही नहीं, फिलिस्तीन और कश्मीर के संघर्ष के बीच एक तरह की काल्पनिक समानता को भी स्थापित करने की कोशिश हो रही है. यह प्रोपेगैंडा आतंकवादी बुरहान वानी की हत्या के बाद कुछ हद तक सफल भी रहा लेकिन अब इसे बहुत हद तक कुचल दिया गया है. हालात अब ऐसे हैं कि पुलिसवालों और सेना के जवानों के जनाजे ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को एकजुट कर रहे हैं.

उपर लिखी गई बातों में एक तरह का पैटर्न मिलता है – आतंक के जो भी तरीक़े और तकनीक ने पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका में अपनी जड़े जमाईं बाद में कश्मीर घाटी में उनका आयात हुआ. कई कारणों से इनमें से कुछ तो कामयाब हुए लेकिन कई नाकाम साबित हुए. हालांकि किसी एक तरीक़े या फिर तकनीक की कामयाबी और सफलता के बारे भविष्यवाणी कर पाना बेहद मुश्किल भरा काम है. लेकिन पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका में जो ताज़ा घटनाएं घटती हैं उनके मुताबिक इस बात की भविष्यवाणी तो की ही जा सकती है कि घाटी में अगली बड़ी घटना क्या हो सकती है. ड्रोन हमलों के बाद, इज़रायल फिलिस्तीन के बीच जारी संघर्ष में अगली बड़ी बात जो होने वाली है वह हमास आतंकवादियों के ख़िलाफ़ इज़रायल द्वारा घूमते हुए बारूदी हथियार और ड्रोन स्वार्म्स (क्रूड स्वरूप) का इस्तेमाल है. हालांकि घूमते हुए बारूदी हथियार और उसकी डिलिवरी के लिए ज़रूरी प्लेटफॉर्म की निषेधात्मक लागत के चलते निकट भविष्य में आतंकवादी समूह इसे ख़रीदने से रोकती है. अपने क्रूड और मानव नियंत्रण के स्वरूप में ड्रोन स्वार्म्स का इस्तेमाल किसी ख़ास सुरक्षा संस्थानों को निशाना बानाने में किया जा सकता है. यह बात भारतीय सुरक्षा बलों को ध्यान में रखना चाहिए ख़ास कर तब जबकि वो भविष्य में घाटी में किसी बड़ी सुरक्षा चुनौती से निपटने की कोशिश में हों.

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