#Cyber Space: क्या साइबर की दुनिया में‘प्रभुत्व’के सहारे साइबर ‘अराजकता’ पर लगाम लग पायेगा?
1983 में कैम्प डेविड में, राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने तत्कालीन नई हॉलीवुड थ्रिलर वॉरगेम्स देखी. इसमें एक किशोर ने उत्तरी अमेरिकी एयरोस्पेस डिफेंस कमांड को हैक करते हुए तीसरा विश्व युद्ध करवा दिया था. यह फिल्म देखने के बाद हिले हुए से दिखाई दे रहे रीगन ने यह पूछा था, ‘‘क्या वास्तव में ऐसा कुछ हो सकता है?’’ अब आप आ जाएं, 15 जुलाई 2022 की तिथि में. इस दिन अल्बेनियाई सरकार एक साइबर हमले कासामना कर रही थी. इस हमले ने वहां की डिजिटल सेवाओं और वेबसाइटों को अस्थायी रूप से बंद कर दिया था.सरकार ने यह अनुमान लगाया कि यह किसी सरकार की ओर से किया गया हमला है. इसे लेकर जांच शुरू की गई तो पता चला कि इस हमले के पीछे ईरान का हाथ था. 7 सितंबर, 2022 को अल्बेनिया ने ईरान के साथ अपने राजनायिक संबंध समाप्त करते हुए उसके दूतावास के अधिकारियों को निष्कासित कर दिया. इस प्रकरण ने मधुमख्खियों के छत्ते में हाथ डालने जैसी हलचल मचा दी. क्योंकि यह अल्बेनिया के साइबरस्पेस के प्रभुत्व में ईरान के कथित बल के उपयोग को दर्शाने वाला एक अभूतपूर्व मामला है. ऐसे में हमें साइबर स्पेस के प्रभुत्व को लेकर चल रही विवादास्पद बहस का सामना करना होगा, क्योंकि यह बहस ही भविष्य में साइबर मानदंडों को तय करने का माहौल बना सकेगी.
साइबरस्पेस के प्रभुत्व को समझें
आधुनिक राज्य व्यवस्था की शुरुआत, 1648 की वेस्टफेलिया संधि की प्रभुत्व के सिद्धांत के आधार पर हुई. प्रभुत्व किसी भी राज्य के लिए मौलिक होता है. प्रभुत्व के सिद्धांत से दो अन्य सिद्धांत निकलते हैं, जिसमें बल का उपयोग और गैर-हस्तक्षेप शामिल हैं, जो अंतर-देश संबंधों में अधिकार के प्रयोग को विनियमित अथवा प्रतिबंधित करते हैं.
7 सितंबर, 2022 को अल्बेनिया ने ईरान के साथ अपने राजनायिक संबंध समाप्त करते हुए उसके दूतावास के अधिकारियों को निष्कासित कर दिया. इस प्रकरण ने मधुमख्खियों के छत्ते में हाथ डालने जैसी हलचल मचा दी. क्योंकि यह अल्बेनिया के साइबरस्पेस के प्रभुत्व में ईरान के कथित बल के उपयोग को दर्शाने वाला एक अभूतपूर्व मामला है.
साइबरस्पेस को विभिन्न देशों की ओर से हथियार बनाने की बढ़ती कोशिशों के कारण साइबरस्पेस अब अधिक विभाजित और विभाजनकारी हो गया है. ऐसे में साइबरस्पेस पर साझा शासन की आवश्यकता है. इंटरनेट की मदद से साइबरस्पेस ने सत्ता के कई केंद्र बना दिए है. ये सत्ता केंद्र अब अराजक हो गए हैं. इस वजह से अब इसे संचालित अथवा शासित करने वाली एजेंसी पर होने वाली बहस भी विवादास्पद होने लगी है. बहस का केंद्र यह होता है कि साइबरस्पेस को कौन और कैसे नियंत्रित करेगा.
अधिकांश देश 1648 की संधि में दी गई प्रभुत्व की व्याख्या के अनुसार सरकार नियंत्रित प्रशासन पद्धति को अपनाने पर बल दे रहे हैं. लेकिन प्रभुत्व के सिद्धांत की तुलना में, साइबर स्पेस में मौजूद एट्रीब्यूशन अर्थात आरोपण, गुमनामी और हमलों की प्रकृति (गति, तीव्रता, स्थान और चरित्र), साइबर स्पेस डोमेन अर्थात क्षेत्र को असुरिक्षत और चुनौतीपूर्ण बना देते हैं. लेकिन तकनीकी विकास के साथ अब विभिन्न देश साइबर हमलों की जिम्मेदारी तय करने लगे हैं, लेकिन वे इसकी भविष्यवाणी करने और इसको रोकने में सफल नहीं हो सके हैं. इसके चलते ही अब विभिन्न देशों को अपने यहां साइबर प्रभुत्व को लेकर साइबर मानदंड तय करने पर मजबूर होना पड़ा है. साइबरस्पेस में देशों के उत्तरदायित्वपूर्ण व्यवहार की वकालत करने वाले संयुक्त राष्ट्र के तहत बनाए गए सरकारी विशेषज्ञों के समूह (जीजीई) ने भी इस बात को मान्यता दी है कि अंतर्राष्ट्रीय कानून साइबर स्पेस पर भी लागू होता है. इसमें विशेषत: संयुक्त राष्ट्र चार्टर – देश के प्रभुत्व के सिद्धांत, शांतिपूर्ण तरीकों से विवादों का निपटारा, अन्य राज्यों के आंतरिक मामलों में गैर-हस्तक्षेप, और अंतर्राष्ट्रीय मानवतावादी कानून का अनुप्रयोग-शामिल हैं.
हालांकि, विभिन्न देशों में उपरोक्त सिद्धांतों की व्याख्या और इस पर किए जाने वाले अमल को लेकर मतभिन्नता हैं. उदाहरण के तौर पर केवल क्षति धारा की आवश्यकता को बल के उपयोग के रूप मेंस्वीकार करने पर फ्रांस ने असहमति जताई है. फ्रांस ने इसके बजाय कहा है कि किसी देश की सैन्य प्रणालियों को कमजोर करने के लिए की गई साइबर घुसपैठ अथवा रक्षा क्षमताओं को कमज़ोर करने के लिए साइबर हमला करने वाले समूहों को वित्त पोषण या प्रशिक्षण मुहैया करवाने जैसे कारकों को बल के उपयोग का समकक्ष माना जाए. साइबरस्पेस में भारत, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बाध्यकारी संयुक्त राष्ट्र चार्टर-आधारित आदेश को प्राथमिकता देता है.इसके बावजूद भारत ने ओपन-एंडेड वर्किंग ग्रुप (ओईडब्ल्यूजी) में मानव केंद्रित दृष्टिकोणों के संदर्भों को हटाकर उनकी जगह शांति और स्थिरता जैसी शर्तों को रखने की सिफारिश की है.
साइबर स्पेस में देशों के उत्तरदायित्वपूर्ण व्यवहार की वकालत करने वाले संयुक्त राष्ट्र के तहत बनाए गए सरकारी विशेषज्ञों के समूह (जीजीई) ने भी इस बात को मान्यता दी है कि अंतर्राष्ट्रीय कानून साइबर स्पेस पर भी लागू होता है. इसमें विशेषत: संयुक्त राष्ट्र चार्टर – देश के प्रभुत्व के सिद्धांत, शांतिपूर्ण तरीकों से विवादों का निपटारा, अन्य राज्यों के आंतरिक मामलों में गैर-हस्तक्षेप, और अंतर्राष्ट्रीय मानवतावादी कानून का अनुप्रयोग-शामिल हैं.
साइबरस्पेस में देशों के प्रभुत्व के सिद्धांतों सहित संयुक्त राष्ट्र चार्टर पर अमल गैर-बाध्यकारी है. ऐसे में इन देशों को साइबर स्पेस में संदिग्धता और चुप्पी अपनाने का प्रोत्साहन मिलता हैं. प्रभुत्व का उल्लंघन एक निश्चित सीमा पर टिका होता है. जब यह इस सीमा के ऊपर निकल जाता है तो इसे बल के उपयोग, सरकार की आक्रामकता, सरकार के हस्तक्षेप, क्षेत्रीय अखंडता के उल्लंघन और राजनीतिक आजादी के उल्लंघन के जैसा माना जा सकता है. कौन, कहां खड़ा होगा यह उसके भौगोलिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक कारक आदि पर निर्भर करता है. इन्हीं कारणों से हमारे विचार और विकल्प प्रभावित होते हैं. यूनाइटेड स्टेट्स (यूएस) जैसे देश चाहते हैं कि साइबर स्पेस वैश्विक, खुला, बहु-हितधारक और समावेशी रहे. इसका कारण यह है कि उसके पास विशाल तकनीकी कंपनियों का स्वामित्व हैं, जिनके पास प्रौद्योगिकियां हैं. वह साइबर स्पेस में सूचना को नियंत्रित भी करती हैं. चीन, रूस और विकासशील देश (जैसे ब्राजील) जैसे कुछ देश संपूर्ण साइबर प्रभुत्व चाहते हैं. जहां उन देशों की सीमा में कंटेन्ट, डेटा और कौन सी सेवाएं दी जा रही हैं या उपयोग की जाती हैं, इसका एकाधिकार इन देशों के पास ही रहें. ऐसे में साइबर स्पेस में प्रभुत्व पर अमल करने का विचार इतना विवादित हो गया है कि विश्व के नेताओं को एक कदम पीछे हटकर प्रभुत्व के विचार पर पुनर्मूल्यांकन करने की जरूरत है. ताकि साइबर मानदंडों की धारणा से जुड़ी व्यापक तस्वीर पर ध्यान केंद्रित किया जा सकें.
साइबर मानदंड कहां?
अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में विभिन्न देश, अपने राष्ट्रीयहितों के अनुरूप साइबरस्पेस में प्रभुत्व की धारणा को परिभाषित कर उसे स्पष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं. ऐसे में साइबरस्पेस में प्रभुत्व का विचार इसे राजनीतिक दायरे में ले आता है. इसके मानदंडों की रूपरेखा अधिकारों, नैतिकता, अर्थशास्त्र जैसे अन्य क्षेत्रों को लेकर तय होने वाले मानदंडों पर होने वाले विमर्श से अलग है. अत: राजनीतिक पुर्नसंरचना से परे, साइबरस्पेस में प्रभुत्व को लेकर व्यापक समझ में बदलाव की आवश्यकता है. ताकि एक मानक-आधारित वैश्विक साइबर व्यवस्था की ओर कदम बढ़ाया जा सके. अराजक हो रहे साइबरस्पेस में एक देश द्वारा दूसरे देश के खिलाफ बढ़ते साइबर हमलों और साइबर खतरों को बढ़ावा दिया है. ऐसे में सभी देश, साइबरस्पेस में प्रभुत्व-आधारित शासन की ओर जाने पर विवश हो गए हैं. हालांकि, साइबरस्पेस में प्रभुत्व की यह धारणा बढ़ी हुई साइबर असुरक्षा से व्याप्त है, जो साइबर युद्ध को जन्म दे सकती है. अत: साइबर स्पेस को भी ठीक उसी तरह प्रभुत्व के विचार से दूर जाना चाहिए, जैसा कि अंतरिक्ष क्षेत्र ने सफलतापूर्वक कर दिखाया है.
जीजीई तथा ओईडब्ल्यूजी में साइबर मानदंड बनाने की प्रक्रिया महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे पर हमले, वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं को नुकसान, देश के क्षेत्र के भीतर आईसीटी के दुरुपयोग, मानवाधिकारों के लिए जोखिम और निजता के अधिकार जैसे खतरों से निपटने के लिए एक मजबूत नींव रखने वाली प्रक्रिया है.
इसके बदले में देशों को एक बड़े विचार अर्थात साइबर मानदंडों पर ध्यान देना चाहिए.मानदंड, अर्थात दी गई पहचान के साथ इसके दायरे में आने वाले अभिनेताओं अथवा खिलाड़ियों के लिए उचित व्यवहार की एक सामूहिक अपेक्षा होती है. अर्थात एक ऐसा साझा भरोसा, जिसे दूसरों की भी मान्यता मिली हुई हो. साइबर मानदंडों में शामिल सभी पक्षों को उसे स्वीकृत कर मान्यता देने और एक साझा विश्वास वाला पैमाना मानने की आवश्यकता है. साइबर मानदंड बनाने की प्रक्रिया संयुक्त राष्ट्र के काम में उभरी है. इसकी शुरुआत यूएन जीईई के गठन के साथ हुई थी. इसके बाद संयुक्त राष्ट्र में ओईडब्ल्यूजी का गठन किया गया. ओईडब्ल्यूजी एक समान जनादेश और रुचि रखने वाले सदस्य देशों और संयुक्त राष्ट्र पर्यवेक्षकों के एक से अधिक समावेशी समूहों के लिए बनाया गया है. यह साइबरस्पेस में देशों और अन्य हितधारकों के लिए व्यवहार के विभिन्न मानकों की पहचान या संचालन करता है. जीजीई तथा ओईडब्ल्यूजी में साइबर मानदंड बनाने की प्रक्रिया महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे पर हमले, वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं को नुकसान, देश के क्षेत्र के भीतर आईसीटी के दुरुपयोग, मानवाधिकारों के लिए जोखिम और निजता के अधिकार जैसे खतरों से निपटने के लिए एक मजबूत नींव रखने वाली प्रक्रिया है. अत: साइबर मानदंड स्थापित करने की दिशा में आगे बढ़ने की आवश्यकता बढ़ गई है. उदाहरण के तौर पर छठी जीजीई रिपोर्ट ने स्वीकार किया है कि आरोपण अर्थात एट्रीब्यूशन एक मुश्किल काम है. यह साइबर अपराध को उसके स्त्रोत से जोड़ने से पहले व्यापक विश्लेषण को जरूरी बनाता है. लेकिन यह सवाल तो जस का तस ही रहता है कि ये मानदंड क्या होने चाहिए, ये कैसे काम करेंगे, और हितधारकों को उन्हें क्यों स्वीकार करना चाहिए.
असंभव सपना नहीं
विभिन्न हितधारकों के बीच लगातार क्रॉस कम्युनिकेशन अर्थात द्वीपक्षीय वार्ता आवश्यक है, ताकि साइबर स्पेस को लगातार सीखनेके लिए उपयोग किया जा सके और इसकी खराब बातों को अनदेखा किया जा सके. देशों को ही साइबर कानूनों और मानदंडों को परिभाषित करने और लागू करने का एकाधिकार नहीं दिया जा सकता. ऐसे में किसी भी व्यापक साइबरस्पेस व्यवस्था के लिए गैर-सरकारी संगठनों और नागरिक समाज की भागीदारी भी ज़रुरी हो जाती है. साइबरस्पेस में न्याय और समानता के सिद्धांतों से दिशा-निर्देश लेकर ही विश्व के नेताओं को साइबर मानदंडों की रचना करने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए.
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