Published on Jul 08, 2022 Updated 29 Days ago

क्या सऊदी अरब के हालिया सामाजिक सुधार वाले क़दम, दुनिया में उसके इस्लामिक देशों के अगुवा वाली हैसियत पर असर डालेंगे?

सउदी अरब में कट्टरपंथ की काट-छांट: क्या इसके बाद वो इस्लामिक देशों का ‘दादा’ बना रह पाएगा?

सऊदी अरब, लंबे समय से ख़ुद को इस्लाम के दो सबसे पवित्र स्थानों- मक्का और मदीना का संरक्षक मानता आया है. 1924 में उस्मानिया की खिलाफ़त ख़त्म होने के बाद से ही सऊदी अरब ने ख़ुद को मुस्लिम देशों का अगुवा बना लिया था. वैसे तो सऊदी अरब की ज़्यादातर घरेलू और विदेश नीतियां अपनी सल्तनत को बनाए रखने पर केंद्रित होती हैं. लेकिन, अपने सत्ताधारी ख़ानदान की वैधानिकता बनाए रखने के लिए सऊदी अरब के शाही परिवार ने धार्मिकता का लबादा भी ओढ़े रखा है. सऊदी अरब की ये छवि तब और कट्टर होकर उभरी, जब ईरान में इस्लामिक क्रांति हुई और उसके तत्कालीन प्रमुख अयातुल्लाह ख़ोमेनेई ने ‘खाड़ी देशों की भ्रष्ट हुकूमतों को गिराने के लिए’ खाड़ी में भी एक इस्लामिक इंक़लाब की ज़रूरत बताई थी.

अपनी अथाह संपत्ति और दुनिया भर के मुसलमानों को हज कराने की अपनी अनूठी हैसियत के चलते, सऊदी अऱब को अपनी धार्मिक विचारधारा को और फैलाने का मौक़ा मिला. इन्हीं वजहों से सऊदी अरब अपनी धार्मिक विश्वसनीयता को मिल रही चुनौतियों से निपटने में मोटे तौर पर कामयाब रहा.

ईरान से मिल रही इस चुनौती से निपटने के लिए सऊदी अरब ने तेल बेचकर हासिल हुई दौलत का इस्तेमाल किया और पूरी दुनिया में इस्लाम की अपनी विचारधारा का प्रचार किया. इसके साथ साथ सऊदी अरब ने इस्लाम के शिया फ़िरक़े (जो मुख्य तौर पर ईरान में केंद्रित है) पर कीचड़ उछालने और उसे इस्लाम का ग़लत रूप साबित करने का अभियान भी चलाया. अपनी अथाह संपत्ति और दुनिया भर के मुसलमानों को हज कराने की अपनी अनूठी हैसियत के चलते, सऊदी अऱब को अपनी धार्मिक विचारधारा को और फैलाने का मौक़ा मिला. इन्हीं वजहों से सऊदी अरब अपनी धार्मिक विश्वसनीयता को मिल रही चुनौतियों से निपटने में मोटे तौर पर कामयाब रहा.

वैश्विक विस्तार, घरेलू स्तर पर शिकंजा

सऊदी अरब ने दुनिया भर की मस्जिदों, मदरसों और इस्लामिक किताबों के प्रकाशकों को आर्थिक मदद देकर अपने प्रभाव का विस्तार किया. मिसाल के तौर पर भारत के ही अल्पसंख्यक समुदाय को लें, जिसे सऊदी अरब से करोड़ों डॉलर की मदद का फ़ायदा पहुंचा है और इससे भारत में सलाफ़ी मदरसों की तादाद में बेतरह इज़ाफ़ा हुआ है.

दुनिया के तमाम इस्लामिक मुल्क उसे मुस्लिम उम्मत का अगुवा मानते हैं. सऊदी अरब के कई उलेमा और मौलाना मसलन नसीरुद्दीन अल-बानी, मुहम्मद इब्न-बाज़ और सालेह अल उथैमीन आज दुनिया के कई इस्लामिक देशों में घर घर जाना-माना नाम बन चुके हैं. 

अपनी इस कट्टर इस्लामिक राष्ट्र की छवि को सऊदी अरब ने घरेलू स्तर पर रुढ़िवादी नीतियां लागू करके और मज़बूत बनाया. मसलन, महिलाओं के गाड़ी चलाने पर पाबंदी लगाना, नमाज़ के वक़्त दुकानें बंद करना अनिवार्य करना, और ख़ौफ़ पैदा करने वाली मज़हबी पुलिस जो देश में औरतों और मर्दों के रिश्तों पर बारीक़ी से निगरानी रखती है. इन क़दमों से सऊदी अरब को बहुत फ़ायदा हुआ है. दुनिया के तमाम इस्लामिक मुल्क उसे मुस्लिम उम्मत का अगुवा मानते हैं. सऊदी अरब के कई उलेमा और मौलाना मसलन नसीरुद्दीन अल-बानीमुहम्मद इब्न-बाज़ और सालेह अल उथैमीन आज दुनिया के कई इस्लामिक देशों में घर घर जाना-माना नाम बन चुके हैं. इसके साथ साथ- इस्लाम की कट्टरपंथी सलाफ़ी विचारधारा ने कई देशों में अपनी गहरी जड़ें जमा ली हैं. हालांकि इसके विरोधियों की तादाद भी कुछ कम नहीं है.

बदलते सामाजिक उसूल: बढ़ती विविधता का नतीजा

अपनी कट्टर इस्लामिक छवि को ख़ूब चमकाने के बावुजूद सऊदी अरब, पिछले एक दशक या इससे ज़्यादा समय से रुढ़िवादी इस्लाम के प्रचार वाले इनमें से कई क़दमों को वापस लेने लगा है. महिलाओं को गाड़ी चलाने की इजाज़त देने और देश में म्यूज़िक कॉन्सर्ट को मंज़ूरी देने के अलावा, शहज़ादा मुहम्मद बिन सलमान (MBS) ने देश के पर्यटन और मनोरंजन उद्योग को तरज़ीह देने की शुरुआत की है. यही वजह है कि अगले कुछ वर्षों में सऊदी अरब में 2000 के आस-पास सिनेमा स्क्रीन खुलने वाले हैं. ये सच है कि भारत का फिल्म उद्योग, सऊदी अरब के लिए एक अहम सांस्कृतिक मॉडल बन चुका है. आज से एक दशक पहले सऊदी अरब में ऐसे बदलावों का तसव्वुर तक करना नामुमकिन था.

सऊदी अरब में ऐसे बदलाव आने के कई कारण हैं; इनमें से सबसे बड़ी वजह तो सऊदी अरब की ये सोच है कि मांग में हाल में हुए इज़ाफ़े के बावुजूद- दुनिया में तेल की मांग आख़िर में धीरे-धीरे ख़त्म होगी और ऊर्जा के नवीनीकरण योग्य स्रोतों की मांग बढ़ेगी. इसी वजह से आने वाले दशकों में तेल की मांग में कमी को पर्यटन और मनोरंजन उद्योग से पूरा करने की कोशिश की जा रही है. यही वजह है कि सऊदी अरब दुनिया भर से तमाम कारोबारियों को अपने यहां आने के लिए लुभाने में जुटा है.

इससे भी अहम बात ये है कि शहज़ादा मुहम्मद बिन सलमान को ये भी समझ में आने लगा है कि दुनिया भर में उनके मुल्क की मज़हबी विचारधारा का बहुत नकारात्मक असर पड़ा है. सऊदी अरब की सलाफ़ी विचारधारा, जो इस्लाम के राज की बात करती है और बाक़ी दुनिया को काफ़िर मानती है, उसे मध्य पूर्व में अल क़ायदा और इस्लामिक स्टेट जैसे संगठनों और अन्य देशों में दूसरी जिहादी तंज़ीमों को प्रेरणा देने का ज़िम्मेदार माना जाता है. ऐसे में शहज़ादे सलमान की कोशिश है कि वो अपने मुल्क की इस बेहद नुक़सानदेह कट्टरपंथी और रूढ़िवादी छवि से छुटकारा पाएं. यही वजह है कि सऊदी अरब ने दुनिया भर में इस्लाम के प्रचार प्रसार की कई योजनाओं को आधिकारिक रूप से मदद देना बंद कर दिया है और दुनिया की कई बड़ी मस्जिदों पर से अपना नियंत्रण ख़त्म कर दिया है. मसलन, 2020 में बेल्जियम की सबसे बड़ी मस्जिद पर से सऊदी अरब का नियंत्रण समाप्त कर दिया गया था.

महिलाओं को गाड़ी चलाने की इजाज़त देने और देश में म्यूज़िक कॉन्सर्ट को मंज़ूरी देने के अलावा, शहज़ादा मुहम्मद बिन सलमान (MBS) ने देश के पर्यटन और मनोरंजन उद्योग को तरज़ीह देने की शुरुआत की है. यही वजह है कि अगले कुछ वर्षों में सऊदी अरब में 2000 के आस-पास सिनेमा स्क्रीन खुलने वाले हैं.

इसके अलावा, सऊदी अरब के हुक्मरानों को मुल्क की बेसब्र होती युवा आबादी, जिस पर फिल्मों और ऑनलाइन स्ट्रीमिंग सेवाएं देने वालों और शिक्षा के माध्यम से पश्चिमी सभ्यता का काफ़ी असर पड़ा है. सऊदी अरब के शासकों को लगता है कि बदलाव की ख़्वाहिश रखने वाले युवा, मुल्क में सियासी भूचाल ला सकते हैं. इसी वजह से उन्हें ऐसी सामाजिक आज़ादी दी जा रही है, जिससे युवा आबादी को ख़ुद को अभिव्यक्त करने का मौक़ा मिला है और इससे उनकी नाख़ुशी के नकारात्मक सियासी असर को कम किया जा सका है.

आख़िर में ये कहना उचित होगा कि सऊदी अरब को ईरान में हुई इस्लामिक क्रांति और पूरे खाड़ी क्षेत्र में इस्लामिक इंक़लाब की मांग के चलते अपनी इस्लामिक छवि चमकाने के लिए मजबूर होना पड़ा था. क्योंकि सऊदी अरब को ये ख़ौफ़ था कि कहीं उसके अपने नागरिक बग़ावत करके सत्ताधारी सऊद शाही ख़ानदान को हुकूमत से बेदखल न कर दें. आज के दौर में ईरान की ख़राब आर्थिक हालत और उसके दुनिया में अलग थलग पड़ जाने के चलते, ईरान के इस्लामिक मॉडल में लोगों की दिलचस्पी बहुत कम हो चुकी है. ख़ुद ईरान इस कोशिश में लगा हुआ है कि सऊदी अरब से उसके रिश्ते बेहतर हो जाएं. इससे सऊदी अरब के शासकों की फ़िक्र की एक वजह ख़त्म हुई है और वो अपनी कट्टर इस्लामिक छवि से छुटकारा पाने में जुट गए हैं.

क्या सऊदी अरब अभी भी इस्लामिक देशों का अगुवा बना रहेगा? 



इन सभी बदलावों से एक बड़ा सवाल ये उठता है कि क्या सऊदी अरब भविष्य में इस्लामिक देशों के अगुवा की अपनी छवि को बनाए रखना चाहेगा?

इस सवाल के वैसे तो कई जवाब हो सकते हैं. मगर फ़ौरी तौर पर तो इसका जवाब हां ही है. सऊदी अरब अपनी रुढ़िवादी इस्लामिक देश की छवि भले बदल रहा हो, लेकिन वो इस्लामिक देशों के अगुवा के तौर पर बहुत से फ़ायदे उठाते रहा है, जिससे कई बार उसे सियासी ताक़त भी हासिल हुई है. निश्चित रूप से किसी देश की जनता अपने देश की हुकूमत को इस बिनाह पर भी समर्थन देती है कि वो मुल्क इस्लामिक परंपराओं के कितने क़रीब या दूर है.

इस्लामिक देशों में मज़हब और राजनीतिक प्रभाव के बीच गहरा ताल्लुक़ रहा है और सऊदी अरब के नीति निर्माताओं को इस हक़ीक़त का बख़ूबी एहसास है. इसकी एक अच्छी मिसाल, हाल ही में पैग़ंबर मुहम्मद पर की गई टिप्पणी को लेकर भारत के साथ हुआ कूटनीतिक विवाद है. वैसे तो सऊदी अरब शुरुआत में इस विवाद को लेकर ख़ामोश रहा था. लेकिन, जब छोटे से मुल्क़ क़तर ने इस मुद्दे पर अपनी नाराज़गी जताई, तो सऊदी अरब ने भी बेमन से भारत की आलोचना करने वाला बयान जारी किया, ताकि वो इस्लाम के मामले में क़तर से कमतर न साबित हो.

 

जिस तरह दुनिया के भू-राजनीतिक समीकरण बदल रहे हैं, उन्हें देखते हुए अगले कुछ बरसों में कोई और देश, मुस्लिम उम्माह की अगुवाई पर अपना दावा ठोकने के लिए खड़ा हो सकता है.

इसके अलावा, भले ही वक़्ती तौर पर तेल के दाम में ज़बरदस्त उछाल आया हुआ है. लेकिन, जलवायु परिवर्तन का मौजूदा संकट, तमाम देशों को जीवाश्म ईंधन के विकल्प अपनाने को मजबूर करेगा. तेल अभी सऊदी अरब की आमदनी का मुख्य स्रोत है, जिस पर इस बदलाव का मध्यम अवधि से लेकर दूरगामी असर पड़ेगा. जब तक वो अपने संसाधन से हटकर, दूसरी बुनियादों पर अपनी आर्थिक ताक़त को बनाए रखने में सफल नहीं होता, तब तक उसे अपनी इस मौजूदा शक्ति की दरकार रहेगी. ऐसे में सऊदी अरब की इस्लामिक पहचान और प्रभुत्व को चुनौती देने वाला कोई भी देश, उसके सियासी प्रभाव में भी सेंध लगा सकता है.

इस वक़्त सच तो ये है कि तुर्की और मलेशिया जैसे देश- जिन्होंने इस्लामिक देशों के बीच सत्ता के वैकल्पिक केंद्र विकसित करने की कोशिश की है- उन्होंने भी सऊदी अरब से अपने रिश्ते सुधार लिए हैं (इसकी वजह कोविड-19 महामारी के चलते इन देशों की अर्थव्यवस्था पर पड़ा बुरा असर रही है). सऊदी अरब को इससे भी कुछ राहत मिली है. हालांकि, जिस तरह दुनिया के भू-राजनीतिक समीकरण बदल रहे हैं, उन्हें देखते हुए अगले कुछ बरसों में कोई और देश, मुस्लिम उम्माह की अगुवाई पर अपना दावा ठोकने के लिए खड़ा हो सकता है. सऊदी अरब को उम्मीद है कि इस नई चुनौती के उभरने तक, वो और अधिक आर्थिक और धार्मिक आज़ादी हासिल कर चुका होगा, जिससे उसका इस मोर्चे पर बहुत कुछ दांव पर नहीं लगा होगा.

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