Author : Nilanjan Ghosh

Published on Jul 27, 2023 Updated 0 Hours ago

केवल ऊर्जा परिवर्तन से हरित बदलाव नहीं लाया जा सकता है; इसके लिए एक ज़्यादा समग्र दृष्टिकोण को अपनाने की आवश्यकता है, विशेष तौर पर विकासशील देशों में.  

COP 27 से उम्मीदें: हरित वित्त के ज़रिए हरित बदलाव का नया ख़ाका!
COP 27 से उम्मीदें: हरित वित्त के ज़रिए हरित बदलाव का नया ख़ाका!

ये लेख ‘समान’ लेकिन ‘विभिन्न’ उत्तरदायित्व निभाने का लक्ष्य: COP27 ने दिखाई दिशा! श्रृंखला का हिस्सा है.


दुनिया के ज़्यादातर हिस्सों में “हरित परिवर्तन” (green transition)का विचार अभी तक सिर्फ़ ऊर्जा बदलाव के ज़रिए प्रस्तुत किया गया है. इसका अर्थ ये है कि परंपरागत जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल से नवीकरणीय ऊर्जा (renewables) की तरफ़ बदलाव. हरित परिवर्तन के इस प्रभावी न्यूनीकरण के उदाहरण की पृष्ठभूमि में ये मूलभूत तथ्य कहीं-न-कहीं छिपा है कि केवल ऊर्जा बदलाव ही जलवायु परिवर्तन (climate change)की समस्याओं का समाधान नहीं करेगा.

मानवता की अनियंत्रित विकास की महत्वाकांक्षा और आर्थिक विकास एवं शहरीकरण के लिए स्वाभाविक झुकाव भौतिक आधारभूत ढांचे के निर्माण के लिए प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र (यानी जंगल, घास की ज़मीन और तटीय पारिस्थितिकी तंत्र) से ज़मीन के इस्तेमाल में बदलाव को बढ़ावा दे रहा है. इससे न केवल अतिरिक्त कार्बन अधिग्रहण के लिए इस तरह के प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र की क्षमता में बाधा आती है बल्कि कार्बन जमा करने की इसकी क्षमता भी कम होती है. ज़मीन के इस्तेमाल में बदलाव के साथ उल्टे ऐतिहासिक रूप से जमा कार्बन जारी होता है. इस तरह पारिस्थितिकी तंत्र की एक ज़रूरी नियंत्रित करने की सेवा में बाधा आती है. नीति बनाने वाला प्रशासन (ज़्यादातर विकासशील देशों में) इस तथ्य से बेपरवाह लगता है कि इस तरह के नुक़सान की भरपाई सिर्फ़ ऊर्जा बदलाव के ज़रिए नहीं की जा सकती है. इसके बदले प्राकृतिक पूंजी को भौतिक पूंजी से बदलने वाले अनियंत्रित ज़मीन के इस्तेमाल में बदलाव उन सकारात्मक असर को बेकार करता है जो अन्यथा नवीकरणीय ऊर्जा की तरफ़ गतिविधि के माध्यम से हासिल किए जा सकते हैं.

ज़मीन के इस्तेमाल में बदलाव के साथ उल्टे ऐतिहासिक रूप से जमा कार्बन जारी होता है. इस तरह पारिस्थितिकी तंत्र की एक ज़रूरी नियंत्रित करने की सेवा में बाधा आती है. नीति बनाने वाला प्रशासन इस तथ्य से बेपरवाह लगता है कि इस तरह के नुक़सान की भरपाई सिर्फ़ ऊर्जा बदलाव के ज़रिए नहीं की जा सकती है.

इसलिए राहत की परियोजनाओं पर केवल ईंधन में बदलाव के माध्यम से नहीं देखा जाना चाहिए. वैसे तो वैश्विक स्तर पर जलवायु को लेकर बातचीत में एक स्थायी समस्या है पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं (यानी मानवीय समाज को प्रकृति के द्वारा मुफ़्त में प्रदान की जाने वाली सेवाएं) के लापता पहलू. इसके दो अर्थ हैं. पहला, बातचीत की मेज पर जलवायु को नियंत्रित करने में प्रकृति की क्षमता को लेकर अनभिज्ञता है. दूसरा, किसी भी बातचीत के दौरान मानवीय जीवन में पारिस्थितिकी तंत्र के द्वारा अदा की जाने वाली महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार नहीं किया गया है. पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं के महत्व को 2009 में पवन सुखदेव के द्वारा उजागर किया गया था, उन्होंने इसकी व्याख्या “ग़रीबों की GDP” के रूप में की. उनके दस्तावेज़ से पता चला कि भारत में ग़रीबों की 57 प्रतिशत आमदनी प्रकृति के स्रोत से होती है. हाल के दिनों में पारिस्थितिकी तंत्र की निर्भरता के अनुपात (पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं की मौद्रिक क़ीमत और समुदायों की आमदनी का अनुपात) को लेकर आकलन से पता चला कि दक्षिण एशिया के कुछ हिस्सों में ये अनुपात ज़्यादा है. इसका ये अर्थ है कि पारिस्थितिकी तंत्र पर निर्भर ग़रीब समुदाय अर्थव्यवस्था से ज़्यादा प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र से लाभ हासिल करते हैं. इसलिए ज़मीन के इस्तेमाल में व्यापक बदलाव से पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं में हानि होती है और इस तरह ग़रीबों की भलाई में बाधा आती है. दूसरी तरफ़ ग्लोबल वॉर्मिंग और जलवायु परिवर्तन का असर भी इन पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाओं (यानी समुद्र के स्तर में बढ़ोतरी की वजह से तटीय क्षेत्रों में खारे पानी के आने से प्राकृतिक मिट्टी की उर्वरता नष्ट होती है) में अड़चन डालता है.

अनुकूलता परियोजनाओं को कम महत्व

इस संदर्भ में एक और चिंता को उजागर करने की आवश्यकता है. कई विकासशील देशों में राहत की गतिविधियों से मदद नहीं मिलेगी. उन्हें ख़ुद को बदलने की ज़रूरत होगी. वैसे तो फंडिंग के ज़रिए राहत परियोजनाओं के लिए काफ़ी गुंजाइश है लेकिन बदलाव वाले वित्त पोषण के सीमित अवसर हैं. इसने राहत गतिविधियों के पक्ष में एक मूलभूत पूर्वाग्रह का निर्माण कर दिया है. इसलिए ‘हरित वित्त पोषण’ शब्द ‘हरित परिवर्तन’ के साथ नज़दीकी तौर पर जुड़ गया है और ये काफ़ी हद तक नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं के वित्त पोषण की तरफ़ केंद्रित है. तब लगता है कि अनुकूलता एक ऐसी गतिविधि है जो विकासशील देशों के लिए आवश्यक है लेकिन विकसित देश शायद ही इसे स्वीकार करते हैं.

वैसे तो फंडिंग के ज़रिए राहत परियोजनाओं के लिए काफ़ी गुंजाइश है लेकिन बदलाव वाले वित्त पोषण के सीमित अवसर हैं. इसने राहत गतिविधियों के पक्ष में एक मूलभूत पूर्वाग्रह का निर्माण कर दिया है.

राहत के पक्ष और अनुकूलता के ख़िलाफ़ वित्त पोषण का ये पूर्वाग्रह कई अन्य कारणों से भी हो सकता है. पहला, राहत की परियोजनाओं (जैसे इलेक्ट्रिक गाड़ियां) में निवेश से कम समय में स्पष्ट आर्थिक लाभ मिलता है. उदाहरण के रूप में, संचालन और रख-रखाव की लागत उस समय कम की जा सकती है जब ऊर्जा दक्षता या नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं में निवेश होता है. लागत में ऐसी बचत बहुत निजी स्तर पर होती है. दूसरा, अनुकूलता की परियोजनाओं में निवेश का एक “सार्वजनिक भलाई” वाला स्वभाव होता है और अक्सर लंबे समय के कारण उसका लाभ काफ़ी कम होता है. ऐसा ही एक उदाहरण “समझौतापरक जलवायु प्रतिरोधी” आधारभूत ढांचा हो सकता है जहां अतिरिक्त लागत का लाभ तब महसूस नहीं होगा जब कम समय में चरम घटनाएं नहीं होती हैं. अनुकूलता परियोजनाओं जैसे “सामरिक आश्रयस्थल” को ज़्यादा महत्व नहीं मिलने का कारण लंबा समय और अप्रत्यक्ष असर है. तीसरा, निजी क्षेत्र वित्त पोषण करते हुए लाभ की दरों को देखता है जो अक्सर “सार्वजनिक भलाई” जैसे कि अनुकूलता की परियोजनाओं के वित्त पोषण को व्यवहारिक निवेश नहीं मानता है. कॉप27 में अनुकूलता की परियोजनाओं के वित्त पोषण की दिशा में विकासशील देशों की आवाज़ को सुने जाने का एक कारण ऊपर बताई गई वजहें हैं.

हरित परिवर्तन की नई रूप-रेखा

हरित परिवर्तन को सिर्फ़ ऊर्जा बदलाव के न्यूनीकरण के नज़रिये से नहीं देखा जा सकता है. बल्कि ये अधिक समग्र होने की आवश्यकता है: इसे हरित अर्थव्यवस्था में कायापलट के रूप में देखा जाना चाहिए जिसमें जलवायु अनुकूल बेहतरीन जीवन आवश्यक होगा. इसका क्या मतलब है? इसका अर्थ है दीर्घ स्तर से व्यक्तिगत स्तर तक समग्र परिवर्तन. 2021 के संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (UNFCCC COP26) में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वैश्विक जलवायु कार्रवाई की सोच के साथ किसी व्यक्ति के मानवीय व्यवहार को जोड़ने के लिए मिशन लाइफ की घोषणा की. इसके तहत “एक जन आंदोलन के माध्यम समेत संरक्षण और संयम की परंपराओं एवं मूल्यों पर आधारित एक स्वस्थ और टिकाऊ जीने की राह” आवश्यक होगी. भारतीय संदर्भ में ये बदलाव हरित परिवर्तन की नई रूप-रेखा के समान है. इसका मतलब हैआधुनिक समाज में हमारे चलताऊ ढंग के उपभोक्तावाद, जिसमें ख़पत का ऊंचा स्तर होता है, से पीछे हटना. दूसरी तरफ़, ख़पत भारत में विकास को बढ़ाने वाली प्रमुख चीज़ है. इस तरह की परिस्थितियों में आर्थिक रूप से बढ़ते एक देश में, जो वितरण और ग़रीबी की चुनौतियों का भी सामना कर रहा है, ये आवश्यक हो जाता है कि विकास से जुड़ी चुनौतियों से पार पाने के लिए परिवर्तन का वित्त पोषण एक उचित ढंग से होना चाहिए.

इसलिए, यहां पर महत्वपूर्ण चिंता ये है कि हमें हरित परिवर्तन का समर्थन करने के लिए ज़्यादा समग्र विचार की भी आवश्यकता है. विकासशील देशों के लिए हरित परिवर्तन का रास्ता बिना क़ीमत चुकाए तो छोड़िए बल्कि वास्तव में बेहद ‘महंगा’ है जो उनकी विकास की आवश्यकताओं की क़ीमत पर भी हो सकता है. ये सभी चिंताएं बातचीत की मेज पर पर्याप्त ढंग से रखी जानी चाहिए लेकिन हरित परिवर्तन और हरित वित्त- दोनों की फिर से व्यापक रूप-रेखा वाले दृष्टिकोण के साथ. क्या ये कॉप27 का परिणाम होगा या फिर ये एक महत्वाकांक्षी सोच बनी रहेगी?

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