Published on Jan 11, 2021 Updated 0 Hours ago

भारत में बच्चों को शहरी निर्माण और शहरों से संबंधित नीतियों के केंद्र में नहीं रखा जा रहा है. अब वह समय आ गया है हम भारत के लिए एक शहरी बाल विकास नीति का निर्माण करें.

शिशुओं, नन्हे बच्चों और केयरगिवर्स के नज़रिए से 95 सेंटीमीटर शहरों का निर्माण

साल 2021 में, भारत अपने 20 से अधिक शहरों को रूपांतरित करने और पुनर्नियोजित करने का लक्ष्य रखेगा, ताकि इन शहरों को तीन साल की उम्र यानी लगभग तीन फीट या लगभग 95 सेंटीमीटर की ऊंचाई के बच्चों के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सके. अक्सर यह देखा गया है कि खेलने के स्थान या बग़ीचे का फर्नीचर इत्यादि बड़े बच्चों के लिए बनाया जाता है और पैदल चलने वालों के रास्ते या फुटपाथ शिशुओं और उन्हें ले जाने वाले प्रैम के लिए अनुकूलित नहीं होते हैं. बच्चे, शहरों के विकास के केंद्र में नहीं हैं, क्योंकि सभी नीतियां वयस्कों के लिए और उन्हें ध्यान में रखकर ही बनाई जाती हैं.

यह योजना यानी नया विचार शहरों को अपने नज़रिए को बदलने के लिए प्रेरित करने और शहरी जीवन को बच्चों व शिशुओं के लिए आसान बनाने की दिशा में अग्रसर है. इसके अंतर्गत शिशुओं की ज़रूरतों को शामिल करना, जब तक वह पांच साल की उम्र तक न पहुंच जाएं, शामिल है. 

आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय (Ministry of Housing and Urban Affairs-MOHUA) ने इसे एक चुनौती के रूप में स्वीकार करते हुए इस योजना के तहत ‘नर्चरिंग नेबरहुड्स’ नाम की पहल की है, जो एक कोशिश है शिशुओं, उनकी देखभाल करने वालों और नन्हे बच्चों यानी टॉडलर्स (infants, caregivers, toddlers-ICT) के लिए सुगम यानी चाइल्ड फ्रेंडली शहरों को बनाना. इस के तहत 20 अलग अलग पायलट योजनाओं को मंज़ूरी दी जाएगी, जिनके अंतर्गत शहरों की स्थानिक योजनाओं, सार्वजनिक स्थानों और उनसे जुड़े परिदृश्यों, गलियों की बनावट, इनसे संबंधित बजट, सार्वजनिक गतिशीलता और सामुदायिक तौर पर लोगों के बीच व्यवहार की संभावनाओं के माध्यम से नई रणनीतियां व हस्तक्षेप सुझाए जाएंगे. यह चुनौती स्मार्ट सिटी मिशनों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि नगर निकायों, परिवहन प्राधिकरणों और राज्य क्षेत्रीय विकास प्राधिकरणों सहित एजेंसियों के लिए भी है. अभी के लिए, यह मिशन उन प्रस्तावों को आमंत्रित कर रहा है, जो फरवरी 2021 से कार्यान्वयन के चरणों में आगे बढ़ेंगे. यह योजना यानी नया विचार शहरों को अपने नज़रिए को बदलने के लिए प्रेरित करने और शहरी जीवन को बच्चों व शिशुओं के लिए आसान बनाने की दिशा में अग्रसर है. इसके अंतर्गत शिशुओं की ज़रूरतों को शामिल करना, जब तक वह पांच साल की उम्र तक न पहुंच जाएं, शामिल है.

साल 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, भारत की 9.7 प्रतिशत आबादी चार वर्ष की आयु के नवजात शिशुओं के आयु वर्ग में थी, जिस का मतलब है कि भारत में बच्चों की संख्या लगभग 97 मिलियन है. यह योजना, शहरों को बच्चों और उनकी देखभाल करने वालों को केंद्र में रख कर विकसित करने और निर्माण संबंधी गतिविधियों को बच्चों के नज़रिए से सोचने के लिए प्रोत्साहित करती है, ताकि एक ख़ाका तैयार किया जा सके और फिर उन मुद्दों, चुनौतियों और संभावित रणनीतियों की पहचान की जा सके, जिन पर काम किया जाना ज़रूरी है. इस योजना के अगले चरण में, आस पड़ोस और रिहाइशी इलाकों में स्थानीय हितधारक तैनात किए जाएंगे जिन का काम होगा देखभाल करने वालों की ज़रूरतों को समझना और इन लोगों के साथ परामर्श करना. हमारे दृष्टिकोण और सोचने समझने के तरीकों में यह बेहद ज़रूरी बदलाव अपने आस पास व पड़ोस के स्तर पर बदलाव के साथ शुरू होगा, जहां बच्चों और उनकी देखभाल करने वालों के अनुकूल सड़कों और सार्वजनिक स्थानों के साथ-साथ बुनियादी ढांचे की कनेक्टिविटी को भी बढ़ावा दिया जाएगा ताकि वह नन्हे बच्चों (टॉडलर्स) की ओर उन्मुख हों. इस के अलावा यह योजना अंततः चिकित्सा सेवाओं, आपात स्थिति की तैयारियों और महामारी जैसी किसी परिस्थिति की तैयारी के साथ खत्म होगी, ताकि सभी लोगों तक समग्र रूप से इन की पहुंच सुनिश्चित की जा सके.

योजनाओं को अमल करने से पहले ज़रूरत सुनिश्चित करें

इससे पहले कि इस तरह की कोई भी योजना अमल में आए, पहला क़दम है यह सुनिश्चित करना कि किसी विशेष इलाके में छोटे बच्चों की संख्या और देखभाल करने वालों की संख्या क्या है, वे कहां जाते हैं, वे क्या करते हैं, वहां तक कैसे पहुंचते हैं, उन के आस पास मौजूद पार्क कौन से हैं, स्वास्थ्य सेवा केंद्र, प्लेस्कूल, चाइल्ड केयर केंद्र और शॉपिंग स्टोर जो उनकी ज़रूरतों को पूरा करते हैं वह कैसे हैं, और किन हालात में हैं. इस के बाद इस योजना के तहत बालकों के प्रति अनुकूलता यानी उनके चाइल्ड फ्रेंडली होने की रणनीति का विस्तार होगा और इसे सार्वजनिक परिवहन सेवाओं तक बढ़ाया जाएगा यह देखने के लिए वह किस हद तक बच्चों व शिशुओं के अनुकूल हैं. यह शहरों में असमानताओं को चिह्नित करने में मदद करने की दिशा में महत्वपूर्ण होगा. इस के अलावा आर्थिक और सामाजिक रूप से भिन्न व कमज़ोर क्षेत्रों में अलग तरह की रणनीतियों को अपनाना होगा ताकि समावेशिता और समग्रता को बढ़ावा दिया जा सके. यह बच्चों के अनुकूल शहरी मानचित्र बनाने, आवाजाही के रास्तों को उनके हिसाब से डिज़ायन करने और उन जगहों की पहचान करने में भी मदद करेगा जो सभी आयामों में बच्चों के लिए सुरक्षित हैं.

ऐसे डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म बनाने की भी आवश्यकता होगी जो देखभाल करने वालों के साथ बातचीत करेंगे और उन्हें उन विभिन्न सुविधाओं और गतिविधियों के बारे में जानकारी देंगे जो उनके इलाकों और पड़ोस में मौजूद हैं या नई रणनीति के तहत उपलब्ध करवाई गई हैं.

एक बार ये बुनियादी अध्ययन हो जाने के बाद, बच्चों की संवेदनशीलता के आधार पर इन पर नए सिरे से विचार किया जाएगा. यह देखा जाएगा कि कौन सी मौजूदा योजनाएं इस तरीके को अपनाती हैं. इस के आधार पर योजनाकार अपनी आवश्यकताओं को निर्धारित करने के लिए व्यवहारपरक वैज्ञानिकों (behavioural scientists) और स्थानीय नेटवर्क के साथ मिल कर काम करेंगे. इन में से कुछ मामले ऐसे होंगे जिन में आवश्यक हस्तक्षेप अपनी प्रकृति में छोटे हों और हो सकता है कि उन्हें लागू करने के लिए बहुत अधिक धन की आवश्यकता नहीं हो. ऐसे में एक बुनियादी नियम यह हो सकता है कि यदि युवा बच्चों की आबादी कुल आबादी का लगभग 10 प्रतिशत है, तो हर पहलू में एक समान बजट आवंटित किया जा सकता है. इस मायने में एक उदाहरण है रॉटरडैम जिस ने कम आय वाले इलाकों में अपने खुले स्थानों, पहुंच और यातायात मार्गों को सुधारने और इसे बच्चों के अनुकूल बनाने के लिए लगभग 18 मिलियन अमरीकी डालर ख़र्च किए.

इनमें से कई हस्तक्षेपों के तहत कुछ मूलभूत नीतिगत परिवर्तनों को लाने की ज़रूरत भी हो सकती है, और अधिकारियों को यह पता लगाना होगा कि यह क़दम क्या हो सकते हैं. इस के साथ ही ऐसे डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म बनाने की भी आवश्यकता होगी जो देखभाल करने वालों के साथ बातचीत करेंगे और उन्हें उन विभिन्न सुविधाओं और गतिविधियों के बारे में जानकारी देंगे जो उनके इलाकों और पड़ोस में मौजूद हैं या नई रणनीति के तहत उपलब्ध करवाई गई हैं. साल 2017 में, तेल अवीव शहर ने, डिजिटैफ़ (Digitaf) नाम से एक योजना को लॉन्च किया, जिसका अर्थ है टॉडलर्स के लिए डिजिटल; यह आपको ऑनलाइन डॉक्टर की मौजूदगी के बारे में जानकारी हासिल करने और उनके साथ अपॉंटमेंट बुक करने की सुविधा देता है, इस के अलावा आपको मुफ़्त सेवाओं या रियायती उत्पादों और यहां तक कि बच्चों के लिए होने वाले आयोजनों की भी जानकारी देता है.

अल्बानिया के तिराना शहर ने अपनी व्यवस्था को बाल-सुलभ बनाने के लिए एक 360-डिग्री आयाम व योजना अपनाई है, यानी रणनीतियों, योजनाओं और शहरी निर्माण के हर पक्ष में बच्चों के नज़रिए को ध्यान में रखा जाता है. इसकी शुरुआत स्थानीय प्राधिकरण द्वारा 2015 में एक खेल का मैदान बनाने के लिए जगह हासिल करने की कोशिश के जवाब में हुए भारी विरोध प्रदर्शन के साथ हुई. साल 2020 में अब इस शहर में 200 से अधिक खेल के मैदान हैं, यह शहर इस सिद्धांत पर काम करता है कि बच्चों के अनुकूल होने वाले शहर वह हैं, जो बच्चों के अधिकारों को बढ़ावा देते हैं और बच्चों को उन निर्णयों में अधिक से अधिक बात कहने और भागीदार बनने की छूट देते हैं, जो उन्हें सब से अधिक प्रभावित करते हैं. यह “बच्चों के लिए नगर परिषद” बनाने जैसे सकारात्मक कामों को बढ़ावा देते हैं, जहां युवा प्रतिनिधि मेयर से मिलते हैं, निर्णयों व रणनीतियों पर बहस करते हैं और अपने निष्कर्षों को वापस स्कूल तक ले जाते हैं ताकि औपचारिक रूप से इन्हें प्राधिकरण व सरकार के सामने रखा जा सके. अब, इस दिशा में एक और क़दम बढ़ाते हुए एक मुख्य शहरी बाल विकास अधिकारी नियुक्त किया गया है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि तिराना न केवल और विकसित हो, बल्कि बच्चों को सकारात्मक रूप से प्रभावित करने वाले ए विचारों के आधार पर विकसित हो.

भुवनेश्वर शहर बना उदाहरण 

भले ही यह चुनौती भारत में एक नई पहल को बढ़ावा देगी, लेकिन कुछ शहरों ने पहले ही इस दिशा में क़दम बढ़ा दिए हैं. जबकि पुणे और उदयपुर ने अपने कुछ खुले स्थानों और पैदल मार्गों के लिए कुछ बाल-अनुकूल संशोधन किए हैं, भुवनेश्वर शहर ने दूसरे भारतीय शहरों के लिए आगे का मार्ग प्रशस्त करते हुए एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया है जो इन शहरों के लिए एक बेहतरीन ख़ाका साबित हो सकता है. भुवनेश्वर ने एक शहरी ज्ञान केंद्र (Bhubaneswar Urban Knowledge Centre-BUKC) की स्थापना की है, जो पूरी तरह से शहर को बाल-उन्मुख व बाल अनुकूल बनाने के लिए समर्पित है. शहर की योजनाओं और डिज़ाइनों को तय करने की प्रक्रिया में बच्चों की राय शामिल की गई है और उन्हें अपनी बात रखने की पूरी छूट प्रदान की गई है. इस रणनीति के तहत भुवनेश्वर शहर की पहली बाल-सुलभ विकास योजना साल 2040 में पेश की जाएगी. इसने बच्चों के लिए एक शहर की एक वेबसाइट भी बनाई है और स्कूलों के पास पेलिकन (पैदल यात्रियों द्वारा नियंत्रित) ट्रैफिक सिग्नल लगाए हैं. यह बच्चों द्वारा उपयोग किए जाते हैं.

यह सुनिश्चित करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि प्रारंभिक बाल विकास पर भी इसी तरह ज़ोर दिया जाए, यानी तब जब भारत के सबसे युवा नागरिकों के मस्तिष्क का विकास हो रहा हो और वह जीवन को कुशल रूप से जीने संबंधित ज़रूरी हुनर सीख रहे हों.

पिछले कुछ सालों में यह देखा गया है कि भारत अपनी युवा जनसंख्या और युवाओं की शक्ति के बारे में प्रचार करता रहा है, और बात ठीक भी है, यह देखते हुए कि एक भारतीय की औसत उम्र फिलहाल 29 साल है. लेकिन जनसंख्या के इस तबके पर ध्यान करते हुए, जो संख्या के हिसाब से भारत में मौजूद आबादी का लगभग 64 फीसदी है, यह सुनिश्चित करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि प्रारंभिक बाल विकास पर भी इसी तरह ज़ोर दिया जाए, यानी तब जब भारत के सबसे युवा नागरिकों के मस्तिष्क का विकास हो रहा हो और वह जीवन को कुशल रूप से जीने संबंधित ज़रूरी हुनर सीख रहे हों. अब वह समय आ गया है जब हम 20 पायलट शहरों से इतर इस तरह की सोच को व्यापक रूप से अमल में लाते हुए देखना चाहते हैं, और भारत के लिए एक ऐसी बाल नीति का निर्माण शुरू कर सकते हैं, जो पूरे देश को 95-सेंटीमीटर की ऊंचाई से यानी बच्चों के नज़रिए से देखती है.

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