-
CENTRES
Progammes & Centres
Location
चीन की चुनौती को संभालने की इच्छा रखने वाले गठबंधन की क्षमता और इंडो-पैसिफिक क्षेत्र पर ध्यान बनाए रखने पर सवाल खड़े हो गए हैं.
ये लेख रायसीना एडिट 2022 श्रृंखला का हिस्सा है.
महामारी की वजह से वैश्विक व्यवस्था में आई रुकावट के दौरान यूक्रेन संकट के झटकों ने कम–से–कम सोच के मामले में एक महत्वपूर्ण शिकार किया है. भू–राजनीतिक धारणाओं की नाज़ुकता उजागर हो गई है. चीन की चुनौती को संभालने की इच्छा रखने वाले गठबंधन की क्षमता और इंडो–पैसिफिक क्षेत्र पर ध्यान बनाए रखने पर सवाल खड़े हो गए हैं. ये दुर्भाग्यपूर्ण है, इसलिए नहीं कि ये सच है बल्कि ये विरोधियों के विमर्श के अनुसार है जो धारणा से जुड़े मतभेदों को तुरंत प्रतिबद्धता और सर्वसम्मति में दरार की तरह पेश करता है.
इस धारणा को इंडो–पैसिफिक में रोकने की आवश्यकता है क्योंकि ये क्षेत्र चीन के द्वारा लगातार दादागीरी को देखते हुए मामूली से बदलाव को लेकर भी संवेदनशील है. चिंता की बात है कि ये ‘सहयोग के व्यवहार’ का एलान करने वाले समझौते पर भी आघात करता है जो नये ज़माने के युद्ध के साथ पर्यायवाची मानी जाने वाली ग़लत जानकारी के तूफ़ान को झेलने में भी मदद करता है. पश्चिमी देशों के मीडिया के एक हिस्से के द्वारा यूक्रेन युद्ध को लेकर भारत के स्वतंत्र रुख़ की आलोचना इसका एक उदाहरण है.
ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न में बैठक हुई तो भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने सफ़ाई दी: “हम (भारत) किसी उद्देश्य के लिए हैं, किसी के ख़िलाफ़ नहीं है.”
कुछ विश्लेषकों के द्वारा “या तो आप हमारे साथ हैं या हमारे ख़िलाफ़” वाले एजेंडे से जो प्रतिकूल संदेश आ रहा है, उसने सभी पक्षों के द्वारा बंद दरवाज़े के पीछे मतभेदों को सुलझाने की कोशिशों में हुई प्रगति को ख़त्म कर दिया है. उदाहरण के लिए, जब फरवरी में क्वॉड्रिलैटरल सुरक्षा संवाद (क्वॉड) के देशों के विदेश मंत्रियों की ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न में बैठक हुई तो भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने सफ़ाई दी: “हम (भारत) किसी उद्देश्य के लिए हैं, किसी के ख़िलाफ़ नहीं है.” वास्तव में क्वॉड के सदस्य देशों समेत पश्चिमी देशों ने भले ही भारत को रूस के क़दमों पर आपत्ति जताने के लिए कहा हो लेकिन उन्होंने भारत की बदलती स्थिति के साथ सहानुभूति व्यक्त की है. भारत ने इसका जवाब हिंसा रोकने, इस मानवीय संकट को राजनीति से दूर रखने की मांग के साथ दिया और ख़बरों के मुताबिक़ रूस के कहने पर एक प्रस्ताव का सह–प्रायोजक बनने से इनकार कर दिया.
लेकिन इस संकट ने भारतीय विदेश नीति की ग़लत व्याख्या की स्थायी कमज़ोरी को उजागर कर दिया. पहला, विश्व की राजनीति में भारत के द्वारा चरम सामरिक और राजनीतिक व्यवहार से परहेज करने की कवायद को स्वीकार करने में ये शोरगुल असमर्थ है. दूसरा, ये उस वैचारिक स्पष्टता की कमी को प्रकट करता है कि भारत कैसे अपनी सामरिक स्वायत्तता की कार्यप्रणाली का उपयोग करता है. किसी औज़ार को नया रूप देकर चयनात्मक नैतिकता के ऊंचे धरातल के साथ भारत के सामरिक विकल्पों को बढ़ाना ठीक नहीं है. जैसा कि अतीत में देखा गया है, भारत जब–जब अपने राष्ट्रीय हितों को मज़बूत करने की कोशिश करता है तो अक्सर विश्व की राय उसके ख़िलाफ़ हो जाती है. तीसरा, “एक साथ लेकिन समझौते का साथी नहीं” की चेतावनी, जो ये जानकारी देती है कि कैसे भारत की सामरिक साझेदारी का संचालन होना चाहिए, उसे समझने और मुख्यधारा में लाने की आवश्यकता है. जब भारत समकालीन चुनौतियों, जिनमें चीन को संभालना शामिल है, पर वैश्विक शक्तियों के साथ शामिल होता है और यूक्रेन संकट के बाद आगे बढ़ता है तो ये मूलभूत सिद्धांत भारत के दृष्टिकोण के लिए सही है. महत्वपूर्ण रूप से ये बताता है कि पश्चिमी देश और उनके सहयोगी चीन की एकतरफ़ा कार्रवाई पर लगाम लगाने की कोशिश में भारत को किस तरह उपयोगी पाते हैं लेकिन इसके साथ–साथ गठजोड़ में शामिल नहीं होने वालों के हितों के संबंध में विविधता को भी स्वीकार करते हैं– जैसे कि अतीत में रूस या ईरान.
जब भारत समकालीन चुनौतियों, जिनमें चीन को संभालना शामिल है, पर वैश्विक शक्तियों के साथ शामिल होता है और यूक्रेन संकट के बाद आगे बढ़ता है तो ये मूलभूत सिद्धांत भारत के दृष्टिकोण के लिए सही है.
इस प्रकार जो देश एक क्षेत्रीय संरचना तैयार करना चाहते हैं, उनके लिए इस तरह का संदेश प्रतिकूल है. इसकी पहली वजह ये है कि भारत की बदलती स्थिति को साफ़ तौर पर बताया गया है– जिसमें फंसे हुए भारतीय छात्रों को जल्दी से बाहर निकालने, रूस के हथियारों और पुर्जों पर भारत की निर्भरता, भारत की ऊर्जा आवश्यकता का ध्यान रखना पड़ा या संयुक्त राष्ट्र महासभा में भारत की वोटिंग के पैटर्न के पीछे ये औचित्य था. भारत के बारे में भला–बुरा कहने वाले कुछ पश्चिमी देशों के विमर्श में अतिशयोक्ति के पीछे जो जाल बुना गया है, वो अक्सर अपने पक्षपात में चयनात्मक होता है और वैश्विक प्रतिस्पर्धा एवं मुक़ाबले के वैचारिक पहलू की सबसे बड़ी विशेषता के ख़तरे पर अपनी आंतरिक चर्चा को कमज़ोर बनाते हैं.
दूसरी वजह ये है कि इस संदेश पर इंडो–पैसिफिक के कई विकासशील देश, जो पहले से ही किसी का पक्ष लेने को लेकर घबराए हुए हैं, निगरानी रख रहे हैं. इसके अलावा ये उस भरोसे को भी खोखला करता है जो अलग–अलग देशों को दी जाने वाले क्षमता निर्माण की कवायद के लिए समानता और व्यक्तिगत प्रतिनिधित्व की गारंटी देता है. अगर इस अशांत क्षेत्र को विश्वास दिलाना है कि इंडो-पैसिफिक का दृष्टिकोण सकारात्मक है, दो विकल्पों पर आधारित नहीं है, तो हमें इस पर खरा उतरना होगा. वास्तविकता ये है कि इंडो–पैसिफिक में प्रमुख साझेदारों के बीच सहयोग को लगातार प्राथमिकता दी जा रही है और इस गति को बनाए रखने की आवश्यकता है.
अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति 2022 में दोहराया गया है कि यूक्रेन संकट के बावजूद चीन से नज़र हटाने के लिए अमेरिका तैयार नहीं था. निष्पक्षता से कहें तो भारत के साथ मौजूदा/कथित हताशा के बावजूद इस दस्तावेज़ में भारत को इंडो–पैसिफिक क्षेत्र के लिए अमेरिका की योजना के केंद्र में रखा गया है, भारत को क्वॉड को आगे ले जाने वाले के रूप में बताया गया है. वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर भारत की चुनौतियों को लेकर संवेदनशीलता दिखाते हुए इसमें भारत को “क्षेत्रीय विकास के लिए एक इंजन” का श्रेय दिया गया है, जो कि इंडो–पैसिफिक में सामरिक नतीजों की रचना में उपयुक्त था. इसी तरह भारत के दृष्टिकोण से चीन को लेकर लक्ष्मण रेखा बनी हुई है. चीन के विदेश मंत्री के द्वारा भारत से संपर्क साधने की कोशिश की गई लेकिन समाधान नहीं निकला. वैसे तो चीन के विदेश मंत्री के भारत दौरे का उद्देश्य नये गठबंधन की संभावना का संकेत देना था लेकिन भारत ने साफ़ कर दिया कि जब तक एलएसी पर हालात ठीक नहीं होते तब तक सामान्य स्थिति बहाल नहीं हो सकती.
वैसे तो चीन के विदेश मंत्री के भारत दौरे का उद्देश्य नये गठबंधन की संभावना का संकेत देना था लेकिन भारत ने साफ़ कर दिया कि जब तक एलएसी पर हालात ठीक नहीं होते तब तक सामान्य स्थिति बहाल नहीं हो सकती.
यूक्रेन को लेकर नाटक के बावजूद दुनिया के अलग–अलग देशों के बड़े नेताओं के द्वारा भारत की यात्रा करना इस बात को साबित करता है कि इंडो–पैसिफिक सहयोग महत्वपूर्ण बना हुआ है. भारत–ऑस्ट्रेलिया शिखर वार्ता को लेकर भारतीय विदेश सचिव के द्वारा दिया गया ब्यौरा इस बात पर प्रकाश डालता है कि “दोनों देशों के नेताओं की बेहद स्पष्ट सोच है कि यूक्रेन की स्थिति का इंडो–पैसिफिक पर असर नहीं पड़ना चाहिए और इंडो–पैसिफिक पर क्वॉड और दोनों देशों का ध्यान और प्राथमिकता पहले की तरह बने रहना चाहिए.” ऑस्ट्रेलिया के साथ अंतरिम मुक्त व्यापार समझौता, जिसका उद्देश्य पांच वर्षों में द्विपक्षीय व्यापार को 45 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंचाना है, या भारत में जापान के द्वारा पांच वर्षों में 42 अरब अमेरिकी डॉलर के निवेश का लक्ष्य ऐतिहासिक शिखर वार्ताओं के बाद घोषित किया गया. ये समझौते महत्वपूर्ण हैं क्योंकि दोनों देश पहले से ही सप्लाई चेन के लचीलेपन की पहल और भारत के नेतृत्व वाली इंडो–पैसिफिक समुद्री पहल में भारत के साझेदार हैं जिनका उद्देश्य क्षेत्रीय सप्लाई चेन को फिर से स्थापित करना, निवेश आकर्षित करना और अच्छे बुनियादी ढांचे का निर्माण है. इसी तरह, हाल ही में आयोजित अमेरिका–भारत 2+2 संवाद दिखाता है कि लोगों की सोच के बावजूद दोनों पक्ष द्विपक्षीय संबंधों में महत्वपूर्ण नतीजे के लिए एक क़दम आगे बढ़ाने को तैयार हैं, दोनों देश दक्षिण एशिया में राजनीतिक और आर्थिक उथल–पुथल को प्राथमिकता देते हैं और इंडो–पैसिफिक सहयोग की फिर से पुष्टि करते हैं.
महामारी के बाद पूरे विश्व में आर्थिक बहाली की रफ़्तार धीमी है. ये रफ़्तार यूक्रेन संकट के दौरान ऊर्जा और कमोडिटी की क़ीमत में बढ़ोतरी के कारण और सुस्त हो गई है. इसे देखते हुए ये महत्वपूर्ण है कि बोझ को साझा करना बढ़ाया जाए. जहां तक बात इंडो–पैसिफिक सहयोग की बुनियाद की है तो इसमें राहत के लिए रूप–रेखा मौजूद है. इनका उदाहरण तीन विशेष रुझानों में दिया गया है: मुद्दा आधारित गठबंधन जो कि काम से आगे बढ़ता है, जहां इन विन्यासों का लचीलापन एक सामरिक संपत्ति बनी हुई है; समान विचारधारा वाले देशों के द्वारा द्विपक्षीय और बहुपक्षीय प्रारूप को ढंकने में मिलकर काम करना; और चीन के मुक़ाबले व्यावहारिक विकल्प देने में अलग–अलग देशों की क्षमता के निर्माण पर ध्यान देकर कोशिश करना. सर्वसम्मति महत्वपूर्ण है क्योंकि इंडो–पैसिफिक “एक बड़ा और जटिल क्षेत्र है” जिसे ऐसे देशों की ज़रूरत है जो “बुनियाद बनाने के लिए तैयार हों.”
बड़ी-बड़ी बातों के बावजूद इंडो-पैसिफिक सहयोग की आर्थिक रूप-रेखा की कमी है. संसाधनों की मजबूरी को देखते हुए भारत को सामरिक साझेदारों को साथ लाने की ज़रूरत पड़ेगी और पड़ोस के संकट से निपटने के रास्तों को तलाशना पड़ेगा.
यूक्रेन संकट के फैलने के साथ ये दृष्टिकोण उन चुनौतियों के लिए सही है जिनका सामना इस समय इंडो–पैसिफिक के देश कर रहे हैं. बड़ी-बड़ी बातों के बावजूद इंडो-पैसिफिक सहयोग की आर्थिक रूप-रेखा की कमी है. संसाधनों की मजबूरी को देखते हुए भारत को सामरिक साझेदारों को साथ लाने की ज़रूरत पड़ेगी और पड़ोस के संकट से निपटने के रास्तों को तलाशना पड़ेगा. आकार या आर्थिक रूप से चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के बराबर बिल्ड बैक बेटर वर्ल्ड या यूरोप के ग्लोबल गेटवे प्रोजेक्ट की तरह कनेक्टिविटी की पहल भारत की योजना के साथ मिलती है. विकासशील देशों के लिए ये कागज़ों पर ठोस दिखाई देते हैं क्योंकि ये ज़्यादा पारदर्शिता और बुनियादी ढांचे के निवेश के लिए हरित विकल्प की पेशकश करते हैं. तब भी इन्हें लागू करने और “नेताओं के बीच इनकी गूंज” का रास्ता तलाशने का काम, ख़ास तौर से जहां पहले ही बीआरआई मौजूद है, एक चुनौती बना हुआ है.
दूसरा, मानक परिस्थिति, ख़ास तौर पर क्वॉड देशों के बीच, बनाते समय एक “डिजिटल साइनोस्फेयर” यानी पूर्वी एशियाई सांस्कृतिक क्षेत्र के मुक़ाबले का घोषित लक्ष्य कहना आसान है, करना मुश्किल. जानकार बताते हैं कि ये मुश्किल काम है क्योंकि प्राथमिक तकनीकी मुद्दों पर विविधता जैसे कि सीमा पार डाटा का फ्लो, डाटा की प्राइवेसी, भुगतान, डिजिटल टैक्सेशन, प्रतियोगिता, और ई–कॉमर्स का मुद्दा सुलझाना अभी भी बाक़ी है.
इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में भौतिक उत्पाद तय करेंगे कि चीन की चुनौती को संभालने में सर्वसम्मति कितनी सफल साबित होती है और क्या सहयोग की आदत बनाने की कोशिश टिकाऊ होगी.
ये तो कुछ उदाहरण हैं लेकिन बड़ी बात बनी हुई है कि इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में भौतिक उत्पाद तय करेंगे कि चीन की चुनौती को संभालने में सर्वसम्मति कितनी सफल साबित होती है और क्या सहयोग की आदत बनाने की कोशिश टिकाऊ होगी. यूक्रेन संकट इस बात को प्रकाश में लाता है कि विदेश नीति के कैलकुलेशन में सर्वसम्मति, यहां तक कि चीन को लेकर भी, एक चल रहा काम है. भू–राजनीतिक सोच कमज़ोर है और लेन–देन वाले संबंध के युग में ये वैश्विक कूटनीति को बंधक बना सकती है. चीन से जुड़ी सर्वसम्मति को पटरी पर बनाए रखने के लिए न सिर्फ़ इस गति को बरकरार रखने की ज़रूरत होगी बल्कि यूक्रेन युद्ध के बाद की विश्व व्यवस्था में फिर से भरोसे की भी आवश्यकता होगी.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.
Shruti Pandalai is an Associate Fellow Manohar Parrikar Institute for Defence Studies and Analyses India
Read More +