Published on Apr 08, 2023 Updated 0 Hours ago

वैश्विक रूप से रोगाणु-रोधी प्रतिरोध का ख़तरा बढ़ता जा रहा है, इसकी रोकथाम के लिए नीतियों और इस हिसाब से तैयार हस्तक्षेपों को अपनाए जाना ज़रूरी हो गया है.

अस्थिर व्यवस्थाओं में रोगाणु-रोधी प्रतिरोध (AMR) से संघर्ष: चुनौतियां और क़ामयाबी की राह!

वैश्विक स्तर पर सार्वजनिक स्वास्थ्य के सामने रोगाणु-रोधी प्रतिरोध (AMR) का ख़तरा बढ़ता जा रहा है. आकलनों के मुताबिक 2050 तक इसके चलते सालाना 1 करोड़ मौतें हो सकती है. इस ख़तरे की सकल आर्थिक लागत तक़रीबन 100 खरब अमेरिकी डॉलर होने की आशंका जताई गई है. एंटीबायोटिक्स का दुरुपयोग और ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल, AMR के मुख्य वाहकों में से एक है. इससे बैक्टीरिया के प्रतिरोधी स्वरूपों का उभार हो सकता है. ये मसला ख़ासतौर से विकासशील देशों में चिंता का सबब बना हुआ है, जहां ऐसे एंटीबायोटिक्स अक्सर बिना डॉक्टर की पर्ची के दवाई की दुकानों पर मिल जाते हैं. नाज़ुक आबादियों (ख़ासतौर से बच्चों) में एंटीबायोटिक्स का अनुचित इस्तेमाल इस समस्या को और विकराल बना देता है. 

एंटीबायोटिक्स का दुरुपयोग और ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल, AMR के मुख्य वाहकों में से एक है. इससे बैक्टीरिया के प्रतिरोधी स्वरूपों का उभार हो सकता है. ये मसला ख़ासतौर से विकासशील देशों में चिंता का सबब बना हुआ है

वैश्विक और राष्ट्रीय स्तरों पर AMR से निपटने की क़वायद में पहचानी गई कुछ चुनौतियां ये हैं: 

  1. बच्चों में एंटीबायोटिक्स का नामुनासिब इस्तेमाल: बच्चों के लिए लिखी जाने वाली सबसे आम दवाओं में एंटीबायोटिक्स शुमार हैं. हालांकि, अनेक प्रकार के संक्रमणों के पीछे वायरस का हाथ होता है, जिनसे निपटने के लिए एंटीबायोटिक्स की दरकार ही नहीं होती. इसके बावजूद एंटीबायोटिक्स का धड़ल्ले से प्रयोग किया जाता है. दवाओं के तौर पर बार-बार सुझाए जाने और अनुचित इस्तेमाल के चलते एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया का उभार हो सकता है. हाल ही में एक अध्ययन से पता चला था कि चिकित्सा व्यवस्था की बाह्य रोगी संरचना (OPD) में बच्चों को सुझाई जाने वाले 41 प्रतिशत एंटीबायोटिक्स ग़ैर-ज़रूरी या नामुनासिब थे.
  2. नए एंटीबायोटिक्स के विकास में कमी: पिछले कुछ दशकों में नए एंटीबायोटिक्स के विकास की प्रक्रिया सुस्त पड़ गई है और इस वक़्त विकास के चरण में कुछ नए एंटीबायोटिक्स ही हैं. ऐसे में एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया के नए स्वरूपों से लड़ने की क़वायद मुश्किल हो जाती है. 
  3. एंटीबायोटिक्स के प्रबंधन में चतुराई का अभाव: एंटीबायोटिक्स का प्रबंधन उनके ज़िम्मेदार उपयोग से जुड़ा होता है. इसके ज़रिए उनके असर को सुरक्षित रखा जा सकता है. ऐसे में स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के लिए अपनी क्लिनिकल प्रैक्टिस में एंटीबायोटिक्स परिचारक प्रबंधन से जुड़ी क़वायद में चतुराई के साथ वरीयता बनाना अहम हो जाता है. इससे जीवन बचाने वाली इन दवाइयों की निरंतर प्रभाविता सुनिश्चित हो सकेगी. 

ज़ाहिर तौर पर रोगाणु-रोधी प्रतिरोध के ख़िलाफ़ जंग में एक अहम वरीयता है- उम्र के हिसाब से उपयुक्त एंटीबायोटिक्स का विकास करना, जो प्रभावी होने के साथ-साथ बच्चों के लिए सुरक्षित भी हों. इस ज़रूरत की प्रतिक्रिया में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने वैश्विक और राष्ट्रीय स्तरों पर शोध और विकास से जुड़ी कई वरीयताओं को सामने रखा है:

शोध और विकास के क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर उम्र के हिसाब से उपयुक्त तीन मुख्य प्राथमिकताएं तय की गईं. पहला, इंसानों और जानवरों, दोनों में रोगाणु-रोधी प्रयोग और प्रतिरोध की निगरानी के लिए टोही प्रणालियों को मज़बूत करना. इस तरह इंसानों और जानवरों- दोनों में ज़िम्मेदार रूप से रोगाणु-रोधी तत्वों के प्रयोग को बढ़ावा दिया जा सकता है. दूसरा, बच्चों के शरीर के भीतर एंटीबायोटिक्स दवाओं की गति और गतिविधियों (pharmacokinetics) के साथ-साथ दवा के आणविक, जैव रासायनिक और शारीरिक प्रभावों या क्रियाओं के अध्ययन (pharmacodynamics) से जुड़ी समझ का विस्तार किए जाने की ज़रूरत है. इस सिलसिले में उम्र के हिसाब से उपयुक्त ख़ुराक तैयार करना और दवाओं के इस्तेमाल की रणनीतियां बनाना अहम हो जाता है. ख़ासतौर से बच्चों के लिए तैयार किए गए एंटीबायोटिक्स का विकास भी अनुसंधान का एक अहम क्षेत्र है. इस क़वायद के ज़रिए समूची जनसंख्या में एंटीबायोटिक्स का प्रभावी और सुरक्षित प्रयोग सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी. आख़िरकार सूत्रीकरण के हिसाब से ऐसे मौजूदा एंटीबायोटिक्स की उपलब्धता बढ़ाए जाने की दरकार है, जो बच्चों के लिए उपयुक्त हैं. हक़ीक़त ये है कि वर्तमान में वयस्कों के लिए आम तौर पर इस्तेमाल में आने वाले कई एंटीबायोटिक्स, बच्चों के लिए उपयुक्त सूत्रीकरण में उपलब्ध नहीं है. इससे प्रभावी चिकित्सा मुहैया कराने की क़वायद मुश्किल हो जाती है.

राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे तमाम पहलू हैं जहां उम्र के हिसाब से उपयुक्त एंटीबायोटिक्स की उपलब्धता और प्रयोग में सुधार लाए जाने की दरकार है. सबसे पहले बच्चों में एंटीबायोटिक के इस्तेमाल से जुड़े नियमन सुधारे जाने की ज़रूरत है. इस प्रक्रिया में दवाइयों की पर्चियां लिखने के मुनासिब तौर-तरीक़ों को बढ़ावा देना और दवा की दुकानों पर बिना पर्ची के ख़रीद-बिक्री की प्रथा की रोकथाम करना शामिल है. दूसरा, बच्चों के प्रयोग में आने वाले एंटीबायोटिक्स की गुणवत्ता और सुरक्षा में सुधार लाया जाना चाहिए. आख़िरकार निम्न और मध्यम आय वाले देशों में उम्र के हिसाब से उपयुक्त एंटीबायोटिक्स की उपलब्धता और पहुंच को सुधारना बेहद ज़रूरी है. कई उपायों के ज़रिए इसे हासिल किया जा सकता है. इनमें आपूर्ति श्रृंखलाओं में सुधार लाना, क़ीमतें कम करना और स्थानीय स्तर पर एंटीबायोटिक्स के उत्पादन को बढ़ावा देना शामिल हैं.

शिक्षा जगत, उद्योग और सरकार के बीच गठजोड़ से उनकी अनोखी शक्तियों और संसाधनों को एकजुट किया जा सकता है. इस तरह उम्र के हिसाब से मुनासिब एंटीबायोटिक्स के विकास का रास्ता साफ़ हो सकता है

शिक्षा जगत, उद्योग और सरकार के बीच गठजोड़ से उनकी अनोखी शक्तियों और संसाधनों को एकजुट किया जा सकता है. इस तरह उम्र के हिसाब से मुनासिब एंटीबायोटिक्स के विकास का रास्ता साफ़ हो सकता है. मिसाल के तौर पर, उपेक्षित रोगों के लिए औषधि पहल (DNDi) के तहत एक नए एंटीबायोटिक के विकास के लिए तमाम भागीदारों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया गया. इस क़वायद से फ़ेक्सिनिडाज़ोल नाम का एक नया एंटीबायोटिक विकसित किया गया. अफ़्रीका में टी. बी. गैंबियनीज़ (जिसे स्लीपिंग सिकनेस के नाम से भी जाना जाता है) के शिकार बच्चों के इलाज के लिए अब इसका प्रयोग किया जा रहा है. इस दिशा में एक और उदाहरण है- नवाचारयुक्त औषधि कार्यक्रम (IMI), जो सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की भागीदारी वाली पहल है. इसमें नई दवाओं और टीकों के विकास में तेज़ी लाने की दिशा में काम किया जाता है. इसके तहत कई परियोजनाओं का वित्त-पोषण किया गया, जिनका लक्ष्य बच्चों के लिए नए एंटीबायोटिक्स का विकास करना था. इनमें DRIVE-AB परियोजना भी शामिल है, जिसमें एंटीबायोटिक विकास के लिए नवाचारयुक्त मॉडल्स तैयार किए जाने पर ज़ोर दिया गया.   

सामुदायिक अभियान: स्वास्थ्य के क्षेत्र में समानता की राह दिखाने वाले ढांचे का इस्तेमाल कर हम AMR के मसले का निपटारा कर सकते हैं. समुदायों को जोड़कर और उनकी ख़ास ज़रूरतों के हिसाब से तैयार हस्तक्षेपों को अमल में लाकर इस क़वायद को अंजाम दिया जा सकता है. इससे स्वास्थ्य के मोर्चे पर बराबरी को बढ़ावा देने और नाज़ुक आबादियों पर AMR के बोझ को घटाने में सहायता मिल सकती है. इस ढांचे को क्रियान्वित करने के कुछ तरीक़े इस प्रकार हैं: (1) जागरूकता बढ़ाना; (2) एंटीबायोटिक्स के उपयुक्त प्रयोग को बढ़ावा देना; (3) सामुदायिक जुड़ावों को प्रोत्साहित करना; (4) संक्रमण की रोकथाम और नियंत्रण को बढ़ावा देना; (5) अनुसंधान और विकास में मदद करना; (6) बहु-क्षेत्रीय गठजोड़ और भागीदारी का पोषण करना.  

G20 और IBSA की भूमिका 

रोगाणु-रोधी प्रतिरोध की रोकथाम के जंग में G20 और IBSA (भारत, ब्राज़ील और दक्षिण अफ़्रीका) एक अहम भूमिका निभा सकते हैं. बहुपक्षीय समूह सभी आयु वर्गों में संक्रमणों की चिकित्सा के लिए असरदार एंटीबायोटिक्स की मौजूदगी सुनिश्चित कर सकते हैं. इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए ये समूह कई क़वायदों को अंजाम दे सकते हैं. इनमें ज़रूरी कोष में बढ़ोतरी करना, निजी क्षेत्र के निवेश को प्रोत्साहित करना, ज़िम्मेदारीपूर्ण उपयोग को बढ़ावा देना, निगरानी और टोही व्यवस्था को मज़बूत बनाना, अंतरराष्ट्रीय गठजोड़ को पोषित करना और नीतियों को तैयार और विकसित करना शामिल हैं. मिसाल के तौर पर हाल के वर्षों में भारत रोगाणु-रोधी प्रतिरोध से दो-दो हाथ करने के लिए कई क़दम उठाता आ रहा है. देश में AMR पर एक राष्ट्रीय कार्ययोजना तैयार की गई है. इसमें जागरूकता बढ़ाने, संक्रमण पर क़ाबू पाने की क़वायद सुधारने और उत्तरदायी रूप से एंटीबायोटिक्स के इस्तेमाल को बढ़ावा देने से जुड़ी नीतियों की रूपरेखा सामने रखी गई है. भारत ने रोगाणु-रोधी प्रतिरोध की रोकथाम के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम स्थापित किया है. इसके तहत देश में प्रयोगशाला-आधारित AMR निगरानी प्रणाली गठित की गई है, ताकि रोगाणु-रोधी प्रतिरोध पर गुणवत्तापूर्ण आंकड़े तैयार किए जा सकें. इससे प्रतिरोधी बैक्टीरिया के प्रसार पर पैनी नज़र रखी जा सकेगी और उनकी मौजूदगी की पड़ताल मुमकिन होगी. इसके अलावा सरकार ने स्वास्थ्य कर्मियों के लिए एक अभियान की भी शुरुआत की है. इसका मक़सद इन पेशेवरों तक ये संदेश पहुंचाना है कि वो एंटीबायोटिक्स लेने की तभी सलाह दें जब ऐसे करना निहायत ज़रूरी हो. साथ ही इलाज के उपयुक्त दिशानिर्देशों का पालन करने पर भी ज़ोर दिया गया है. भारत ने एंटीबायोटिक्स की बिक्री और वितरण पर नियंत्रण के लिए कई नियमनों को भी लागू किया है. दवा दुकानों पर बग़ैर पर्ची के एंटीबायोटिक्स की बिक्री पर रोक से जुड़ा नियम भी इनमें शामिल है. ब्राज़ील और दक्षिण अफ़्रीका ने भी AMR से निपटने के लिए कई क़दम उठाए हैं. दोनों ही देशों ने AMR पर अपनी राष्ट्रीय कार्ययोजनाएं तैयार कर ली है. इसमें निगरानी रखने, संक्रमण की रोकथाम और नियंत्रण करने और स्वास्थ्य सेवा कर्मियों को शिक्षित करने के साथ-साथ एंटीबायोटिक्स के उपयुक्त इस्तेमाल पर जन-जागरूकता का प्रसार करने पर ज़ोर दिया गया है.

भारत ने रोगाणु-रोधी प्रतिरोध की रोकथाम के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम स्थापित किया है. इसके तहत देश में प्रयोगशाला-आधारित AMR निगरानी प्रणाली गठित की गई है, ताकि रोगाणु-रोधी प्रतिरोध पर गुणवत्तापूर्ण आंकड़े तैयार किए जा सकें.

ऑस्ट्रेलिया के अस्पतालों में एंटीबायोटिक्स परिचारक कार्यक्रम को अमल में लाया गया है. AMR से जंग में ये एक और ज़रूरी घटक है. इन कार्यक्रमों का लक्ष्य एंटीबायोटिक्स के उपयुक्त प्रयोग में सुधार लाना और प्रतिरोधी बैक्टीरिया के विकास और प्रसार को कम करना है. इसमें कई रणनीतियां जुड़ी होती हैं- जैसे शिक्षा और प्रशिक्षण, निगरानी के साथ-साथ ऑडिट और फ़ीडबैक. इसका उद्देश्य एंटीबायोटिक्स के ज़िम्मेदार प्रयोग को बढ़ावा देना और उसकी प्रभाविता को संरक्षित करना है. विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा उठाए गए कई क़दम वैश्विक स्तर पर AMR से निपटने की दिशा में तालमेल भरे रुख़ का एक और उदाहरण हैं. इनमें रोगाणु-रोधी प्रतिरोध पर चार-पक्षीय समझौता शामिल है. इस पर संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (FAO), पशु स्वास्थ्य पर विश्व संगठन (WOAH), संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने हस्ताक्षर किए हैं. इस समझौते के ज़रिए ये तमाम संगठन पशुपालन में रोगाणु-रोधियों के ज़िम्मेदार प्रयोग को बढ़ावा देने, AMR की पड़ताल करने के लिए निगरानी तंत्रों को मज़बूत बनाने और नए रोगाणु-प्रतिरोधियों के अनुसंधान और विकास में मदद करने की दिशा में मिलकर काम कर रहे हैं. G20 देशों के तमाम क्षेत्रों में तालमेल की क़वायदों के ज़रिए AMR से लड़ने के लिए एक समग्र, गठजोड़कारी रुख़ (बेहतरीन तौर-तरीक़ों का विकास, संसाधनों और विशेषज्ञताओं को साझा करना) तैयार किया जा सकता है. नई प्रौद्योगिकियों और नवाचारयुक्त रणनीतियों में निवेश के समन्वयकारी प्रयासों (जैसे तेज़ी से जांच-पड़ताल करने और फ़ेज थेरेपी सरीख़ी वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों) के ज़रिए AMR के ख़िलाफ़ वैश्विक संघर्ष में और मज़बूती लाई जा सकती है. इन क़वायदों से ना सिर्फ़ इन देशों की आबादियों को फ़ायदा होगा बल्कि इससे वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में भी मदद मिलेगी. साथ ही भावी पीढ़ियों के लिए एंटीबायोटिक्स के प्रभाव को बेरोकटोक आगे बढ़ाया जाना सुनिश्चित हो सकेगा.

सौ बात की एक बात यही है कि रोगाणु-रोधी प्रतिरोध एक पेचीदा समस्या है, जिससे कई कारकों का घालमेल जुड़ा होता है. किसी प्रणाली की चिंतन पद्धति इन कारकों के अंतर-संपर्कों को स्वीकार करती है. इसके लिए बहु-क्षेत्रीय और बहुआयामी प्रतिक्रिया की दरकार होती है. इसके साथ-साथ एक-स्वास्थ्य रुख़, स्वास्थ्य सेवा स्थापनाओं में एंटीबायोटिक्स का ज़िम्मेदार प्रयोग और परिचारक कार्यक्रम भी जुड़े होते हैं. लिहाज़ा, पर्ची लिखने के तौर-तरीक़ों में सुधार लाना, स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं और आम जनता के बीच AMR के ख़तरों के बारे में जागरूकता का प्रसार करना, AMR की निगरानी और टोह लगाना और नए एंटीबायोटिक्स के शोध और विकास की क़वायद में सुधार लाना ज़रूरी हो जाता है. दरअसल इंसानों, पशुओं और वातावरण का स्वास्थ्य आपस में जुड़ा है, और इस बात को समझना बेहद ज़रूरी हो जाता है. इन रणनीतियों के क्रियान्वयन से हम एक ऐसे भविष्य की दिशा में काम कर सकते हैं जिसमें बैक्टीरिया-जनित संक्रमणों के इलाज में एंटीबायोटिक्स प्रभावी बने रहें. इन तमाम उपायों को रोगाणु-रोधी प्रतिरोध की रोकथाम के लिए नीतियां तैयार करने और उस हिसाब से तैयार हस्तक्षेपों को अमली जामा पहनाने के मक़सद से इस्तेमाल में लाया जा सकता है.

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Authors

Helmut Brand

Helmut Brand

Prof. Dr.Helmut Brand is the founding director of Prasanna School of Public Health Manipal Academy of Higher Education (MAHE) Manipal Karnataka India. He is alsoJean ...

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Viola Savy Dsouza

Viola Savy Dsouza

Miss. Viola Savy Dsouza is a PhD Scholar at Department of Health Policy Prasanna School of Public Health. She holds a Master of Science degree ...

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