ये लेख कॉम्प्रिहैंसिव एनर्जी मॉनिटर: इंडिया एंड द वर्ल्ड सीरीज़ का हिस्सा है.
2021-22 में भारत में बिजली की बेतहाशा बढ़ी मांग ने कोयले की मांग को आसमान पर पहुंचा दिया. इस मांग को पूरा करने के लिए सरकार को अपनी आत्मनिर्भरता की नीति के ख़िलाफ़ जाकर बिजली निर्माताओं को कोयले का आयात करने के निर्देश देने पड़े. साथ ही सरकार ने बैंकों को ऐसे बिजली संयंत्रों को वित्तीय सहायता मुहैया कराने के निर्देश दे डाले जिन्हें वित्तीय रूप से अव्यावहारिक या संचालन के लिहाज़ से बेहद पुराना क़रार दिया जा चुका था. इन घटनाक्रमों से दुनिया भर में गर्मी और सर्दी में मौसम के उग्र मिज़ाज से जुड़ी विडंबना उभरकर सामने आती है. माना जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन के चलते इस तरह के हालात देखने को मिल रहे हैं. इससे दुनिया एक बार फिर कोयले के इस्तेमाल के लिए मजबूर हो रही है. हालांकि यही कोयला जलवायु परिवर्तन के मुख्य कारकों में से एक है. इन घटनाक्रमों से भारत में स्वच्छ कोयले के घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने की नीति की समीक्षा जायज़ दिखाई देती है. कार्यकुशल तरीक़े से जलाया गया स्वच्छ कोयला स्थानीय प्रदूषण और कार्बन उत्सर्जन- दोनों में कमी ला सकता है. इस लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में पहला क़दम कोल बेनिफ़िकेशन है.
.भारतीय कोयले के 75 फ़ीसदी से भी ज़्यादा हिस्से में 30 प्रतिशत या उससे भी अधिक राख तत्व होता है. कई जगह तो राख तत्व 50 प्रतिशत तक भी पाया जाता है. भारतीय कोयले को ‘भटके हुए मूल’ वाला माना जाता है. इसमें खनिज तत्व कोयले से जुड़े तत्व के साथ महीन तरीक़े से बिखरा होता है. इसके चलते उत्पत्ति के चरण में ही इसकी गुणवत्ता में भारी गिरावट आ जाती है.
कोल बेनिफ़िकेशन
कोल बेनिफ़िकेशन एक ऐसी प्रक्रिया है जो कोयले के आकार की निरंतरता में सुधार लाती है. इसके तहत कोयले के ग़ैर-दहनशील बाहरी तत्वों और साथ जुड़ी राख को घटाकर कोयले की गुणवत्ता में सुधार लाया जाता है. कोयले से शुष्क रूप से उच्च घनत्व वाले पत्थरों को हटाकर (dry-deshaling) बेनिफ़िकेशन की प्रक्रिया पूरी की जा सकती है. इस प्रक्रिया में बग़ैर कोई तरल माध्यम इस्तेमाल किए ग़ैर-कोयला पदार्थों को हटाया जाता है. तरल प्रक्रिया के ज़रिए भी इस काम को अंजाम दिया जा सकता है. इसमें पहले कोयले को कुचलकर बाद में उसे समायोजन योग्य विशिष्ट भार वाले तरल माध्यमों (आमतौर पर पानी) में डाला जाता है. इस तरह से हल्के कोयले (कम राख तत्व वाले) को भारी कोयले (ऊंचे राख तत्व, ‘छाड़न’) से अलग किया जाता है. हालांकि इन छाड़नों में भी कोयला या कार्बनयुक्त तत्व होता है, लिहाज़ा इनका आर्थिक रूप से इस्तेमाल किए जाने की ज़रूरत होती है.
भारतीय कोयले के 75 फ़ीसदी से भी ज़्यादा हिस्से में 30 प्रतिशत या उससे भी अधिक राख तत्व होता है. कई जगह तो राख तत्व 50 प्रतिशत तक भी पाया जाता है. भारतीय कोयले को ‘भटके हुए मूल’ वाला माना जाता है. इसमें खनिज तत्व कोयले से जुड़े तत्व के साथ महीन तरीक़े से बिखरा होता है. इसके चलते उत्पत्ति के चरण में ही इसकी गुणवत्ता में भारी गिरावट आ जाती है. खनिज तत्व में राख एक अहम हिस्सा होता है. ये फ़्री ऐश के विपरीत आंतरिक राख होती है जो कोयले के दहनशील हिस्से के साथ जुड़ी होती है. यही वजह है कि इसे आसानी से दूर नहीं किया जा सकता. भारत में कोल बेनिफ़िकेशन की प्रक्रिया की ये एक बड़ी चुनौती है.
फ़ायदे
उच्च गुणवत्ता वाले कोयले का इस्तेमाल करने वाले बिजली संयंत्रों का प्रदर्शन निम्न-गुणवत्ता वाला कोयला इस्तेमाल करने वाले संयंत्रों के मुक़ाबले बेहतर होता है. आम तौर पर कोयले में राख तत्व जितना ज़्यादा होगा, कोयले की प्रत्येक इकाई के भार के साथ कोयले की गरमाहट देने की ताक़त उतनी कम होगी. राख तत्व की मात्रा कम करने से कोयले की दहनशीलता (heating value) बढ़ जाती है. लिहाज़ा बिजली की एक निश्चित मात्रा/गुणवत्ता के उत्पादन के लिए कम मात्रा में कच्चा कोयला जलाने की दरकार पड़ती है. कम राख वाले कोयले का इस्तेमाल संयंत्र संचालकों के लिए भी फ़ायदेमंद होता है. ऐसे में उन्हें जमा हुई राख को हटाने के लिए रखरखाव के तयशुदा और बग़ैर तयशुदा कार्यक्रमों में कमी लाने में आसानी होती है. कम राख वाले कोयले से संयंत्र के डक्टवर्क में लगने वाले ज़ंग में भी कमी लाई जा सकती है. ग़ौरतलब है कि ज़ंग लगने से संयंत्र का जीवनकाल घट जाता है.
.बिजली निर्माण के लिए कोयले का इस्तेमाल करने वाले देशों में भारत को एक ख़ास मुकाम हासिल है. भारत में खदानों से कोयले को काफ़ी दूर तक ढोकर बिजली घरों तक पहुंचाया जाता है. पर्यावरण पर इसका नुक़सानदेह असर पड़ता है. रेलवे प्रणाली द्वारा ढोए जाने वाले अतिरिक्त भार से अर्थव्यवस्था पर अतिरिक्त लागत का बोझ पड़ता है. साथ ही परिवहन व्यवस्था के ज़रिए वायु प्रदूषण में भी इज़ाफ़ा होता है.
कम राख वाला कोयला, संयंत्र में कोयले का संचालन करने वाले सभी उपकरणों की टूटफूट को भी कम कर सकता है. इनमें कन्वेयर्स, पल्वेराइज़र्स, क्रशर्स और भंडारण शामिल हैं. ज़्यादा राख वाले कोयले के इस्तेमाल से संयंत्र पर बोझ बढ़ जाता है. इससे प्लांट के संचालन के लिए प्लांट साइट ऊर्जा की मात्रा बढ़ जाती है. इससे बिजली निर्माण के लिए ऊर्जा की उपलब्धता घट जाती है. नतीजतन प्लांट की संचालन लागत बढ़ जाती है और मुनाफ़ा कमाने की संभावनाएं घटती चली जाती हैं.
कुल मिलाकर बेनिफ़िकेशन से संयंत्र का कामकाज सुधरता है. इससे दीर्घकाल में सीधे तौर पर कोयला प्लांट की मुनाफ़ा कमाने की क्षमता प्रभावित होती है. साथ ही पर्यावरण से जुड़े जुर्मानों और विवादों को टालने की क़ाबिलियत भी सुधरती है. ये उत्सर्जन नियंत्रक उपकरणों का जीवनकाल भी सुधारती है. कोयले में मौजूद ज़्यादातर राख दहन प्रक्रिया के ज़रिए आगे बढ़ती है. इसे उत्सर्जन नियंत्रक उपकरणों के ज़रिए हासिल किया जाता है. इसमें इलेक्ट्रोस्टैटिक प्रिसिपिटेटर्स जैसे उपकरण शामिल हैं. धुले हुए कोयले के इस्तेमाल से इन उपकरणों द्वारा उत्पन्न और जमा की गई राख की मात्रा घट जाती है. इससे इन उपकरणों का उपयोगी जीवनकाल बढ़ जाता है.
बिजली निर्माण के लिए कोयले का इस्तेमाल करने वाले देशों में भारत को एक ख़ास मुकाम हासिल है. भारत में खदानों से कोयले को काफ़ी दूर तक ढोकर बिजली घरों तक पहुंचाया जाता है. पर्यावरण पर इसका नुक़सानदेह असर पड़ता है. रेलवे प्रणाली द्वारा ढोए जाने वाले अतिरिक्त भार से अर्थव्यवस्था पर अतिरिक्त लागत का बोझ पड़ता है. साथ ही परिवहन व्यवस्था के ज़रिए वायु प्रदूषण में भी इज़ाफ़ा होता है. ढुलाई की लंबी दूरियों को देखते हुए कम राख वाले कोयले से समान ऊर्जा तत्व वाले कारक के परिवहन की मालढुलाई लागत में कमी आएगी. भारत में अब भी सवारी और माल ढुलाई के लिए एक ही पटरी का इस्तेमाल हो रहा है. विकसित देशों में इन दोनों कार्यों के लिए अलग-अलग पटरियां इस्तेमाल में लाई जाती हैं. सवारी और मालढुलाई के बीच रफ़्तार के अंतर से भारतीय रेल नेटवर्क की क्षमता कुंद पड़ती है. कोयले की आवाजाही क़रीब एक दर्ज़न रेलमार्गों में केंद्रित है. इससे रेल नेटवर्क में भीड़-भाड़ और जाम के हालात और गंभीर हो जाते हैं.
नियामक रूपरेखा
कोयला खदान (राष्ट्रीयकरण) अधिनियम, 1973 में 1993 में संशोधन किया गया. इसके ज़रिए निजी और सार्वजनिक क्षेत्र- दोनों के लिए अपने मातहत इस्तेमाल होने वाले कोयले के खनन की इजाज़त दी गई. इन मक़सदों में लोहा और स्टील उत्पादन, बिजली निर्माण, खदान से हासिल कोयले की धुलाई और अंतिम इस्तेमाल की वैसी बाक़ी क़वायदें शामिल हैं जिन्हें समय-समय पर सरकार द्वारा अधिसूचित किया जाएगा. नीति-निर्माताओं ने पिछले तीन दशकों में भारत की पंचवर्षीय योजनाओं में कोल बेनिफ़िकेशन की ज़रूरत की तस्दीक़ की है. इसी कड़ी में उन्होंने निम्न-क्षमता उपयोग के लिए कुछ वजहों की पहचान भी की. मिसाल के तौर पर 10वीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002) के मुताबिक कोकिंग कोल की वॉशिंग क्षमता का ज़रूरत के मुताबिक इस्तेमाल नहीं हो सका है. इसकी वजह ये है कि भारत में कोयले की गुणवत्ता धुलाई के लिहाज़ से उसे घाटे का सौदा बना देती है. साथ ही ये भी कहा गया कि कोकिंग कोल की धुलाई करने वाले मौजूदा संयंत्रों की संरचना इस तरह से बनाई गई है जिससे अपेक्षाकृत आसान से लेकर थोड़ी मुश्किलों भरी ‘धुलाई क्षमता’ वाले कोकिंग कोल का बेनिफ़िकेशन आसान हो सके. हालांकि कोयले उत्पादन अब ‘धुलाई में मुश्किल’ कोयले की ओर मुड़ गया है. 10वीं योजना के दस्तावेज़ में इस बात को रेखांकित किया गया है कि भले ही धुलाई संयंत्रों की स्थापना से जुड़ी क़वायद अब निजी क्षेत्र के लिए खोल दी गई है लेकिन ‘वहां इस काम का बीड़ा उठाने वाला कोई नहीं था.’ 11वीं योजना (2007-2012) में ये जानकारी मिली की कोयले की धुलाई से पारंपरिक तौर पर कोयले के चूर्ण का दहन करने वाली भट्टियों को बेरोकटोक आपूर्ति सुनिश्चित हो सकेगी. इससे कार्यकुशलता में 1 प्रतिशत का सुधार हो सकेगा. इसमें चेताया गया कि खनन से हासिल चूरण का उत्पादक रूप से इस्तेमाल हुए बिना धुलाई क्षमता में बढ़ोतरी से कच्चे कोयले की मांग में उसी हिसाब से बढ़ोतरी होगी.
2014 में मंत्रालय ने खदान से 500-749 किमी की दूरी पर स्थित 100 मेगावाट से ज़्यादा क्षमता वाले बिजली संयंत्रों के लिए एक नई अधिसूचना जारी की. इसके मुताबिक इन संयंत्रों के लिए ऐसे कच्चे या मिश्रित या गुणकारी कोयले की आपूर्ति होगी जिसमें जून 2016 से औसत तिमाही आधार पर राख तत्व 34 प्रतिशत से ज़्यादा ना हो.
1997 में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने एक अधिसूचना जारी की. इसके तहत खदानों से 1000 किमी दूर या शहरी और संवेदशनशील इलाक़ों में स्थित सभी बिजली संयंत्रों पर 34 फ़ीसदी से ज़्यादा कोल राख तत्वों वाले कोयले के इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई. ये पाबंदी 2001 से प्रभाव में आई. 2012 में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने 12 प्रदूषणकारी तत्वों के लिए राष्ट्रीय परिवेशी वायु गुणवत्ता मानक (NAAQS) का नए सिरे से निर्धारण किया. 2014 में मंत्रालय ने खदान से 500-749 किमी की दूरी पर स्थित 100 मेगावाट से ज़्यादा क्षमता वाले बिजली संयंत्रों के लिए एक नई अधिसूचना जारी की. इसके मुताबिक इन संयंत्रों के लिए ऐसे कच्चे या मिश्रित या गुणकारी कोयले की आपूर्ति होगी जिसमें जून 2016 से औसत तिमाही आधार पर राख तत्व 34 प्रतिशत से ज़्यादा ना हो. इसके साथ ही सभी नए कोयला संयंत्रों के लिए अत्याधुनिक तकनीक के इस्तेमाल को अनिवार्य बना दिया गया. मौजूदा 144 संयंत्रों के लिए अनिवार्य कार्यकुशला लक्ष्य तय कर दिए गए. इसके लिए उच्च गुणवत्ता वाले कोयले के इस्तेमाल की दरकार होगी.
कोल बेनिफ़िकेशन को प्रोत्साहन
कोयले की धुलाई को लेकर तकनीकी फ़ायदे और नीतिगत हस्तक्षेप दो दशकों से भी ज़्यादा वक़्त से मौजूद हैं. इसके बावजूद कोयला उत्पादकों और प्रयोगकर्ताओं (ख़ासतौर से बिजली निर्माताओं) द्वारा इसे बड़े पैमाने पर स्वीकार नहीं किया गया. 2020-21 में धुले हुए कोयले (कोकिंग और नॉन-कोकिंग) का उत्पादन 22.951MT या कच्चे कोयले के कुल उत्पादन (716.083MT) का महज़ 3 प्रतिशत था. इनमें से तक़रीबन 20 प्रतिशत कोकिंग कोल और बाक़ी नॉन-कोकिंग कोल था. धुलाई की कुल क्षमता 29.98MT थी, जिसका मतलब ये था कि क्षमता के हिसाब से उपयोग क़रीब 75 प्रतिशत था. सार्वजनिक क्षेत्र की वॉशरियों से धुले हुए कोयले के कुल उत्पादन का 83 प्रतिशत हिस्सा हासिल होता था. ऐसे में आसार यही हैं कि अगर बेनिफ़िकेशन को बढ़ावा देने वाली नीतियों में अनिवार्यताओं की बजाए प्रोत्साहनों पर ज़्यादा ज़ोर दिया जाए तो धुले हुए कोयले की मांग में भारी बढ़ोतरी आएगी.
कुल मिलाकर भारत में और ज़्यादा ऊर्जा सुरक्षा और पर्यावरण के बचाव के लिए कोल बेनिफ़िकेशन क्षमता और स्वच्छ कोयले के इस्तेमाल का विस्तार हो रहा है. हालांकि, ये क़वायद तकनीकी या नियामक नियम पालना से जुड़ा सवाल न होकर एक आर्थिक समस्या अधिक जान पड़ती है. वॉशरिज़ की स्थापना को प्रभावित करने वाले नीतिगत दिशानिर्देशों में आर्थिक व्यावहारिकता की बजाए पर्यावरण के मोर्चे की अनुकूलता को प्राथमिकता दी गई. इस कड़ी में नियम पालना से जुड़ी लागत पर ध्यान नहीं दिया गया. ये क़वायद मौजूदा हक़ीक़तों से परे हैं. ग़ौरतलब है कि कोयला खनन और बिजली निर्माण से जुड़ी मूल्य श्रृंखला के हरेक खंड में वाणिज्यिक और बाज़ार ताक़तों का प्रभाव बढ़ता जा रहा है. बिजली निर्माताओं पर बिजली दरों के स्तर को स्थिर बनाए रखने के लिए निर्माण लागत पर अंकुश लगाने का दबाव है. हालांकि इसके साथ ही उनसे प्रदूषण कम करने के लिए तकनीक में निवेश करने की उम्मीद भी की जाती है. दूसरे शब्दों में उनसे निजी निवेश (जिसको वो वापस हासिल नहीं कर सकते) की क़ीमत पर सार्वजनिक वस्तु (जैसे स्वच्छ हवा) के उत्पादन की आस लगाई जाती है. इस बात की संभावना ना के बराबर है कि किसी तरह के प्रोत्साहन की मौजूदगी के बिना धुलाई की क्रिया स्वैच्छिक आधार पर की जाएगी. इस कड़ी में नवीकरणीय ऊर्जा के लिए सार्वजनिक कोष की मदद की उपलब्धता की मिसाल ले सकते हैं.
कोयले की धुलाई के पर्यावरणीय लाभ और ज़्यादा हो सकते हैं. ये लाभ बिजली निर्माताओं तक हस्तांतरित किए जा सकते हैं. जिससे उन्हें धुले हुए कोयले के इस्तेमाल के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है. कुल मिलाकर नीतियों को टेक्नोलॉजी और ईंधन के मोर्चे पर निरपेक्ष होना चाहिए. इस कड़ी में उन तमाम क़वायदों को इनाम मिलना चाहिए जिनसे कार्बन उत्सर्जनों में कमी आती हो.
राष्ट्रीय स्तर पर कोल बेनिफ़िकेशन के आर्थिक और पर्यावरणीय फ़ायदे संयंत्र के स्तर पर वित्तीय बचत के रूप में तब्दील नहीं होते. ऐसे में सार्वजनिक सहयोग को जायज़ ठहराने का तर्क गढ़ा जा सकता है. आमतौर पर कोयले की गुणवत्ता सुधारने (ख़ासतौर से कोयले की धुलाई के लिए) के लिए राष्ट्रीय स्वच्छ पर्यावरण कोष (NCEF) के इस्तेमाल से कोयला नीति को मात्रा से गुणवत्ता की ओर तब्दील करने की क़वायद को बिना किसी लागलपेट के समर्थन हासिल होता है. कोयला धुलाई पर नीति आयोग की 2020 की रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि राख तत्व को घटाकर 30-34 फ़ीसदी तक लाने के लिए कोयले की धुलाई की प्रक्रिया से 0.01-0.02/kWh (किलोवाट-प्रतिघंटा) का पर्यावरणीय लाभ हासिल होता है. इस सिलसिले में परंपरागत मान्यता के हिसाब से कार्बन की क़ीमत तक़रीबन 2.5 अमेरिकी डॉलर प्रति टन रखी जाती है. EU ETS (यूरोपीय संघ उत्सर्जन व्यापार व्यवस्था) में कार्बन की मौजूदा क़ीमत क़रीब 80 अमेरिकी डॉलर प्रति टन है. इसके मायने ये हैं कि कोयले की धुलाई के पर्यावरणीय लाभ और ज़्यादा हो सकते हैं. ये लाभ बिजली निर्माताओं तक हस्तांतरित किए जा सकते हैं. जिससे उन्हें धुले हुए कोयले के इस्तेमाल के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है. कुल मिलाकर नीतियों को टेक्नोलॉजी और ईंधन के मोर्चे पर निरपेक्ष होना चाहिए. इस कड़ी में उन तमाम क़वायदों को इनाम मिलना चाहिए जिनसे कार्बन उत्सर्जनों में कमी आती हो.
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स्रोत: अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी
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