Climate Smart Agriculture: स्थिरता और खाद्य सुरक्षा के लिए क्लाइमेट स्मार्ट कृषि
क्लाइमेट-स्मार्ट एग्रीकल्चर (CSA) एक दृष्टिकोण है जो सतत विकास लक्ष्यों और पेरिस समझौते के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कृषि-खाद्य प्रणालियों को ग्रीन और क्लाइमेट रेजिलियेंट प्रथाओं की ओर बदलने में मदद करता है. जलवायु परिवर्तन पर इंटर गर्वनमेंटल पैनल (IPCC) की विशेष रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु परिवर्तन (Climate Change) ने ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming), बारिश के बदलते पैटर्न और कुदरती घटनाओं के बार-बार होने से खाद्य सुरक्षा को प्रभावित किया है, जिससे फसल की पैदावार प्रभावित हुई है और विकासशील देशों में पशु विकास दर और पशुधन उत्पादकता कम हुई है.
2 बिलियन से अधिक लोग माइक्रो न्यूट्रिएंट डिफिसियेंसी से पीड़ित हैं. कुल मिलाकर देखा जाए तो दुनिया ने सभी तरह के लोगों के लिए सुरक्षित, पौष्टिक और पर्याप्त भोजन उपलब्ध कराने में बहुत कम प्रगति की है.
2050 तक दुनिया की आबादी 9.1 अरब तक पहुंचने का अनुमान है इससे भोजन की मांग में तेजी से वृद्धि होगी, जिससे कृषि भूमि, पशुओं के लिए रेंजलैंड (पहुंच तक की भूमि), उर्वरक और आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों की आवश्यकता में भारी बढ़ोतरी होगी. इस तरह की वृद्धि वैश्विक पर्यावरण के स्वास्थ्य पर असर डालेगी. लगभग 800 मिलियन लोग कुपोषित हैं, 2 बिलियन वयस्क अधिक वजन वाले या मोटे हैं, और 2 बिलियन से अधिक लोग माइक्रो न्यूट्रिएंट डिफिसियेंसी से पीड़ित हैं. कुल मिलाकर देखा जाए तो दुनिया ने सभी तरह के लोगों के लिए सुरक्षित, पौष्टिक और पर्याप्त भोजन उपलब्ध कराने में बहुत कम प्रगति की है. संघर्ष, जलवायु परिवर्तन, कुदरती आपदाएं और आर्थिक मंदी तरक्की के लिए सबसे बड़ी बाधाएं हैं, ख़ासकर असमानता के उच्च स्तर वाले क्षेत्रों में. यह खाई कोरोना महामारी के कारण लगातार बढ़ती ही जा रही है.
2050 तक 10 अरब लोगों को खिलाने के लिए पर्याप्त भोजन नहीं है. बढ़ती विश्व जनसंख्या को खिलाने के लिए 1961 से प्रति व्यक्ति खाद्य आपूर्ति में 30 प्रतिशत से अधिक की बढ़ोतरी दर्ज़ की गई है. नाइट्रोजन खाद के इस्तेमाल में 800 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और सिंचाई के लिए 100 प्रतिशत अधिक पानी का उपयोग किया जा रहा है. हालांकि तेजी से हो रही इस बढ़ोतरी के बावज़ूद, वर्तमान खाद्य उत्पादन अभी भी भूख की समस्या का समाधान करने में सक्षम नहीं है.
उन्नत कृषि तरीक़ों से भी ध्ररती के स्वास्थ्य को लगातार जोख़िम उठाना पड़ रहा है. आधुनिक खेती के तरीक़ेवैश्विक ग्रीनहाउस गैस (जीएचजी) उत्सर्जन का 16-27 प्रतिशत हिस्से के लिए जिम्मेदार हैं, जो मीठे पानी के प्रदूषण, मिट्टी के क्षरण और जैव विविधता के नुकसान को बढ़ाता है. भारत में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कृषि और पशुधन का योगदान 18 प्रतिशत (वैश्विक उत्सर्जन का 7 प्रतिशत) है. खाद्य वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का 26 प्रतिशत और पशुधन (मांस, डेयरी, अंडे) और मत्स्य पालन कुल खाद्य-संबंधित उत्सर्जन के 31 प्रतिशत के लिए ज़िम्मेदार है. मीथेन एक ग्रीनहाउस गैस है जो फर्मेंटेशन, तरल खाद प्रबंधन और ग्रेजिंग (चराई) के दौरान उत्पन्न होती है. फसल पैदावार नाइट्रस ऑक्साइड जैसी ग्रीनहाउस गैसों को पैदा करता है, जो खाद्य उत्सर्जन का 27 प्रतिशत हिस्सा है. कटाई, खाद्य प्रसंस्करण, पैकेजिंग और परिवहन सहित खाद्य आपूर्ति श्रृंखला कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के 18 प्रतिशत हिस्से के लिए ज़िम्मेदार है.
जलवायु परिवर्तन में कृषि का अहम योगदान है और वर्तमान में कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कृषि का योगदान 19-29 प्रतिशत है. सतत कृषि या क्लाइमेट -स्मार्ट कृषि (सीएसए) प्रथाएं एकीकृत दृष्टिकोण हैं जो पशुधन और फसल उत्पादन के लिए जलवायु-अनुकूल तरीक़ों को अपने साथ लाती हैं.
फूड वेस्ट विभिन्न स्रोतों से आता है और प्रत्येक देश की स्थानीय परिस्थितियों के आधार पर यह अलग-अलग होता है. उच्च आय वाले देशों में, सौंदर्य संबंधी प्राथमिकताएं और मनमाने ढंग से ‘सेल बाय डेट्स’ और कटाई के बाद के चरणों के दौरान खाद्य नुकसान को बढ़ावा देता है. इसके विपरीत, कम आय वाले देशों में प्रसंस्करण, वितरण और उपभोग के दौरान खाद्यान्न ख़राब हो जाता है. प्रतिकूल जलवायु परिस्थितियों, बुनियादी ढांचे की कमी और उचित खाद्य भंडारण और रखरखाव के बारे में जानकारी की कमी के कारण भी खाद्यान्न ख़राब हो जाता है. फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन (एफएओ) के अनुसार, प्राकृतिक संसाधनों पर भोजन की बर्बादी का प्रभाव सालाना लगभग 4.4 बिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर होता है. एफएओ ने यह भी पाया कि खपत कुल फूड वेस्ट का केवल 22 प्रतिशत है, भले ही अधिकांश भोजन उपभोग के चरण (कुल का 37 प्रतिशत) के दौरान बर्बाद हो जाता है.
स्वास्थ्य के लिए निहितार्थ
वैश्विक पोषण के जो तीन महत्वपूर्ण अंग हैं, पोषण, स्वास्थ्य और पर्यावरण – ये आपस में घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैंऔर किसी एक का चुनाव दूसरे की क़ीमत पर आता है. वैश्विक मधुमेह प्रसार में 80 प्रतिशत की वृद्धि और नाइट्रोजन उर्वरक उपयोग में 860 प्रतिशत की वृद्धि को आहार से संबंधित स्वास्थ्य और पर्यावरणीय प्रभावों के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है. इसके अलावा मौज़ूदा डायटरी ट्रेंड (आहार के रुझान) दुनिया भर में बीमारियों के बोझ के तीन-चौथाई और आहार संबंधी बीमारियों के वातावरण पर असर में बढ़ोतरी के लिए ज़िम्मेदार हैं. आधुनिक पश्चिमी आहार में स्वास्थ्यवर्धक खाने की चीजें जैसे फल, फलियां, सब्जियां, साबुत अनाज, नट और बीज की कमी है और इसमें प्रोसेस्ड रेड मीट (प्रसंस्कृत लाल मांस), फास्ट फूड और शक्करयुक्त पेय की अधिकता है. ऐसे आहार, जिनमें पौष्टिक खाद्य पदार्थों का प्रचूर मात्रा में इस्तेमाल होता है, कृषि क्षेत्र में परिवर्तन ला रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप मेटाबॉलिक और न्यूट्रिशनल (पोषण) संबंधी बीमारियों और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन की रफ्तार को तेजी में बढाते हैं.
जलवायु परिवर्तन ग्रामीण क्षेत्रों, समुद्री और तटीय पारिस्थितिक तंत्रों, और टेरेस्टिरियल और इनलैंड इकोसिस्टम में आजीविका और आय को प्रभावित करके सबसे कमजोर देशों और लोगों के लिए खाद्य असुरक्षा के जोख़िम को बढ़ाता है. टिकाऊ कृषि प्रणालियों को अपनाने, स्थायी आहार पर ध्यान केंद्रित करने और खाद्य उत्पादन आपूर्ति श्रृंखला के विभिन्न स्तरों पर ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के तरीक़े खोजने से खाद्य प्रणाली की अस्थिरता की समस्या को दूर किया जा सकता है. एक सतत खाद्य प्रणाली (एसएफएस) आर्थिक, सामाजिक, या पर्यावरणीय आधारों को ख़तरे में डाले बिना सभी के लिए खाद्य सुरक्षा और पोषण सुनिश्चित करती है.
जलवायु परिवर्तन में कृषि का अहम योगदान है और वर्तमान में कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कृषि का योगदान 19-29 प्रतिशत है. सतत कृषि या क्लाइमेट -स्मार्ट कृषि (सीएसए) प्रथाएं एकीकृत दृष्टिकोण हैं जो पशुधन और फसल उत्पादन के लिए जलवायु-अनुकूल तरीक़ों को अपने साथ लाती हैं. यह ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने या कार्बन सिक्वेस्ट्रेशन बढ़ाने में मदद करता है. सीएसए दुनिया की बढ़ती आबादी को भी ध्यान में रखता है और सभी के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध है.
2016 की एक समीक्षा में पाया गया कि पश्चिमी आहार के तरीक़ों से ज़्यादा स्थायी आहार पर स्विच करने से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 70 प्रतिशत और पानी के उपयोग में 50 प्रतिशत की कमी आ सकती है. किसी भी देश के कार्बन फुटप्रिंट को कम करने में पहला कदम भोजन की बर्बादी से बचना है. लैंडफिल में फूड वेस्ट टूट जाता है और मीथेन, एक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस पैदा होता है. दूसरा रेड मीट से सफेद मांस जैसे समुद्री भोजन पर स्विच करना या शाकाहारी भोजन पर स्विच करना दुनिया में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को काफी कम कर सकता है. यूनाइटेड किंगडम (यूके) में एक अध्ययन में पाया गया कि ज़्यादा मांस खाने वालों के लिए ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन (केजी सीओ 2 ई प्रति दिन) 7.19 (>= प्रति दिन 100 ग्राम मांस), शाकाहारियों के लिए 3.81 और वेगन लोगों के लिए 2.89 था.
कोरोना महामारी के प्रभाव और नतीजतन खाद्य सुरक्षा और लॉकडाउन के चलते खाद्य प्रणाली पर असर के प्रारंभिक शोध में पाया गया कि भोजन और आजीविका सुरक्षा के लिए मुख्य जोख़िम घरेलू स्तर पर है. महामारी ने उत्पादन, परिवहन और थोक से लेकर खुदरा, खपत से लेकर निपटान तक, खाद्य मूल्य श्रृंखला के हर चरण में समस्याओं को पैदा किया है. इसका खाद्य मूल्य प्रणाली में शामिल लोगों पर भी हानिकारक प्रभाव पड़ा है.
हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भी महामारी और लॉकडाउन के एक जैसे असर को महसूस किया गया. एफएओ की रिपोर्ट है कि मध्यम या गंभीर खाद्य असुरक्षा का प्रसार 2014 में 18.4 प्रतिशत से बढ़कर 2020 में 25.7 प्रतिशत हो गया, जो बेहद आश्चर्यजनक है. यह बढ़ोतरी दक्षिण एशिया में सबसे अधिक स्पष्ट थी, जहां खाद्य असुरक्षा का प्रसार 2019 में 37.6 प्रतिशत से बढ़कर साल 2020 में 43.8 प्रतिशत हो गया.खाद्य असुरक्षा और ग़रीबी पर महामारी का प्रभाव पहले से ही दिखाई देने लगा था. सर्वेक्षण में शामिल दो-तिहाई से अधिक लोगों ने कहा कि उनका जीवन गंभीर रूप से प्रभावित हुआ है, और एक-चौथाई ने कहा कि उनके पास भोजन ही नहीं है. भारत में कुल भारतीय कार्यबल का 42 प्रतिशत से ज़्यादा नौकरियों में है, इसलिए इसकी खाद्य प्रणाली एक बड़ी चिंता का विषय है. एजीमार्केट डेटाबेस में उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर एक रिपोर्ट में पाया गया कि मंडियों (स्थानीय बाज़ारों) या सरकार द्वारा नियंत्रित बाज़ारों के ज़रिए बेचे जाने वाले खाद्य पदार्थ के साथ-साथ जल्दी ख़राब होने वाले खाद्य पदार्थों की क़ीमत गंभीर रूप से प्रभावित हुई है. परिणामस्वरूप, छोटे किसान जिनकी आय कम हो गई है (गिरती क़ीमतों के कारण) वो कोरोना महामारी के दौरान बुरी तरह प्रभावित हुए हैं.
ग्लोबल साउथ के देशों की खाद्य प्रणालियां आम तौर पर जलवायु-परिवर्तन के जोख़िमों के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैंलेकिन उनके पास अपेक्षाकृत कम धन, रिसर्च एंड डेवलपमेंट और पूंजी होती है. छोटे किसानों के लिए सौदेबाजी के कम मौक़े, बुनियादी ढांचे तक पर्याप्त पहुंच की कमी, औरसबसे महत्वपूर्ण, ग्रामीण समस्याओं को दूर करने के लिए मज़बूत संस्थागत ढांचे की कमी, ज़्यादातर विकासशील देशों में ऐसी ही स्थितियां पाई जाती है. यह अनिवार्य रूप से उभरते जलवायु संकट के चलते कृषि विकास में बाधक साबित होता है.
शमन और अनुकूलन
जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन का मतलब होता है बाढ़ और भारी बारिश से पानी की अधिकता और सूखे से पानी की कमी दोनों के लिए लचीलापन बढ़ना. जलवायु परिवर्तन के प्रति लचीलापन बढ़ाने की एक और रणनीति है – एकीकृत कृषि प्रणाली. इसका मतलब यह है कि उत्पादन के एक ही रूप तक सीमित होने के बजाय, खेतों को अलग-अलग तरीक़ों,जैसे फसल और पशुधन, पशुपालन और फॉरेस्ट्री (वानिकी), और अन्य संयोजनों को एकीकृत करने के लिए डिज़ाइन किया जाना चाहिए.
जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन का मतलब होता है बाढ़ और भारी बारिश से पानी की अधिकता और सूखे से पानी की कमी दोनों के लिए लचीलापन बढ़ना.
2021 संयुक्त राष्ट्र खाद्य प्रणाली शिखर सम्मेलन ने वैश्विक समुदाय से खाद्य प्रणालियों को बदलने के लिए वैश्विक प्रयासों और योगदान देने पर ध्यान केंद्रित करने की अपील की है. बढ़ती मांग और खाद्य असुरक्षा की चुनौतियों का सामना करने के लिए हमें टिकाऊ कृषि और किसान आय को बढ़ाने के माध्यम से उत्पादकता में सुधार करने की ज़रूरत है. कृषि-खाद्य क्षेत्र में इनोवेशन और अनुकूलन को जारी रखने के लिए डिजिटल परिवर्तन बेहद अहम है. भविष्य में स्थानीय, राज्य और राष्ट्रीय सहित सभी स्तरों पर प्रतिबद्धता बनाने के साथ-साथ खाद्य प्रणालियों के लचीलापन और स्थिरता को मज़बूत करने के लिए, नीति निर्माताओं को खाद्य प्रणालियों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लिए रणनीति और समाधान पर निवेश करना चाहिए.
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