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Published on Mar 29, 2024 Updated 0 Hours ago

जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए SIDS जो उपाय कर रहे हैं, वो बदलते मौसम के जोखिमों की तुलना में काफ़ी कम हैं. ऐसे में इस चुनौती से निपटने के लिए एक व्यापक नज़रिया विकसित करने में अंतरराष्ट्रीय सहयोग की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है.

छोटे द्वीपीय विकासशील देशों (SIDS) के लिए जलवायु परिवर्तन से निपटने के क़दम

2023 का साल पिछले दो सदियों में दर्ज सबसे गर्म वर्षों में से एक था. तापमान बढ़ने के साथ साथ भयंकर मौसम की घटनाओं जैसे कि हीटवेव, अचानक आने वाली बाढ़ों, सूखे की घटनाओं और जंगल में लगने वाली आग जैसी घटनाओं में भी काफ़ी इज़ाफ़ा होते देखा गया. गर्मी के कारण बेचैनी, समंदर का बढ़ता जलस्तर और गर्माहट, बारिश में अम्लीकरण, ग्लेशियरों और स्थायी तौर पर जमे इलाक़ों की बर्फ़ पिघले और भयंकर मौसम की दूसरी घटनाओं के ज़रिए साफ़ नुमायाँ होता जलवायु परिवर्तन, उन इकोसिस्टम के भविष्य के लिए ख़तरा बनता जा रहा है, जो इस धरती पर जीवन चलाने के लिए ज़रूरी हैं. इस वजह से नुक़सान को सीमित रखने के लिए फ़ौरी और प्रभावी गतिविधियों की ज़रूरत महसूस की जा रही है. विश्व मौसम संगठन (WMO) ने 2024 के विश्व मौसम विज्ञान दिवस की थीम, ‘ऐट दि फ्रंटलाइन ऑफ क्लाइमेट एक्शन’ को चुना है. विश्व मौसम विज्ञान दिवस हर साल 23 मार्च को मनाया जाता है.

इन देशों ने एक साथ मिलकर इस बात को लेकर अपनी चिंता जताई है कि जलवायु परिवर्तन में बेहद कम योगदान देने के बावजूद, उन पर इसका सबसे ज़्यादा दुष्प्रभाव पड़ रहा है. आवाज़ बुलंद करने की वजह से इन देशों की मदद के लिए कई पहलें की गई हैं.

जलवायु परिवर्तन से जुड़ी मौसम के भयंकर बदलाव की घटनाओं की तादाद और उनकी ताक़त में इज़ाफ़ा पिछले कई दशकों के दौरान किए गए सामाजिक आर्थिक विकास के लिए ख़तरा बनता जा रहा है. हालांकि, बड़े भौगोलिक क्षेत्रों की तुलना में इसका सबसे ज़्यादा असर छोटे विकासशील द्वीपीय देशों (SIDS) पर पड़ रहा है, क्योंकि वो दूर-दराज़ के इलाक़ों में स्थित हैं, छोटे हैं और उनका इलाक़ा और आबादी दोनों बिखरे हुए हैं. ये देश अपनी ज़रूरतों के लिए आयात पर निर्भर हैं. विकास में इनकी पहुंच बहुत सीमित है और जलवायु परिवर्तन का असर भी इन देशों पर अलग अलग स्तर पर देखा जा रहा है (Figure 1). वैसे तो SIDS बहुत विविधता वाले देशों का समूह है. लेकिन इन देशों ने एक साथ मिलकर इस बात को लेकर अपनी चिंता जताई है कि जलवायु परिवर्तन में बेहद कम योगदान देने के बावजूद, उन पर इसका सबसे ज़्यादा दुष्प्रभाव पड़ रहा है. आवाज़ बुलंद करने की वजह से इन देशों की मदद के लिए कई पहलें की गई हैं. जैसे कि बारबाडोस प्रोग्राम ऑफ एक्शन (BPOA), मॉरिशस स्ट्रैटेजी, बाली रोडमैप और समोआ पाथवे. Figure 2 में दिखाया गया है कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान समोआ पाथवे के तहत कितना बजट आवंटित किया गया है. इससे पता चलता है कि छोटे द्वीपीय देशों में जलवायु परिवर्तन से निपटने, सामाजिक विकास, आपदा का जोखिम कम करने और समावेशी विकास के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने काफ़ी मात्रा में निवेश किया है. ऐसी पहलों की मौजूदगी और जलवायु परिवर्तन से निपटने में अंतरराष्ट्रीय सहायता में बढ़ोतरी के बावजूद, इन देशों में कुशल प्रशासन, वित्तीय प्रबंधन, जागरूकता और मानव क्षमता की कमियों ने लागू किए जाने वाले उपायों की राह में बाधाएं खड़ी की हैं.

Figure 1: जलवायु परिवर्तन पर IPCC द्वारा चिह्नित किए गए SIDS के आपस में जुड़ने वाले जोखिम

Source: OECD

 

Figure 2: समोआ पाथवे के लक्ष्यों के लिए बजट आवंटन 

Source: United Nations Development Programme (UNDP)—SIDS Portfolio

 

SIDS को लेकर परिचर्चाएं न सिर्फ़ इसलिए ज़रूरी हो जाती हैं कि उन पर जलवायु परिवर्तन का गहरा असर पड़ रहा है, बल्कि इसलिए भी क्योंकि वो विशाल समुद्री क्षेत्रों और संसाधनों के मालिक हैं. मिसाल के तौर पर तुवालु को ही लें, जिसके पास केवल 26 वर्ग किलोमीटर ज़मीनी इलाक़ा है. लेकिन, समंदर में उसका विशेष आर्थिक क्षेत्र (EEZ) 9 लाख वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है. दुनिया भर के महासागरों और समुद्रों के तीस फ़ीसद इलाक़े SIDS के अधिकार क्षेत्र में आने वाले EEZ में पड़ते हैं. इस वजह से छोटे द्वीपीय देशों के पास ब्लू इकॉनमी की अपार संभावनाएं हैं. इसी वजह से बड़े देश खाने और गहरे समुद्र के खनिजों के लिए उनसे साझेदारी करना चाहते हैं. यही नहीं, उनकी सामरिक भौगोलिक स्थिति SIDS को अहम समुद्री मार्गों को खुला बनाए रखने के लिहाज़ से अहम हो जाती है. दुनिया के कई प्रमुख समुद्री मार्ग इन द्वीपीय देशों के आस-पास से होकर गुज़रते हैं. यही वजह है कि उनका समर्थन हासिल करने के लिए बड़े देशों में होड़ मची है, ताकि इन देशों में कारोबारी और सैन्य दोनों ही तरह के जहाज़ों के लंगर डालने और ईंधन लेने की सुविधाएं हासिल की जा सकें. मिसाल के तौर पर हिंद प्रशांत क्षेत्र के SIDS सामरिक रूप से अहम सी-लाइन्स ऑफ कम्युनिकेशन (SLOCS) और प्रमुख संकरे ठिकानों तक आसान पहुंच मुहैया कराते हैं. ऐसे में बड़ी ताक़तों के लिए अपनी समुद्री पैठ बढ़ाने के लिए इन देशों के साथ अच्छे संबंध रखना ज़रूरी हो जाता है. वैसे तो विकसित देश अपने भू-सामरिक और भू-आर्थिक फ़ायदों के लिए इन देशों के साथ साझेदारी करना चाहते हैं. लेकिन, वैश्विक समुदाय को चाहिए कि वो इन द्वीपीय देशों की इस तरह मदद करें, ताकि उनके पास जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम करने, नई परिस्थिति के अनुरूप ढालने के मज़बूत लचीले उपाय मौजूद हों और इनमें से सबसे कमज़ोर देश भी जलवायु परिवर्तन की चुनौती का अच्छे से मुक़ाबला कर सकें.

 पेरिस समझौता, सेंडाई फ्रेमवर्क और IPCC जैसी रूप-रेखाएं और उपाय प्रगतिशील प्रतिक्रियाओं और समाधानों की मांग करते हैं, ताकि जलवायु में उतार चढ़ाव से निपटा जा सके.

संयुक्त राष्ट्र के विकास कार्यक्रम (UNDP) ने मल्टी डायमेंशनल वल्नरेबिलिटी इंडेक्स (MVI) विकसित किया है, जो ये बताता है कि जलवायु परिवर्तन से किसी देश के पर्यावरण, भौगोलिक, आर्थिक और वित्तीय जोखिम है. इसका इस्तेमाल रियायती वित्त की पात्रता तय करने के लिए किया जाता है. Figure 3 में 34 छोटे द्वीपीय देशों की MVI दर्शायी गई है. इससे पता चलता है कि 82 फ़ीसद SIDS जलवायु परिवर्तन के आगे बेहद नाज़ुक स्थिति में हैं. इसके अतिरिक्त, SIDS की नाज़ुक स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए सेहत के आयाम को भी शामिल किया जाना चाहिए, क्योंकि भयंकर दूरगाामी जोखिमों और स्वास्थ्य सेवाओं, खाने और पीने लायक़ पानी तक पहुंच की कमी के कारण, उनके ऊपर जलवायु से जुड़ी बीमारियों का भारी बोझ भी होता है. COP23 में फिजी की अध्यक्षता के दौरान SIDS में जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य को लेकर, संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन सम्मेलन, विश्व स्वास्थ्य संगठन और UN के जलवायु सचिवालय के साथ मिलकर एक विशेष पहल शुरू की गई थी, ताकि इन कमज़ोर देशों में जलवायु परिवर्तन के झटके सह सकने लायक़ स्वास्थ्य व्यवस्था का निर्माण किया जा सके. छोटे द्वीपीय देशों में सेहत की निगरानी के आंकड़ों में मौसम विज्ञान संबंधी सूचना को भी शामिल किए जाने की फ़ौरी ज़रूरत है. क्योंकि, ऐसी जानकारी होने पर इन देशों की सरकारें और अंतरराष्ट्रीय समुदाय स्वास्थ्य के जोखिमों से निपटने के लिए उचित तैयारी और रणनीतियां बनाने पर काम कर सकेंगे. COP28 के दौरान संयुक्त अरब अमीरात की जलवायु और स्वास्थ्य घोषणा में जलवायु परिवर्तन के वैश्विक एजेंडे में स्वास्थ्य की चिंताओं को शामिल किए जाने की ज़रूरत स्वीकार की गई थी. इससे SIDS के लिए पहलों को प्रोत्साहन मिल सकता है.

Figure 3: बहुआयामी कमज़ोरी का सूचकांक

Source: UNDP

 

छोटे द्वीपीय देशों में सेहत को ख़तरे में डालने वाले जलवायु के तुलनात्मक रूप से कहीं अधिक जोखिम से निपटने, ख़ास तौर से उन देशों में जहां स्वास्थ्य सेवाएं बेहद सीमित हैं, उसके लिए प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा (PHC) और सबको सेहत की सुविधा (UHC) के एकीकरण को सुधारने की आवश्यकता है, और इसमें ग़ैर संक्रामक बीमारियों (NCDs) और मानसिक सेहत जैसे स्वास्थ्य के उभरते हुए ख़तरों को भी शामिल किया जाना चाहिए. यही नहीं, SIDS में जलवायु परिवर्तन की वजह से पैदा होने वाली स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं से निपटने के लिए बहुक्षेत्रीय नज़रिया अपनाने की ज़रूरत है. इसके लिए स्वास्थ्य मंत्रालय और दूसरे सेक्टरों की भागीदारी और उनके बीच समझौतों में इज़ाफ़ा किया जाना चाहिए. इसके अतिरिक्त WHO-WMO के संयुक्त जलवायु और स्वास्थ्य कार्यक्रम जैसी पहलों का इस्तेमाल करते हुए जानकारी विकसित करनी चाहिए, ताकि प्रतिबद्ध कर्मचारियों को प्रशिक्षण देकर उन्हें एकजुट किया जा सके, जिससे जलवायु परिवर्तन और भयंकर मौसम के ख़तरों से सेहत को बेहतर बनाते हुए उसे महफ़ूज़ भी किया जा सके. कमज़ोरियों से निपटने और लगातार सेवा के लिए जलवायु परिवर्तन के उतार चढ़ाव से निपटने के लिए छह मूलभूत स्तंभों और विश्व स्वास्थ्य संगठन के ऑपरेशनल फ्रेमवर्क फ़ॉर क्लाइमेट रेज़िलिएंट हेल्थ सिस्टम को भी प्रभावी ढंग से लागू किया जाना चाहिए. हालांकि, इन पहलों की कामयाबी के लिए छोटे द्वीपीय देशों को राजनीतिक, तकनीकी और वित्तीय सहायता देने की ज़रूरत पड़ेगी.

वैसे तो जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय पूंजी धीरे धीरे बढ़ी है. ख़ास तौर से रियायती क़र्ज़ और सहायता की शक्ल में. लेकिन, अब ज़रूरत छोटी पूंजी और बीमा जैसी व्यवस्थाओं की है, जो कोविड-19 जैसे बाहरी झटकों का सामना करने, उसने विपटने और लचीलापन निर्मित करने में मदद कर सकें. इसके अलावा, इन द्वीपीय देशों की घरेलू अर्थव्यवस्थाओं को जलवायु परिवर्तन से होने वाले झटकों से भी सुरक्षित बनाने की ज़रूरत है. छोटी आबादी और दूर ठिकाना होने की वजह से वैश्विक मूल्य संवर्धन श्रृंखला या फिर बड़ी अर्थव्यवस्था से एकीकरण के फ़ायदे से उनकी मौजूदा समुद्री अर्थव्यवस्था के क्षेत्रों के प्रबंधन को बेहतर बनाया जा सकता है. इसके साथ ही साथ नए मौक़ों का फ़ायदा भी उठाया जा सकता है, ताकि अर्थव्यवस्था में विविधता लाई जा सके. मिसाल के तौर पर सेशेल्स में ब्लू इकॉनमी स्ट्रैटेजिक फ्रेमवर्क ऐंड रोडमैप बनाया है, ताकि अपने विशेष आर्थिक क्षेत्र का टिकाऊ तरीक़े से इस्तेमाल कर सके. इसी तरह वित्त की नई व्यवस्थाएं जैसे कि 2018 में शुरू किए गए ब्लू बॉन्ड ने समुद्र और मत्स्य पालन से जुड़ी टिकाऊ परियोजनाओं के लिए पूंजी जुटाई जा सकी है. हालांकि, प्रभावी फ़ैसले लेने के लिए देश और क्षेत्र के स्तरों पर दिशा निर्देशन की जज़रूरत पड़ती है. इस मामले में बहुपक्षीय संगठन आगे आ सकते हैं, ताकि वो भागीदारों की अगुवाई वाली प्रक्रिया को बढ़ावा दे सकें.

आगे की राह 

क्वाड, G20 और पैसिफिक आईलैंड फोरम जैसे बहुपक्षीय संगठन अपनी क्यू-चैम्प, लाइफ (LiFE) और 2050 स्ट्रैटेजी फॉर दि ब्लू पैसिफिक कॉन्टिनेंट जैसी पहलों के ज़रिए अच्छे और प्रासंगिक आंकड़ों तक पहुंच बढ़ाने, मौसम के उतार चढ़ाव को समझने, पूर्वानुमान लगाने और मूलभूत ढांचे के विकास से जुड़ी परिचर्चाएं तेज़ करने में अहम भूमिका अदा करते हैं. वैश्विक समुदाय की मदद से परिवहन के मामले में लचीलापन बढ़ाने से सड़कों, रवने और बंदरगाहों जैसी अहम संपत्तियों को होने वाले नुक़सान और क्षति को कम किया जा सकता है. क्योंकि इन सुविधाओं की संचालन क्षमता बेहतरी और आपदा से उबरने के अभियानों पर भी असर डालती है. ख़तरों का पता लगाने, नाज़ुक संपत्तियों की पहचान करने और संपत्ति की नाकामी का विश्लेषण करने में मदद जैसे कुछ क्षेत्र हैं, जहां अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय सहयोग बहुत महत्वपूर्ण साबित हो सकता है. इसके अलावा, विकसित देश बहुस्तरीय प्रशासन और संस्थागत ढांचों को राजनीतिक प्रतिबद्धता के ज़रिए तालमेल बिठाने में मदद करके जलवायु परिवर्तन से निपटने में प्रभावी सहयोग दे सकते हैं. प्रभावी प्रशासन एक समावेशी, पारदर्शी और समतावादी निर्णय प्रक्रिया विकसित करने और जलवायु वित्त और तकनीक तक पहुंच बनाने में मदद करता है. छोटे द्वीपीय देशों की अगुवाई में बड़े देशों के साथ संपर्क और उत्तरदायी मालिकाना हक़ से अर्थपूर्ण सलाह मशविरे की दिशा में बढ़ा जा सकता है, और इसके साथ साथ तमाम हिस्सेदारों की कुशल भागीदारी भी सुनिश्चित की जा सकती है. 

चूंकि छोटे द्वीपीय विकासशील देश (SIDS) जलवायु परिवर्तन से मुक़ाबले के अग्रणी मोर्चे पर खड़े हैं. पर, उनके द्वारा उठाए जा रहे क़दम बढ़ते जलवायु संबंधी जोखिमों के साथ क़दम ताल नहीं कर पा रहे हैं. तेल के बह जाने, खाने और पानी की सुरक्षा और अवैध, अनियमित और बिना जानकारी के मछली पकड़ने (IUU) जैसी चुनौतियों से भी दूरगामी नज़रिए के साथ निपटने की ज़रूरत है. पेरिस समझौता, सेंडाई फ्रेमवर्क और IPCC जैसी रूप-रेखाएं और उपाय प्रगतिशील प्रतिक्रियाओं और समाधानों की मांग करते हैं, ताकि जलवायु में उतार चढ़ाव से निपटा जा सके. हालांकि, SIDS की अपनी सीमित क्षमताओं की वजह से अंतरराष्ट्रीय सहयोग और समुदाय एक व्यापक नज़रिया विकसित करने, क्षमता निर्माण और ऐसी संगठनात्मक और संस्थागत क्षमताएं विकसित करने में अहम भूमिका अदा करते हैं, जो घरेलू स्तर पर किए जा रहे उपायों की कमियों को दूर कर सकें.

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Authors

Kiran Bhatt

Kiran Bhatt

Kiran Bhatt is a Research Fellow at the Centre for Health Diplomacy, Department of Global Health, Prasanna School of Public Health, Manipal Academy of Higher ...

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Aniruddha Inamdar

Aniruddha Inamdar

Aniruddha Inamdar is a Research Fellow at the Centre for Health Diplomacy, Department of Global Health Governance, Prasanna School of Public Health, Manipal Academy of ...

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Sanjay Pattanshetty

Sanjay Pattanshetty

Dr. Sanjay M Pattanshetty is Head of theDepartment of Global Health Governance Prasanna School of Public Health Manipal Academy of Higher Education (MAHE) Manipal Karnataka ...

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