साल 1962 के क्यूबा मिसाइल संकट के वक़्त दुनिया मुश्किल से पूर्व सोवियत संघ और अमेरिका के बीच परमाणु युद्ध से बच पाई थी. उसके बाद से कई अन्य देशों ने परमाणु हथियार बना लिए हैं. ख़ासकर वे देश जो अक्सर एक दूसरे के आमने-सामने रहते हैं. इसमें सब से अहम हैं भारत और पाकिस्तान. हालांकि, प्रासंगिक सवाल यह है कि आधिकारिक तौर पर नौ देशों के पास परमाणु हथियार होने के बावजूद दुनिया क्यों अभी तक परमाणु युद्ध से बची हुई है? इस सवाल का जवाब अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांतों के अनुसार ‘परमाणु निवारण का तर्क’ (logic of nuclear deterrence) है. इस तर्क को थॉमस शेलिंग और बीडी बर्कोविच जैसे विद्वानों ने शीत युद्ध के दौरान प्रचारित किया. ऐसे में सवाल यह है कि शीत युद्ध के बाद की दुनिया में परमाणु संघर्ष की व्याख्या करने के लिए क्या यह तर्क अब भी प्रासंगिक है?
इस बात को ले कर कोई दो राय नहीं हैं कि सोवियत संघ के विघटन और दो ध्रुवीय दुनिया के ख़ात्मे के बाद विश्व की स्थिति बदल गई है. चीन और अमेरिका के बीच शक्ति संघर्ष तेज़ होने के साथ इस बात की चिंता बढ़ती जा रही है कि चीन के पास जो परमाणु हथियार हैं, उसे वह अमेरिका और अपने क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वी भारत के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करने की क्षमता रखता है. इसके अलावा उत्तर कोरिया है, जो लगातार वाशिंगटन डीसी के परमाणु मुक्ति के प्रस्ताव को खारिज कर परमाणु हथियार बनाने में लगा हुआ है. इस लेख में यह बताया गया है कि इन प्रतिद्वंद्विता के बावजूद दुनिया परमाणु युद्ध को टालने में सक्षम है और इसके पीछे परमाणु निवारण के तर्क को कुछ हद तक क्रेडिट दिया जाना चाहिए.
चीन और अमेरिका के बीच शक्ति संघर्ष तेज़ होने के साथ इस बात की चिंता बढ़ती जा रही है कि चीन के पास जो परमाणु हथियार हैं, उसे वह अमेरिका और अपने क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वी भारत के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करने की क्षमता रखता है.
परमाणु निवारण के तर्क को समझना
इस तर्क का मूल सिद्धांत है: एक व्यक्ति (actor) दूसरे में नतीजा भुगतने का डर पैदा कर उसे कोई कार्रवाई करने से रोकता है. मान लीजिए कि यदि देश ‘ए’ दूसरे देश यानी ‘बी’ के ख़िलाफ़ परमाणु युद्ध छेड़ता है, तो देश ‘बी’ देश ‘ए’ को पर्याप्त नुकसान पहुंचाएगा. इस तरह विद्वानों ने इसे ‘आपस में तय विनाश’ (mutually assured destruction) करार दिया है. इस तरह एक परमाणु युद्ध में दोनों पक्षों को बुरा नुकसान झेलना पड़ेगा. यह ऐसी स्थिति होगी कि एक या दूसरे पक्ष को विजेता घोषित करना असंभव होगा. यहां तक कि यदि उनमें से कोई एक हमले की कोशिश करता है और अपने प्रतिद्वंद्वी के परमाणु हथियारों को नष्ट कर देता है तो भी उसके पास इतने हथियार होंगे जिससे कि वह अपने हमलावार को तबाह कर दे.
केनेथ वाल्त्ज (Kenneth Waltz) ने परमाणु निवारण के तर्क को बेहद आसान तरीके से परिभाषित किया है: ‘‘भले ही हम रक्षाहीन हैं, लेकिन अगर तुम हमला करते हो तो हम तुम्हें इस हद तक दंडित करेंगे कि तुम्हें मिलने वाली बढ़त बेमतलब रह जाएगी.’’ इस तरह यह परमाणु युद्ध से बचने में मदद करता है क्योंकि हर एक पक्ष परमाणु संघर्ष से बचकर अपना हित सुरक्षित करना चाहता है.
युद्ध निवारण की इस रणनीति ने महाशक्तियों के बीच बातचीत का रास्ता खोला और सोवियत संघ क्यूबा से मिसाइलें हटाने पर राज़ी हो गया. दूसरी तरफ अमेरिका ने क्यूबा पर चढ़ाई नहीं करने का वादा किया.
द्वि-ध्रुवीय दुनिया में परमाणु निवारण का तर्क
सोवियत संघ के पास 40,000 परमाणु हथियारों का जखीरा होने और अमेरिका के पास 30,000 परमाणु हथियारों का जखीरा होने बावजूद दोनों देशों के बीच परमाणु युद्ध नहीं हुआ था. क्यूबा के मिसाइल संकट के एक विश्लेषण से पता चलता है कि जब यह तनाव चरम पर था तो स्पष्ट रूप से यह लग रहा था कि दोनों महाशक्तियों के बीच परमाणु युद्ध टाला नहीं सकेगा. हालांकि, दोनों देशों के नेता परमाणु युद्ध में शामिल नहीं होने के बारे में दृढ़ थे क्योंकि इस से दोनों महाशक्तियों का विनाश होगा. इसने अमेरिका को सीधे तौर पर टकराने के बजाय सोवियत युद्धपोतों को रोकने (intercept) के लिए प्रेरित किया और मास्को को न चाहते हुए भी पीछे हटना पड़ा. युद्ध निवारण की इस रणनीति ने महाशक्तियों के बीच बातचीत का रास्ता खोला और सोवियत संघ क्यूबा से मिसाइलें हटाने पर राज़ी हो गया. दूसरी तरफ अमेरिका ने क्यूबा पर चढ़ाई नहीं करने का वादा किया. इसके अलावा राष्ट्रपति कैनेडी ने तुर्की से अमेरिकी मिसाइलें हटाने को ले कर सहमति जताई.
परमाणु निवारण के तर्क के साथ समस्याएं
कई ऐसे विद्वान हैं जो निरोध या निवारण के इस तर्क को लेकर आशंकित हैं. उनका कहना है कि सोवियत संघ और अमेरिका के बीच परमाणु संघर्ष रुक जाने भर का मतलब नहीं है कि यह सिद्धांत परखा हुआ तथ्य है. परमाणु रणनीतिकारों ने नेताओं से इस तर्क पर अपनी सुरक्षा रणनीतियों को आधार बनाते समय सावधानी बरतने का आग्रह किया है. उदाहरण के लिए उत्तर कोरिया ने अमेरिका के ख़िलाफ़ परमाणु युद्ध छेड़ने की धमकी देते हुए कई सलाहकारों और विद्वानों के मन में संदेह पैदा कर दिया है.
यही वजह है कि इस तरह की सोच की विश्वसनीयता पर सवाल उठने लगे हैं: क्या देशों की सुरक्षा रणनीतियों का आधार तर्क होना चाहिए? कई जानकारों का तर्क है कि परमाणु निवारण का तर्क एक स्थापित मानदंड नहीं है, बल्कि यह एक “परिकल्पना” है और इस आधार पर देश की सुरक्षा रणनीति बनाना एक जुए की तरह है. परमाणु निवारण इस धारणा पर आधारित है कि एक देश अपनी सुरक्षा के लिए परमाणु युद्ध छेड़ने से बचना चाहेगा.
परमाणु निवारण का तर्क एक स्थापित मानदंड नहीं है, बल्कि यह एक “परिकल्पना” है और इस आधार पर देश की सुरक्षा रणनीति बनाना एक जुए की तरह है.
इस तर्क में कई अन्य कमियां भी हैं. कई अनियंत्रित कारक हैं. जैसे- गलत लोगों के हाथों में नियंत्रण चले जाने पर परमाणु हथियारों का दुरुपयोग हो सकता है. इसी तरह अगर एक सैनिक जानबूझकर शरारत करने के लिए एक परमाणु युद्ध शुरू कर सकता है.
परमाणु निवारण का तर्क बेमानी नहीं?
देशों के बीच तनावपूर्ण रिश्तों को देखते हुए ऐसा लग सकता है कि दुनिया टिक-टिक करते एक टाइम बम पर बैठी है. हालांकि ऐसी स्थिति में परमाणु निवारण एक आश्वासन देता है. सबसे पहले, परमाणु युद्ध का एक लागत-लाभ विश्लेषण (cost-benefit analysis) है. यह देखा गया है कि परमाणु हथियार इतना विनाश ला सकते हैं कि युद्ध की लागत, उस से होने वाले संभावित लाभ से अधिक हो जाएगी और यह नेताओं को परमाणु युद्ध में शामिल होने से “रोक” देगा. “दूसरा हमला करने की क्षमता” (second-strike capability) एक नया ख़तरा है जो देशों को परमाणु युद्ध में संलग्न होने से रोकता है.
परमाणु निवारण सुरक्षा समस्याओं का एकमात्र समाधान नहीं है. शांति वार्ता और विश्वास बहाली वाले उपायों के साथ अन्य रणनीतियों का उपयोग करके परमाणु निवारण के इस्तेमाल को बढ़ाया जा सकता है.
दूसरा, व्यक्तिगत हितों से प्रेरित नेता इस तथ्य से परिचित हैं कि परमाणु युद्ध की स्थिति में कोई भी विजेता बन कर नहीं उभरेगा. किम जोंग-उन की ओर से अमेरिका को परमाणु ख़तरों को देखते हुए ऐसा लग सकता है कि उत्तर कोरिया के परमाणु हमला करने की संभावना है. लेकिन, प्योंगयांग ने इन धमकियों पर अमल क्यों नहीं किया? इसका मुख्य कारण यह है कि किम जोंग-उन समझते हैं कि परमाणु युद्ध छेड़ने से “आपसी विनाश” होगा और इसी चीज़ ने उन्हें एक परमाणु हमले से रोक दिया है. इस तर्क का एक और अच्छा उदाहरण दक्षिण एशिया है. यह तीन परमाणु शक्तियों वाला एक अस्थिर क्षेत्र है जहां तीनों एक-दूसरे के आमने-सामने हैं. चीन, भारत और पाकिस्तान के पास परमाणु हथियार होने के बावजूद यह क्षेत्र परमाणु टकराव से बचने में सफ़ल रहा है. 1998 में पाकिस्तान और भारत परमाणु संपन्न राष्ट्र बन गए और तब से दोनों एक युद्ध लड़ चुके हैं. हालांकि 1999 में हुए करगिल युद्ध में किसी परमाणु हथियार का इस्तेमाल नहीं हुआ. उस वक्त पाकिस्तान के उप विदेश मंत्री रहे शमशाद अहमद ने एक पाकिस्तानी अख़बार से कहा कि उनका देश अपनी क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा के लिए अपने शस्त्रागारों में रखे गए किसी भी हथियार का इस्तेमाल करने की इच्छा रखता है. इसके जवाब में तत्कालीन भारतीय रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस ने कहा कि ऐसा करने के क्रम में वे अपने ही देश को तबाह करने की प्रक्रिया में होंगे. इससे पता चलता है कि जब एक-दूसरे पक्ष की ओर से अप्रत्यक्ष धमकियां दी जाती हैं तो कैसे परमाणु निवारण कारगर साबित होता है. भारत-चीन संबंधों खासकर 2020 के लद्दाख टकराव के संबंध में विश्लेषण करें तो पता चलता है कि दोनों देश परमाणु हथियारों का इस्तेमाल नहीं करने को लेकर सतर्क हैं. यहां तक कि वे धमकी के लिए भी इसका इस्तेमाल नहीं करते. इन दोनों देशों ने कहा है कि परमाणु ब्लैकमेल और जबरदस्ती के ख़िलाफ़ सुरक्षा तक ही हथियार की भूमिका सीमित कर दी गई है. दोनों ने अपनी तरफ से पहले परमाणु हथियार का इस्तेमाल नहीं करने यानी नो फर्स्ट यूज (एनएफयू) की घोषणा की है.
इस तर्क का एक और अच्छा उदाहरण दक्षिण एशिया है. यह तीन परमाणु शक्तियों वाला एक अस्थिर क्षेत्र है जहां तीनों एक-दूसरे के आमने-सामने हैं. चीन, भारत और पाकिस्तान के पास परमाणु हथियार होने के बावजूद यह क्षेत्र परमाणु टकराव से बचने में सफ़ल रहा है.
इसलिए, परमाणु निवारण केवल शीत युद्ध का शब्द नहीं है बल्कि यह शीत युद्ध के बाद की परिस्थितियों में बेहद प्रभावी है. तमाम देशों ने परमाणु निवारण की अहमियत को समझा है और यह उनकी सुरक्षा रणनीति को तैयार करने में अहम भूमिका निभाता है. तमाम देश इसका इस्तेमाल दूसरे देश से परमाणु प्रतिशोध को रोकने के लिए एक सौदेबाज़ी चिप के रूप में करते हैं. हालांकि, इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि परमाणु निवारण सुरक्षा समस्याओं का एकमात्र समाधान नहीं है. शांति वार्ता और विश्वास बहाली वाले उपायों के साथ अन्य रणनीतियों का उपयोग करके परमाणु निवारण के इस्तेमाल को बढ़ाया जा सकता है. हालांकि यह स्पष्ट है कि तमाम देशों ने परमाणु निवारण के महत्व को समझा है. दुनिया को आज नॉन स्टेट एक्टर्स यानी सरकारों के नियंत्रण से बाहर की ताकतों (जैसे आतंकवादियों) से परमाणु हमले के ख]तरे का सामना करना पड़ रहा है. क्योंकि ऐसे मामलों में निवारण वाली रणनीति विफल हो सकती है.
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