Author : Suyash Desai

Published on May 15, 2023 Updated 0 Hours ago
भारत का परमाणु विकास कार्यक्रम और चीन का नज़रिया?

यह लेख पोखरण के 25 साल: भारत की परमाणु यात्रा की समीक्षा श्रृंखला का हिस्सा है.


भारत 11 और 13 मई 2023 को पोखरण-II परमाणु परीक्षणों की 25वीं सालगिरह मनाएगा. वर्ष 1998 में किए गए पांच भूमिगत परमाणु परीक्षणों के साथ ही भारत ने खुद को एक पूर्ण रूप से परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र घोषित करके इतिहास रच दिया था. भारत ने पहली बार मई 1974 में एक परमाणु परीक्षण किया था, जिसे पीसफुल न्यूक्लियर एक्सप्लोशन यानी शांतिपूर्ण परमाणु विस्फोट (PNE) बताया गया था. इसके बाद वर्ष 1998 में भारत द्वारा पोखरण-II भूमिगत परमाणु परीक्षण विस्फोट किया गया. उसके पश्चात से देखा जाए तो पिछले 25 वर्षों के दौरान वैश्विक मंच पर भारत एक ज़िम्मेदार परमाणु ताक़त के रूप में उभरा है, क्योंकि भारत एकमात्र परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र है, जो परमाणु अप्रसार संधि (NPT) पर हस्ताक्षर नहीं करने के बावज़ूद नागरिक व्यापार में संलग्न हो सकता है. इसके अतिरिक्त, वर्ष 1998 के बाद से भारत के मिसाइल कार्यक्रम में ज़बरदस्त तरीक़े से बढ़ोतरी हुई है. ज़ाहिर है कि ऐसे में पोखरण-II परमाणु परीक्षण की 25वीं वर्षगांठ की पूर्व संध्या के विशेष अवसर पर भारत के परमाणु हथियार कार्यक्रम के बारे में चीन के नज़रिए को लेकर चर्चा ज़रूरी हो जाती है.

ऐतिहासिक नज़रिया

राजनीतिक मोर्चे की बात करें, तो चीन ने वर्ष 1974 के बाद भारत को एक समान परमाणु राष्ट्र के रूप में नहीं देखा है. हालांकि, जैसा कि चीनी जनरल स्टाफ डिपार्टमेंट (GSD) की रिपोर्ट से पता चलता है कि पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (PRC) ने भारत के परमाणु हथियार कार्यक्रम को लेकर आपातकालीन योजना बनाई है. चीन के मुद्दों पर एक प्रमुख भारतीय सुरक्षा विशेषज्ञ का कहना है कि चीन ने कभी भी भारत को परमाणु समकक्ष राष्ट्र के रूप में मान्यता नहीं दी. सुरक्षा विशेषज्ञ का दावा है कि भारत को परमाणु संपन्न राष्ट्र के रूप में मान्यता देने पर पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना को सीमा से जुड़े मुद्दों समेत विभिन्न सुरक्षा और रणनीतिक मसलों पर बातचीत करते हुए भारत के साथ बराबरी का व्यवहार करने के लिए मज़बूर होना पड़ता. शायद यही वजह है कि 1980 के दशक के बाद से व्यापक सीमा और सुरक्षा वार्ता में शामिल होने के बावज़ूद चीन ने भारत के साथ परमाणु निरस्त्रीकरण की चर्चाओं को बड़ी कुशलता के साथ टाला है. इसके अलावा, भारत के शांतिपूर्ण परमाणु विस्फोट और वर्ष 1998 के भूमिगत परमाणु परीक्षणों के बीच के 24 वर्षों में चीन ने शायद ही कभी किसी सार्वजनिक मंच पर भारत के न्यूक्लियर प्रोग्राम का जिक्र किया हो.

इसी प्रकार से वर्ष 1998 के परमाणु परीक्षणों के बाद भी चीन ने सार्वजनिक रूप से भारत का उल्लेख करने से परहेज किया है और भारत के साथ परमाणु वार्ता में शामिल होने के लिए तो किसी दबाव और ही किसी ज़रूरत को महसूस नहीं किया है. चीन की रणनीतिक अध्ययन स्कॉलर ज़ियाओपिंग यांग के अनुसार भारत की सीमित परमाणु क्षमताएं और परमाणु आधुनिकीकरण की बहुत संयमित प्रगति (विशेष रूप से वितरण प्रणाली जैसी तकनीक़ी प्रगति) अभी तक PRC की क्षमताओं से मेल नहीं खाती है. यही कारण है कि चीन, भारत को परमाणु सुरक्षा के लिहाज़ से कोई ख़तरा नहीं मानता है. इसके अलावा, परमाणु हथियारों के उपयोग को लेकर भारत का नो-फर्स्ट-यूज (NFU) सिद्धांत द्विपक्षीय संबंधों में रणनीतिक स्थिरता स्थापित करने का काम करता है. यह सब वो कारण हैं, जिनके फलस्वरूप चीन परमाणु बातचीत को लेकर भारत के साथ संलग्न होने से बच रहा है. इसी तरह, ज़ियाओपिंग यांग यह भी तर्क देती हैं कि चीन परमाणु मुद्दों पर भारत के साथ राजनयिक वार्ता में शामिल नहीं होता है या भारत के परमाणु विकास पर कोई प्रतिक्रिया नहीं जताता है, क्योंकि भारत ने अभी तक ऐसी किसी भी संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं, जो इसे मौजूदा वैश्विक परमाणु अप्रसार व्यवस्था के अंतर्गत एक क़ानूनी और ज़िम्मेदार परमाणु राष्ट्र बना दे.

अधिकांश भारतीय रिसर्च भारत के परमाणु विस्फोटों के प्राथमिक कारण के रूप में चीन से आने वाले ख़तरे को हाईलाइट करते हैं. हालांकि, चीनी दृष्टिकोण के मुताबिक़ भारत के परमाणु परीक्षणों के पीछे की वजह भारत की आंतरिक असुरक्षा और अमेरिका द्वारा भारत को एक प्रमुख ताक़त के रूप में मान्यता देने की ज़रूरत है. चीन के रणनीतिक विदेश एवं सुरक्षा नीति विशेषज्ञ वांग फुचान के अनुसार, "भारत के परमाणु हथियारों का उत्तर सिर्फ़ भारत सरकार की महान-राष्ट्र महत्वाकांक्षाओं और सैन्यवाद प्रभुत्व जैसी उसकी विशेषताओं में ढूंढा जा सकता है." इसके अतिरिक्त, भारत के एक सामरिक अध्ययन स्कॉलर ने पुष्टि की है कि भारतीय नीति निर्माताओं ने चीन को परमाणु ख़तरे के रूप में नहीं देखा है. उनके अनुसार भारत शीत युद्ध की बाइपोलर व्यवस्था का इस्तेमाल करके चीन के विरुद्ध परमाणु प्रतिरोध हासिल कर सकता है.

चीनी मूल्यांकन की बदलती प्रकृति

इस सदी के पहले दशक में भारत के परमाणु विकास पर चीनी नज़रिया वर्ष 2008 में साइन किए गए भारत-अमेरिका परमाणु समझौते की आलोचना तक ही सीमित था. चीनी नीति निर्माताओं और विद्वानों द्वारा नियमित रूप से भारत-अमेरिका परमाणु समझौते पर चिंता जताई गई है.

चीनी विशेषज्ञों ने इस बात पर भी ज़ोर दिया है कि भारत-अमेरिका न्यूक्लियर डील के पीछे सबसे बड़ी वजह "चीन फैक्टर" ही था. उनकी राय में यह समझौता PRC को नियंत्रित करने के लिए भारत-प्रशांत क्षेत्र में शक्ति संतुलन स्थापित करने हेतु अमेरिका और भारत द्वारा किया गया एक साझा प्रयास था.

हालांकि, पिछले एक दशक में भारत-चीन सीमा से जुड़ी समस्याओं के बिगड़ने और वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर लगातार बढ़ने वाले कई सीमा विवादों संघर्षों के मद्देनज़र चीनी विशेषज्ञों के एक वर्ग ने परमाणु हथियारों के उपयोग के बढ़ते ज़ोख़िम को स्वीकार किया है. उनके आकलन के मुताबिक़ यह परमाणु ज़ोख़िम प्रमुख तौर पर लगातर बढ़ते चीनी परमाणु और पारंपरिक आयुध भंडार की वजह से पैदा होने वाली भारतीय असुरक्षा के चलते सामने आता है. हाल-फिलहाल की बात करें, तो यह ज़ोख़िम चीनी परमाणु हथियारों के विस्तार और चीनी सरकार द्वारा पारंपरिक और परमाणु क्षमताओं के मेलजोल का रास्ता अख़्तियार करने की वजह से बढ़ गया है. इस लेखक ने एक व्यापक साझा-लेखक विश्लेषण में इस बात पर प्रकाश डाला है कि इससे भारत के सामरिक गुणा-गणित पर असर पड़ने की संभावना है.

दक्षिण एशियाई क्षेत्र में लगातार बढ़ती सुरक्षा असमंजस की स्थिति चीन के परमाणु हथियारों के प्रसार, विकसित डिलीवरी सिस्टम और पारंपरिक परमाणु हथियारों से जुड़ी प्रणालियों के पारस्परिक मिलन जैसी बढ़ती परमाणु अस्पष्टता के साथ ज़ल्द ही परमाणु हथियारों की होड़ में दाखिल हो सकती है. इन सभी घटनाक्रमों ने भारत को अपने परमाणु आधुनिकीकरण को जारी रखने और अपने नए-नए बने न्यूक्लियर ट्रायड को संचालित करने के लिए मज़बूर किया है. पश्चिमी देशों के कुछ परमाणु विशेषज्ञ इस बात पर बल देते हैं कि भारत की परमाणु रणनीति, जो कि व्यापक तौर पर पाकिस्तान को ध्यान में रख कर बनाई गई थी, अब चीन की ओर मुड़ रही है.

चीनी रणनीतिक विमर्श में इस बात को लेकर भी चर्चा की जाती है कि मौज़ूदा भारत सरकार किस प्रकार से LAC पर चीन द्वारा की जा रही कार्रवाइयों का जवाब देने के लिए लगातार ज़बरदस्त दबाव में हैं और भारतीय परमाणु आयुध भंडार को बढ़ाने एवं बेहतर वितरण प्रणाली विकसित करने की कोशिश कर रही है. इससे भी अधिक अहम बात यह है कि भारत सरकार परमाणु हथियारों के लेकर अपने नो-फर्स्ट-यूज सिद्धांत से दूर जा रही है. ज़ाहिर है कि यह सिद्धांत चीन और भारत के बीच परमाणु स्थिरता की आधारशिला रहा है.

चीन-भारत परमाणु बातचीत की ज़रूरत?

गलत वर्गीकरण के ज़ोख़िम को देखते हुए और अनजाने में इसमें होती वृद्धि के मद्देनज़र कुछ चीनी विशेषज्ञों का कहना है कि चीन और भारत के लिए परमाणु वार्ता शुरू करने का यह सबसे अनुकूल और उचित समय है. चीनी रणनीतिक और सुरक्षा अध्ययन विशेषज्ञ टोंग झाओ का कहना है कि भारत की परमाणु क्षमताओं में होने वाली तेज़ प्रगति सीधे तौर पर चीन के सामरिक सुरक्षा हितों को प्रभावित करती है. ऐसे में चीन को भारत के साथ परमाणु वार्ता शुरू करके भारत-चीन परमाणु संबंधों की स्थिरता सुनिश्चित करने के तरीक़ों पर विचार करने की ज़रूरत है. हालांकि, चीनी नीति निर्माताओं और शिक्षाविदों का एक बड़ा वर्ग अभी भी यह मानता है कि भारत के परमाणु हथियार PRC के लिए किसी प्रकार के ख़तरे के बजाए प्रतिरोध और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना रुतबा जमाने के लिए हैं. जहां तक चीन की बात है, तो भारत और चीन दोनों देशों की वितरण प्रणालियों में अभी भी एक बड़ा तकनीक़ी अंतर है और अगर दोनों देशों के बीच कोई परमाणु वार्ता होती है, तो यह चीन द्वारा भारत को एक परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र के रूप में मान्यता प्रदान करने वाले एक समझौते की तरह होगा. इतना ही नहीं भारत और चीन के बीच परमाणु वार्ता पाकिस्तान की चिंताओं को भी बढ़ा सकती है. ये सभी चिंताएं हैं, जो कि पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना को भारत के साथ द्विपक्षीय परमाणु वार्ता में शामिल नहीं होने के लिए विवश करती हैं.


सुयश देसाई ताइवान में रहते हैं और एक रिसर्च स्कॉलर हैं, जो चीन की रक्षा और विदेश नीतियों का अध्ययन कर रहे हैं.

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