अफ्रीका में चीन की बढ़ती आर्थिक दिलचस्पी ने दुनिया भर के विद्वानों, पत्रकारों और नीति निर्माताओं का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। वैसे तो अफ्रीका में चीन की भूमिका पर लेखन सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है, लेकिन ज्यादातर अध्ययनों में अफ्रीका में चीन की भूमिका को विरोधाभासी ढंग से पेश किया गया है या तो एक ‘खतरे’ या एक ‘अवसर’ के रूप में। दरअसल, कुछ विद्वान तो यहां तक मानते हैं कि अफ्रीका के साथ चीन की आर्थिक साझेदारी कुछ और नहीं, बल्कि अफ्रीकी संसाधनों के लिए ‘नई छीना-झपटी’ है। वहीं, दूसरी ओर कुछ ऐसे भी विद्वान हैं जो चीन को नए आर्थिक रहनुमा या पथप्रदर्शक के रूप में देखते हैं और जो अफ्रीका के विकास में अहम योगदान कर रहा है। वहीं, भारत में अनेक विशेषज्ञ नियमित रूप से इस बात पर विशेष जोर देते रहे हैं कि भारत को अफ्रीका के साथ घनिष्ठ संबंध बनाकर अफ्रीकी महाद्वीप पर चीन के बढ़ते प्रभाव का मुकाबला करना चाहिए। उधर, कई अन्य विशेषज्ञों ने चीन के पास ‘ढेर सारा पैसा’ होने और बुनियादी ढांचे के लिए अत्येंत आसानी से ऋण सुलभ कराने के मामले में चीन को भारत द्वारा टक्कर न दे पाने पर चिंता व्यक्त की है। अफसोस की बात यह है कि चीन-अफ्रीका संबंधों के मुद्दे पर भारत की ओर से मामूली गहन अध्ययन किया गया है। भारत के लिए चीन और अफ्रीका दोनों की ही अहमियत को ध्यान में रखते हुए यह स्थिति वास्तव में अत्यंत निराशाजनक है।
इस लेख में अफ्रीका के साथ चीन की आर्थिक साझेदारी की कुछ ऐसी विशेषताओं पर रोशनी डालने की कोशिश की गई है जिन्हें अक्सर भारतीय विद्वानों द्वारा नजरअंदाज कर दिया जाता है।
सबसे पहले, अफ्रीका के साथ चीन की आर्थिक साझेदारी महज संसाधनों तक सीमित नहीं है। वैसे तो चीन एवं अफ्रीका के बीच होने वाले कुल व्यापार में विभिन्न संसाधनों जैसे कच्चे तेल तथा तांबे के व्यापार का ही मुख्य योगदान होता है और चीन ने संसाधन-समृद्ध देशों जैसे अंगोला और कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य को ‘संसाधन के बदले अरबों डॉलर के बुनियादी ढांचागत ऋण’ दिए हैं, लेकिन अफ्रीका के साथ चीन की बढ़ती आर्थिक साझेदारी को विशुद्ध रूप से संसाधन प्राप्त करने का एक साधन मानना गलत होगा। कई अफ्रीकी देशों में संसाधनों की भारी कमी है, फिर भी चीन के साथ उनके आर्थिक संबंध काफी तेजी से सुदृढ़ हो रहे हैं। ऐसा पहले कभी भी नहीं देखा गया। इस मामले में इथियोपिया का उदाहरण दिया जा सकता है जो पूर्वी अफ्रीका का एक कृषि आधारित देश है। इथियोपिया का मामला इस दलील को पूरी तरह से खारिज करता है कि अफ्रीका में चीन की दिलचस्पी महज संसाधनों तक ही सीमित है। वर्ष 2002 और वर्ष 2012 के बीच इथियोपिया एवं चीन के बीच द्विपक्षीय व्यापार 63 प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ा और वर्तमान में चीन ही इस देश का सबसे बड़ा निर्यात गंतव्य है। यह एक रोचक तथ्य है कि तिल के बीज नामक उत्पाद, जिसे हाल ही में इथियोपिया में पेश किया गया है, का लगभग 85 प्रतिशत योगदान चीन के कुल निर्यात में है। इसके बाद चमड़े और चमड़े के सामान का नंबर आता है। इसके अलावा, केवल नाइजीरिया, अंगोला, सूडान और इक्वेटोरियल गिनी जैसे तेल उत्पादकों के ही चीनी उदार ऋणों के प्रमुख प्राप्तकर्ता देश होने की धारणा के ठीक विपरीत इथियोपिया को भी बुनियादी ढांचागत सुविधिाओं के लिए चीन से व्यापक मात्रा में ऋण प्राप्त हुआ है। चीनी सहायता से जुड़े आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2012 के दौरान इथियोपिया में चीन का आधिकारिक वित्तीय प्रवाह कुल मिलाकर लगभग 3.6 अरब अमेरिकी डॉलर का रहा। इथियोपिया भी चीनी एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) का एक प्रमुख प्राप्तकर्ता देश रहा है। इथियोपिया में हो रहे चीनी निवेश में निजी क्षेत्र का वर्चस्व है और यह मुख्यत: विनिर्माण क्षेत्र, विशेष रूप से चमड़ा क्षेत्र के खाते में जा रहा है।
दूसरी बात, चीन अफ्रीका पर व्यापार, विकास वित्त और निवेश प्रवाह के जरिए व्यापक आर्थिक प्रभाव डाल रहा है। अफ्रीकी निर्यात की अच्छी मांग भी उन सर्वाधिक प्रत्यक्ष चैनलों में से एक थी जिसके जरिए चीन ने अफ्रीका में प्रवेश किया था। चीन की ओर से अच्छी मांग का ज्यादातर अफ्रीकी देशों पर व्यापक मात्रात्मक प्रभाव पड़ा और अंगोला, कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य एवं इथियोपिया जैसे देशों से चीन को निर्यात में अभूतपूर्व वृद्धि दर्ज की गई। दरअसल, चीन की ओर से मांग इतनी ज्यादा थी कि इसका असर वैश्विक मूल्यों पर पड़ा और इसके परिणामस्वरूप इन देशों के लिए व्यापार के संदर्भ में बेहतरी देखने को मिली। अत: मुख्य निर्यात गंतव्य के रूप में चीन के अभ्युदय ने 2000 के दशक के दौरान इन देशों की अर्थव्यवस्थाओं में नई जान फूंकने में अहम भूमिका निभाई थी। वर्ष 2000 से चीन को उप-सहारा अफ्रीका से निर्यात 22 प्रतिशत से भी अधिक की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर से बढ़ने लगा और वर्ष 2013 तक यह आंकड़ा उप-सहारा अफ्रीका से संयुक्त राज्य अमेरिका को हुए कुल निर्यात के पार चला गया।
भारतीय विशेषज्ञों द्वारा अक्सर इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया जाता है कि चीन से अफ्रीका को निर्यात, विशेषकर विनिर्मित वस्तुओं के निर्यात में अभूतपूर्व वृद्धि दर्ज की गई है।
भारतीय विशेषज्ञ शायद ही कभी अफ्रीका को भारत के विनिर्मित उत्पादों का एक बाजार मानते हैं और इसके बजाय वे अफ्रीकी विकास के लिए भारत की दीर्घकालिक प्रतिबद्धता, विकास सहयोग पहलों जैसे भारतीय तकनीकी एवं आर्थिक सहयोग (आईटीईसी) तथा ऋण-रेखा (एलओसी) और इसके साथ ही संयुक्त राष्ट्र में एक स्थायी सीट के लिए अफ्रीकी वोटों की आवश्यकता पर विशेष ध्यान देना पसंद करते रहे हैं। वहीं, दूसरी ओर चीन ने अफ्रीकी बाजार में प्रभावशाली ढंग से प्रवेश किया है। वर्ष 2004 में चीन से आयात ने इस मामले में अमेरिका को पछाड़ दिया और वर्ष 2013 तक उप-सहारा अफ्रीका के कुल आयात में चीन का हिस्सा लगभग 14 फीसदी हो गया था। 2000 के दशक के पूर्वार्द्ध से ही चीनी विनिर्मित वस्तुओं के आयात में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की जाने लगी और चीन अब उप-सहारा अफ्रीका के लिए विनिर्मित उत्पादों का सबसे बड़ा स्रोत है। अंगोला और कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य जैसे देशों को चीनी विनिर्मित वस्तुओं के निर्यात में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गई थी। ये वे देश थे जो चीनी निर्यात आयात बैंक से बड़ी मात्रा में ‘संसाधन के बदले बुनियादी ढांचागत ऋण’ लेने के लिए जाने जाते रहे हैं। वर्ष 2009 में अंगोला के कुल विनिर्मित आयात में चीन का हिस्सा महज 2.9 प्रतिशत ही था, लेकिन वर्ष 2013 तक आते-आते चीन पुर्तगाल को पीछे छोड़कर 38.9 प्रतिशत हिस्सेदारी के साथ अंगोला के लिए विनिर्मित वस्तुओं का सबसे बड़ा स्रोत बन गया। इसी तरह लोकतांत्रिक गणराज्य कांगो में चीन से विनिर्मित वस्तुओं का आयात काफी बढ़ गया है और अब चीन इस देश के कुल विनिर्मित आयात में एक चौथाई से भी अधिक का योगदान करता है। इथियोपिया का मामला विशेष रूप से दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि भारत ने चीन के हाथों अपनी बाजार हिस्सेदारी खो दी है। वर्ष 2000 में भारत 19.1 फीसदी हिस्सेदारी के साथ इथियोपिया को विनिर्मित वस्तुओं का सबसे बड़ा निर्यातक था और उसके बाद ही 13.1 फीसदी हिस्सेदारी के साथ चीन का नंबर आता था। हालांकि, चीन ने वर्ष 2003 में भारत को पीछे छोड़ दिया और वर्ष 2012 तक इथियोपिया के कुल विनिर्मित आयात में चीन की हिस्सेदारी बढ़कर 31 प्रतिशत से भी अधिक हो गई। वहीं, दूसरी ओर भारत की हिस्सेदारी घटकर 14.9 फीसदी रह गई। चीन वर्तमान में इथियोपिया के कुल चर्म उत्पाद, वस्त्र धागा एवं कपड़ा तथा कॉर्क और काष्ठ उत्पाद आयात में 50 प्रतिशत से अधिक और इथियोपिया के कुल फुटवियर आयात में लगभग 90 प्रतिशत का योगदान करता है।
इसी तरह हाल के वर्षों में अफ्रीका में चीनी निवेश के प्रवाह में भी तेजी से वृद्धि हुई है। व्यापार एवं विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (अंकटाड) द्वारा प्रकाशित विश्व निवेश रिपोर्ट 2016 के मुताबिक, वर्ष 2014 में चीन अफ्रीका में चौथा सबसे बड़ा निवेशक था। चीन के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का आंकड़ा वर्ष 2009 के 9 अरब अमेरिकी डॉलर से 3 गुना से भी ज्यादा बढ़कर वर्ष 2014 में 32 अरब डॉलर के स्तर पर पहुंच गया और इसके साथ ही चीन ने दक्षिण अफ्रीका को इस क्षेत्र में विकासशील देशों की ओर से सबसे बड़े निवेशक के रूप में पीछे छोड़ दिया। वैसे तो अफ्रीका में ज्यादातर चीनी निवेश वास्तव में सरकार के स्वामित्व वाले बड़े उद्यमों की अगुवाई में ही होते हैं, जो आम तौर पर बुनियादी ढांचागत एवं संसाधन क्षेत्रों में निवेश करते हैं, लेकिन काफी तेजी से बड़ी संख्या में निजी चीनी उद्यमों ने भी कई अफ्रीकी देशों में अपनी-अपनी यूनिटों की स्थापना की है। जियान-ये वांग और जिंग गु जैसे विद्वानों ने विशेष जोर देते हुए कहा है कि सरकारी मंत्रालयों के बजाय चीनी निजी क्षेत्र ही काफी तेजी से अफ्रीका के साथ चीन के आर्थिक मेल-जोल की अगुवाई कर रहा है। चीन के निजी क्षेत्र के उद्यम आम तौर पर विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों में निवेश करते हैं।
अफ्रीका के विनिर्माण क्षेत्र में चीन के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) में व्यापक वृद्धि का मुख्य कारण तटीय चीन में औद्योगिक पुनर्गठन का बढ़ता दबाव है, जो श्रम-बहुल कंपनियों को अफ्रीका ले जा रहा है।
यूरोप से निकटता और सस्ते श्रम तक पहुंच इथियोपिया जैसे अफ्रीकी देशों के मामले में मुख्य आकर्षण हैं। भारत के निजी क्षेत्र की मौजूदगी भी काफी तेजी से बढ़ी है, लेकिन अफ्रीका में भारतीय निवेश की वास्तविक मात्रा भारतीय मीडिया द्वारा दिए गए आंकड़े की तुलना में काफी कम है। इसका मुख्य कारण यह है कि अफ्रीका में भारतीय निवेश का अधिकांश हिस्सा मॉरीशस की ओर मुखातिब हो जाता है जो एक ‘टैक्स हैवन’ या कर रियायतों की दृष्टि से स्वर्ग है और जिसे आगे चलकर वापस भारत में ही ले आया जाता है।
हालांकि, चीन-अफ्रीका संबंधों की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि चीन से अफ्रीका में आए आधिकारिक वित्त में अभूतपूर्व वृद्धि दर्ज की गई है। वैसे तो वैचारिक मतभेदों के कारण चीनी विकास वित्त और आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) के सदस्य देशों की ओर से मिलने वाली आधिकारिक विकास सहायता के बीच तुलना करना काफी मुश्किल हो जाता है, लेकिन कई अनुमानों से यह पता चला है कि उप-सहारा अफ्रीका में चीनी वित्तीय प्रवाह अब ओईसीडी देशों से मिलने वाली परंपरागत आधिकारिक विकास सहायता (ओडीए) के समतुल्य हो गई है। चीनी वित्त मुख्य रूप से चीन के ‘निर्यात आयात बैंक’ के जरिए बुनियादी ढांचे के विकास के लिए रियायती ऋणों के रूप में आता है। चीनी कंपनियां अफ्रीका में बांधों, बंदरगाहों, सड़कों, रेलवे और पुलों सहित महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे का भी निर्माण कर रही हैं। विश्व बैंक के एक अध्ययन के अनुसार, 35 से भी अधिक अफ्रीकी देश बुनियादी ढांचा संबंधी वित्त सौदों को लेकर चीन से जुड़े हुए हैं। उप-सहारा अफ्रीका में बुनियादी ढांचागत सुविधाओं की भारी किल्लत को देखते हुए यह अफ्रीका के विकास में चीन का सबसे बड़ा योगदान है। भारत की ओर से ऋण-रेखा (एलओसी) मुख्यत: अफ्रीका में बुनियादी ढांचे के विकास के लिए सुलभ कराई जाती है, लेकिन यह बिल्कुल स्पष्ट है कि भारत वित्त के मामले में चीन को कड़ी टक्कर नहीं दे सकता है। अत: भारत के विकास सहयोग को निश्चित तौर पर कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में ही केंद्रित किया जाना चाहिए। भारत को अपनी लाइन ऑफ क्रेडिट या ऋण-रेखा का बेहतर कार्यान्वयन भी सुनिश्चित करना चाहिए, जो अक्सर परियोजनाओं में देरी के कारण बुरी तरह प्रभावित हो जाती है।
संक्षेप में, भारत और अफ्रीका के आपसी घनिष्ठ आर्थिक संबंधों से संभावित लाभ अभी तक पूरी तरह हासिल नहीं किए जा सके हैं। अपने विनिर्माण क्षेत्र में नई जान फूंकने और युवाओं के लिए रोजगार सृजित करने के उद्देश्य से भारत को अपने विनिर्माण क्षेत्र का विस्तार करने के लिए अब और भी अधिक सक्रिय रणनीति अपनाने की आवश्यकता है। भारत का बीमार विनिर्माण क्षेत्र वास्तव में अफ्रीका के तेजी से बढ़ते मध्यम वर्ग की अनदेखी करने का जोखिम नहीं उठा सकता है। दूसरी बात यह है कि चीन के पास मौजूद ‘ढेर सारे पैसे’ से भारत के बराबरी न कर पाने की असमर्थता को देखते हुए भारत के विकास सहयोग का अब कहीं ज्यादा रणनीतिक होना अवश्य ही जरूरी है। ऐसी स्थिति में यह अत्यंत आवश्यक है कि भारत महज कुछ विशिष्ट क्षेत्रों पर ही अपना ध्यान केंद्रित करे और इसके साथ ही बेहतर कार्यान्वयन भी सुनिश्चित करे।
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