चीन द्वारा स्वच्छ ऊर्जा के सस्ते साज़ोसामानों का निर्यात एक सार्वजनिक हित है. इसकी बदौलत अब दुनिया के ग़रीब देश भी स्वच्छ ऊर्जा की विशाल परियोजनाओं का बोझ उठा सकते हैं.
वैश्विक अर्थव्यवस्था में प्रमुख ताक़त के तौर पर चीन और भारत का उभार पिछले तीन दशकों का सबसे अहम आर्थिक घटनाक्रम है. एक ही वक़्त पर 2 बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के उभार से ये धारणा बनी है (कम से कम कुछ अस्थायी पर्यवेक्षकों में) कि चीन और भारत दोनों एक समान हैं. वैसे तो तीन दशक पहले चीन और भारत ने प्रति व्यक्ति आय के समान स्तरों से शुरुआत की थी. दोनों ने आर्थिक वृद्धि के ज़रिए ग़रीबी मिटाने का एक समान लक्ष्य रखा था, लेकिन दोनों देशों की विकास यात्राओं और उपलब्धियों में भारी अंतर है.
चीन के धमाकेदार विकास की अगुवाई निम्न-लागत वाले विनिर्माण से लैस औद्योगिक क्षेत्र ने की. इसके विपरीत भारत की आर्थिक वृद्धि को सेवा क्षेत्र के तेज़ विस्तार ने रफ़्तार दी. हालांकि ये पारंपरिक रूप से विकास यात्रा का रास्ता नहीं रहा है. विकास की परंपरागत क़वायद निम्न-मज़दूरी वाले विनिर्माण से शुरू होती रही है. 1978 और 1995 के बीच चीन से विनिर्मित निर्यात में 100 गुणा की बढ़ोतरी हुई. 2006 तक चीन ने दुनिया के सबसे बड़े विनिर्माता के रूप में (सकल मूल्य-वर्धित आधार पर) जापान को पीछे छोड़ दिया. 2005-06 से चीन की जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में उद्योग का कमोबेश आधा हिस्सा रहा है. 2010 में चीन ने दुनिया के सबसे विनिर्माता के तौर पर अमेरिका को भी पछाड़ दिया. विनिर्माण के दबदबे वाले उद्योग ने 2017 में चीन की जीडीपी में 40 प्रतिशत का योगदान दिया, जबकि 2021 में ये हिस्सा तक़रीबन 36 प्रतिशत रहा. सोलर फ़ोटोवोल्टेक (PV) मूल्य श्रृंखला में चीन के दबदबे को विनिर्माण क्षेत्र में चीन के प्रभुत्व के संदर्भ में ही देखे जाने की दरकार है.
विनिर्माण के दबदबे वाले उद्योग ने 2017 में चीन की जीडीपी में 40 प्रतिशत का योगदान दिया, जबकि 2021 में ये हिस्सा तक़रीबन 36 प्रतिशत रहा. सोलर फ़ोटोवोल्टेक (PV) मूल्य श्रृंखला में चीन के दबदबे को विनिर्माण क्षेत्र में चीन के प्रभुत्व के संदर्भ में ही देखे जाने की दरकार है.
चीन में सोलर PV का विकास
शुरुआत में चीन के सौर ऊर्जा कार्यक्रम को ग्रामीण परिवारों से बिजली की निचले स्तरों वाली मांग को पूरा करने के हिसाब से तैयार किया गया था. बहरहाल, 1990 के दशक में जर्मनी, स्पेन और इटली की ओर से महंगे सोलर पैनलों की मांग को देखते हुए चीन ने अपनी विनिर्माण क्षमताओं को इस दिशा में और फुर्ती से आगे बढ़ाया. प्रांतीय और स्थानीय सरकारों ने सौर विनिर्माण सुविधाओं की स्थापना से कुशलता-प्राप्त और अर्ध-कौशल वाली नौकरियों के निर्माण की संभावना भांप ली. संघीय सरकार की ओर से “सामरिक उद्योगों” के लिए आर्थिक सहायता भी उपलब्ध करवाई गई. इस विस्तार से शुरुआती दौर में यूरोप के नवीकरणीय ऊर्जा उपभोक्ताओं के लिए सोलर पैनल और मॉड्यूल की लागत में नाटकीय रूप से गिरावट आई. आगे चलकर भारत समेत दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी क़ीमतों में ऐसी ही कमी देखने को मिली.
1980 और 2012 के बीच वैश्विक स्तर पर सोलर मॉड्यूल की लागतों में तक़रीबन 97 फ़ीसदी की गिरावट आई. लागत में इस कमी से जुड़े कारकों के विस्तृत विश्लेषण के मुताबिक बाज़ार के विकास को प्रेरित करने वाली नीतियों का सोलर मॉड्यूल्स की पूरी लागत में 60 प्रतिशत की गिरावट में हाथ रहा है. सरकारी कोष से होने वाले शोध और विकास (R&D) का बाक़ी की 40 फ़ीसदी गिरावट में योगदान रहा है. शुरुआती वर्षों में विकसित देशों में होने वाली R&D अहम थी लेकिन पिछले दशक में लागत में बेहिसाब गिरावट के पीछे विशाल मात्रा में हो रही विनिर्माण गतिविधियों का हाथ रहा है. इसके लिए निश्चित रूप से चीन को श्रेय दिया जाना चाहिए.
सौर ऊर्जा हासिल करने की प्रौद्योगिकियों की लागत में गिरावट से सौर ऊर्जा के उपभोक्ता आधार का विस्तार हुआ है. हालांकि इस क़वायद के पीछे वैश्विक सार्वजनिक वस्तु के उत्पादन को सब्सिडी देने की चीन की चाहत से ज़्यादा विनिर्माण में अपनी प्रतिस्पर्धी बढ़त बरक़रार रखने का चीनी इरादा काम करता रहा है. सस्ते श्रम और बेशुमार पूंजी की बदौलत उसे ये बढ़त हासिल हुई है. चीन की 12वीं पंचवर्षीय योजना में निम्न कार्बन वाले उद्योगों को अर्थव्यवस्था का प्रमुख वाहक बनाने की हरित रणनीति पेश की गई है. चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने देश के आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए निम्न कार्बन विकास की क्षमताओं को अपनाने की रणनीति को मंज़ूरी दी है. लिहाज़ा नवीकरणीय ऊर्जा की विनिर्माण क्षमताओं का विकास, ना सिर्फ़ चीन की पर्यावरणीय और विदेश नीति (जलवायु परिवर्तन वार्ताओं के संदर्भ में) का हिस्सा है बल्कि उसकी औद्योगिक नीति में भी शुमार है. दरअसल चीन ने अपनी जलवायु नीतियों के बहाने अपनी औद्योगिक नीति को ही आगे बढ़ाया है.
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने देश के आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए निम्न कार्बन विकास की क्षमताओं को अपनाने की रणनीति को मंज़ूरी दी है. लिहाज़ा नवीकरणीय ऊर्जा की विनिर्माण क्षमताओं का विकास, ना सिर्फ़ चीन की पर्यावरणीय और विदेश नीति का हिस्सा है बल्कि उसकी औद्योगिक नीति में भी शुमार है.
नवीकरणीय ऊर्जा प्रौद्योगिकियों (और अन्य वस्तुओं) के निर्माण में अपनी प्रतिस्पर्धी बढ़त क़ायम रखने की चीनी क़वायद को जन्म देने के पीछे प्राथमिक रूप से गुणवत्ता के मोर्चे पर चीन की कमज़ोरी का कारक रहा है. फ़ेंग ने इसे ही “आर्थिक असुरक्षा” क़रार दिया है. चीन का विचार है कि जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक संवाद “नेक इरादों” वाले पर्यावरणवाद से आगे निकलकर भविष्य की भूराजनीतिक अंतरराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था में तब्दील हो गया है. लिहाज़ा निम्न कार्बन ऊर्जा स्रोतों में निवेश नहीं करने से चीन की आर्थिक और व्यापारिक प्रतिस्पर्धिता पर असर पड़ेगा.
चीन को नवीकरणीय ऊर्जा के उपभोक्ता के तौर पर बदलने वाली प्रेरक शक्तियां, उसे नवीकरणीय ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के निर्माता के रूप में तब्दील करने वाले कारकों से अलग थीं. आज चीन दुनिया में नवीकरणीय ऊर्जा का सबसे बड़ा उपभोक्ता है. हालांकि इस उद्योग के शुरुआती दौर में अतिरिक्त क्षमता को खपाने (ख़ासतौर से सोलर मॉड्यूल्स की) की चुनौती घरेलू उपभोग को हवा दे रही थी. 2013 में जर्मनी की मिसाल लेते हुए चीन ने सौर ऊर्जा के घरेलू प्रयोग को बढ़ावा देने के लिए एक आकर्षक फ़ीड-इन टैरिफ़ की शुरुआत की. 2015 तक जर्मनी को पछाड़कर चीन विश्व में सौर ऊर्जा का सबसे बड़ा बाज़ार बन गया. नवीकरणीय ऊर्जा के घरेलू उपभोग को चीन की जलवायु परिवर्तन नीति के हिस्से के तौर पर देखा जा रहा है. काफ़ी हद तक ये उसकी औद्योगिक रणनीति का अतिरिक्त लाभ है.
मुद्दे
आज मूल्य श्रृंखला के सभी खंडों (पॉलिसिलिकॉन, इनगॉट्स, वेफ़र्स, सेल्स और मॉड्यूल्स) में चीन का हिस्सा तक़रीबन 80 प्रतिशत है. ये वैश्विक PV की मांग में चीन के हिस्से के दोगुने से भी ज़्यादा है. दुनिया में सोलर PV विनिर्माण उपकरण के 10 सबसे बड़े आपूर्तिकर्ता चीन में ही मौजूद हैं. अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) के मुताबिक 2025 तक सोलर पैनल उत्पादन के लिए ज़रूरी बिल्डिंग ब्लॉक्स की आपूर्ति के लिए दुनिया तक़रीबन पूरी तरह से चीन पर ही निर्भर रहेगी. निर्माणाधीन विनिर्माण क्षमता के आधार पर पॉलिसिलिकॉन, इनगॉट और वेफ़र के वैश्विक उत्पादन में चीन का हिस्सा तक़रीबन 95 प्रतिशत तक पहुंच जाने की उम्मीद है.
चीन को शक़ है कि जलवायु संवादों में आचार नीति के शक्तिशाली विमर्श के पीछे पश्चिमी ताक़तों का असल इरादा अपनी आर्थिक बढ़त की हिफ़ाज़त करना है. दुनिया के देशों के बीच नवीकरणीय ऊर्जा प्रौद्योगिकी से जुड़े व्यापार विवादों के संदर्भ में देखे जाने पर चीन के संदेह में कुछ दम दिखाई देता है. इस श्रेणी में चीन और भारत समेत अन्य कई देश आते हैं. विकासशील और विकसित देश अपने घरेलू नवीकरणीय ऊर्जा विनिर्माताओं की रक्षा के लिए वित्तीय और ग़ैर-वित्तीय व्यापारिक अवरोध तैयार कर रहे हैं. व्यापारिक अवरोध निम्न कार्बन की ओर बदलाव की विकास यात्रा की लागत बढ़ा देते हैं. इस तरह ये क़वायद बहुपक्षीय जलवायु मंचों के वार्ता ढांचों में ज़ाहिर की गई साझा वैश्विक समस्या का हल ढूंढने के जज़्बे के ख़िलाफ़ जाती है. अमेरिका और पश्चिमी यूरोप द्वारा प्रस्तावित कार्बन-संबंधी सीमा सामंजस्य करों को लागू किए जाने से ये संकेत मिलते हैं कि ग्रीन मार्जिनलाइज़ेशन बेशक़ एक वास्तविक संभावना है.
अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) के मुताबिक 2025 तक सोलर पैनल उत्पादन के लिए ज़रूरी बिल्डिंग ब्लॉक्स की आपूर्ति के लिए दुनिया तक़रीबन पूरी तरह से चीन पर ही निर्भर रहेगी. निर्माणाधीन विनिर्माण क्षमता के आधार पर पॉलिसिलिकॉन, इनगॉट और वेफ़र के वैश्विक उत्पादन में चीन का हिस्सा तक़रीबन 95 प्रतिशत तक पहुंच जाने की उम्मीद है.
चीन में वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकीय क्षमताओं के विस्तार ने विश्व में विज्ञान के परिदृश्य को और ज़्यादा बहुध्रुवीय बना दिया है. ऐसे बहुध्रुवीय वैज्ञानिक परिदृश्य में चीन और बाक़ी दुनिया के बीच ट्रैफ़िक सिस्टम स्थापित करना एक बड़ी चुनौती है. लेन-देन की लागतों को कम करने और हर देश द्वारा समान नियम-क़ायदों के हिसाब से आगे बढ़ने के लिए ये निहायत ज़रूरी क़वायद है. स्वच्छ ऊर्जा विनिर्माण को विशाल आकार देने की चीनी क़ाबिलियत से स्वच्छ प्रौद्योगिकियों की लागत में नाटकीय रूप से कमी आई है. जलवायु के नज़रिए से लागत में ये गिरावट एक सार्वजनिक हित का विषय है. दुनिया के अपेक्षाकृत ग़रीब देश भी अब चीन से स्वच्छ ऊर्जा के सस्ते उपकरणों के आयात के बूते स्वच्छ ऊर्जा की विशाल परियोजनाओं का बोझ उठा सकते हैं.
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