12 जुलाई 2017 को चीन के आधिकारिक मीडिया ने खबर दी कि चीन की ओर से जिबूती में साजोसामान और कर्मियों की पहली खेप भेजी गई है। चीन ने शुरू-शुरू में 2015 में जिबूती में लॉजिस्टिक्स की सुविधा बनाने की घोषणा की थी। उसके बाद, 2016 में चीन ने अफ्रीका महाद्वीप में अपनी मौजूदगी बढ़ाने पर बल देते हुए जिबूती शहर में इस सुविधा के लिए इमारत का निर्माण शुरू किया। इस लेख में हॉर्न ऑफ अफ्रीका में चीन की मौजूदगी के बारे में दो तरह के मामलों पर चर्चा की गई है। पहला मामला इस बात से संबंधित है कि क्या अफ्रीका में चीन-अमेरिका संघर्ष की आशंका है। यह सवाल बड़ा वाजिब है, क्योंकि जिबूती में चीन की गतिविधियों के बारे में भारत और अमेरिका दोनों की ओर से चिंता प्रकट की गई है। दूसरा सवाल अफ्रीका में चीन और अमेरिका के बीच सहयोग की सीमित संभावनाओं के बारे में है।
हालांकि चीन इसे लॉजिस्टिक्स सुविधा करार देता है, जबकि जिबूती में उसका नौसैनिक अड्डा विदेश में अमेरिका के सबसे बड़े और बेहद महत्वपूर्ण ठिकानों में से एक कैम्प लेमनीर से चंद मील की दूरी पर स्थित है। कैम्प लेमनीर की स्थापना अमेरिका ने 9/11 हमलों के बाद की थी। यहां 4,000 अमेरिकी सैनिक मौजूद हैं। यहीं से अमेरिका पश्चिम एशिया और हॉर्न ऑफ अफ्रीका में लक्षित ड्रोन हमलों सहित बेहद गोपनीय मिशनों का संचालन करता है। अमेरिका के अलावा, जापान, इटली और फ्रांस, सभी अमेरिकी सहयोगियों के जिबूती में अपने नौसैनिक ठिकाने हैं।
जिस तरह चीन की ताकत बढ़ चुकी है, उसी तरह उसके हित भी, विशेषकर अफ्रीका में बढ़ चुके हैं और जिबूती की सामारिक स्थिति चीन के हितों को पूरा करने के लिए बिल्कुल मुनासिब है।
जिबूती उत्तरी अफ्रीका का एक छोटा सा देश है और वह अतीत में फ्रांस का उपनिवेश रह चुका है। यह अदन की खाड़ी और हिंद महासागर के बीच सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण बाब अल-मन्देब स्ट्रैट के मुहाने पर स्थित है। यह स्ट्रेट, मर्चेंट और एनर्जी शिपिंग के लिए महत्वपूर्ण मार्ग है। ऊर्जा सूचना एजेंसी (ईआईए) के आंकड़ों के अनुसार, प्रतिदिन 3.8 मिलियन बैरल कच्चा तेल इस शिपिंग लेन से होकर गुजरता है। यह तीन अस्थिर क्षेत्रों — अरब प्रायद्वीप (यमन), हॉर्न ऑफ अफ्रीका (सोमालिया, इरिट्रिया) और उत्तरी अफ्रीका(मिस्र, सुडान) के संगम पर भी स्थित है।
दूसरा, बहुत से विश्लेषक चीन को एक ऐसे देश के तौर पर देखते हैं, जिसके भीतर अफ्रीका में अमेरिका की जगह खुद को सबसे ज्यादा प्रभावशाली विदेशी ताकत का दर्जा दिलाने की क्षमता है। 1990 के दशक से, चीनी सेना और पुलिस बल संयुक्त राष्ट्र (यूएन) शांति सेना मिशनों का प्रमुख अंग बन चुके हैं। 2015 तक, यूएन मिशन में सहायता देने के लिए चीन के लगभग 8000 कर्मी रिजर्व थे, और इस तरह वह कुल सैन्य बल का पांचवां हिस्सा बन चुका है। इनमें से ज्यादातर गतिविधियां अफ्रीका में संचालित की जाती हैं। अफ्रीका में चीन के कामगारों मौजूदगी काफी बड़ी तादाद में है। चीन ने आदिस अबाबा में एयू के नए मुख्यालय के निर्माण के लिए 200 मिलियन डॉलन का भुगतान किया है।
2011 में, लीबिया में मुअम्मार गद्दाफी का शासन का समाप्त होने के बाद, चीन ने अपने 35,000 नागरिकों को वहां से सुरक्षित निकाला था। मार्च 2015 में जब सऊदी नेतृत्व वाली गठबंधन सेना ने यमन के अंदरूनी हिस्सों में हूती विद्रोहियों पर हवाई हमले किए थे, तो चीन ने यमन से 400 लोगों को सुरक्षित निकाला था। उसने अपने नागरिकों को सुरक्षित निकालने के अलावा अन्य देशों के नागरिकों को भी सद्भावना के तौर पर सुरक्षित निकाला था। इन देशों में कनाडा, यूनाइटेड किंगडम, आयरलैंड, इथियोपिया और पाकिस्तान शामिल हैं।
जिबूती में चीन के सैन्य ठिकाने की स्थापना भले ही अमेरिका या भारत के लिए शायद फौरन कोई सैन्य खतरा पेश न करे, तो भी यह चीनी सुरक्षा बलों के लिए लॉजिस्टिक्स सप्लाई करने वाले केंद्र के रूप में तो सेवाएं देने ही वाला है। चीन का नौसैनिक ठिकाना हिंद महासागर और दक्षिण चीन सागर के बीच महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्गों में समुद्री डकैतों के हमलों से रक्षा करेगा। आखिर में, यह सच है कि चीन, दक्षिण और पूर्वी चीन सागरों में कई विवादों में उलझा है। हालांकि अफ्रीका में चीन की सैन्य मौजूदगी, शायद लाभदायक हो सकती है, क्योंकि यह महाद्वीप के संघर्षों को आशिंक तौर पर शांत कराने और अन्य देशों के बोझ में कमी लाने में सहायता करती है।
जिबूती में चीन के सैन्य ठिकाने की स्थापना भले ही अमेरिका या भारत के लिए शायद फौरन कोई सैन्य खतरा पेश न करे, तो भी यह चीनी सुरक्षा बलों के लिए लॉजिस्टिक्स सप्लाई करने वाले केंद्र के रूप में तो सेवाएं देने ही वाला है।
यदि जिबूती के घटनाक्रम, जो हाल की ही बात है, को दरकिनार कर दिया जाए, तो भी इस क्षेत्र में अमेरिका-चीन के संभावित टकराव के आर्थिक कारण मौजूद हैं। हालांकि, अफ्रीका के पास फिलहाल विश्व के कुल तेल भंडार का केवल 10 प्रतिशत अंश है, तो ऐसे में वह भविष्य में तेल का महत्वपूर्ण स्रोत बनकर उभर सकता है। महाद्वीप में विशेषकर गिनी की खाड़ी में 2005-2010 के बीच हुई नई खोजों की वजह से, पश्चिम एशिया हाल ही में तेल का महत्वपूर्ण स्रोत बनकर उभरा है। अमेरिका के ऊर्जा विभाग (डीओई) के अनुसार, 2002 से लेकर 2025 तक सभी अफ्रीकी उत्पादकों के सम्मिलित तेल उत्पादन में 91 प्रतिशत (प्रतिदिन 8.6 से 16.4 मिलियन बैरल) तक वृद्धि होने का अनुमान है।
अफ्रीका इकलौता ऐसा क्षेत्र है, जहां तेल उत्पादन बढ़ने की संभावना है। विश्व की सबसे बड़ी तेल कम्पनियों में से तीन (शैल, टोटल और शेवरॉन) अफ्रीका पर अपने वैश्विक उत्खनन और उत्पादन के बजट का क्रमश: 15 प्रतिशत, 30 प्रतिशत और 35 प्रतिशत लक्षित कर रही हैं। दूसरी ओर, ऐसा अनुमान है कि 2002 और 2025 के बीच चीन की ऊर्जा खपत 1,153 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी। अफ्रीकी देश, भले ही तेल के मामले में समृद्ध हों, लेकिन उनमें इन संसाधनों का दोहन करने के लिए पर्याप्त मात्रा में पूंजी नहीं है, जिसकी वजह से बाहरी सहायता पर निर्भर है। तेल के कारण चीन और अमेरिका के बीच होड़ शुरू हो सकती है।
इसके बावजूद, सहयोग के सीमित प्रकार, दोनों बड़े देशों के बीच निश्चित रूप धारण कर सकते हैं। मई 2013 में, अमेरिका, चीन और अफ्रीका के प्रतिनिधियों के बीच त्रिपक्षीय संवाद आयोजित किया गया था। इस ट्रैक टू प्रक्रिया में 37 व्यक्तियों ने भाग लिया था। इस प्रक्रिया से यह निष्कर्ष निकला कि चीन और अमेरिका के बीच कोई मूलभूत प्रतिद्वंद्विता नहीं है। इस निष्कर्ष पर भी पहुंचा गया कि कृषि, स्वास्थ्य, शांति और सुरक्षा के क्षेत्रों में संभावित सहयोग के लिए इनमें तालमेल मौजूद है। आतंकवाद से दोनों को समान रूप से खतरा है, ऐसे में यह एक अन्य क्षेत्र है, जिसमें दोनों देश एक-दूसरे का सहयोग कर सकते हैं। अफ्रीका के तीन प्रमुख देश — नाइजीरिया, केन्या और सोमालिया आतंकवाद से बुरी तरह प्रभावित हैं। इस प्रकार, अफ्रीका महाद्वीप अमेरिका और चीन के बीच प्रतिस्पर्धा और सहयोग के लिए परिस्थितियां प्रस्तुत करता है। असली इम्तिहान यह है कि ये दोनों देश अफ्रीका में, आपसी संबंधों में प्रतिस्पर्धा को हावी होने दिए बगैर सहयोग किस तरह करेंगे।
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