Published on Jul 08, 2022 Updated 0 Hours ago

क्या अफ्रीका के संघर्ष प्रभावित इलाक़ों में मध्यस्थ और सुरक्षा की गारंटी देने वाली भूमिका निभाने की चीन की कोशिशें कामयाब होंगी?

हॉर्न ऑफ़ अफ्रीका के संघर्ष में चीन की मध्यस्थता की कोशिशें: सिर्फ़ हंगामा या ये व्यवहारिक भी है?

उत्तरी पूर्वी अफ्रीका या हॉर्न ऑफ़ अफ्रीका में छह देश (इनमें से पांच संप्रभु देश और एक राष्ट्र बिना मान्यता वाला) आबाद हैं: इथियोपिया, इरीट्रिया, सूडान, जिबूती, सोमालिया और अपनी स्वतंत्र हुकूमत चलाने वाला सोमालीलैंड राज्य. अपने यहां लगातार अस्थिरता के चलते ये इलाक़ा, हाल के दिनों में शांति स्थापित करने की मध्यस्थता की कोशिशों के चलते सुर्ख़ियों में रहा है. फिर चाहे इथियोपिया में जातीय और राजनीतिक तनाव हों, सोमालिया के आतंकी संगठन अल शबाब से कई देशों को ख़तरा हो, या फिर सूडान में अधर में लटकी लोकतांत्रिक प्रक्रिया हो. ये क्षेत्र असुरक्षा के भयंकर दुष्चक्र में फंसा हुआ है. हाल के दिनों में ऐसे हालात ने दुनिया की बड़ी ताक़तों मसलन, चीन, अमेरिका और ब्रिटेन को इस इलाक़े के लिए विशेष दूत नियुक्त करने के लिए प्रेरित किया है, जिससे कि वो क्षेत्र की सुरक्षा को बनाए रखें और विवादों का शांतिपूर्ण तरीक़े से समाधान सुनिश्चित कर सकें.

20 जून को एक दिलचस्प घटना हुई, जब चीन ने इथियोपिया की राजधानी अदिस अबाबा में हॉर्न ऑफ़ अफ्रीका के लिए अपने पहले शांति, सुशासन और विकास का सम्मेलन आयोजित किया. इससे पहले, इसी साल फ़रवरी महीने में चीन ने शुई बिंग को, हॉर्न ऑफ़ अफ्रीका के लिए अपना विशेष दूत नियुक्त किया था, ताकि वो इस क्षेत्र के देशों के साथ अपने रिश्ते मज़बूत कर सके. इस सम्मेलन से पहले चीन के बड़े राजनयिकों ने अफ्रीका के कई देशों, मसलन दक्षिण अफ्रीका, अल्जीरिया, सेनेगल, तंज़ानिया, मलावी, बर्किना फासो और टोगो का दौरा किया था. इस शांति, सुशासन और विकास के इस सम्मेलन के ज़रिए चीन ने संकट के समाधान के लिए अपनी कूटनीति का दायरा बढ़ाने की नीयत का इज़हार किया था, और चीन ये संदेश भी देना चाहता था कि वो इस क्षेत्र की जनता की भलाई के काम कर सकता है.

जब चीन ने इथियोपिया की राजधानी अदिस अबाबा में हॉर्न ऑफ़ अफ्रीका के लिए अपने पहले शांति, सुशासन और विकास का सम्मेलन आयोजित किया. इससे पहले, इसी साल फ़रवरी महीने में चीन ने शुई बिंग को, हॉर्न ऑफ़ अफ्रीका के लिए अपना विशेष दूत नियुक्त किया था, ताकि वो इस क्षेत्र के देशों के साथ अपने रिश्ते मज़बूत कर सके. 

2014 में दक्षिणी सूडान में शांति स्थापना के लिए मध्यस्थता की कोशिशों के बाद, अदिस अबाबा में हुआ ये सम्मेलन चीन द्वारा ख़ुद को एक गंभीर मध्यस्थ के तौर पर आगे बढ़ाने का सबसे असरदार प्रयास था. इस सम्मेलन से पहले शुई बिंग ने इस मीटिंग को ख़ास तौर से संघर्षों के समाधान के मंच के तौर प्रचारित किया था. उन्होंने निजी तौर पर भी ये प्रस्ताव रखा था कि ‘इस क्षेत्र के संघर्ष के शिकार देश चाहें तो चीन उनके विवादों के शांतिपूर्ण निपटारे के लिए मध्यस्थ की भूमिका निभाने के लिए तैयार’ है.

शुई बिंग से ऐसे प्रस्ताव की उम्मीद तो बिल्कुल ही नहीं थी, क्योंकि एक जूनियर राजनयिक के तौर पर केन्या में कुछ वक़्त बिताने के अलावा उनके पास किसी अफ्रीकी देश का कोई तजुर्बा नहीं है. इसके बावुजूद इस सम्मेलन के ज़रिए चीन को ये मौक़ा मिला कि वो अफ्रीका में चल रहे टकरावों में मध्यस्थ की भूमिका निभाने के लिए अपनी क्षमता और नीयत का प्रदर्शन कर सके.

हॉर्न ऑफ़ अफ्रीका- एक अस्थिर और जटिल इलाक़ा

चीन का ये सम्मेलन उस वक़्त हुआ, जब अफ्रीका का ये इलाक़ा अपनी अस्थिरता के लिए बदनाम है, जहां पर बेहद भड़काऊ सामाजिक- राजनीतिक ढांचा मौजूद है. इस क्षेत्र के लिए असुरक्षा पैदा करने वाले कई संघर्ष चल रहे हैं. 2021 में सूडान और इथियोपिया के बीच सीमा विवाद को लेकर ज़बरदस्त तनाव हो गया और दोनों देशों के बीच सैन्य संघर्ष हुआ. इसी तरह हिंद महासागर में समुद्री सीमा को लेकर केन्या और सोमालिया के बीच राजनयिक टकराव पैदा हो गया. वहीं दूसरी तरफ़ इथियोपिया में गृह युद्ध शुरू हो गया. टाइग्रे  पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट (TPLF) के नेतृत्व में क्षेत्र के बाग़ियों ने इथियोपिया की सरकार के ख़िलाफ़ जंग छेड़ दी. संयुक्त राष्ट्र की मानव अधिकार परिषद (UNHCR) के मुताबिक़, इथियोपिया के सैन्य संघर्ष के चलते 51 लाख से ज़्यादा लोग बेघर हो गए हैं. इथियोपिया के टाइग्रे  इलाक़े में जंग आज भी जारी है और इस हिंसा का मक़सद  टाइग्रे  के निवासियों का नस्लीय सफ़ाया करना मालूम हो रहा है.

इससे भी अधिक चिंता की बात तो ये है कि इथियोपिया, मिस्र और सूडान के बीच ग्रैंड इथियोपियन रिनेसां बांध (GERD) के निर्माण को लेकर ज़बरदस्त तनातनी चल रही है. इसने इस क्षेत्र की अस्थिरता को और बढ़ा दिया है. सूडान में सेना के ज़रूरत से ज़्यादा दखल ने देश के नागरिक और लोकतांत्रिक शासन की ओर बढ़ने की प्रक्रिया में ख़लल डाल दिया है. वहीं, सोमालिया में अल शबाब की इस्लामिक उग्रपंथी गतिविधियां लगातार इस इलाक़े में ही नहीं, बल्कि अन्य देशों के लिए भी अस्थिरता का बायस बनी हुई हैं.

अधिक चिंता की बात तो ये है कि इथियोपिया, मिस्र और सूडान के बीच ग्रैंड इथियोपियन रिनेसां बांध (GERD) के निर्माण को लेकर ज़बरदस्त तनातनी चल रही है. इसने इस क्षेत्र की अस्थिरता को और बढ़ा दिया है. सूडान में सेना के ज़रूरत से ज़्यादा दखल ने देश के नागरिक और लोकतांत्रिक शासन की ओर बढ़ने की प्रक्रिया में ख़लल डाल दिया है.

हॉर्न ऑफ़ अफ्रीका में ये हिंसक घटनाएं उस वक़्त हो रही हैं, जब इथियोपिया, केन्या और सोमालिया के कई हिस्सों में लगातार चार साल से सूखे के चलते, खाने का भयंकर संकट पैदा हो गया है. सूखे के शिकार इलाक़ों में खाने की क़ीमतों में आग लगी हुई है, और लाखों लोग पानी की भयंकर क़िल्लत का भी सामना कर रहे हैं. कई आर्थिक चुनौतियों, ख़राब फ़सल और यूक्रेन युद्ध के चलते अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में खाद्यान्न के दामों में उछाल ने इस पूरे इलाक़े में मानवीय संकट पैदा कर दिया है. मानवीय मदद के मामलों में तालमेल करने वाले संयुक्त राष्ट्र के दफ़्तर (OCHA) का आकलन है कि हॉर्न ऑफ अफ्रीका में कम से कम 1.84 करोड़ लोग भयंकर खाद्य सुरक्षा और लगातार बढ़ रहे कुपोषण का सामना कर रहे हैं.

सम्मेलन का नतीजा क्या निकला?

ऐसी उथल-पुथल और अनिश्चितता के दौर में चीन ने इस इलाक़े के उन देशों के साथ मिलकर कामयाबी से ये सम्मेलन कर लिया, जो अक्सर एक दूसरे के विरोध में रहते हैं. ये वाक़ई तारीफ़ के क़ाबिल है. ये पूर्वी अफ्रीका में चीन के प्रभाव का सुबूत है, जो इस क्षेत्र के संसाधनों और मूलभूत ढांचे के विकास में उसके भारी निवेश का नतीजा है. पारंपरिक रूप से चीन इस इलाक़े में अपने व्यापार और निवेश पर ही ध्यान केंद्रित रखता रहा है. लेकिन, अब उसके रुख़ में ये बदलाव उस वक़्त देखने को मिल रहा है, जब हॉर्न ऑफ़ अफ्रीका का पूरा इलाक़ा संघर्षों और सुरक्षा संबंधी चुनौतियों का शिकार है. चीन का मक़सद असल में ये है कि वो सुरक्षा संबंधी संवाद की आड़ में इन देशों में अपनी संपत्ति, अपने नागरिकों और निवेश को महफ़ूज़ बनाना चाहता है. इसीलिए, इस सम्मेलन ने निश्चित रूप से ये संकेत दिया है कि चीन इस इलाक़े की सुरक्षा में ज़्यादा बड़ी और सक्रिय भूमिका निभाने का इरादा रखता है.

हॉर्न ऑफ़ अफ्रीका की सामरिक अहमियत को देखते हुए, चीन के इस सम्मेलन को बड़े पैमाने पर तवज्जो दी गई. लेकिन, बहुत चर्चा होने के बाद भी, ये सम्मेलन मध्यस्थता की चर्चा का अपना घोषित लक्ष्य हासिल करने में नाकाम रहा. एक तरफ़ तो इस सम्मेलन से ये संकेत मिला कि वो अफ्रीका में सुरक्षा के मसले पर क्षेत्रीय संवाद को प्रायोजित कर सकता है. इसी वजह से इस सम्मेलन को बड़ी उपलब्धि बताया जा रहा था. लेकिन, हक़ीक़त ये है कि ज़ुबानी वादों के सिवा इस सम्मेलन से कुछ ठोस नतीजा नहीं निकला.

एक तरफ़ तो शुई बिंग ने सम्मेलन के आख़िर में ये माना कि सम्मेलन की परिचर्चाओं में ‘मध्यस्थता के मुद्दे पर कोई बात नहीं हुई और किसी ने भी इस विषय को नहीं उठाया’.

सम्मेलन के दौरान मध्यस्थता के प्रयासों पर चर्चा क्यों नहीं हुई, इसके कई कारण हैं. हॉर्न ऑफ़ अफ्रीका के ज़्यादातर विवाद बेहद गंभीर हैं और इनमें जातीयता, धर्म और अस्पष्ट सीमाओं का घाल-मेल है. कुछ देशों के भीतर ही आपसी टकराव है, तो कुछ देश आपस में संघर्षरत हैं. इनमें आपसी और पेचीदा संबंध होने के अलावा, पूरे क्षेत्र में असुरक्षा के माहौल के चलते पूरे इलाक़े में टिकाऊ शांति और सुरक्षा क़ायम कर पाना बहुत मुश्किल काम है.

सम्मेलन के दौरान मध्यस्थता के प्रयासों पर चर्चा क्यों नहीं हुई, इसके कई कारण हैं. हॉर्न ऑफ़ अफ्रीका के ज़्यादातर विवाद बेहद गंभीर हैं और इनमें जातीयता, धर्म और अस्पष्ट सीमाओं का घाल-मेल है. कुछ देशों के भीतर ही आपसी टकराव है.

एक और बात ये है कि बहुत से मामलों में मध्यस्था का शोर मचाना और वाक़ई ज़मीनी स्तर पर मध्यस्थता कर पाना, दोनों बहुत अलग अलग बातें हैं. चीन द्वारा मध्यस्थता की पेशकश करना एक सकारात्मक पहल है. लेकिन, ज़रूरी नहीं कि उसकी ये कोशिश इस क्षेत्र के लोगों की उम्मीदें और उनकी ज़रूरतों से तालमेल रखती हों. हो सकता है कि इस इलाक़े के देश, चीन जैसे बाहरी मध्यस्थ के निर्णायक फ़ैसले करने में दिलचस्पी न रखते हों. हॉर्न ऑफ़ अफ्रीका के ज़्यादातर विवाद देशों के अंदरूनी मसले हैं, जिनके चलते किसी भी देश के अंदरूनी मामले में दख़ल न देने और उसकी संप्रभुता का सम्मान करने का सवाल भी उठता है.

हो सकता है कि भविष्य में चीन, संघर्ष के शिकार देशों को वार्ता की मेज पर लाने में सफल हो जाए और विवादों का शांतिपूर्ण निपटारा करने के लिए उन्हें आर्थिक मदद का लुभावना वादा करे. लेकिन, असली बातचीत में चीन हिस्सा नहीं लेगा.

अमेरिका और ब्रिटेन द्वारा विशेष दूत नियुक्त

 

हॉर्न ऑफ़ अफ्रीका के लिए विशेष दूत नियुक्त करने के मामले में चीन अकेला नहीं है. अमेरिका और ब्रिटेन ने भी ऐसा किया है. अमेरिका ने तो, हॉर्न ऑफ़ अफ्रीका के लिए एक के बाद एक दो विशेष दूत नियुक्त किए. पहले जनवरी 2022 में डेविड सैटरफील्ड को विशेष राजदूत नियुक्त किया गया. इसके बाद, अभी जून महीने में माइक हैमर को इस इलाक़े के लिए अमेरिका का विशेष दूत बनाया गया. ये दोनों ही नियुक्तियां, अमेरिका को इस बात का एहसास होने के बाद हुईं कि इस क्षेत्र की मौजूदा अस्थिरता और इससे जुड़ी हुई राजनीतिक, सुरक्षा संबंधी और मानवीय चुनौतियों से निपटने के लिए अमेरिका को ध्यान केंद्रित करने की ज़रूरत है.

वहीं दूसरी तरफ़ ब्रिटेन ने भी 21 जून को सारा मॉन्टगोमरी को हॉर्न ऑफ़ अफ्रीका और लाल सागर के लिए अपना विशेष दूत नियुक्त किया था. अफ्रीका के लिए ब्रिटेन के मंत्री विकी फोर्ड ने कहा कि, चीन की तुलना में इस क्षेत्र को लेकर ब्रिटेन का रवैया ‘बंटा हुआ’ होगा. जहां चीन पूरे उत्तरी पूर्वी अफ्रीका में शांति की बहाली को आर्थिक विकास के साथ जोड़कर देखता है. वहीं, सारा मॉन्टगोमरी के बारे में ऐसी अटकलें लगाई जा रही हैं कि वो मध्य-पूर्व के मुद्दों और हॉर्न ऑफ़ अफ्रीका के मानवीय संकट को अलग अलग स्तर पर देखेंगी.

शुई बिंग हों, माइक हैमर हों या फिर सारा मॉन्टगोमरी, ये ज़मीनी स्तर पर कोई बदलाव लाने में सफल हो पाएंगे, ये देखना अभी बाक़ी है. जिन लोगों को विशेष दूत नियुक्त किया गया है, वो या तो राजनयिक हैं या पूर्व राजनयिक हैं. वो किसी राजनीतिक समर्थन के चलते नहीं नियुक्त किए गए हैं. इसी वजह से वो भविष्य में कैसे क़दम उठाएंगे, ये काफ़ी हद तक उनके निजी व्यक्तित्वों पर निर्भर करेगा.

शुई बिंग हों, माइक हैमर हों या फिर सारा मॉन्टगोमरी, ये ज़मीनी स्तर पर कोई बदलाव लाने में सफल हो पाएंगे, ये देखना अभी बाक़ी है. जिन लोगों को विशेष दूत नियुक्त किया गया है, वो या तो राजनयिक हैं या पूर्व राजनयिक हैं. वो किसी राजनीतिक समर्थन के चलते नहीं नियुक्त किए गए हैं. इसी वजह से वो भविष्य में कैसे क़दम उठाएंगे, ये काफ़ी हद तक उनके निजी व्यक्तित्वों पर निर्भर करेगा.

हॉर्न ऑफ़ अफ्रीका में मध्यस्थता की चीन की पहल से एक बात तो तय है कि इससे भविष्य में चीन द्वारा सुरक्षा के ऐसे क्षेत्रीय सम्मेलन आयोजित करने की मिसाल क़ायम हुई है. भविष्य में जब भी किसी द्विपक्षीय या बहुपक्षीय बातचीत के ज़रिए शांति स्थापित करने का अवसर आएगा, तो चीन ख़ुद को शांति वार्ता के मध्यस्थ के रूप में पेश करने से हिचकेगा नहीं. चीन के लिए इस सम्मेलन का सबसे बड़ा सबक़ तो यही है कि इन्हें आयोजित करने का ख़र्च भी नहीं है और मौजूदा चुनौतियों को देखते हुए कोई ख़ास वादा करने का दबाव भी कम होगा. इसे चीन तुलनात्मक रूप से सकारात्मक पहल के रूप में प्रचारित कर सकता है. हालांकि एरी क बाहमध्यस्थ के तौर पर इस संपर्क को बनाए रखना और एक ठोस और टिकाऊ रणनीति पर चलना, आगे भी चीन के लिए एक चुनौती बनी रहेगी.

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