जिनपिंग पहले दिन ही कह चुके थे कि चीन शांतिपूर्ण तरीके से हमेशा से एकीकरण के लिये प्रयासरत है क्योंकि अंततः ताईवान और चीन एक देश हैं. चीन कहता आया है कि हॉन्ग-कॉन्ग सरीखे, ताईवान भी एक देश दो प्रथा के अंतर्गत चीन के साथ शांतिपूर्ण ढंग से जुड़े.
(ये लेख ओआरएफ़ के वीडियो मैगेज़ीन इंडियाज़ वर्ल्ड के एपिसोड–चीन ने छेड़ा समाजवाद का नया आलाप में चेयरमेन संजय जोशी और नग़मा सह़र के बीच हुई बातचीत पर आधारित है.)
जैसे – जैसे चीन अपनी विस्तारीकरण की नीति पर आगे बढ़ रहा है, वैसे-वैसे उसकी आक्रामकता भी बढ़ती जा रही है. इसके साथ ही वहां की राजनीति में राष्ट्रवाद का सुर भी तेज़ हो रहा है. उदाहरण है ताईवान, जिसको लेकर चीन की आक्रामकता काफी ख़तरनाक स्तर तक आगे बढ़ गई है. जिस वक्त ताईवान अपना 110वां राष्ट्रीय दिवस मना रहा था, उसके ठीक एक दिन पहले चीन के राष्ट्रपति शी-जिनपिंग ने एक बार फिर से ताईवान के चीन में विलय का मुद्दा उठाया. उन्होंने इसे बेहद आवश्यक बताया लेकिन ये भी जोड़ा कि एकीकरण शांतिपूर्ण तरीके से होना चाहिये.
तईवान के नेश्नल-डे के ठीक पहले भारी मात्रा में चीन के सैन्य जहाज़ ताईवान के एयर डिफेंस ज़ोन (जोकि एयर-स्पेस से अधिक विस्तृत होता है क्योंकि, इसमें एक बफ़र ज़ोन भी शामिल रहता है) में कलाबाजी करते देखे गए.ताईवान को संदेश साफ था और वो ये कि- ताईवान की राष्ट्राध्यक्ष साई-इंग-वेन नेश्नल डे के मौके पर अपना भाषण तनिक संभाल कर दें क्योंकि चीन देख रहा है और उसे बिलकुल भी बर्दाश्त नहीं होगा यदि ताईवान की और से आज़ादी के स्वर सुनाई देते हैं.
ताईवान को संदेश साफ था और वो ये कि- ताईवान की राष्ट्राध्यक्ष साई-इंग-वेन नेश्नल डे के मौके पर अपना भाषण तनिक संभाल कर दें क्योंकि चीन देख रहा है और उसे बिलकुल भी बर्दाश्त नहीं होगा यदि ताईवान की और से आज़ादी के स्वर सुनाई देते हैं.
जिनपिंग पहले दिन ही कह चुके थे कि चीन शांतिपूर्ण तरीके से हमेशा से एकीकरण के लिये प्रयासरत है क्योंकि अंततः ताईवान और चीन एक देश हैं. चीन कहता आया है कि हॉन्ग-कॉन्ग सरीखे, ताइवान भी एक देश दो प्रथा (One Nation-Two System) के अंतर्गत चीन के साथ शांतिपूर्ण ढंग से जुड़े. ताईवान पर दबाव लगातार बनाने की लगातार कोशिश जारी है. लेकिन पिछले कुछ समय से चीन की हरकतों की वजह से ऐसे दबाव का असर उल्टा ही हो सकता है. हॉन्गकॉन्ग के साथ जो ज़ोर जबर्दस्ती चीन की देखी गयी, जिस तरह वहाँ प्रजातन्त्र का गला घोंटने का प्रयास चला, उससे ताइवान के लोग भला कैसे आश्वस्त हो सकते हैं, चीन की एक देश दो प्रथा की सांत्वना से? क्या उनका भी वही हश्र होने वाला है, जो हॉन्ग-कॉन्ग का हुआ? ऐसे प्रयासों से ताईवान की राष्ट्रपति साई-इंग-वेन के हाथ मज़बूत ही होते है .
पर एक तरफ लड़ाका वायुयानों का जमावड़ा, दूसरी ओर शांतिपूर्ण विलय की आस, यह नरम-गरम का खेल चल रहा है चीन और ताइवान के बीच. दूसरी ओर अमेरिका और चीन के बीच भी नरम-गरम बदस्तूर जारी है. आपसी नोक-झोंक और टीका टिप्पणी के बीच अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की साल के अंत तक बात होने की संभावना बल खा रही है. एक ओर ताइवान की परिधि में चीनी जेट विमान धमकी भरे गोते खा रहे थे, वहीं 6 अक्टुबर को व्हाइट हाउस के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ,जेक सलिवन, अपने चीनी समकक्ष यांग ज़ीची के साथ स्विटज़रलैंड में बातचीत कर रहे थे. सुनने में आया कि चर्चाएं काफी वृहद थीं. उसी के दो दिन बाद, आठ अक्टूबर को एक वर्चुअल मीटिंग में अमेरिका कि व्यापार प्रतिनिधि कैथेरीन ताइ और चीनी वाइस प्रीमियर लियू ही के बीच चर्चा प्रारम्भ हुई. व्यापार से संबंधित ट्रंप की नीतियाँ आज भी ज्यों कि त्यों बरकरार है और चीन बार-बार मांग कर रहा है कि उसके उपर लगाये गए टैरिफ़ और प्रतिबंध दोनों को अमेरिका हटाये.
चीन का व्यापक राष्ट्रवाद
सच तो यह है कि आज चीन का सुरक्षा दृष्टिकोण विकसित होकर अब एक व्यापक स्वरूप ले चुका है. चीन आज सुरक्षा के अंतर्गत मात्र सैन्य बल और सुरक्षा को अहमियत नहीं देता. उसका मानना है कि अन्य क्षेत्र जैसे टेक्नोलॉजी, संसाधन, अर्थव्यवस्था आदि, सब को मिला कर ही देश की शक्ति और सुरक्षा के स्तंभ का निर्माण होता है. इसी सोच के चलते जब चीन अंतर्राष्ट्रीय सौदेबाज़ी भी करता है तब वो एक समग्र दृष्टिकोण से अपने पत्ते खोलता या बंद रखता है.
शी-जिनपिंग के नेतृत्व में चीन अब मुखर होकर कहने लगा है की चीन की सभ्यता, समाज, वहाँ की राज-व्यवस्था पश्चिमी देशों और उनके पिछलग्गुओं की व्यवस्थाओं से अधिक श्रेष्ठ है. जिन पश्चिमी मूल्यों की ढींग अमेरिका हाँकता आ रहा है वे विफ़ल साबित हो चुकी हैं.चीन के संगी-साथियों को चीन सरीख़ी श्रेष्ठतर व्यवस्थाओं का पूरा लाभ मिल सकता है. चीन और अमेरिका का द्वंद आज स्पष्ट रूप से दो अलग-अलग सभ्यताओं, संस्कृति और आइडियोलॉजी का क्लेश बनता जा रहा है .
शी-जिनपिंग के नेतृत्व में चीन अब मुखर होकर कहने लगा है की चीन की सभ्यता, समाज, वहाँ की राज-व्यवस्था पश्चिमी देशों और उनके पिछलग्गुओं की व्यवस्थाओं से अधिक श्रेष्ठ है. जिन पश्चिमी मूल्यों की ढींग अमेरिका हाँकता आ रहा है वे विफ़ल साबित हो चुकी हैं.
चीन के आक्रामक रुख़ के जवाब में राष्ट्रपति साई-इंग-वेन ने अपने राष्ट्रीय दिवस वाले भाषण में स्पष्ट कह दिया कि ताइवान न तो किसी से डरने वाला है न किसी के सामने झुकने वालों में से है . प्रश्न यह है कि क्या दुनिया के शक्तिवान देश ताइवान का साथ देने की स्थिति में हैं?
ताइवान को लेकर चीन लगातार और बार-बार अमेरिका को ललकारता आ रहा है. ताइवान के प्रति चीन की नीति पहले से बरकरार है. याद रहे कि प्रारम्भ में अंतर्राष्ट्रीय मान्यता अकेले ताइवान (ROC) को ही प्राप्त थी और UNSC में 1971 तक चीन (PRC) नहीं बल्कि ताइवान सदस्य था. यह स्थिति 1971 में बदली जब चीन ने UNSC में ताइवान का स्थान ले लिया. इस दौर में अमेरिका भी ताइवान (ROC) को ही मान्यता देता था न की PRC चीन को. पर समय आया जब किसिंजर निक्सन की पहल पर चीन को विश्व व्यवस्था में शामिल करने की प्रक्रिया प्रारम्भ की गयी. इसी प्रक्रिया के अंतर्गत ताइवान की मान्यता चीन को हस्तांतरित कर दी गयी और 1979 आते-आते अमेरिका ने चीन के साथ संपूर्ण कूटनीति संबंध (full diplomatic relations) कायम कर लिये. तब से स्थिति ज्यों की त्यों है. चीन कायम है अपनी “One China Policy” पर जिसके तहत PRC चीन को ही मान्यता है और ताइवान उसी का एक अलग-थलग पड़ा हुआ प्रदेश है. चीन की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं है, उसे जो मान्यता मिली हुई है, उसे वो छोड़ने को तैयार नहीं है…वो बार-बार अपनी “One China Policy” को दोहराता रहता है और उसी के बलबूते ताइवान को लेकर दूसरों को ललकारता रहता है.
लेकिन चीन ताइवान का PRC में एकीकरण करने के लिये किस हद तक जायेगा, क्या वो बल प्रयोग करेगा? और इसी से जुड़ा हुआ प्रश्न है कि चीन के इस बल प्रयोग के उत्तर में क्या अमेरिका ताइवान की सुरक्षा के लिए उतरेगा? सच तो यह है की इन दोनों प्रश्नों में से किसी का स्पष्ट रूप से “हाँ” में उत्तर दे पाना संभव नहीं है.
आज अफ़ग़ानिस्तान से कदम खींच लेने के बाद अमेरिका के रुख़ को लेकर अनिश्चितता बढ़ती ही है, घटती नहीं. वहाँ की घरेलू राजनीति के मद्देनज़र क्या अमेरिकी जनता किसी भी राष्ट्रपति को सैन्य बल प्रयोग करने में साथ देगी?आज अमेरिका के राष्ट्रपति साफ़ कह रहे हैं की अमेरिका दूर देशों की अंत विहीन लड़ाईयों से तौबा कर चुका तो ऐसे में कितना साथ किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति को मिलेगा ये बड़ा प्रश्न है?
आज अमेरिका के राष्ट्रपति साफ़ कह रहे हैं की अमेरिका दूर देशों की अंत विहीन लड़ाईयों से तौबा कर चुका तो ऐसे में कितना साथ किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति को मिलेगा ये बड़ा प्रश्न है?
चीन का विस्तारवादी रवैया और भारत का रुख़
भारत इस परिस्थिति से कितना प्रभावित होता है और ताइवान के प्रति ऐसे में भारत का क्या रुख़ रहना चाहिए?
ताइवान को एक स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता न तो भारत ने दी है और न ही अमेरिका न. दुनिया के बिरले ही देश हैं जिन्होनें ऐसा किया है. किन्तु अधिकांश देशों के स्वतंत्र व्यापारिक संबंध ताइवान के साथ कायम हैं. इन्हीं सम्बन्धों के अंतर्गत आपसी संतुलन बना हुआ है और चीन की आक्रमकता पर अंकुश रखने का प्रयास जारी है ताकि चीन अपनी हदों में रहे .
जहां तक चीन का प्रश्न है ताइवान को लेकर वह बार-बार अमेरिका को बल प्रयोग करने की गीदड़ भभकी तो देता रहेगा लेकिन वास्तव में किस हद तक जाएगा यह आंकलन करना कठिन है. याद रहे चीन और ताइवान की अर्थव्यवस्थाएँ आपस में काफी हद तक आपस में ऐसी गुथी हुई हैं, उनके बीच इतने निकट आर्थिक संबंध है, की युद्ध में घुसना इतना आसान नहीं. इन्हीं कारणों से चीन के बल प्रयोग और उस बल प्रयोग के फलस्वरूप अमेरिका के दाख़िल होने – दोनों में संशय है .
वास्तव में अगर व्यापक रूप से चीन के दृष्टिकोण से देखा जाये तो अमेरिका के लिये इंडो-पैसिफ़िक अवश्य ही अत्यंत महत्वपूर्ण हो सकता है, लेकिन चीन की निगाहें इस सीमित भौगोलिक क्षेत्र से बहुत आगे गढ़ी हुई हैं.अमेरिका का पूरा ज़ोर पिछले कुछ बरस से हिन्द-प्रशांत क्षेत्र पर सीमित है लेकिन जहां तक चीन का सवाल है, वो ताइवान में अमेरिका को ललकारता ज़रूर रहता है लेकिन उसका व्यापक दृष्टिकोण इसके बहुत आगे है. चीन के पदचिन्ह आज इंडो-पैसिफिक तक सीमित न रहकर इसके आगे बड़े व्यापक क्षेत्र में अपना फैलाव कर रहे है.
चीन की अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में सम्मिलन के साथ वहाँ आर्थिक सुधारों को गति 1978 से मिलने लगी थी. इसके साथ-साथ ही 1980 के दशक में चीनी बुद्धिजीवियों ने बात करनी शुरू कर दी थी व्यापक राष्ट्रीय शक्ति की जिसको वे ‘संख-गुऔली’ कहने लगे. व्यापक राष्ट्रीय शक्ति में सिर्फ़ अस्त्र-शस्त्र, जहाज़ी बेड़ों की संख्या, और प्रक्षेपासत्रों की गणना नहीं की जाती. उसके लिए देखना होता है की राष्ट्र आर्थिक रूप से कितना सशक्त है, उसके पास संसाधन चाहे मानवीय हों चाहे या फिर रेयर अर्थ्स जैसे दुर्लभ कितने हैं, टेकनॉलजी में कितना आगे है – ये सब कुछ सिमटा होता है. 1990 से चीन की आधिकारिक नीतियों में भी यह विचार धीरे-धीरे घर कर गया.
शी-जिनपिंग द्वारा OBOR (BRI) के लॉन्च को, फिर बाद में डिजिटल सिल्क रूट के पैंतरे को इसी परिप्रेक्ष्य से देखा जाना चाहिए . चीन का प्रयास रहा है कि कैसे भी एक तरफ इंडो-पैसिफिक में अमेरिका को चिकोटी काटकर उलझाए रखा जाये और अमेरिका का पूरा ध्यान वहाँ केद्रित कर, धीरे-धीरे अपनी पैठ मध्य-एशिया है, यूरोप, अफ्रीका, और आसियान के देशो में बढ़ाई जाए. पर ऐसा उसने सुरक्षा समझौतों के तहत नहीं किया. बल्कि सुरक्षा की तो वह बात ही नहीं करता है, परियोजनाओं और आधारभूत सरंचना बनाने की, सड़कों की, बंदरगाहों की. फिर वह चाहे श्रीलंका का हम्मंतोबा हो या पाकिस्तान में ग्वादार या फिर करांची – सुरक्षा का पुट सब में निहित ज़रूर है, पर सुरक्षा को बाना पहनाया गया है एक व्यापक आर्थिक परिवर्तन का. और इस की आड़ में उसने अपने पाँव व्यापक राष्ट्रीय शक्ति के तहत पसारने शुरू किये हैं .
इस दृष्टि से देखें तो वास्तव में अमेरिकी संधियों और समझौतों का स्वरूप इतना वृहद नहीं है की वह वास्तव में चीन की इस ललकार का समग्र उत्तर बन सके. चर्चायें बहुत हो रहीं हैं, ऑकस में, क्वॉड में – चाहे वैक्सीन डिप्लोमेसी हो, चाहे इंफ्रास्ट्रक्चर की बात हो, चाहे टेकनॉलजी की बात हो या सप्लाई चेन हो. लेकिन अभी ये चर्चाएँ ही हैं. वास्तव में ठोस धरातल पर जहां निवेश का सवाल हैं, जहां पैसे की बात है, जहां साथ मिलकर कुछ बड़े प्रोजेक्ट्स पर काम करने की पहल की बात है – अभी भी हिम्मत और शक्ति का अभाव ही दिखता है – सबको लेकर कोई वृहद नीति स्पष्ट नहीं दीखती. हाँ, सैन्य ताक़त बढ़ाने में और मालाबार एक्सरसाइज़ करने में पूरा ज़ोर रहता है लेकिन बाकी चीज़ों में ज़ोर कम रहता है. समग्र उत्तर के लिये वास्तव में अमेरिका और अन्य देशों को मिलकर समग्र मार्ग ही चुनना पढ़ेगा.
इसी दुविधा में है दुनिया.चीन आज खुल कर चुनौती दे रहा है प्रजातांत्रिक विचारधारा को. उसका कहना है की प्रजातंत्र विफल हो चुका है और इस विफलता का जीता जागता नमूना स्वयं अमेरिका है. इस “विफल” विचारधारा के स्थान पर वह प्रस्तावित कर रहा है नए युग के लिए एक नया समाजवाद जिसका स्वरूप चीनी होगा.
दरअसल, जब भी बीआरआई की चर्चा होती है, बार-बार बात उठती हौ चीन की ऋण-लिप्त कूटनीति (Debt Diplomacy) जिसके सहारे वह आर्थिक रूप से मजबूर देशों को कर्ज़ के तले दबा उन पर धीरे-धीरे कब्ज़ा जमाने में लगा है. लेकिन कोविड की मार से ऐसे अनेक असहाय देश हैं जिनके सामने आज चीन के आगे हाथ फैलाने के अलावा और कोई चारा नहीं है. यदि चीन से पैसा नहीं लें तो कौन सा वर्ल्ड बैंक, या आईएमएफ़, या फिर अमेरिका या कोई दूसरी शक्ति आगे आकर उन देशों में बेहतर शर्तों के साथ इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने के लिये तैयार है? क्या कोई विकल्प दे रहा है? यदि नहीं तो फिर चीन अपने पाँव पसारते जाएगा जब-तक सारे देशकर मिलकर चीन की व्यापाक चुनौती का जवाब नहीं देंगे और चीन की आक्रामकता पर नकेल कसना उतना ही मुश्किल होता जाएगा.
चीन आज खुल कर चुनौती दे रहा है प्रजातांत्रिक विचारधारा को. उसका कहना है की प्रजातंत्र विफल हो चुका है और इस विफलता का जीता जागता नमूना स्वयं अमेरिका है. इस “विफल” विचारधारा के स्थान पर वह प्रस्तावित कर रहा है नए युग के लिए एक नया समाजवाद जिसका स्वरूप चीनी होगा.
वैश्विक सप्लाई चेन पर चीन का नियंत्रण
विश्व भर में जाल फैलाये आपूर्ति श्रृंखलाएँ (supply-chains) हैं उनपर भी चीन का नियंत्रण है. आज विश्व भर में उपजा ऊर्जा संकट हो या फिर सेमी-कंडक्टर के बाज़ार में आई भारी किल्लत, सब के तार चीन से जुड़े हैं.
मौजूदा आपूर्ति शृंखलाएँ एक वर्ष में खड़ी नहीं हुई हैं. इनको बनने में 30 से अधिक वर्ष लगे. आज अगर ये कुछ कुछ टूटी बिखरी दिख रही हैं तो उसके कई कारण हैं. कोविड का इसमें बहुत बड़ा योगदान है साथ ही योगदान है चीन और अमेरिका के बीच के व्यापार युद्ध का.
मौजूदा आपूर्ति शृंखलाएँ एक वर्ष में खड़ी नहीं हुई हैं. इनको बनने में 30 से अधिक वर्ष लगे. आज अगर ये कुछ कुछ टूटी बिखरी दिख रही हैं तो उसके कई कारण हैं. कोविड का इसमें बहुत बड़ा योगदान है साथ ही योगदान है चीन और अमेरिका के बीच के व्यापार युद्ध का.कोविड के बाद आज हम अधिकांश वी-शेप रिकवरी (V-shape recovery) की चर्चा सुनते हैं जिससे यकायक सभी प्रकार के माल की कमी पैदा हो गयी. वास्तव में किसी भी अर्थव्यवस्था में आज वी-शेप रिकवरी नहीं है. हम वास्तव में पिंगपोंग रिकवरी का सामना कर रहे हैं. कोविड लहर समाप्त होती है एकदम मांग में उछाल आती है और फिर जल्द ही या तो एक और लहर या फिर कच्चे माल के अभाव में पिंगपोंग की तरह फिर लुड़क जाती है. कारण, कोविड और व्यापार-युद्ध , दोनों से उपजी अनिश्चितता का. यही अनिश्चितता का प्रभाव निवेश पर पड़ता है, लंबी अवधि वाली परियोजनाओं पर पड़ता है. जब तक भविष्य में आने वाली मांग के बारे में अनिश्चितता रहेगी आपूर्ति श्रृंखलाएँ छिन्न-भिन्न होती रहेंगी . स्टॉक रखे नहीं जाएंगे क्योंकि मांग के अभाव में कौन दिवालिया होने का जोख़िम ले. कोविड की अगली वेव आ सकती है तो किस भरोसे बाजार में या स्टॉक में पैसा लगाया जाए. निर्माताओं द्वारा भी वस्तुओं का समय पर निर्माण नहीं किया गया. कोयले या गॅस के स्टॉक नहीं रखे गए और फिर भारत में ऐसी बाढ़ आई की खदानें ही काम करना बंद कर दीं.
यही चुनौती आज दुनिया के सामने है, जिस चुनौती का कोई भी देश अकेले सामना नहीं कर सकता. आवश्यकता है कि सारे साथ मिलकर सुनियोजित ढंग से आपसी ताल-मेल से इसका सामना करने का प्रयास करें.
अब जब मांग में उछाल आई है तो चाहे कच्चा माल हो या कोयला, या फिर सेमी-कंडक्टर या उन से निर्मित माल – सब कम पड़ गए. फिर शुरू पिंग-पोंग का खेल. न कोयला है और न ही कंप्यूटर चिप्स. सब की कीमतों में भारी वृद्धि. ऊर्जा की कमी, मिल-मिला कर मानो अभूतपूर्व परफेक्ट स्टॉर्म (perfect storm) बन रहा हो, जिसे कई चीज़ें सम्मिलित रूप से बल प्रदान कर रही हों ताकि इसकी विध्वंसक मार बढ़ती ही जाए . किसी के पास स्टॉक नहीं है, कोई स्टॉक रखना नहीं चाहता है क्योंकि भरोसा नहीं है की आगे क्या होने वाला है. दूसरी तरफ़ बिजलों घरों में एक ओर पर्याप्त जहाँ कोयला नहीं है तो दूसरी ओर समुद्री माल-भाड़े की कीमतों में ऐसा उछाल है कि कोयला हो या कंप्यूटर चिप्स, दोनों को लाने ले जाने के लिए ही भारी कीमत चुकानी पड़ रही है. जो स्थिति भारत और चीन में कोयले को लेकर हो रही है, यूरोप में गैस को लेकर हो गयी है.
यही तूफान अगर बल पकड़ता गया तो अनियंत्रित मुद्रा स्फीति कई देशों में वित्तीय संकट खड़ा कर सकती है जिसका सामना भी अगले कुछ वर्षों में सब को करना पड़ेगा.यही चुनौती आज दुनिया के सामने है, जिस चुनौती का कोई भी देश अकेले सामना नहीं कर सकता. आवश्यकता है कि सारे साथ मिलकर सुनियोजित ढंग से आपसी ताल-मेल से इसका सामना करने का प्रयास करें.
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Sunjoy Joshi has a Master’s Degree in English Literature from Allahabad University, India, as well as in Development Studies from University of East Anglia, Norwich. ...