Author : Vivek Mishra

Published on Apr 17, 2023 Updated 0 Hours ago

एक के बाद एक यूरोपीय नेताओं के चीन का दौरा करना यूरोप और अमेरिका की एकजुटता कमज़ोर होने का संकेत है?   

क्या चीन, यूरोप और अमेरिका के रिश्तों के बीच बाधक बनकर खड़ा हो रहा है?

ये लेख द चाइना क्रॉनिकल्स सीरीज़ की 141वीं किस्त है.


यूक्रेन संकट के लंबा खिंचने का एक अप्रत्याशित नतीजा ये रहा है कि चीन अचानक से वैश्विक कूटनीति में सबसे आगे दिखने लगा है. जब से महामारी के कारण लगाई गई पाबंदियों में ढील दी जाने लगी है, तब से ही दुनिया भर के तमाम नेता चीन पहुंचने लगे थे, ताकि वो चीन के साथ व्यापार, राजनीति और कूटनीति के मोर्चे पर अपनी जगह बना सकें.

अभी हाल ही में जिन प्रमुख नेताओं ने चीन का दौरा किया है, उनमें स्पेन के प्रधानमंत्री पेड्रो सांचेज़ पेरेज़-कास्टेयोन (जो इस साल मार्च में चीन के दौरे पर गए थे), फ्रांस के राष्ट्रपति इमैन्युअल मैक्रों और ब्राज़ील के राष्ट्रपति लुइज़ इनासियो लुला डा सिल्वा शामिल हैं.

नवंबर 2022 में जर्मनी के चांसलर ओलाफ़ शोल्ज़ ने राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ बातचीत के लिए चीन का दौरा किया. शोल्ज़ के दौरे से पहले किसी यूरोपीय नेता के चीन का दौरा किए हुए तीन साल बीत चुके थे. अभी हाल ही में जिन प्रमुख नेताओं ने चीन का दौरा किया है, उनमें स्पेन के प्रधानमंत्री पेड्रो सांचेज़ पेरेज़-कास्टेयोन (जो इस साल मार्च में चीन के दौरे पर गए थे), फ्रांस के राष्ट्रपति इमैन्युअल मैक्रों और ब्राज़ील के राष्ट्रपति लुइज़ इनासियो लुला डा सिल्वा शामिल हैं. वैसे तो दुनिया के इन नेताओं के चीन दौरे को हम अमेरिका और चीन के साथ बराबर संबंध बनाए रखने के साथ सात उनके द्वारा दुनिया की राजनीति में अपने लिए अलग जगह बनाने की कोशिश के तौर पर देख सकते हैं, जो शायद अलग अलग वजहों से ज़रूरी हो. फिर भी ये दौरे, विश्व राजनीति में एक मध्यस्थ के तौर पर चीन की बढ़ती भूमिका की गवाही देते हैं.

फ्रांस की चीन के नज़दीक आने की कोशिश

चीन से नज़दीकी बढ़ाने की फ्रांस की कोशिश ने यूरोप और अमेरिका की दोस्ती को हिला दिया है. जबकि यूरोप में युद्ध के कारण ये दोस्ती दोबारा मज़बूत होती दिख रही थी. ऐसा लगता है कि चीन के साथ दोस्ती बढ़ाने के फ्रांस के प्रयासों के पीछे घरेलू और साथ साथ बाहरी मजबूरियां हैं. फ्रांस ने ये क़दम इस सच्चाई के बावुजूद उठाया है कि आज यूक्रेन में छिड़े युद्ध के कारण अमेरिका और यूरोप के लिए एकजुट रहना ज़रूरी है. अंदरूनी तौर पर फ्रांस इस वक़्त पेंशन को लेकर लगातार विरोध प्रदर्शनों का शिकार है और इनका असर फ्रांस के बाहर भी दिख रहा है. हाल ही में नीदरलैंड्स के राजकीय दौरे के दौरान, फ्रांस के राष्ट्रपति इमैन्युअल मैक्रों को विरोध प्रदर्शनों का सामना करना पड़ा था, जिससे उनके भाषण में भी बाधा आई. बाहरी समस्याओं की बात करें तो, ‘यूरोपीय संप्रभुता’ पर ज़ोर देने की फ्रांस की कोशिशें, होड़ में बने रहने, औद्योगिक नीति, संरक्षणवाद, आपसी लेन-देन और सहयोग पर आधारित हैं. आज पूर्वी यूरोप में रूस की हरकतों के चलते जब अमेरिका अपनी सामरिक मजबूरियों के कारण फ्रांस से एकजुटता की अपेक्षा करता है, तो फ्रांस द्वारा इन स्तंभों पर ज़ोर देना, बेवक़्त की बांसुरी बजाने जैसा ही है.

फ्रांस के लिए चीन का दौरा, यूरोप के हितों को प्राथमिकता देने की सोची समझी कोशिश थी और इसके साथ साथ वो अमेरिका के साथ अपने रिश्तों को कम करके और यहां तक कि कई वजहों से उस संबंध को नीचा दिखाने का भी प्रयास कर रहा था. वैसे तो मैक्रों का चीन दौरा इस क्षेत्र के सामूहिक हितों के लिहाज़ से प्रतीकात्मक था, क्योंकि उनके साथ यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डर लेयेन भी चीन गई थीं. फिर भी फ्रांस के राष्ट्रपति निश्चित रूप से चीन को रिझाने की कोशिश कर रहे थे. ये बात ताइवान को लेकर मैक्रों के बयान से बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है: ‘हम यूरोपीय लोग ख़ुद से जो सवाल कर रहे हैं, वो ये है कि: क्या ये हमारे हित में है कि जब बात ताइवान की आए तो हम तेज़ी दिखाएं? नहीं.’ यही नहीं, उन्होंने अमेरिका और यूरोप के हितों को विभाजित करने वाली रेखा को स्पष्ट करते हुए कहा कि फ्रांस को अमेरिका का ‘मातहत’ नहीं बनना चाहिए और उसे ‘अमेरिकी डॉलर के बाहरी इस्तेमाल’ पर अपनी निर्भरता कम करनी चाहिए. फ्रांस की ओर से मैक्रों ने ‘सामरिक स्वायतता’ की बात की, उसे सुनकर शी जिनपिंग को निश्चित रूप से बहुत भला लगा होगा. मैक्रों के दौरे की चीन में जिस तरह व्यापक रूप से सकारात्मक व्याख्या की गई उससे ये बात साफ़ नज़र आई.

चीन से हमदर्दी रखने वाले अपने रवैये का बचाव करते हुए फ्रांस ने जो तर्क दिए, वो ‘सामरिक स्वायत्तता’ की कमज़ोर बुनियाद पर टिके हैं. ये ऐसी रणनीति है, जिसका उम्मीद के मुताबिक़ चीन ने समर्थन भी किया. चीन से नज़दीकी बढ़ाने की फ्रांस की कोशिश को हम, अमेरिका की उस चाल के पलटवार के तौर पर भी देख सकते हैं, जब 2022 में अमेरिका ने ऑस्ट्रेलिया के साथ हुए पनडुब्बी के समझौते से फ्रांस को बाहर निकालते हुए ब्रिटेन के साथ AUKUS गठबंधन बनाया था. लेकिन, ये क़दम पश्चिमी देशों, रूस और चीन के सामरिक हितों के उलट साबित हुए थे. फिर भी राजनीतिक विज्ञान का एक सिद्धांत, कारण तो ये इशारा करता है कि आज यूरोप जिस तरह अमेरिका और यूरोप के व्यापक लक्ष्यों की तुलना में अपने हितों को प्राथमिकता देने वाले क़दम उठा रहा है, उसकी संभावित वजह रूस और चीन की बढ़ती नज़दीकी भी हो सकती है.

अमेरिका-यूरोप की एकजुटता कमज़ोर पड़ रही है?

हो सकता है कि मैक्रों के तीन दिवसीय चीन दौरे के कारण कारोबारी सौदे हुए हों और भविष्य में फ्रांस के कारोबार में उछाल की उम्मीदें जगी हों. लेकिन, अमेरिका और यूरोप की एकजुटता के समर्थक समुदाय और ख़ास तौर से अमेरिका की ओर से इसका व्यापक और बेहद तीखा विरोध किया गया.

अमेरिका की नज़र में ये क़दम, यूरोप और उसकी एकजुटता में गिरावट का सुबूत है. ट्रंप के शासनकाल में यूरोप और अमेरिका के रिश्तों को हुए भारी नुक़सान के बाद बाइडेन प्रशासन ने इस नुक़सान की भरपाई के लिए बहुत मेहनत की है. यूरोप में यूक्रेन संकट ने बाइडेन प्रशासन को इस बात का सटीक अवसर दिया कि वो चीन और रूस दोनों से निपटने के प्रयासों में यूरोप को अपने साथ जोड़ सकें. क्योंकि ये ऐसी चुनौतियां हैं, जिनसे अमेरिका अकेले नहीं निपट सकता. चीन को लेकर बाइडेन का कड़ा रुख़ उन क़दमों के तौर पर दिखता है, जो अमेरिका ने तकनीकी सेक्टर में उठाए हैं. इन क़दमों को कारगर बनाने के लिए अमेरिका को यूरोप के सहयोग की आवश्यकता है. ये बात यूरोपीय देशों के लिए लगातार बढ़ती चुनौती है क्योंकि वो अपने निर्माण क्षेत्र और कारोबार का विस्तार करना चाहते हैं. मिसाल के तौर पर, अमेरिका द्‌वारा चीन को आर्थिक रूप से अलग थलग करने के प्रयासों के बावुजूद जर्मनी, आर्थिक क्षेत्र में चीन से नज़दीकी बढ़ा रहा है.

बाइडेन के लिए अमेरिका और यूरोप का अचूक दोस्ती वाला वो रिश्ता क़ायम करने की चुनौती एक अधूरे ख़्वाब सरीखा होगा, जिसमें यूरोपीय देश चीन और रूस से अपने सभी संबंध समाप्त करें..

चीन को लेकर यूरोप के बड़े देशों के नेताओं द्वारा अपने अपने अलग रास्ते पर चलने से चीन और रूस, दोनों ही सामरिक मोर्चों पर अमेरिका की समस्याएं और पेचीदा हो सकती हैं. फरवरी 2022 में यूक्रेन पर हमले के बाद से रूस अमेरिका के लिए एक अप्रत्याशित चुनौती बनकर उभरा है. जबकि चीन उसके लिए लंबी अवधि की सामरिक चुनौती है. ये बात अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति और हिंद प्रशांत नीति समेत सभी सामरिक दस्तावेज़ों में खुलकर नज़र आती है. ताइवान को लेकर मैक्रों का टकराव न बढ़ाने वाला बयान भी, चीन के मोर्चे पर आने वाली इस चुनौती से निपटने की अमेरिका की तैयारियों में बाधक बन सकती है. यूक्रेन संकट और युद्ध के साए तले बाइडेन और यूरोपीय सहयोगियों के बीच बढ़ती एकजुटता, दोनों पक्षों द्वारा मिलकर चीन को अलग थलग करने की बुनियाद पर टिकी है. मगर, हिंद प्रशांत क्षेत्र को लेकर, यूरोपीय संघ की रणनीति के अलावा भी कुछ यूरोपीय देशों द्वारा अलग अलग रणनीतियां तैयार करने से भी ये संकेत मिलता है कि बाइडेन प्रशासन के लिए हिंद प्रशांत की कड़वी सच्चाइयों के हवाले से अमेरिका और यूरोप को एकजुट कर पाना आसान नहीं होगा. बाइडेन के लिए अमेरिका और यूरोप का अचूक दोस्ती वाला वो रिश्ता क़ायम करने की चुनौती एक अधूरे ख़्वाब सरीखा होगा, जिसमें यूरोपीय देश चीन और रूस से अपने सभी संबंध समाप्त करें. इस बीच चीन के साथ ख़ुद अमेरिका का व्यापार भी बढ़ रहा है: 2022-2023 में चीन से अमेरिका का आयात, 2021-2022 की तुलना में 6.3 प्रतिशत बढ़ गया.

दुनिया में नया मध्यस्थ?

चीन के लिए यूरोपीय देशों के साथ मज़बूत आर्थिक रिश्ते, अमेरिका द्वारा उसे तकनीकी, आर्थिक और अन्य क्षेत्रों में अलग थलग करने के प्रयासों के ख़िलाफ़ उसकी लड़ाई की दिशा में ही एक और क़दम है. चीन ने दुनिया से जुड़ने के अपने प्रयासों में एक ईमानदार मध्यस्थ बनने की भूमिका को भी जोड़ लिया है. हाल ही में चीन ने दुनिया भर में एक मध्यस्थ के तौर पर अपनी आमद का एलान किया है. पश्चिमी एशियाई क्षेत्र में चीन, सऊदी अरब और ईरान को बातचीत की मेज़ पर एक साथ लाने में कामयाब रहा है, जबकि दोनों देश एक दूसरे के दुश्मन रहे हैं. चीन की ये सफलता, एक नई क्षेत्रीय व्यवस्था का आग़ाज़ बन सकती है. 2021 में अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी ने चीन को मौक़ा दिया है कि वो अपनी नई भूमिकाओं को लेकर दूरगामी सोच अपनाए. शी जिनपिंग के हालिया मॉस्को दौरे के दौरान यूक्रेन संकट ख़त्म करने के लिए चीन ने शांति का जो प्रस्ताव दिया था, वो अस्पष्ट भले ही कहा जा रहा हो, मगर इसका असल मक़सद शांति स्थापित करने से ज़्यादा अपनी शांतिदूत वाली सोच को बढ़ावा देना है.

वैश्विक कूटनीति में अपनी पहुंच बढ़ाने की चीन की कोशिश पर एक टाले न जा सकने वाले सवाल का साया मंडरा रहा है. सवाल ये है कि क्या चीन, ख़ास तौर से ख़ुद उसके संप्रभुता संबंधी विवादित दावों, ताइवान को लेकर आक्रामक रवैये और ग़ैर राष्ट्रीय ताक़तों जैसे तालिबान को अपनाने को लेकर तैयार रहने वाली छवि के बीच एक ईमानदार मध्यस्थ बन सकता है? एक ईमानदार मध्यस्थ की चीन की छवि उसकी विदेश नीति के दांव-पेंचों के चलते कलंकित बनी हुई है. क्योंकि इन दांव-पेंचों के ज़रिए चीन ने दुनिया के तमाम देशों पर राजनीतिक, आर्थिक और कूटनीतिक दबाव बनाया है. अपने विशाल पड़ोस में अपनी संप्रभुता को लेकर दावों के मामले में चीन अक्सर ज़ोर ज़बरदस्ती से काम लेता आया है.

अभी वैश्विक कूटनीति में व्यापक स्तर पर दबदबा क़ायम करने और प्रभावित करने की क्षमता के मामले में चीन, अमेरिका से कोसों दूर है. लेकिन, ये हो सकता है कि उसने इस दिशा में अमेरिका की बराबरी करने की तैयारी शुरू कर दी है. वैसे तो अमेरिका ने ऐतिहासिक रूप से अन्य देशों पर अपना दबदबा क़ायम करने के लिए खुलकर कूटनीतिक और दबाव की नीति का इस्तेमाल किया है. मगर, चीन अभी भी अपने दबाव बनाने वाले दांव-पेंच गुपचुप तरीक़े से चलता है और इससे चीन को अमेरिका की तुलना में अच्छी छवि बनाने का मौक़ा मिलता है. इसके अलावा, चीन को विकासशील देशों के घरेलू राजनीतिक माहौल में में व्यापक पश्चिम विरोधी और उपनिवेशवाद विरोधी भावनाओं का भी लाभ मिलता है. आज जब यूरोप में संघर्ष जारी है और आर्थिक और मंदी आने की मजबूरियां दुनिया भर के देशों को चीन के साथ आर्थिक संबंध बनाने के लिए मजबूर कर रही हैं, तो चीन इस बात की कोशिश करेगा कि वो मौक़े का फ़ायदा उठाकर अपना प्रभाव क्षेत्र भी बनाए और अपनी छवि भी चमका ले.

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