Published on Apr 28, 2021 Updated 0 Hours ago

चीन को लगता है कि विश्व का शक्ति संतुलन पश्चिम से पूरब की ओर आना क़ुदरती और अनिवार्य बात है

चीन की रणनीति एकदम साफ़ है: अब दुनिया को सोचना है कि वो इसका सामना कैसे करे

चीन ख़ुद के बारे में क्या नज़रिया रखता है, ये बात हाल के दिनों में बुनियादी तौर पर बदल गई है. चीन के पूर्व राष्ट्रपति हू जिंताओ, अपने देश के ‘शांतिपूर्ण उभार’ पर ज़ोर दिया करते थे; वहीं, उनके बाद राष्ट्रपति बने शी जिनपिंग का रवैया आक्रामक है. नवंबर 2020 में शी जिनपिंग ने अपने केंद्रीय सैन्य आयोग-चीन की सर्वोच्च सैन्य संस्था-से कहा कि वो पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) के प्रशिक्षण में सुधार लगाए, जिससे कि वो युद्ध जीतने के लिए तैयार हो सकें. अक्टूबर 2020 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के महाधिवेशन-जो चीन की नीतियों पर परिचर्चा का प्रमुख मंच है-में तय किया गया कि चीन अपनी रक्षा की क्षमताओं में सुधार को नई गति देगा. अपने विकास और दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के कारण चीन, अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाने के लिए अधिक निवेश कर पाने की स्थिति में पहुंच चुका है. सैन्य ताक़त बढ़ाना ही भारत, जापान और ताइवान के साथ चीन के तनाव के पीछे का बड़ा कारण है.

फरवरी 2021 में चीन के अंतरिक्ष अध्ययन संस्थान ने अलाबामा की एयर यूनिवर्सिटी के तत्वावधान में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी. इस रिपोर्ट का नाम था, ‘सैन्य रणनीति का विज्ञान (2013)’. इस रिपोर्ट से हमें चीन के योजनाकारों के विचार समझने में मदद मिलती है. इस रिपोर्ट को चीनी भाषा में अनुवाद करके चीन के एकेडमी ऑफ मिलिट्री साइंस द्वारा तैयार रणनीतिक दस्तावेज़ में प्रकाशित किया गया है. इन रणनीतिक दस्तावेज़ों को अकादेमी हर 13 साल में संशोधित करती है.

अपने विकास और दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के कारण चीन, अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाने के लिए अधिक निवेश कर पाने की स्थिति में पहुंच चुका है. सैन्य ताक़त बढ़ाना ही भारत, जापान और ताइवान के साथ चीन के तनाव के पीछे का बड़ा कारण है.

ये रिपोर्ट इसलिए और भी महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि जिस समय इसे प्रकाशित किया गया था, लगभग उसी समय शी जिनपिंग देश के राष्ट्रपति बने थे. शी जिनपिंग ने एक मज़बूत सैना की मदद से एक शक्तिशाली देश बनाने की ठानी थी. एक तरफ़ तो चीन और भारत की सेनाएं मई 2020 से वास्तविक नियंत्रण रेखा पर आमने सामने खड़ी थीं. लंबे समय तक चले गतिरोध के बाद, जब वास्तविक नियंत्रण रेखा पर डिसएंगेजमेंट की प्रक्रिया शुरू हुई, तो उस पर कई विशेषज्ञों ने सवाल उठाए थे कि क्या हमने चीन के साथ सही समझौता किया है? और क्या इससे चीन के साथ हमारी सीमा पर स्थायी शांति आएगी? या फिर फिलहाल तनातनी कम करना, चीन का वक़्ती तौर पर क़दम पीछे खींचने की नई रणनीति का हिस्सा है?

सैन्य रणनीति और दुश्मन को डराना

रिपोर्ट के अनुसार, 1949 में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना यानी चीन के कम्युनिस्ट गणराज्य की स्थापना के बाद से वहां की सेना ख़ुद को एक क्रांतिकारी सेना से एक लड़ाकू सेना में परिवर्तित करने की कोशिश करती रही है. चीन के राष्ट्रवादियों और वामपंथियों के बीच गृह युद्ध के दौरान, लाल सेना ने ‘सक्रिय रक्षा’ की रणनीति पर अमल किया था. इस रणनीति के तहत ‘दुश्मन को रिझाकर अपने इलाक़े में बहुत भीतर तक’ ले आया जाता था. इन गुरिल्ला रणनीतियों को संक्षेप में इस तरह बयान किया गया था, ‘जब दुश्मन आगे बढ़ रहा हो, तो पीछे हटो और हमला तब करो जब दुश्मन पीछे हट रहा हो.’ चीन को लगता था कि उसे अमेरिका और सोवियत संघ से संपूर्ण युद्ध वाले हमले का ख़तरा है. इसीलिए, माओ त्से तुंग ने रणनीति बनाई कि, ‘युद्ध के लिए सक्रियता से तैयारी करो’ और ‘युद्ध छिड़ने की सूरत में तुरंत पलटवार करो’. ये चीन की दुश्मन देशों को डराने की सामरिक नीति थी. इस दौरान चीन, कोरिया और वियतनाम के युद्धों में शामिल रहा था. 1962 में उसका भात के साथ भी छोटा सा सीमा संघर्ष हुआ था. चीन इन युद्धों  के अनुभव से इस नतीजे पर पहुंचा कि अपने आस-पास स्थित देशों के साथ संघर्ष करने से उसके दुश्मन देश चीन पर सीधे सीधे हमला नहीं करेंगे. 1960 के दशक में चीन ने जब परमाणु हथियार विकसित किए, तो चीन ने ये क़दम उठाने के पीछे ये तर्क दिया था कि उसने ‘परमाणु क्षेत्र में एकाधिकार’ को ख़त्म करने के लिए ये क़दम उठाया, जिससे कि कोई देश उसे ब्लैकमेल न कर सके.

‘जब दुश्मन आगे बढ़ रहा हो, तो पीछे हटो और हमला तब करो जब दुश्मन पीछे हट रहा हो.’

जियांग ज़ेमिन के शासनकाल से ही चीन की अर्थव्यवस्था में बहुत तेज़ी से बदलाव आ रहे हैं. इससे चीन की व्यापक राष्ट्रीय ताक़त में इज़ाफ़ा हुआ है. इस प्रगति के माध्यम से चीन ने दुश्मनों को क़ाबू में रखने की एक असरदार रणनीति विकसित कर ली. जियांग ज़ेमिन ने इस रणनीति को अपने उस बयान के ज़रिए संक्षेप में बयां किया था, ‘आप तभी चिल्लाकर बोल सकते हैं, जब आपके पास पैसे हों. अगर आप तरक़्क़ी की राह में पीछे रह जाते हैं, तो आप पिट सकते हैं.’ राष्ट्रीय ताक़त का आकलन करने के लिए सैन्य शक्ति और सॉफ्ट पावर यानी अर्थव्यवस्था, व्यापार औक संस्कृति को शामिल किया जाता है. हू जिंताओ के शासनकाल में सूचना और प्रौद्योगिकी की मदद से दुश्मन देश को डराने की शक्ति का विकास करने पर ज़ोर दिया गया. इसके साथ साथ देश की तकनीकी बुनियादें मज़बूत करने का मिशन भी अंजाम दिया गया. इस दस्तावेज़ में कहा गया है कि सैन्य रणनीति बनाने में किसी प्रतिद्वंदी देश की केवल सैन्य क्षेत्र में कमज़ोरियों का आकलन ही नहीं होना चाहिए, बल्कि इसके लिए उस देश के नागरिकों की मनोवैज्ञानिक दशा का भी आकलन किया जाना चाहिए. इससे इशारा मिलता है कि चीन ग़लत सूचनाओं की भरमार पर भी ज़ोर देता है. इसका एक उदाहरण, बीजिंग स्थित रेनमिन यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर जिन कैनरोंग के दावों पर आधारित मीडिया रिपोर्ट हैं. इसमें कहा गया था कि चीन ने लद्दाख में ‘माइक्रोवेव हथियार’ तैनात कर रखे हैं, इसी वजह से भारतीय सैनिकों को कुछ पहाड़ियों से पीछे हटना पड़ा. हालांकि, भारत ने ऐसे दावों का खंडन किया था. लेकिन, ऐसी ग़लत ख़बरें भारत के मनोबल को चोट पहुंचाने की क्षमता रखती हैं.

दादागिरी

रिपोर्ट के अनुसार, चीन को लगता है कि 19वीं सदी से ही अमेरिकी सेना का प्रमुख ध्येय विस्तार और अपना प्रभुत्व बनाए रखना था. 21सदी की शुरुआत से ही हर अमेरिकी राष्ट्रपति ने वैश्विक स्तर पर अपने देश के प्रभुत्व को बनाए रखने के लिए काम किया है. रिपोर्ट कहती है कि अमेरिका ऐसे देशों को दबाकर रखता है, जो उसके सर्वोपरि होने को चुनौती देते हैं. अमेरिका द्वारा दुनिया पर अपना प्रभुत्व बनाए रखने की योजना में प्रतिद्वंदी देशों की तुलना में तकनीकी अंतर बनाए रखने के साथ साथ पश्चिमी यूरोप और पूर्वी एशिया के देशों को चीन की घेरेबंदी के लिए इस्तेमाल करना शामिल है. 2013 की रिपोर्ट में चीन ने ये अंदाज़ा लगा लिया था कि अमेरिका आने वाले समय में पूर्वी एशिया और पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र के देशों के साथ अपना गठबंधन और मज़बूत करेगा, जिससे एशिया प्रशांत क्षेत्र पर उसका प्रभुत्व बना रहे. दिलचस्प बात ये है कि भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के बीच क्वाड सुरक्षा संवाद ने कोविड-19 महामारी के बाद काफ़ी रफ़्तार पकड़ ली है.

चीन का पलटवार

चीन का नेतृत्व और उसके सामरिक वर्ग के लोगों के ज़हन में ये बात गहराई से बैठी है कि अमेरिका, हिंद प्रशांत क्षेत्र में अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए हर संभव कोशिश करता रहेगा. इसीलिए, ये रणनीतिकार हमेशा ये सोचते हैं कि चीन को अमेरिका की दादागीरी वाली इस व्यवस्था का सामना कैसे करना चाहिए? चीन के सामरिक विशेषज्ञों का मानना है कि दुनिया बड़ी तेज़ी से एकध्रुवीय व्यवस्था से बहुध्रुवीय व्यवस्था की ओर बढ़ रही है. अमेरिका, कई गठबंधन बनाकर इस बदलाव को रोकने की कोशिश कर रहा है. चीन को लगता है कि इस समय दुनिया का शक्ति संतुलन पश्चिम से पूरब की ओर झुक रहा है, जो क़ुदरती भी है और अपरिहार्य भी. हालांकि, दोनों देशों के बीच कुछ मोर्चों पर सहयोग तो कई मोर्चों पर प्रतिद्वंदिता एक साथ चल सकती है. एक मोर्चे पर सहयोग का अर्थ ये नहीं है कि दूसरे मोर्चे पर भी दोनों देश आपस में सहयोग ही करें. इसके बजाय दूसरे क्षेत्र में मुक़ाबला और संघर्ष होगा. सहयोग और संघर्ष के बीच ये विरोधाभासी खिंचाव ही तमाम देशों के संबंधों की नर्मी और टकराव को कम या ज़्यादा करेगा. इन संबंधों के चलते ही तमाम देश आपसी संबंध को युद्ध के स्तर पर ले जाने से रोकेंगे.

रिपोर्ट कहती है कि अमेरिका ऐसे देशों को दबाकर रखता है, जो उसके सर्वोपरि होने को चुनौती देते हैं.

हालांकि, दुनिया के विभिन्न देशों के बीच संबंध के इस उभरते आयाम को देखते हुए, चीन को बाहरी ही नहीं अंदरूनी तौर पर भी मज़बूत बनाना होगा और…’ स्थानीय स्तर पर सूचना के युद्ध लड़ने होंगे.’ रिपोर्ट में कहीं पर भी अमेरिका और चीन के बीच बड़े पैमाने पर युद्ध छिड़ने का न तो अंदाज़ा लगाया गया है और न ही इसकी आशंका जताई गई है. चीन को लगता है कि जैसी तनातनी एक समय में अमेरिका और सोवियत संघ के बीच हुआ करती थी, वैसी  स्थिति उसके अमेरिका के साथ संबंध में बनने की आशंका कम है. इसके बजाय चीन को लगता है कि चीन और उसके प्रभाव वाले आस-पास के क्षेत्रों में सैन्य संघर्ष छिड़ने पर बाहरी ताक़तें इसका फ़ायदा उठा सकती हैं; आस-पास के जिन इलाक़ों में ऐसे सैन्य संघर्ष छिड़ने की आशंका चीन को दिखती है, उनमें ताइवान के मसले पर, पूर्वी चीन सागर और दक्षिणी चीन सागर व दक्षिणी पश्चिमी सीमा और क्षेत्रीय विवाद के मसले हैं. ये चीन की कमज़ोरी है. चीन की सरकार, जैसा कि रिपोर्ट कहती है कि कभी भी दुश्मन देश द्वारा हमला किए जाने का इंतज़ार नहीं कर सकता है. इन मोर्चों पर तनातनी के मामले में फिलहाल हालात चीन के पक्ष में नहीं हैं. इसके बावजूद, जैसा कि रिपोर्ट कहती है कि, ‘सामरिक रूप से आक्रमण’ करने की क्षमता विकसित करके और सामरिक हमले करके, चीन अपने दुश्मनों को हालात में बदलाव के लिए मजबूर कर सकता है. रिपोर्ट के मुताबिक़, ‘इससे इन विवादों के राजनीतिक समाधान के नए रास्ते खुल सकते हैं.’ स्पष्ट रूप से ये रिपोर्ट सैन्य सफलता हासिल करने के लिए, ‘बड़े स्तर पर सामरिक हमले के अभियान’ चलाने पर ध्यान केंद्रित करने की बात करती है. इसमें चीन की सेना के तीनों अंगों को शामिल करके उसके सैन्य बलों के साझा अभियान चलाने पर ज़ोर दिया गया है. इसमें चीन की नौसेना (PLAN) की भागीदारी भी शामिल हैं.

भारत की भूमिका

और आख़िर में इस रिपोर्ट में ये तो स्वीकार किया गया है कि दक्षिण एशिया और हिंद महासागर क्षेत्र में भारत की भूमिका बढ़ रही है. लेकिन, रिपोर्ट में भारत को एक बड़ी वैश्विक ताक़त नहीं माना गया है. चीन का ये रवैया शायद उसके सांस्कृतिक पूर्वाग्रह के कारण है. चीन ख़ुद को यूरेशिया का एक महान देश मानता है, जो एशिया की भू राजनीतिक व्यवस्था के शीर्ष पर बैठा है, और वो भारत को एशिया एक बड़े देश के तौर पर उभरने को स्वीकार नहीं कर पाता है. रिपोर्ट में ये कहा गया है कि 1962 में चीन के हाथों मिली पराजय के बाद से भारत लगातार अपनी सैन्य शक्ति को बढ़ा रहा है. इस रिपोर्ट में भारत की सैन्य रणनीति को पांच चरणों में बांटा गया है. रिपोर्ट के अनुसार, आज़ादी के फ़ौरन बाद भारत की सैन्य रणनीति, ‘सीमित आक्रामकता’ पर आधारित थी, जिसका लक्ष्य मुख्य रूप से पाकिस्तान से निपटना था. दूसरा चरण 1960 से 1970 का दशक था, जिसमें भारत ने ‘एक साथ दो मोर्चों पर युद्ध लड़ने की रणनीति’ तैयार की. इस दौरान भारत ने अपनी सैन्य क्षमताओं का काफ़ी विकास किया जिससे कि वो एक साथ चीन और पाकिस्तान के ख़तरों से निपट सके. रिपोर्ट के अनुसार भारत की सैन्य रणनीति का तीसरा चरण वो था, जब उसने ‘ज़मीन और समुद्र में अपना नियंत्रण बनाए रखने’ की रणनीति अपनाई. ये 1971 में पाकिस्तान पर भारत की निर्णायक विजय का सीधा नतीजा था. भारत की सैन्य रणनीति का चौथा चरण शीत युद्ध के ख़ात्मे के बाद देखने को मिला जब, भारत ने क्षेत्रीय विजय और नियंत्रण स्थापित करने के बजाय दुश्मन को डराने वाली नीति पर अमल किया. 1990 के दशक में भारत ने जो सैन्य रणनीति अपनाई वो दुश्मन को हावी होने का मौक़ा न देने और उसे भयभीत रखने पर आधारित थी. 21वीं सदी के आगमन के साथ ही भारत ने अपनी सैन्य रणनीति में बदलाव करते हुए इसमें, दुश्मन को ‘अनुशासनात्मक भय’ के सूत्र को अपनाया है. इसके अंतर्गत भारत की सैन्य रणनीति पहल करते हुए दुश्मन के इलाक़े पर हमला करने के सिद्धांत पर आधारित है. अब भारत दुश्मन के ख़ात्मे के लिए उसे अपनी सीमा पर आने देने का इंतज़ार करने की नीति नहीं अपनाता है.

इस रिपोर्ट के अनुसार, भारत की सैन्य रणनीति के चार मूलभूत तत्व हैं: पहला तो ये कि भारत ख़ुद को हार्ट ऑफ़ एशिया के भू राजनीतिक किरदार के रूप में देखता है; दूसरा ये कि भारत ने सैन्य विस्तारवाद की उसी रणनीति को अपनाया हुआ है, जो अंग्रेज़ों से उसे विरासत में मिली और वो कौटिल्य की नीति पर चलते हुए अपने पड़ोसियों को दुश्मन के रूप में देखता है; और आख़िर में भारत दुश्मन को डराए रखने की बहुआयामी रणनीति पर अमल करता आया है. अपने छोटे पड़ोसी देशों के प्रति भारत ने ‘दंडात्मक भय’ की नीति अपनाई है, जिससे कि वो स्वयं को भारत के हितों के अनुरूप ढाल सकें. वहीं चीन के प्रति भारत ने, ‘हतोत्साहित करने वाला भय’ दिखाने की नीति अपनाई है. अगर हम इसे संपूर्णता में देखें, तो चीन भारत को एक देश के तौर पर देखता है जो एक स्पष्ट और बड़ी रणनीति पर अमल करता आया है. भले ही ख़ुद भारत के सामरिक रणनीतिकार, आज़ादी के बाद से अलग अलग चरणों में अपने देश द्वारा अपनाई गई बड़ी रणनीति को अस्थायी और अस्पष्ट मानते हों.

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