पिछले दो दशकों के दौरान भारत में विदेशी निवेश के रुझानों पर गौर करें तो भारत ने कुल मिलाकर 456.91 अरब अमेरिकी डॉलर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) हासिल किया है. इनमें से 72 प्रतिशत से ज़्यादा एफडीआई सिर्फ़ पांच देशों- मॉरिशस, सिंगापुर, जापान, नीदरलैंड्स और अमेरिका- से आया है. चीन इन पांच देशों में शामिल नहीं है. इस अवधि के दौरान भारत में चीन का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश महज़ 2.34 अरब अमेरिकी डॉलर या कुल विदेशी निवेश का 0.51 प्रतिशत रहा. लेकिन इसके बावजूद इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान चीन के निवेश में काफ़ी ज़्यादा बढ़ोतरी हुई है. अलग-अलग सेक्टर जैसे इंफ्रास्ट्रक्चर, ऑटोमोबाइल्स, कंज़्यूमर गुड्स, फिनटेक, ट्रैवल, ट्रांसपोर्ट, ई-कॉमर्स, इत्यादि में चीन का निवेश व्यापक रूप से फैला हुआ है. 2014 के बाद भारतीय बाज़ार में प्राइवेट इक्विटी और ग्रीनफील्ड निवेश- दोनों के रूप में चीन का निवेश काफ़ी बढ़ गया है.
भारतीय स्टार्टअप क्षेत्र में चीन से एफडीआई तो काफ़ी ज़्यादा है ही, इसका असर भी महत्वपूर्ण है. 2016 से 2019 के बीच भारतीय स्टार्टअप्स में चीन का निवेश 12 गुना बढ़ा है.
भारतीय स्टार्टअप क्षेत्र में चीन से एफडीआई तो काफ़ी ज़्यादा है ही, इसका असर भी महत्वपूर्ण है. 2016 से 2019 के बीच भारतीय स्टार्टअप्स में चीन का निवेश 12 गुना बढ़ा है. ये रुझान हैरान करने वाला नहीं है क्योंकि चीन की बड़ी कंपनियां लगातार निवेश कर रही हैं और रणनीतिक महत्व वाले भारतीय टेक-स्टार्टअप में जो कमी है, उसे भर रही हैं. टेक-स्टार्टअप में बड़ी वित्तीय क्षमता वाले निवेशक काफ़ी कम हैं. क्वार्ट्ज़ में चीन के टेक रिपोर्टर जेन ली के मुताबिक़ अलीबाबा और टेनसेंट पिछले पांच वर्षों में भारतीय स्टार्टअप्स में आक्रामक रूप से अपनी हिस्सेदारी बढ़ा रहे हैं और जिन कंपनियों में उन्होंने निवेश किया है, उनमें से कई 1 अरब अमेरिकी डॉलर की दहलीज़ लांघ कर यूनिकॉर्न (1 अरब डॉलर से ज़्यादा वैल्यू वाली कंपनी) बन गई हैं. गेटवे हाउस की “भारत में चीन का निवेश” शीर्षक वाली रिपोर्ट का अनुमान है कि 2015 से 2020 के बीच भारतीय स्टार्टअप्स में चीन के निवेश की कुल वैल्यू लगभग 4 अरब अमेरिकी डॉलर है. वास्तव में मार्च 2020 तक 30 में से 18 भारतीय यूनिकॉर्न में चीन का भारी निवेश है. निम्नलिखित सारिणी में चीन की निवेश करने वाली कंपनियों का ब्यौरा दिया गया है.
भारतीय स्टार्टअप क्षेत्र में चीन का निवेश
स्रोत: लेखक का अपना (अलग-अलग खुले स्रोतों के आंकड़े)
चीन के इस निवेश के पीछे आर्थिक कारण क्या हो सकते हैं? पहला कारण ये है कि चीन के घरेलू बाज़ार में ज़्यादा प्रतिस्पर्धा और उसके चरम तक पहुंचने से भारत को ऐसे उभरते बाज़ार के तौर पर देखा जाता है जिसकी संभावना का पूरा इस्तेमाल नहीं किया गया है. वास्तव में भारतीय बाज़ार के तौर-तरीक़े काफ़ी हद तक चीन के बाज़ार से मिलते-जुलते हैं. इसकी वजह से चीन के निवेशकों को लगता है कि अगर कम लागत के फ़ायदे का सही ढंग से इस्तेमाल किया जाए तो भारत में सफलता की काफ़ी गुंजाइश है. इससे भी बढ़कर, ये पाया गया है कि भारतीय बाज़ार में पूंजी की कमी है जिसकी वजह से वैकल्पिक निवेश के स्रोतों का यहां तुरंत स्वागत किया जाता है. तीसरा कारण ये है कि भारत के इंजीनियरिंग संस्थानों के तकनीकी कौशल और भारत की युवा आबादी की विशिष्ट दक्षता रचनात्मकता और आइडिया के मामले में विशाल संभावनाएं पेश करती हैं. ये बातें चीन के निवेशकों को मध्यम-निचले दर्जे की कंपनियों पर दांव लगाना आसान बनाती हैं और इस तरह वो उन कंपनियों को पैसा बनाने वाली कंपनी में तब्दील कर देते हैं. आख़िरी कारण ये है कि भारत में इन निवेशों के ज़रिए भारतीय आबादी में गहरी तकनीकी पहुंच बनाकर चीन को अमेरिका के ख़िलाफ़ प्रतिस्पर्धा में बढ़त मिलती है.
ये ग़ौर करने वाली बात है कि क़रीब नौ महीने की पाबंदी के बाद भारत सरकार ने 2021 की शुरुआत में चीन के एफडीआई प्रस्तावों को मंज़ूरी देना शुरू कर दिया है.
इस पृष्ठभूमि में अप्रैल 2020 में भारत सरकार ने ‘ऑटोमेटिक’ तरीक़े से उन देशों के एफडीआई पर पाबंदी लगाई जिनसे भारत ज़मीनी सीमा साझा करता है. इस फ़ैसले से ठीक पहले पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना ने गिरवी रखकर कर्ज़ देने वाली भारत की सबसे बड़ी कंपनी हाउसिंग डेवलपमेंट फाइनेंस कॉरपोरेशन (एचडीएफसी) लिमिटेड में अपनी हिस्सेदारी 0.8 प्रतिशत से बढ़ाकर 1.01 प्रतिशत की थी. हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए खुले बाज़ार से ख़रीदारी की गई थी. पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना के इस क़दम ने भारत को चिंतित कर दिया. ऐसा लगा कि महामारी की वजह से जो भारतीय कंपनी वित्तीय तौर पर मुश्किल में हैं, चीन उनको अपने कब्ज़े में करने की कोशिश कर रहा है. वास्तव में जून 2020 में गलवान घाटी में संघर्ष के बाद भारत-चीन संबंध ख़ास तौर से तनावपूर्ण बना हुआ है. इसकी वजह से भारत ने सुरक्षा कारणों का हवाला देकर चीन के 59 ऐप को भारत में स्थायी रूप से प्रतिबंधित कर दिया.
इस बात में कोई शक नहीं है कि सुरक्षा और राष्ट्रवादी कारणों से इस समय कुछ हद तक पाबंदियां ज़रूरी हैं लेकिन इस तरह के उपायों का भारत में स्टार्टअप उद्योग, जिसमें काफ़ी हद तक चीन के निवेशकों का पैसा लगा हुआ है, पर असर देखना भी महत्वपूर्ण है. ये उस वक़्त और भी महत्वपूर्ण बन जाता है जब स्टार्टअप्स के लिए पूंजी लगाना अत्यंत ज़रूरी बन गया है क्योंकि भारत में मांग गिर गई है और महामारी की वजह से दूसरे आर्थिक मुद्दे भी हैं जो आने वाले कुछ समय तक बने रहेंगे. ये ग़ौर करने वाली बात है कि क़रीब नौ महीने की पाबंदी के बाद भारत सरकार ने 2021 की शुरुआत में चीन के एफडीआई प्रस्तावों को मंज़ूरी देना शुरू कर दिया है. हालांकि मंज़ूरी ‘छोटे प्रस्तावों’ को दी जा रही है जबकि बड़े प्रस्तावों को हालात पर गंभीरता से सोच-विचार करने के बाद देखा जाएगा. चीन के इन प्रस्तावों पर फ़ैसला करते समय ये देखा जाता है कि वो महत्वपूर्ण सेक्टर में निवेश कर रहे हैं या जिन उद्योगों में स्थानीय कंपनियों की पर्याप्त क्षमता नहीं है.
जनवरी 2021 में विश्व व्यापार संगठन में भारत की व्यापार नीति पर चर्चा के दौरान चीन ने पिछले साल भारत के द्वारा विदेशी निवेश पर पाबंदी को लेकर ‘गहरी चिंता’ जताई. वैसे तो चीन के निवेशक भी अपने ऐप को बाहर किए जाने के बाद भारतीय स्टार्टअप इकोसिस्टम को लेकर शत्रुतापूर्ण रुख़ अख्तियार कर सकते हैं लेकिन इस कमी को दूसरे देशों से वैकल्पिक निवेश (अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम और जापान जैसे परिपक्व बाज़ार) के ज़रिए और अपनी निवेशक संस्कृति विकसित करके पूरा किया जा सकता है. सही मायनों में सफल डिजिटल इंडिया या मेक इन इंडिया के लिए भारत को घरेलू स्टार्टअप्स में पर्याप्त पूंजी आकर्षित करनी होगी. इसके लिए नीतिगत सुधार जैसे इस तरह के निवेश पर टैक्स रियायत के ज़रिए वेंचर कैपिटल को प्रोत्साहन देना, इत्यादि ज़रूरी है. आख़िर में, आर्थिक प्रगति सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा की ज़रूरतों को भी समय के साथ देश की वित्तीय ज़रूरतों के साथ व्यापक तौर पर मिलान करना ज़रूरी है.
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