Author : Alicja Bachulska

Published on Apr 29, 2020 Updated 0 Hours ago

जिसतरह से महामारी को लेकर अनिश्चितता का माहौल है और जनता जज़्बाती होकर प्रतिक्रिया दे रही है. ऐसे में हर पक्ष के लिए अच्छा दिखने और अपने बारे में अच्छी राय क़ायम करना महत्वपूर्ण हो जाता है. फिर चाहे यूरोपीय संघ हो या चीन. ज़मीनी स्तर पर मदद तब ज़्यादा अहमियत नहीं रखती.

यूरोप में छद्म कूटनीति की आड़ में चीन की आक्रामक विदेश नीति

घरेलू स्तर पर नए कोरोना वायरस की महामारी के पहले दौर पर क़ाबू पाने के बाद से चीन ने एक महत्वाकांक्षी कूटनीतिक अभियान शुरू किया है. चीन के इस राजनयिक अभियान का मक़सद विश्व स्तर पर अपनी छवि को सुधारना है. चीन ये कूटनीतिक अभियान दो स्तरों पर चला रहा है. इसके माध्यम से वो अपनी सॉफ्ट पॉवर को और शक्तिशाली बनाने का प्रयास कर रहा है. इसके लिए चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था के कुछ हिस्सों को फिर से चालू किया है. इनके माध्यम से चीन सैनिटरी और मेडिकल उपकरणों की भारी मात्रा में बिक्री कर रहा है. इसे चीन की ‘मास्क डिप्लोमैसी’ का नाम दिया गया है. असल में चीन ने कोरोना वायरस के प्रकोप से निपटने के लिए शुरुआती दौर में जो रवैया अपनाया था, उससे चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की छवि विश्व स्तर पर ख़राब हो गई है. अब चीन अपनी सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी और अपने देश की व्यवस्था की ख़ामियों की आलोचना से दुनिया और ख़ासतौर से अमेरिका का ध्यान हटाने के लिए, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि सुधारने का अभियान शुरू किया है. चीन का ये अंतरराष्ट्रीय प्रचार मुख्य तौर पर इस बात पर केंद्रित है कि उसके पास इस वायरस के प्रकोप से निपटने के लिए अच्छी व्यवस्था है. लेकिन, यहां ध्यान देने लायक़ बात है. साथ ही साथ वो दुनिया को ये भी दिखाना चाहता है कि जब पूरी दुनिया इस महामारी से जूझ रही है, तो वो तमाम देशों की मदद कर रहा है. उन्हें महामारी से लड़ने के लिए मेडिकल उपकरण दे रहा है. यहां ये बात ध्यान देने लायक़ है कि चीन दूसरे देशों को जो मेडिकल उपकरण उपलब्ध करा रहा है, या आगे देने का वादा कर रहा है, वो असल में कारोबारी ख़रीद के तहत भेजे जा रहे हैं. हालांकि, चीन की सरकार इन्हें दूसरे देशों को दी जा रही ‘मदद’ के नाम से प्रचारित कर रही है. चीन की ये ‘मास्क कूटनीति’ मध्य और पूर्वी यूरोपीय देशों में किस हद तक कारगर साबित हो रही है? ये वो यूरोपीय देश हैं, जिनके साथ पिछले एक दशक में चीन के संबंध लगातार बढ़ते जा रहे हैं.

चीन का ये अंतरराष्ट्रीय प्रचार मुख्य तौर पर इस बात पर केंद्रित है कि उसके पास इस वायरस के प्रकोप से निपटने के लिए अच्छी व्यवस्था है. लेकिन, यहां ध्यान देने लायक़ बात है. साथ ही साथ वो दुनिया को ये भी दिखाना चाहता है कि जब पूरी दुनिया इस महामारी से जूझ रही है, तो वो तमाम देशों की मदद कर रहा है

चीन ने हाल के दिनों में मध्य एवं पूर्वी यूरोपीय देशों (CCE) के साथ क़रीबी संबंध बनाने में काफ़ी दिलचस्पी दिखाई है. लेकिन, इस वजह से कई विवाद भी उठ खड़े हुए हैं. 2012 में चीन ने एक विशेष पहल की व्यवस्था की थी, जिसे अब हम 17+1 प्लेटफॉर्म के नाम से जानते हैं. ये उन यूरोपीय देशों का समूह है, जिसे बिना किसी आधार के इस व्यवस्था में शामिल होने के लिए चुन लिया गया. ये वो यूरोपीय देश हैं, जो शीत युद्ध के दौरान सोवियत संघ के क़रीबी हुआ करते थे और ईस्टर्न ब्लॉक के नाम से जाने जाते थे. हालांकि, इसमें अपवाद स्वरूप, यूनान को भी शामिल किया गया है. चीन की इस कूटनीति को इस रूप में देखा जा रहा है कि वो पहले से उपेक्षित क्षेत्र के साथ नज़दीकी व्यापारिक संबंध बनाने का इच्छुक है. 17+1 के इस मंच के बारे में ये कहना उचित होगा कि ये बहुपक्षीयता का अच्छा द्विपक्षीय नमूना है. ये कूटनीति का ऐसा फॉर्मूला है. जिसके ज़रिए चीन एक साथ 17 देशों से नियमित रूप से संवाद करता है. और इसके साथ-साथ वो यूरोपीय संघ व जर्मनी के साथ भी अपने संबंधों का भी इस्तेमाल करता है. जबकि पश्चिमी यूरोपीय देश और जर्मनी को चीन के 17+1 मंच के पीछे की नीयत पर गहरा शक है. इस मंच को कई बार खोखला और दिखावे वाला संगठन कहा जाता है. जिस पर आरोप ये भी है कि ये केवल चीन के हित साधने का काम करता है. इसका ये मतलब भी निकलता है कि मध्य और पूर्वी यूरोपीय देशों की चीन के लिए कितनी अहमियत है. हालांकि, ये यूरोपीय देश चीन के मूल हितों के लिहाज़ से बहुत अहम नहीं हैं. लेकिन फौरी राजनीतिक ज़रूरतें पूरी करने में ये देश चीन के काफ़ी काम आ रहे हैं. चीन के नज़रिए से देखें तो, कोविड-19 की वैश्विक महामारी और इससे जुड़ी व्यवहारिक चुनौतियां अपने आप में वो अवसर मुहैया कराती हैं, जिनकी मदद से चीन अपने कूटनीतिक संबंधों में नई ऊर्जा का संचार कर सकता है. इसमें पूर्वी और मध्य यूरोपीय देश भी शामिल हैं. इन देशों को मदद के नाम पर चीन अपनी छवि चमका सकता है. वो दुनिया के सामने अपनी एक ज़िम्मेदार और सहयोगी देश की छवि बना सकता है. ख़ुद को एक ऐसी शक्ति के तौर पर प्रस्तुत कर सकता है, जिसने कोरोना वायरस से निपटने में बहुत ज़िम्मेदारी भरी भूमिका का निर्वाह किया.

17+1 के इस मंच के बारे में ये कहना उचित होगा कि ये बहुपक्षीयता का अच्छा द्विपक्षीय नमूना है. ये कूटनीति का ऐसा फॉर्मूला है. जिसके ज़रिए चीन एक साथ 17 देशों से नियमित रूप से संवाद करता है. और इसके साथ-साथ वो यूरोपीय संघ व जर्मनी के साथ भी अपने संबंधों का भी इस्तेमाल करता है

मार्च 2020 के मध्य तक मध्य और पूर्वी यूरोप (Central and Eastern Europe) के कई देश, चीन की मास्क कूटनीति के निशाने पर आ चुके थे. चीन अपने उपकरणों की आपूर्ति चेक गणराज्य, स्लोवाकिया, हंगरी, पोलैंड और सर्बिया को कर रहा था. हालांकि, चीन द्वारा उपलब्ध कराए गए इन संसाधनों से जुड़े वास्तविक आंकड़ें अभी उपलब्ध नहीं हैं. हमें ये पता नहीं है कि इन देशों को चीन से मदद मिली, या फिर उन्होंने चीन से ये सामान पैसे देकर ख़रीदे. फिर भी चीन की इस मदद के शोर से कुछ संकेत तो साफ़ तौर पर निकलते हैं. पहली बात तो ये कि चीन से ये सामान स्थानीय निकायों, सरकारी कंपनियों और राज्य की अन्य सरकारी एजेंसियों ने ख़रीदे हैं. कई मामलों में तो ये सामान, इन देशों के कुछ प्रभावशाली कारोबारियों के माध्यम से मंगाए गए हैं, जिनके चीन से अच्छे ताल्लुक़ात हैं. इन सौदों में पारदर्शिता की कमी को लेकर भी सवाल उठे हैं. दूसरी बात ये है कि जिन सामानों की आपूर्ति ग़ैर कारोबारी दान के तौर पर हुई है, वो कुल वस्तुओं का मामूली हिस्सा हैं. तीसरी बात ये है कि वस्तुओं की यूरोपीय देशों की आपूर्ति का शोर मीडिया में बहुत मचाया गया है.  ख़ासतौर से चीन के सरकार समर्थित मीडिया जैसे कि शिन्हुआ न्यूज़ एजेंसी, चाइना डेली समाचार पत्र एवं सीजीटीएन, चाइना रेडियो इंटरनेशनल वग़ैरह. इन संस्थाओं ने यूरोपीय देशों के स्थानीय मीडिया में अपना ख़ूब प्रचार किया.  ख़ासतौर से ग़ैर चीनी सोशल मीडिया में भी इनका ख़ूब प्रचार किया गया. ट्विटर पर चीन के इन देशों को मदद करने की ख़बरें छाई रहीं. यहां चीन के कूटनीतिज्ञ भी काफ़ी सक्रियता से आधिकारिक बयानों का प्रचार करते रहे. दुनिया में इस बात का ढोल पीटते रहे कि किस तरह चीन ने इस महामारी पर विजय प्राप्त की.

इस महामारी ने एक अवसर ये दिया है कि वो संकट के समय तमाम देशों की मदद करके अपनी छवि एक ऐसे देश की बनाए जो मुश्किल दौर में दुनिया भर को मदद दे सकता है. जबकि चीन की तुलना में डोनाल्ड ट्रंप की अगुवाई वाला अमेरिका है, जो घरेलू स्तर पर भी कोविड-19 की महामारी पर नियंत्रण कर पाने में अक्षम हो रहा है

लेकिन, इस व्यापक कूटनीतिक अभियान के बावजूद, चीन के प्रयासों के प्रभाव अधूरे ही दिखे. मध्य व पूर्वी यूरोपीय देशों को सामान की आपूर्ति आम तौर पर इस बात पर अधिक निर्भर थी कि उनके चीन के साथ द्विपक्षीय संबंध मधुर रहे हैं. ख़ासतौर से स्थानीय कारोबारियों के चीन से अच्छे संबंध का लाभ इन देशों को मिला. इससे भी अहम बात ये है कि हर देश में स्थानीय प्रशासन के चीन के प्रति झुकाव में भी बहुत फ़र्क़ देखने को मिला था. इसकी मिसाल हम, चीन के कूटनीतिक प्रयासों के प्रति इन देशों की प्रतिक्रिया के तौर पर देख सकते हैं.  ख़ासतौर से मध्य एवं पूर्वी यूरोपीय देशों ने महामारी को लेकर अपनी घरेलू ज़रूरतों के हिसाब से ही चीन से संबंधों का प्रचार किया है. साथ ही साथ उन्होंने अन्य देशों के साथ चीन के संबंधों का भी ध्यान रखते हुए इस बात को तरज़ीह दी. जैसे कि इस क्षेत्र के बहुत से देशों के अमेरिका से 1989 के बाद के दौर में बड़े अच्छे संबंध रहे हैं. ऐसे में जब अमेरिका और चीन के बीच कोविड-19 की महाारी को लेकर तनातनी चल रही थी, तो ये देश ख़ुद को मंझधार में फंसा हुआ पा रहे थे. उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि वो चीन की तरफ़ झुकें या अमेरिका के साथ खड़े रहें. कई देशों जैसे कि पोलैंड ने हाल में तय किया है कि वो इस महामारी के वक़्त अमेरिका के साथ हैं, जो इस क्षेत्र में चीन की उपस्थिति को सीमित करने का प्रयास कर रहा है. (विशेष रूप से चीन की कंपनी हुवावे के 5G नेटवर्क के बुनियादी ढांचे के विस्तार को लेकर). इसी कारण से चीन और मध्य व पूर्वी यूरोपीय देशों के संबंध अब नए युग में प्रवेश कर गए हैं. जिसमें इन देशों को अपने अपने प्रभाव क्षेत्र में रखने के लिए चीन और अमेरिका के बीच कड़ी टक्कर हो रही है. ज़ाहिर है, हर देश इसके लिए जी जान से कोशिश कर रहा है कि वो इस क्षेत्र के यूरोपीय देशों को अपने पाले में ले आए. चीन के लिए, इस महामारी ने एक अवसर ये दिया है कि वो संकट के समय तमाम देशों की मदद करके अपनी छवि एक ऐसे देश की बनाए जो मुश्किल दौर में दुनिया भर को मदद दे सकता है. जबकि चीन की तुलना में डोनाल्ड ट्रंप की अगुवाई वाला अमेरिका है, जो घरेलू स्तर पर भी कोविड-19 की महामारी पर नियंत्रण कर पाने में अक्षम हो रहा है. हाल ये है कि अमेरिका, इस महामारी से निपटने में अपने सहयोगी देशों तक की मदद नहीं कर पा रहा है.

और इसी दौरान कई मध्य एवं पूर्वी यूरोपीय देश, विशेष रूप से सर्बिया और हंगरी इस महामारी का राजनीतिक विचारधारा के प्रचार के लिए भी लाभ उठा रहे हैं. वो चीन की मदद से यूरोपीय संघ के लोकतंत्र पर प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं. साथ ही साथ इन देशों के नेता, चीन के मॉडल वाली तानाशाही व्यवस्था को अपने यहां मज़बूत करने में जुटे हुए हैं. सर्बिया, जो कि यूरोपीय संघ से जुड़ने के मुश्किल रास्ते पर चल रहा है, वो यूरोपीय संघ के साथ अपने संबंधों को संतुलित करने के लिए अक्सर चीन के नाम पर सियासी दांव चलता है. इस संकट के समय चीन के मदद करने का गुणगान करता है और यूरोपीय संघ के एकजुट होने के दोमुंहेपन पर सवाल भी उठाता है. सर्बिया के राष्ट्रपति अलेक्सांदर वुचिक ने अपनी राजनीतिक वैधता को बढ़ाने में इस संकट से उत्पन्न परिस्थिति का बख़ूबी लाभ उठाया है. और इसकी आड़ में वो लोकतांत्रिक मूल्यों से भी पीछे हट रहे हैं. हालांकि, जहां तक सर्बिया और हंगरी की बात है, तो मध्य एवं पूर्वी यूरोपीय देशों के बीच चीन के साथ अच्छे संबंधों के मामले में ये दोनों ही अपवाद हैं. लेकिन, ये दोनों ही देश कूटनीतिक लिहाज़ से चीन के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं. क्योंकि सर्बिया और हंगरी दोनों ही देश इस इलाक़े में चीन की अच्छी छवि गढ़ने में मददगार बने हैं. इन देशों के बर्ताव को यूरोपीय संघ के विदेशी मामलों और सुरक्षा नीति के विशेष प्रतिनिधि जोसेप बोरेल, ‘दयानतदारी की राजनीति’ करार देते हैं. जोसेप बोरेल का इशारा उस वैश्विक संघर्ष की तरफ़ था, जो इस महामारी के साथ साथ बढ़ रहा है. जिसमें चीन अपने पक्ष में माहौल गढ़ने का प्रयास कर रहा है. तो, अमेरिका व अन्य देश उसका विरोध कर रहे हैं. इस कूटनीति का एक मक़सद यूरोपीय संघ की एकता में विघ्न डालना भी है. इसके लिए, महामारी से निपटने में यूरोपीय संघ की अक्रियता को वजह बनाया जा रहा है. बाहरी देशों द्वारा गढ़े जा रहे ये क़िस्से यूरोप के अंतर्द्वंद का हिस्सा बन रहे हैं. इससे ये साफ़ हो गया है कि यूरोपीय संघ के भीतर जो वैचारिक संघर्ष छिड़ा हुआ है, उसमें चीन स्पष्ट तौर पर एक बड़ा खिलाड़ी बन कर उभरा है, जो अब इस वैचारिक संघर्ष की दशा दिशा भी तय कर रहा है.

कुछ जानकारों को इस बात की भी आशंका है कि अगर कोविड-19 की महामारी और मुश्किल दौर में प्रवेश करती है, तो यूरोपीय संघ के समर्थक देशों में भी चीन के पक्ष में माहौल बनता दिख सकता है. तब इन देशों में यूरोपीय संघ के ख़िलाफ़ और माहौल बनेगा. फिर भी ये लड़ाई अभी किसी भी पक्ष द्वारा जीती नहीं गई है. जैसे जैसे इस महामारी का अगला दौर सामने आ रहा है, वैसे वैसे ये कूटनीतिक और वैचारिक संघर्ष भी नए चरण में प्रवेश कर रहा है. और ये भीषण भी होता जा रहा है. उम्मीद यही की जा सकती है कि प्रभुत्व के मामले में हो सकता है कि फिलहाल यूरोपीय संघ, चीन को पछड़ाने में सफल हो जाए. लेकिन, इस मोड़ पर एक बात तो तय है. जिसतरह से महामारी को लेकर अनिश्चितता का माहौल है और जनता जज़्बाती होकर प्रतिक्रिया दे रही है. ऐसे में हर पक्ष के लिए अच्छा दिखने और अपने बारे में अच्छी राय क़ायम करना महत्वपूर्ण हो जाता है. फिर चाहे यूरोपीय संघ हो या चीन. ज़मीनी स्तर पर मदद तब ज़्यादा अहमियत नहीं रखती.

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