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बाइडेन को पता चलेगा कि इस क्षेत्र में अमेरिका एक भरोसेमंद और लोकप्रिय सहयोगी बना हुआ है.
अमेरिका के 46वें राष्ट्रपति ने अपनी कुर्सी संभालने से पहले काम–काज को लेकर काफ़ी संजीदगी दिखाई. नव निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन कैपिटल हिंसा और कोविड-19 प्रकोप की वजह से काफ़ी व्यस्त हैं लेकिन इसके बावजूद अपनी पूर्वी एशिया नीति को लेकर काफ़ी तत्परता से आगे बढ़े हैं. ओबामा प्रशासन के “एशिया को केंद्र बिंदु” बनाने के फ़ैसले में प्रमुख शख़्सियत रहे एंटोनी ब्लिंकेन को विदेश मंत्री के तौर पर बाइडेन द्वारा नियुक्त करने और जापान पर नज़र रखने वाले और बेहद सम्माननीय पूर्व राजनयिक कर्ट कैंपबेल को पूर्वी एशिया के मामलों में अपना दूत बनाकर बाइडेन ने संकेत दिया है कि नया प्रशासन इस क्षेत्र तक पहुंचने को गंभीरता से ले रहा है. लेकिन इन क़दमों के बावजूद राष्ट्रपति और उनकी टीम को मेहनत करनी होगी.
शुरुआत करें तो इस क्षेत्र में अमेरिका की अगुवाई वाली सुरक्षा संरचना की मुश्किलें बरकरार हैं. अमेरिका के बड़े सहयोगी जापान और दक्षिण कोरिया के बीच विवाद अभी भी बना हुआ है. क़रीब एक साल पहले जापान के साम्राज्यवादी अतीत और 20वीं शताब्दी में कोरिया में उपनिवेश बसाने को लेकर दोनों देशों का विवाद व्यापार युद्ध में तब्दील हो गया था. इस व्यापार युद्ध ने उस वक़्त दोनों देशों के बीच सामरिक संबंध को भी प्रभावित किया था जब दक्षिण कोरिया ने उत्तर कोरिया को काबू करने के मक़सद से हो रहे एक महत्वपूर्ण सैन्य खुफ़िया समझौते से अस्थायी तौर पर अलग होने का फ़ैसला किया था. ताकेशिमा द्वीप के ऊपर चीन की उकसाऊ कार्रवाई के ख़िलाफ़ साझा जवाब, राजनयिकों के बीच उच्च स्तरीय सामरिक आदान–प्रदान के साथ–साथ साझा सैन्य अभ्यास भी सामरिक संबंध के प्रभावित होने का शिकार बना.
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान कोरिया में जापान के अत्याचार को लेकर मुआवज़े के मुद्दे का अभी तक समाधान नहीं हुआ है. राष्ट्रपति मून के साथ अपनी बातचीत में सुगा ने साफ़ कर दिया कि वो मुआवज़े को लेकर कोरिया के दबाव के आगे नहीं झुकेंगे.
यहां राष्ट्रपति बाइडेन के सामने अवसर और चुनौतियां– दोनों होंगी. दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मून के साथ टेलीफ़ोन पर अपनी पहली बातचीत में जापान के नये प्रधानमंत्री सुगा ने अपने उस विश्वास को छिपाने की कोई कोशिश नहीं की कि द्विपक्षीय संबंध उस तरह नहीं जारी रह सकते जैसे 2018 से हैं. इस बातचीत के बाद दोनों पक्षों ने एक–दूसरे तक पहुंचने और फिर से जुड़ने की कोशिश शुरू कर दी है. जापान के संसदीय प्रतिनिधिमंडलों ने सियोल में दक्षिण कोरिया के संसदीय प्रतिनिधिमंडलों से अनौपचारिक मुलाक़ात की जिसका जवाब दक्षिण कोरिया ने भी दिया. दोनों देशों के विदेश मंत्रालयों के बीच उच्च स्तरीय बातचीत शुरू हुई. वहीं दक्षिण कोरिया के खुफ़िया प्रमुख ने टोक्यो जाकर सुगा से मुलाक़ात की और संबंधों में समस्या दूर करने के लिए बातचीत की. इसके बाद टोक्यो में राजदूत के तौर पर दक्षिण कोरिया ने ऐसे व्यक्ति को चुना जिसका संसदीय अनुभव होने के साथ–साथ जापान से बातचीत का लंबा तजुर्बा रहा है. इसे संबंधों को बेहतर बनाने की कोरिया की कवायद के तौर पर देखा गया. लेकिन इसके बावजूद हालात पूरी तरह ठीक नहीं हुए हैं. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान कोरिया में जापान के अत्याचार को लेकर मुआवज़े के मुद्दे का अभी तक समाधान नहीं हुआ है. राष्ट्रपति मून के साथ अपनी बातचीत में सुगा ने साफ़ कर दिया कि वो मुआवज़े को लेकर कोरिया के दबाव के आगे नहीं झुकेंगे. दोनों देशों में जनमत भी जापान और दक्षिण कोरिया के संघर्ष की वजह से ग़ुस्से में है और इस हालात में कोई समझौता लोगों को मंज़ूर होना मुश्किल है.
इन चुनौतियों के सामने बाइडेन प्रशासन के सामने कुछ विकल्प हैं. पूर्व विदेश मंत्री माइकल पॉम्पियो ने अमेरिका के सहयोगियों के बीच दूरी को पाटने की ओर ध्यान नहीं दिया. सामरिक समुदाय में कुछ लोगों ने पॉम्पियो की कोशिशों को “काफ़ी कम, काफ़ी देर से” उठाया गया क़दम बताया. लेकिन पॉम्पियो के उत्तराधिकारी एंटोनी ब्लिंकेन के पास अमेरिका के तकरार करने वाले सहयोगियों को साथ लेकर चलने का अच्छा–ख़ासा अनुभव है. सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि ब्लिंकेन और ओबामा प्रशासन में उनके सहयोगी रहे राजनयिक कर्ट कैंपबेल ने 2015 के समझौते में बड़ी भूमिका निभाई थी. उस वक़्त जापान के प्रधानमंत्री शिंज़ो आबे ने कोरिया के “कंफर्ट वूमेन” के लिए मुआवज़े की मांग को मान लिया था जिसका वो विरोध करते आए थे. “कम्फर्ट वूमेन” उन महिलाओं को कहा जाता है जिनका दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जापान की सेना ने यौन शोषण के लिए इस्तेमाल किया था. अब कैंपबेल और ब्लिंकेन के बड़ी राजनयिक पदों पर लौटने के बाद और समझौते के लिए जापान-दक्षिण कोरिया के तैयार होने की वजह से इस बात की उम्मीद काफ़ी ज़्यादा हो गई है कि 2015 जैसा समाधान फिर होगा और अगर नहीं भी होगा तो कम-से-कम दोनों देशों के बीच तनाव ज़रूर कम होगा. साथ ही बाइडेन की टीम संबंधों में नरमी का फ़ायदा उठाकर दोनों देशों के बीच रक्षा और खुफ़िया संबंधों को तेज़ी से जोड़ने की कोशिश करेगी भले ही मुआवज़े को लेकर बातचीत का कोई भी नतीजा आए.
बाइडेन प्रशासन का दक्षिण कोरिया में गर्मजोशी से स्वागत की उम्मीद भी की जा रही है. राष्ट्रपति ट्रंप के कार्यकाल के दौरान दोनों देशों के बीच संबंधों में गिरावट आई क्योंकि कई मुद्दों पर दोनों सहयोगियों के बीच संघर्ष देखा गया. दक्षिण कोरिया की शिकायतों में सबसे ऊपर है ट्रंप प्रशासन की वो मांग जिसके तहत दक्षिण कोरिया को कोरिया प्रायद्वीप में रक्षा पर अपना योगदान काफ़ी बढ़ाने को कहा गया था. दक्षिण कोरिया अभी जितना खर्च कर रहा है, उसमें क़रीब पांच गुना बढ़ोतरी की मांग अमेरिका कर रहा है. इससे कोरिया के लोग नाराज़ हैं. एक सर्वे के मुताबिक़ दक्षिण कोरिया के 96 प्रतिशत नागरिकों ने अमेरिकी मांग का विरोध किया. बाइडेन ने वादा किया था कि वो दक्षिण कोरिया में तैनात अमेरिकी सैनिकों के लिए वहां की सरकार से “वसूली” नहीं करेंगे. इस वादे से दक्षिण कोरिया में अच्छा संकेत जाएगा.
एक और बड़ी चुनौती होगी चीन और अमेरिका के बीच बढ़ते संघर्ष में सामरिक स्वायत्तता की कोरिया की बढ़ती इच्छा को निपटाना. जहां कोरिया ने हाल के वर्षों में पूरी तरह साफ़ कर दिया है कि सुरक्षा साझेदार के तौर पर वो अमेरिका को प्राथमिकता देता है लेकिन उसे चीन से डर भी है जो उसका सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है. उदाहरण के लिए, 2016 में चीन की आपत्ति के बावजूद अमेरिका प्रायोजित थाड मिसाइल डिफेंस सिस्टम को तैनात करने के कोरिया के फ़ैसले की वजह से चीन ने कार से लेकर के–पॉप कन्सर्ट तक कोरिया की चीज़ों पर व्यापक आर्थिक पाबंदी लगा दी. कोरिया की जीडीपी में निर्यात का 40 प्रतिशत हिस्सा होने की वजह से चीन की चाल ने साबित किया कि कोरिया के राष्ट्रीय हितों को भारी नुक़सान पहुंचाने के लिए जिस चीज़ की ज़रूरत है, वो उसके पास है और आर्थिक पाबंदी के फ़ैसले ने आने वाले समय में कोरिया के लिए चेतावनी का काम किया. ऐसे में कोरिया ट्रंप प्रशासन की ज़्यादा आक्रामक चीन नीति का पालन करने की इच्छा नहीं रखता क्योंकि उसे डर है कि ऐसा करने से चीन नाराज़ हो जाएगा.
अब कैंपबेल और ब्लिंकेन के बड़ी राजनयिक पदों पर लौटने के बाद और समझौते के लिए जापान-दक्षिण कोरिया के तैयार होने की वजह से इस बात की उम्मीद काफ़ी ज़्यादा हो गई है कि 2015 जैसा समाधान फिर होगा और अगर नहीं भी होगा तो कम-से-कम दोनों देशों के बीच तनाव ज़रूर कम होगा.
लेकिन इसके बावजूद कोरिया के पास विकल्पों की कमी नहीं है. 2019 में फॉरेन अफेयर्स के अपने लेख “कंपीटिशन विदाउट कटैस्ट्रफी” में जेक सुलिवन (बाइडेन के नये राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार) और कर्ट कैंपबेल ने चीन से निपटने की अपनी योजना का खाका खींचा था. अमेरिकी विदेश नीति के इन नये प्रभारियों के लिए चीन के साथ मुक़ाबला “ऐसी परिस्थिति है जिसका निपटारा करना है न कि एक समस्या का समाधान करना.” इस बात की संभावना कम है कि पैसिफिक में अमेरिका सैन्य प्रभुत्व हासिल करेगा और चीन इस क्षेत्र से अमेरिकी सैन्य मौजूदगी को हटा पाएगा. ऐसे में हर पक्ष को दूसरे पक्ष को स्वीकार करना सीखना चाहिए. प्रमुख क्षेत्रीय विवादों जैसे ताइवान जलडमरूमध्य और दक्षिणी चीन सागर पर दोनों पक्ष दलील देते हैं कि यथास्थिति को बरकरार रखना अमेरिका और चीन– दोनों के हितों की पूर्ति करता है. इससे कोरिया थोड़ा बेहतर महसूस कर सकता है. अगर नतीजों के डर पर बाइडेन प्रशासन का ध्यान है तो कोरिया आक्रामक सैन्य तैयारी और संभावित संघर्ष के बीच फंसने से परहेज़ कर सकता है. साथ ही सुलिवन और कैंपबेल भरोसा करते हैं कि मुक्त और खुले इंडो–पैसिफिक (एफओआईपी) जैसी धारणा का प्रचार चीन के जवाब के तौर पर करने के बदले संप्रभुता की रक्षा और आर्थिक विकास के लिए ज़रूरी चीज़ के तौर पर करना चाहिए. उग्र भाषा में इस कमी से कोरिया को मदद मिलने की उम्मीद है क्योंकि कोरिया पहले एफओआईपी और उसकी सैन्य गारंटी देने वाले क्वॉड के समर्थन में झिझक रखता था. इसकी वजह ये है कि एफओआईपी और क्वॉड का लक्ष्य चीन का विरोध माना जाता है.
आख़िर में सुलिवन और कैंपबेल– दोनों ने ट्रंप प्रशासन के द्वारा अपनी कार्रवाई को लेकर समर्थन जुटाने के लिए अपने सहयोगियों समेत दूसरे देशों की बांह मरोड़ने की तरफ़ झुकाव की निंदा की. दुनिया भर में 5जी नेटवर्क में चीन की मौजूदगी का विरोध करने से लेकर उसे बौद्धिक संपदा मानकों को स्वीकार करने के लिए मजबूर करने तक सुलिवन और कैंपबेल दलील देते हैं कि फ़ैसला लेने में सहयोगियों को जोड़ना अमेरिकी नीति के लिए ज़रूरी है. अब राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के तौर पर सुलिवन और एशिया के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के बड़े समन्वयक के तौर पर कैंपबेल के होने से कोरिया ऐसी अमेरिकी नीति की उम्मीद कर सकता है जो सहयोगियों के साथ ज़्यादा ज़िम्मेदारी भरी और प्रतिस्पर्धियों के साथ कम संघर्ष वाली हो. अमेरिकी विदेश विभाग और कोरिया के विदेश मंत्रालय ने पहले ही इंडो-पैसिफिक में सद्भावना के लिए अमेरिकी नीति के साथ कोरिया की नई दक्षिणी नीति पर चर्चा की है. जहां चीन की नाराज़गी का ख़तरा कोरिया के ऊपर लगातार मंडरा रहा है लेकिन अमेरिका के साथ बौद्धिक संपदा अधिकार, साइबर सुरक्षा और हथियार प्रसार पर सहयोग करने वाले कोरिया को चीन उस कोरिया के मुक़ाबले ज़्यादा गंभीरता से लेगा जो चीन की बलपूर्वक कार्रवाई के आगे झुक जाता है.
कोरिया की जीडीपी में निर्यात का 40 प्रतिशत हिस्सा होने की वजह से चीन की चाल ने साबित किया कि कोरिया के राष्ट्रीय हितों को भारी नुक़सान पहुंचाने के लिए जिस चीज़ की ज़रूरत है, वो उसके पास है
आख़िर में उत्तर कोरिया से निपटने का सबसे महत्वपूर्ण सवाल बच जाता है. दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मून जे–इन, जो अब अपने कार्यकाल के आख़िरी दौर में हैं, लंबे समय से उत्तर कोरिया के साथ और ज़्यादा भागीदारी के पक्ष में रहे हैं. वो पहले ही बाइडेन को फ़ोन कर कह चुके हैं कि जहां राष्ट्रपति ट्रंप ने छोड़ा वहां से आगे बढ़ना चाहिए और कोरियाई प्रायद्वीप को परमाणु मुक्त बनाने के लिए ज़्यादा ठोस योजना पर काम करना चाहिए. ट्रंप ने उत्तर कोरिया के राष्ट्रपति किम जोंग–उन के साथ अपनी बहुचर्चित मुलाक़ात पर बहुत समय दिया लेकिन दोनों के बीच कई ऐतिहासिक मुलाक़ातों के बावजूद दिखाने के लिए ज़्यादा कुछ नहीं था. किम जोंग–उन ने कुछ समय पहले अमेरिका को अपने देश का “सबसे बड़ा दुश्मन” करार दिया था. हालांकि, उन्होंने बातचीत का दरवाज़ा भी खुला रखा. इसी के साथ–साथ उत्तर कोरिया ने अपने परमाणु हथियारों के भंडार को और बढ़ाने के अपने इरादे का भी एलान किया.
अमेरिका के साथ बौद्धिक संपदा अधिकार, साइबर सुरक्षा और हथियार प्रसार पर सहयोग करने वाले कोरिया को चीन उस कोरिया के मुक़ाबले ज़्यादा गंभीरता से लेगा जो चीन की बलपूर्वक कार्रवाई के आगे झुक जाता है.
कई विश्लेषक यकीन करते हैं कि अगर बाइडेन स्वीकार्य शर्तों के साथ बातचीत की मेज पर नहीं आते हैं तो उत्तर कोरिया मिसाइल का परीक्षण शुरू कर सकता है. ऐसे में बाइडेन के पास कई विकल्प हैं. वो ये उम्मीद लेकर उत्तर कोरिया के साथ “सामरिक धैर्य” के ओबामा सिद्धांत पर लौट सकते हैं कि तानाशाही सरकार और व्यापक ग़रीबी के बोझ से उत्तर कोरिया ध्वस्त हो जाएगा. निरस्त्रीकरण और परमाणु मुक्त उत्तर कोरिया पर अमेरिका का ये ज़्यादा परंपरागत ध्यान बिना किसी संदेह उत्तर कोरिया को ग़ुस्से से भर देगा जो पंगु कर देने वाली अमेरिकी आर्थिक पाबंदी को हटवाने की कोशिश में लगा हुआ है. बाइडेन ट्रंप की राह पर चलने का विकल्प चुन सकते हैं और ट्रंप की तरह कुछ रियायत भी दे सकते हैं जब उन्होंने दक्षिण कोरिया को हैरानी में डालते हुए अमेरिका और दक्षिण कोरिया के बीच बड़े साझा सैनिक अभ्यासों को रोक दिया था. लेकिन जैसा कि उत्तर कोरिया के जानकार दुयंग किम कहते हैं, दूसरी रियायतें जैसे आर्थिक पाबंदी हटाना और उत्तर कोरिया के मानवाधिकार रिकॉर्ड की आलोचना से ग़ायब रहना भविष्य की बातचीत में बाधा बनने की उम्मीद है. उत्तर कोरिया के मामले में बाइडेन उसी समस्या का सामना कर रहे हैं जैसी समस्या पहले के राष्ट्रपति झेल रहे थे: बहुत कम अच्छे विकल्पों के साथ निहायत ख़तरनाक हालात.
राष्ट्रपति ट्रंप के कार्यकाल के दौरान कई महत्वपूर्ण गड़बड़ियों के बावजूद बाइडेन को पता चलेगा कि इस क्षेत्र में अमेरिका एक भरोसेमंद और लोकप्रिय सहयोगी बना हुआ है. बाइडेन अपने ही चुनाव अभियान के नारे को साकार करेंगे और पूर्वी एशिया में “बेहतर कल बनाएंगे”.
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Shashank Mattoo was a Junior Fellow with the ORFs Strategic Studies Program. His research focuses on North-East Asian security and foreign policy.
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