Author : Rhea Sinha

Published on Mar 05, 2022 Updated 0 Hours ago

अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान में सक्रिय संगठनों को क़ाबू करने में पाकिस्तान की नाकामी के चलते, चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (CPEC) की परियोजना को पूरा करने में बाधाएं आ रही हैं.

CEPC: पाकिस्तान में अस्थिरता पैदा करता चीन और पाकिस्तान का आर्थिक गलियारा!

अपने  ‘आयरन ब्रदर’ को लगातार समर्थन देते रहने की मिसाल क़ायम करने के लिए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने बीजिंग मे शीतकालीन ओलंपिक खेलों के उद्घाटन समारोह में शिरकत की थी. लेकिन, इमरान ख़ान का ये बीजिंग दौरा उस मुश्किल दौर में हुआ, जब पाकिस्तान आर्थिक संकट से लेकर अपनी संप्रभुता को मिल रही चुनौतियों जैसे कई संकटों की दलदल में फंसा हुआ है. प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के इस चीन दौरे का एक मक़सद, छह औद्योगिक क्षेत्रों में चीन का निवेश बढ़ाने और उससे 3 अरब डॉलर का क़र्ज़ लेकर पाकिस्तान के घटते विदेशी मुद्रा भंडार में नई जान डालना भी था.

चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (CPEC) के कट्टर आलोचक रहे इमरान खान ने अपने चीन दौरे में इस विशाल परियोजना की सराहना की और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के इस बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) को दूरदर्शी बताया.

कभी चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (CPEC) के कट्टर आलोचक रहे इमरान खान ने अपने चीन दौरे में इस विशाल परियोजना की सराहना की और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के इस बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) को दूरदर्शी बताया. इमरान ख़ान ने ज़ोर देकर कहा कि चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की प्रमुख परियोजना ने पाकिस्तान के आर्थिक और सामाजिक विकास में बहुमूल्य योगदान दिया है. पश्चिमी देशों द्वारा इस परियोजना की आलोचना और चीन-पाकिस्तान के रिश्तों में आई गिरावट को देखते हुए, इमरान ख़ान का ये बयान एक तरह से चीन को इस बात का भरोसा देने वाला था कि पाकिस्तान, इस परियोजना को पूरा करने को लेकर प्रतिबद्ध है.

लेकिन चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की सियासत और अर्थशास्त्र दोनों ही अब सुरक्षा संबंधी चुनौतियों से जोड़े जा रहे हैं, जो ‘गेम चेंजर’  लाने का वादा करने वाली इस परियोजना की राह में प्रमुख बाधा बन रहे हैं. इस चुनौती की जटिलता तभी बढ़ सकती है जब जब अफगानिस्तान को दक्षिण एशिया, मध्य एशिया और मध्य पूर्व को जोड़ने वाली इस भव्य परियोजना में शामिल किया जाएगा. वैसे तो, चीन जितना चाहे उतना पैसा इस इलाक़े में निवेश कर सकता है. लेकिन अगर सुरक्षा का मुद्दा अनसुलझा रहा, तो ये सारा निवेश बेकार जा सकता है. चीन अफ़ग़ानिस्तान के सोने, तांबे और दुर्लभ खनिजों के भंडार को देखते हुए, भले ही उसे कुबेर का ख़ज़ाना मानकर उसमें ज़रूरत से ज़्यादा दिलचस्पी ले रहा हो, लेकिन अफ़ग़ानिस्तान की स्थिरता को लेकर जताई जा रही चिंताएं क़तई ग़ैरवाजिब नहीं हैं. लेकिन, क्या चीन अफ़ग़ानिस्तान की स्थिरता और सुरक्षा की गारंटी देने की ज़िम्मेदारी लेने को तैयार है?

क्षेत्रीय सामंतों और स्थानीय लोगों की चिंताएं सही साबित हुईं, जिसमें केंद्र सरकार ने पंजाब सूबे से होकर गुज़रने वाले इस गलियारे के पूर्वी रास्ते के विकल्प को मंज़ूरी दी. इससे  बलूचिस्तान और ख़ैबर पख़्तूनख़्वा सूबे के ज़्यादातर हिस्से इस परियोजना से दूर हो गए.

स्थानीय स्तर पर विरोध

यहां तक कि पाकिस्तान में भी, चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे का बुरा असर देखने को मिल रहा है. कम से कम उपद्रव के शिकार बलूचिस्तान  के मामले में तो ऐसा ही देखने को मिल रहा है. इस परियोजना से पूरे देश की कनेक्टिविटी और विकास को बढ़ावा मिलने के वादे के बाद भी, चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की योजनाओं को आतंकवादी और अलगाववादी संगठनों के हमले का शिकार होना पड़ रहा है. क्योंकि, ये परियोजना पाकिस्तान में गहरी जड़ें जमाए बैठी, सूबों के बीच की खींचतान को दूर करने में नाकाम रही है. इस आर्थिक गलियारे के रास्ते के विवाद से फैला तनाव तब और बढ़ गया जब   जब क्षेत्रीय सामंतों और स्थानीय लोगों की चिंताएं सही साबित हुईं, जिसमें केंद्र सरकार ने पंजाब सूबे से होकर गुज़रने वाले इस गलियारे के पूर्वी रास्ते के विकल्प को मंज़ूरी दी. इससे  बलूचिस्तान और ख़ैबर पख़्तूनख़्वा सूबे के ज़्यादातर हिस्से इस परियोजना से दूर हो गए.

बलूचों की शिकायतों की जड़ें ऐतिहासिक रूप से कम विकास और सूबे के संसाधनों के शोषण से जुड़ी हुई हैं. हालांकि, बलूचिस्तान में उग्रवादी घटनाओं के ताज़ा दौर की जड़ में चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे के तहत केंद्र सरकार द्वारा चलाई जा रही विकास की विशाल परियोजनाएं और ख़ास तौर से ग्वादर बंदरगाह का विकास है, जिससे स्थानीय आबादी को शामिल नहीं किया गया है. इस बात ने न केवल स्थानीय लोगों की नाराज़गी को और भड़का दिया है, बल्कि सूबे के राष्ट्रवादी तबक़े के बीच, आर्थिक गलियारे की पूरी परियोजना के प्रति नफ़रत बढ़ा दी है.

सीमा पार के आतंकवाद को लेकर पश्चिमी सीमा पर ईरान के साथ पाकिस्तान के रिश्तों में भी ज़बरदस्त तनाव है. ये सरहद, बलूचलिबरेशन आर्मी को मदद मुहैया कराती है.

बलूच लिबरेशन आर्मी (BLA) द्वारा चीन के निवेश और पाकिस्तानी नियंत्रण के बढ़ते विरोध के चलते हाल ही में पाकिस्तान के सुरक्षा बलों पर हमले की घटनाएं काफ़ी बढ़ गई हैं. बीती 25 जनवरी को बलूच बाग़ियों ने ग्वादर बंदरगाह के क़रीब बलूचिस्तान के केच ज़िले में एक चौकी पर हमला किया था. इस हमले में पाकिस्तान के अर्धसैनिक बलों के दस जवानों की मौत हो गई और जबकी तीन जवान घायल हो गए थे. . इसके बाद नोश्की और पंजगुर में फ्रंटियर कोर के दो कैंप पर भी हमले हुए थे. इन हमलों के बाद बलूच लिबरेशन आर्मी ने अपने एक बयान में कहा था कि, ‘हम एक बार फिर से चीनियों को भी चेतावनी दे रहे हैं कि वो बलूच संसाधनों को लूटने और हमारी मातृभूमि पर क़ब्ज़ा करने में पाकिस्तान की मदद न करें, वरना हम उनके ठिकानों को भी अपना निशाना बनाएंगे.’

हमले की इन ‘अभूतपूर्व’ घटनाओं ने पाकिस्तान के इस्लामाबाद में बैठी सरकार के तनाव को और बढ़ा दिया है. बलूच लिबरेशन आर्मी की बढ़ती ताक़त को पाकिस्तानी तालिबान से मिल रहे समर्थन से भी जोड़कर देखा जाता रहा है. पाकिस्तान के अधिकारियों का दावा है कि इन हमलों का मक़सद, प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के चीन दौरे को चोट पहुंचाना और पाकिस्तान के सुरक्षा हालात को लेकर चीन के मन में शंका को गहरा करना था. सीमा पार के आतंकवाद को लेकर पश्चिमी सीमा पर ईरान के साथ पाकिस्तान के रिश्तों में भी ज़बरदस्त तनाव है. ये सरहद, बलूचलिबरेशन आर्मी को मदद मुहैया कराती है. तमाम दहशतगर्द संगठनों के बीच बढ़ते तालमेल ने भी इस क्षेत्र को सुरक्षित बनाने की पाकिस्तान की क्षमता के बारे में शंकाएं बढ़ा दी हैं.

इस क्षेत्र में तनाव को देखते हुए, चीन के लिए अपने निवेश को जायज़ और मुनाफ़े वाला बना पाना मुश्किल होता जा रहा है. किसी अन्य देश के घरेलू मामलों में दखल न देने की चीन की नीति से मसला और भी पेचीदा हो गया है. घरेलू स्तर पर बग़ावत विरोधी जज़्बात और आर्थिक हितों के साथ जुड़े अन्य देशों में सुरक्षा संबंधी चिताओं के चलते चीन, पाकिस्तान के अलग-अलग क्षेत्रों की मांगों के दबाव में आकर, घरेलू सियासत में फंसने सेबचेगा. . ये बात उस वक़्त साबित हो गई, जब चीन के पसंदीदा कहे जाने वाले ख़ालिद मंसूर को, ‘चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारों के मामले में प्रधानमंत्री का विशेष सहायक’ नियुक्त किया गया था. पाकिस्तान के कारोबारी तबक़े के कई सदस्य इस नई बहाली से ख़ुश नहीं थे.

पाकिस्तान में तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) ने भी चीनी हितों के लिए ख़तरा पैदा कर दिया है. पाकिस्तान की योजना थी कि  अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी के बाद, तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान की ताक़त और उसके हमले कम हो जाएंगे.

गिल्गित बाल्टिस्तान भी, चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारे में एक बड़ी हिस्सेदारी की मांग कर रहा है. इस गलियारे में आने वाला ये इलाक़ा भी विवाद का विषय है क्योंकि ये भारत की संप्रभुता संबंधी चिंताओं की अनदेखी करता है. पाकिस्तान द्वारा गिल्गित बाल्टिस्तान को एक अलग सूबे का दर्ज़ा देने की कोशिशों पर भारत कई बार ऐतराज़जता चुका है; भारतीय विदेश मंत्रालय ने इस मामले में ज़ोर देकर कहा था कि, ‘1947 में जम्मू और कश्मीर के वैध, संपूर्ण और पलटे न जा सकने वाले विलय के तहत, तथाकथित गिल्गित बाल्टिस्तान का इलाक़ा भारत का अभिन्न अंग है’.

प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के चीन दौरे के बाद, दोनों देशों द्वारा जारी साझा बयान में जम्मू-कश्मीर के मसले का ज़िक्र किया गया था और कहा गया था कि चीन ऐसे किसी भी ‘एकतरफा कार्रवाई’ का विरोध करता है, जिससे हालात और पेचीदा हो जाएं. बिगड़ते घरेलू सियासी माहौल को देखते हुए, कश्मीर मसले पर चीन का समर्थन मिलना, इमरान ख़ान की सरकार की एक छोटी सी उपलब्धि कही जा सकती है. चीन ने पाकिस्तान की सुरक्षा के बिगड़ते हालात को लेकर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की थी और पाकिस्तान पर इस बात का दबाव बढ़ाया है कि वो कश्मीर के विवादित हिस्से पर अपना नियंत्रण और मज़बूत करे. क्योंकि, चीन ये नहीं चाहता कि उस पर किसी विवादित क्षेत्र में चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा बनाने का इल्ज़ाम लगे. इसका एक नतीजा ये होगा कि कश्मीर मसले पर बातचीत और भी मुश्किल हो जाएगी, क्योंकि चीन, भारत को कमज़ोर करने के लिए अपनी आर्थिक ताक़त का इस्तेमाल करते हुए पाकिस्तान पर और आक्रामक रवैया अपनाने का दबाव डाल सकता है.

तालिबान की भूमिका

पाकिस्तान में तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) ने भी चीनी हितों के लिए ख़तरा पैदा कर दिया है. पाकिस्तान की योजना थी कि  अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी के बाद, तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान की ताक़त और उसके हमले कम हो जाएंगे. लेकिन, अभी तक ऐसा होते दिख नहीं रहा है. बल्कि इस दहशतगर्द संगठन में एक नई जान आ गई है और अब वो पहले से ज़्यादा ताक़त के साथ हमला कर रहा है. पाकिस्तान की उम्मीदों को करारा झटका तब लगा था जब TTP से अपने पुराने रिश्ते निभाते हुए, तालिबान ने काबुल पर क़ब्ज़े के बाद पुरानी अफ़ग़ान सरकार द्वारा वहां की जेल में क़ैद तहरीक-ए-तालिबान के सरदारों और लड़ाकों को रिहा कर दिया था. तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान ने न सिर्फ़ ये कहा है कि अफ़ग़ान तालिबान उसके लिए एक मिसाल है, बल्कि उनके आंदोलन की जननी भी है. तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के मुखिया नूर वली महसूद ने सार्वजनिक रूप से तालिबान के प्रमुख मौलवी हिबतउल्लाह अख़ुंदज़ादा के प्रति अपनी वफ़ादारी का एलान किया था, और ये भी कहा था कि TTP, पाकिस्तान में अफ़ग़ान तालिबान की एक शाखा है.

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान को पिछले दो दशकों से भी ज़्यादा वक़्त से पाकिस्तानी समर्थन मिलता रहा है. हालांकि, डूरंड लाइन पर हाल में हुई झड़पों ने उनके रिश्तों के साथ-साथ पाकिस्तान की संप्रभुता को भी कमज़ोर कर दिया है. वैसे दोनों के बीच रिश्तों में ये दोहरापन इस इलाक़े के लिए कोई नई बात नहीं है. अब जबकि, तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान, अफ़ग़ान तालिबान को अपने देश की सत्ता पर शिकंजा कसने में मदद कर रहा है, तो पाकिस्तान के पास अब इस बात की कोई गारंटी नहीं बची है कि अपनी तेज़ी से बढ़ती राष्ट्रवादी सोच के चलते, अफ़ग़ान तालिबान उनके साथ सहयोग करेंगे.

काबुल पर तालिबान के कब्जे के छह महीने के भीतर, एक बार फिर से अफ़ग़ानिस्तान की सरज़मीं विदेशी और घरेलू लड़ाकों के लिए हमला करने का ठिकाना बन गई है और इसने ‘अच्छे-बुरे हर दौर के दोस्तों’ की सुरक्षा संबंधी फ़िक्र को बढ़ा दिया है. इस्लामिक स्टेट (IS) और अल क़ायदा के बारे में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) की हाल ही में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक़, ‘तालिबान द्वारा अपने अफ़गानिस्तान में विदेशी आतंकियों की गतिविधियों पर लगाम लगाने की कोई कोशिश नहीं दिखाई दी है, इसके बजाय अफ़ग़ानिस्तान के हालिया इतिहास में आतंकवादी संगठनों को अब तक की सबसे ज़्यादा आज़ादी हासिल हो गई है.’ 

अपने लिए अंतरराष्ट्रीय वैधता और पूंजी हासिल करने के लिए अफ़ग़ानिस्तान के पास चीन के रूप में सबसे अच्छा दांव है. उइगर इस्लामिक संगठन तुर्किस्तान इस्लिक पार्टी (TIP) की गतिविधियों को सीमित करके और उन्हें चीन से लगी सीमा पर स्थित बदख़्शां के अपने पारंपरिक गढ़ से हटाकर दूसरे ठिकानों पर भेजकर, तालिबान ने चीन के हितों को तरज़ीह भी दी है. TIP जैसे संगठनों पर क़ाबू पाने की इन कोशिशों पर सवाल उठते रहे हैं, क्योंकि संयुक्त राष्ट्र के कई सदस्य देश ये दावा करते हैं कि तुर्किस्तान इस्लामिक पार्टी, अल क़ायदा और पाकिस्तानी तालिबान से सहयोग करती रही है. इसके अलावा, TIP के कुछ सदस्य अभी भी ‘जिहाद करने के लिए शिंजियांग लौटने’ पर आमादा हैं.

उइगर इस्लामिक संगठन तुर्किस्तान इस्लिक पार्टी (TIP) की गतिविधियों को सीमित करके और उन्हें चीन से लगी सीमा पर स्थित बदख़्शां के अपने पारंपरिक गढ़ से हटाकर दूसरे ठिकानों पर भेजकर, तालिबान ने चीन के हितों को तरज़ीह भी दी है.

उइगर के आतंकवादियों पर लगाम लगाने की राह में अफ़ग़ान तालिबान के लिए सबसे बड़ी बाधा इस्लामिक स्टेट ख़ुरासान (ISK) की बढ़ती ताक़त है. इस्लामिक स्टेट खुरासान लगातार चीन की मुख़ालफ़त करता रहा है और हाल ही में उसने चीन के साथ रिश्ते बढ़ाने के लिए तालिबान की कड़ी आलोचना करते हुए कहा था कि चीन तो शिंजियाग में ‘उइगर मुसलमानों का सफ़ाया करने पर आमादा है’. अर्थव्यवस्था की तबाही और मानवीय संकट के चलते, तालिबान के नियंत्रण वाले अफ़ग़ानिस्तान की संस्थाएं काफ़ी कमज़ोर हालत में हैं. इस्लामिक स्टेट ख़ुरासान के लिए ऐसे हालात का फ़ायदा उठाने का मौक़ा मुफ़ीद है. अफ़ग़ानिस्तान से चीन पर हमला होने की सूरत में तालिबान के हाथ से उसका सबसे ताक़तवर साझीदार निकल जाएगा और अपनी हुकूमत के लिए वैधता हासिल करने की तालिबान की कोशिश को भी झटका लगेगा. ये ऐसा मक़सद है, जिसे हासिल करने के लिए इस्लामिक स्टेट ख़ुरासान बेक़रार मालूम होता है.

पाकिस्तान में चीन का निवेश और उसके साथ कारोबार बढ़ाने की एक वजह उसकी ये सोच रही है कि अफ़ग़ान तालिबान के ऊपर पाकिस्तान का काफ़ी असर है और वो इस क्षेत्र में उग्रवाद को क़ाबू पाने में अहम ताक़त है. लेकिन, बहुत ज़्यादा पाकिस्तान के भरोसे रहना चीन के लिए काफ़ी जोखिम भरा हो सकता है. क्योंकि, अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान, दोनों ही देशों में ऐसे तत्व हैं, जो पाकिस्तान के नियंत्रण से बाहर हैं. विदेशों में चीनी नागरिकों पर सबसे ज़्यादा आतंकवादी हमले पाकिस्तान में ही हुए हैं. अब ये बात बड़ी तेज़ी से साफ़ होती जा रही है कि पाकिस्तान को स्थिर बनाने के बजाय, इस क्षेत्र में चीन की बढ़ती मौजूदगी, पूरे इलाक़े को अस्थिर बनाने में बड़ी भूमिका निभा रही है और इस तरह चीन को भी इस भंवर में घसीट रही है. ऐसे में ‘हर मौसम के दोस्तों’ की एक दूसरे के प्रति वफ़ादारी का इज़हार ज़मीनी हक़ीक़त से कोसों दूर है, और इस वक़्त ये दोस्ती बवंडर में फंसती मालूम हो रही है.

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