Published on Dec 12, 2023 Updated 0 Hours ago

क़तर ने जिस तरह हमास और इज़राइ के बीच अस्थायी शांति समझौता कराने की कोशिशें कीं, उससे ज़ाहिर है कि वो मध्य पूर्व में एक राजनीतिक मध्यस्थ की भूमिका निभाना चाहता है. हालांकि, ऐसी सफलताओं के साथ उतनी ही बड़ी चुनौतियां भी आती हैं.

इज़राइल और हमास के युद्ध में क़तर की केंद्रीय भूमिका

1971 में आधिकारिक तौर पर अस्तित्व में आने वाला क़तर, खाड़ी क्षेत्र का एक छोटा सा देश है. लेकिन, मध्य पूर्व (पश्चिमी एशिया) के क्षेत्रीय संघर्षों और विवादों में अपनी लगातार बड़ी होती भूमिकाओं की वजह से उसने अपनी तरफ़ काफ़ी ध्यान आकर्षित किया है. क़तर की विदेश नीति अपने हितों की हिफ़ाज़त और (खाड़ी देशों के अन्य सत्ताधारी ख़ानदानों की तरह) मौजूदा शाही परिवार की रक्षा करने के इर्द गिर्द घूमती है. अपनी आज़ादी के बाद, क़तर तुरंत ही सऊदी अरब के पाले में चला गया था, क्योंकि वो अपनी रक्षा के लिए सऊदी अरब पर निर्भर था. हालांकि, 1990 के दशक के शुरुआती वर्षों में ही क़तर ने अलग राह पर चलना शुरू कर दिया. इस बदलाव के पीछे दो कारण थे: पहला तो कुवैत पर इराक़ का आक्रमण (1990) था, जिसे सऊदी अरब ने रोका नहीं. इससे क़तर को संकेत मिला कि वो अपनी सुरक्षा के लिए सऊदी अरब के भरोसे नहीं रह सकता है; और दूसरा, शेख़ हमाद बिन ख़लीफ़ा का 1995 में सत्ता में आने से ख़ुद क़तर के भीतर भी बदलाव आया.

 विदेश नीति में इस बदलाव के अंतर्गत, क़तर ने अपनी सॉफ्ट पावर में निवेश के साथ अपना प्रभाव बढ़ाने की भी शुरुआत की. 1996 में अल जज़ीरा चैनल की शुरुआत इसी प्रयास का हिस्सा था.

अपने मुल्क की आज़ादी का प्रदर्शन करने के लिए शेख़ हमाद ने एक आक्रामक विदेश नीति पर चलना शुरू कर दिया, और इसके तहत क़तर ने अपने दो बड़े पड़ोसी देशों ईरान और सऊदी अरब के बीच संतुलन बनाना शुरू कर दिया, जो आम तौर पर एक दूसरे के ख़िलाफ़ ही रहते आए हैं. विदेश नीति में इस बदलाव के अंतर्गत, क़तर ने अपनी सॉफ्ट पावर में निवेश के साथ अपना प्रभाव बढ़ाने की भी शुरुआत की. 1996 में अल जज़ीरा चैनल की शुरुआत इसी प्रयास का हिस्सा था. इसी दौरान, क़तर पहला खाड़ी देश बन गया जिसने 1996 में आधिकारिक रूप से इज़राइल के साथ कूटनीतिक रिश्ते स्थापित किए. उसके तुरंत बाद, क़तर ने अपने दरवाज़े अमेरिका की फौज के लिए भी खोल दिए, जब उसने अमेरिका को अपने अल उदैद हवाई सैनिक अड्डे का इस्तेमाल करने की इजाज़त दे दी, जहां से अमेरिका ने 9/11 के बाद अफ़ग़ानिस्तान में अल क़ायदा के अड्डों पर हमले किए.

इज़राइल और हमास के बीच मध्यस्थ की भूमिका

सभी बड़ी ताक़तों के साथ संतुलन बनाने की अपनी विदेश नीति के साथ ही, क़तर ने मध्य पूर्व के तमाम संघर्षों में मध्यस्थ की भूमिका भी निभानी शुरू कर दी. मिसाल के तौर पर वो 2006 से ही हमास और फतह (फ़िलिस्तीन का एक सियासी दल) पर मध्यस्थता कराता रहा है. इसके अलावा, पिछले लगभग दो दशकों के दौरान क़तर ने यमन और लेबनान, दक्षिणी सूडान और लीबिया के संघर्षों में मध्यस्थ के प्रयास जारी रखे हैं. इन संघर्षों में मध्यस्थ बनने की वजह से क़तर को पूरे मध्य पूर्व में एक मज़बूत उपस्थिति बनाने में सफलता मिली है. इसकी मिसाल हमने तब देखी थी, जब 2011 की अरब क्रांति के दौरान क़तर ने पूरे मध्य पूर्व में क्रांतिकारी आंदोलनों को मदद दी थी. इज़राइल और हमास के बीच मध्यस्थता कराने की क़तर की भूमिका को इसी संदर्भ के ज़रिए समझा जा सकता है. 

2009 में ग़ज़ा पट्टी में इज़राइल के सैन्य अभियान की वजह से क़तर ने उसके साथ रिश्ते तोड़ लिए थे. इज़राइल के साथ क़तर के रिश्ते के पीछे एक कारण, अमेरिका भी है. क्योंकि पिछले कुछ दशकों के दौरान क़तर ने अमेरिका के साथ कारोबारी और सैन्य संबंधों को मज़बूती से आगे बढ़ाया है.

हमास के साथ क़तर के रिश्ते 2006 से ही चले आ रहे हैं, जब हमास ने ग़ज़ा पट्टी की सत्ता से उस वक़्त के फ़िलिस्तीनी प्राधिकरण को उखाड़ फेंका था. उसके बाद से ही क़तर, तमाम शिखर सम्मेलनों और बैठकों में हमास के नेताओं की मेज़बानी करता रहा है. हमास के मौजूदा नेता इस्माइल हानिया, 2016 से ही क़तर में रह रहे हैं. हमास के साथ वैचारिक नज़दीकी के साथ साथ, क़तर उसको इकलौता ऐसा माध्यम मानता है, जिसके ज़रिए ग़ज़ा पट्टी के फ़िलिस्तीनियों की जिंदगी बेहतर बनाई जा सकती है. इस यक़ीन की वजह से ही क़तर, पिछले कुछ दशकों के दौरान ग़ज़ा पट्टी को क़रीब एक अरब डॉलर की सहायता दे चुका है.

इसके साथ साथ, 1996 से ही क़तर ने इज़राइल के साथ भी रिश्ते सुधारे और 2009 तक दोनों देशों के बीच नाममात्र के संबंध बने हुए थे. 2009 में ग़ज़ा पट्टी में इज़राइल के सैन्य अभियान की वजह से क़तर ने उसके साथ रिश्ते तोड़ लिए थे. इज़राइल के साथ क़तर के रिश्ते के पीछे एक कारण, अमेरिका भी है. क्योंकि पिछले कुछ दशकों के दौरान क़तर ने अमेरिका के साथ कारोबारी और सैन्य संबंधों को मज़बूती से आगे बढ़ाया है और यहां तक कि उसने ईरान और अफ़ग़ानिस्तान (ख़ास तौर से तालिबान) में अमेरिका के दुश्मनों के साथ उसकी मध्यस्थता कराने के प्रयास भी किए हैं. इसीलिए, अमेरिका के साथ अपने अच्छे रिश्तों और अन्य देशों के साथ संबंधों में संतुलन बनाए रखने की ख़्वाहिश के कारण ही क़तर ने इज़राइल के साथ आधिकारिक रूप से संबंध समाप्त करने के बावजूद, पर्दे के पीछे से उसके साथ संपर्क का रास्ता हमेशा खुला रखा है.

मध्यस्थता की मौजूदा कोशिशें और उनका भविष्य

जैसा कि ज़्यादातर पर्यवेक्षकों ने कहा है कि, हमास और इज़राइल के बीच कुछ दिनों का जो युद्ध विराम हुआ था, वो तनाव कम करने की क़तर की आक्रामक कोशिशों के बग़ैर कामयाब नहीं हो सकता था. वार्ता के दौरान हमास और इज़राइल, दोनों के नेताओं को साथ बिठाकर क़तर ने वो युद्धविराम कराने में सफलता हासिल की, जिसे कम से कम दो बार आगे भी बढ़ाया जा सका. कुल मिलाकर, इज़राइल और फ़िलिस्तीन के बीच संघर्ष में क़तर की भूमिका का मक़सद किसी न किसी रूप में शांति स्थापित करना और युद्ध ख़त्म होने के बाद पुनर्निर्माण सुनिश्चित करने का है.

हालांकि, मध्यस्थता के इन प्रयासों के ज़रिए क़तर अपने आपको मध्य पूर्व की एक बड़ी ताक़त और राजनीतिक बीच-बचाव करने वाले देश के तौर पर स्थापित करना चाहता है, क्योंकि पूरा मध्य पूर्व का इलाक़ा संघर्षों का शिकार है. ऐसे में क़तर ख़ुद को पश्चिमी देशों का ऐसा साथी बनाना चाहता है, जिसके बग़ैर उनका काम ही न चले, और, उसकी सुरक्षा के लिए ख़तरा पैदा करने वाले वैसे हालात फिर से न बनें, जैसे 2017 से 2021 के बीच बने थे, जब दूसरे अरब देशों ने उसकी नाकेबंदी कर रखी थी.

ज़्यादातर अरब और मुस्लिम देश इस वक़्त क़तर को लेकर सकारात्मक रवैया रखते हैं, क्योंकि उसने समय के मुताबिक़, फ़िलिस्तीनियों के हक़ में ज़्यादा मज़बूत नीति अपनाई है. हालांकि, ये इज़राइल और अमेरिका के साथ उसके नज़दीकी संबंधों का भी इम्तिहान की घड़ी है.

इन प्रयासों के ज़रिए क़तर, जो कभी सऊदी अरब के साये तले चलता रहा था, उसने अब अपनी विदेश नीति में बदलाव किया है और अधिक स्वतंत्र नीति अपनायी है, जो अपना प्रभाव बढ़ाने पर केंद्रित है. इस वजह से क़तर, मौजूदा संघर्ष में बेहद मज़बूत भूमिका में आ गया है. लेकिन, ऐसी जीतों के साथ अक्सर कई चुनौतियां भी आ जाती हैं.

ज़्यादातर अरब और मुस्लिम देश इस वक़्त क़तर को लेकर सकारात्मक रवैया रखते हैं, क्योंकि उसने समय के मुताबिक़, फ़िलिस्तीनियों के हक़ में ज़्यादा मज़बूत नीति अपनाई है. हालांकि, ये इज़राइल और अमेरिका के साथ उसके नज़दीकी संबंधों का भी इम्तिहान की घड़ी है. इज़राइल पर हमास के हमले के बाद से ही, अमेरिका के नीति निर्माता ये मांग कर रहे हैं कि क़तर, हमास के सारे नेताओं को अपने यहां से निकाल बाहर करे. यही नहीं, इज़राइल ने भी प्रण किया है कि वो हमास को जड़ से मिटा डालेगा. इज़राइल अपनी ये क़सम पूरी करने के लिए लगातार ग़ज़ा पट्टी के रिहाइशी इलाक़ों पर बमबारी कर रहा है.

ये दोनों ही बातें क़तर के हक़ में नहीं जाती हैं. क्योंकि, अगर हमास का पूरी तरह से ख़ात्मा (क़तर से निष्कासन या फिर ग़ज़ा में सफ़ाया) हो जाता है, तो उस इलाक़े से संपर्क का क़तर का एक बड़ा ज़रिया ख़त्म हो जाएगा. हालांकि, हमास को आगे समर्थन देने से, और ख़ास तौर से अगर हमास और हमल करता है, तो क़तर की छवि पर बुरा असर पड़ेगा और अमेरिका के साथ उसके रिश्तों पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा. इस दुविधा में फंसा क़तर अभी ये उम्मीद कर रहा है कि जब ये युद्ध रुकेगा तो वो, अमेरिका को गैस और ऊर्जा की भारी मात्रा में आपूर्ति करके, उसके सैनिकों को अड्डा देकर और अन्य संघर्षों में बीच-बचाव कर पाने की अपनी क्षमता और ज़बरदस्त कूटनीतिक कौशल की मदद से वो अमेरिका को एक बार फिर से साधने में सफल हो जाएगा. 

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.