Published on Dec 26, 2022 Updated 0 Hours ago

पाक़िस्तान की राजनीतिक व्यवस्था राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और सेना की तिकड़ी के आपसी संबंधों की भेंट चढ़ गई है.

क्या पाक़िस्तान की सियासी करवट बदलने में कामयाब होंगे नए आर्मी चीफ़?

यह सवाल कि पाक़िस्तान का नया सेना प्रमुख कौन होगा, इसे अब सुलझा लिया गया है. हालांकि, इसने नए सवालों को जन्म दिया है: पाक़िस्तान के सबसे ताकतवर संस्थान के प्रमुख के रूप में लेफ्टिनेंट जनरल असीम मुनीर उन सभी सैन्य और असैन्य समस्याओं से कैसे निपटेंगे, जिनसे पाक़िस्तान जूझ रहा है? पूर्व सेना प्रमुख ने, विशेष रूप से अपने कार्यकाल के आखिरी महीनों में, यह कहा था कि राजनीति में दख़ल देने पाकिस्तानी सेना के इतिहास ने भलाई से कहीं ज्यादा नुकसान किया है और इसलिए सेना राजनीति से पूरी तरह दूर ही रहेगी. लेकिन ऐसा कहना आसान है, उसे वास्तव में कर दिखाना बेहद कठिन.

पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान से "सलाह मशविरा" करके सार्वजनिक तौर पर वर्तमान प्रधानमंत्री और संवैधानिक व्यवस्था को नीचा दिखाते रहे हैं. इसलिए, यह सवाल तो उठता ही है कि क्या असीम मुनीर चाहें तो जनरल बाजवा द्वारा किए वादे को पूरा कर पाएंगे?

यह सही है कि पाक़िस्तान ने इस साल कुछ अप्रत्याशित घटनाएं देखी हैं: पहली बार किसी सत्तासीन प्रधानमंत्री को अविश्वास प्रस्ताव के ज़रिये हटाया गया और अपदस्थ प्रधानमंत्री के राजनीतिक हथकंडों से परेशान होकर आईएसआई (इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस) जैसा ताकतवर संगठन अपने ग़ैर-राजनीतिक रुख का बचाव करने के लिए एक सार्वजनिक प्रेस कांफ्रेंस बुलाने के लिए मजबूर हो गया. हालांकि, ठीक उसी दौरान, पाक़िस्तान के राष्ट्रपति महत्त्वपूर्ण राजनीतिक मुद्दों, ख़ासकर नए सेना प्रमुख की नियुक्ति के मसले को लेकर पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान से "सलाह मशविरा" करके सार्वजनिक तौर पर वर्तमान प्रधानमंत्री और संवैधानिक व्यवस्था को नीचा दिखाते रहे हैं. इसलिए, यह सवाल तो उठता ही है कि क्या असीम मुनीर चाहें तो जनरल बाजवा द्वारा किए वादे को पूरा कर पाएंगे? नहीं. कम से कम वह अकेले तो ऐसा करने में सक्षम नहीं हैं. इसकी मुख्य रूप से वजह यही है कि पाक़िस्तान का राजनीतिक चरित्र उसकी राजनीतिक व्यवस्था से भिन्न है. क्या इस अंतर को, विशेष रूप से पाक़िस्तान की राजनीतिक व्यवस्था के लिए, एक विश्लेषणात्मक अध्ययन के तौर पर सही ठहराया जा सकता है? इसे और विस्तार में समझा जा सकता है:

  • किसी राज्य की राजनीतिक प्रणाली को उसके औपचारिक संस्थागत व्यवस्था (संवैधानिक और वैधानिक) के माध्यम से परिभाषित किया जाता है. यह व्यवस्थाएं अपने आदर्श रूप में शक्ति के प्रवाह और उसकी वैधानिकता को बनाए रखने का जरिया होती हैं, जो किसी व्यक्ति को स्पष्ट जनादेश के माध्यम से सीमित समय के लिए उसका उत्तराधिकारी बनाती हैं.
  • किसी राज्य के राजनीतिक चरित्र की पहचान करनी हो, तो ऐसे संस्थानों या व्यक्तियों को देखिए, जो वास्तविकता में ताकत पर अपना नियंत्रण रखते हैं. भले ही वे ऊपरी तौर पर राज्य के संवैधानिक और वैधानिक ढांचे के अनुरूप काम कर रहे हों लेकिन असल में उससे कोसों दूर हों. इसका परिणाम यह होता है कि ऐसे अनौपचारिक, व्यक्ति-आधारित, (और संगठन-आधारित) तंत्र स्थापित हो जाते हैं, जिन्हें राज्य द्वारा वैधानिकता हासिल होती है लेकिन वे उसी के राजनीतिक अधिकारों में सेंध लगाकर असीमित और अपरिभाषित रूप से ताकतवर हो जाते हैं.

ताकतवर तिकड़ी

पाक़िस्तान की राजनीतिक व्यवस्था अपने पूरे इतिहास में अपने संवैधानिक तंत्र की कार्य-क्षमता का प्रदर्शन करती रही है लेकिन आखिर में वह अपने उन्हीं ढर्रों पर चलने लगती है, जो उसके राजनीतिक चरित्र को परिभाषित करती है. उनमें से एक है: पाक़िस्तान के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और सैन्य प्रमुख के बीच संबंधों की आपसी खींचतान, जो हमेशा से पाकिस्तानी राजनीति को प्रभावित करती रही है. निश्चित रूप से, इनमें सैन्य प्रमुख सबसे अधिक ताकतवर हैं क्योंकि उनके अधीन पाक़िस्तान का सबसे ज्यादा संगठित और एकजुट संगठन है. हालांकि, वह भी अकेले अपने दम पर पाक़िस्तान के राजनीतिक चरित्र में बदलाव करके उसे उसकी राजनीतिक व्यवस्था के अनुरूप बनाने में सक्षम नहीं हैं.

इन सबके पीछे मुख्य कारण यह है कि सेना स्वयं ही संविधान से आगे बढ़कर अतिरिक्त भूमिकाओं पर नियंत्रण स्थापित करती रही है. यह एक तथ्य बन चुका है कि पाक़िस्तान के राजनीतिक इतिहास का अधिकांश हिस्सा उसकी सेना अपने पेशेवर दायरे से बाहर जाने का है. सन् 1973 में लागू हुए संविधान के बारहवें भाग का दूसरे अध्याय सेना को समर्पित है, जिसमें अनुच्छेद 245 सशस्त्र बलों की भूमिकाओं को परिभाषित करता है. दिलचस्प बात यह है कि 245 (1) यह कहता है कि सशस्त्र बल "ऐसा करने के लिए बुलाए जाने पर नागरिक शक्ति की सहायता करेंगे." इससे व्यवस्था द्वारा राज्य के राजनीतिक मामलों में पाकिस्तानी सेना की अनिवार्य भागीदारी को विनियमित करने के प्रयासों का पता चलता है, जो एक कड़े प्रावधान के ज़रिये 'नागरिक शक्ति' की प्रधानता को स्थापित करता है. हालांकि, यह तथ्य कि ऐसी कोई व्यवस्था पाक़िस्तान के राजनीतिक चरित्र के अनुकूल नहीं है, को प्रमाणित करने के लिए यह तथ्य काफ़ी है कि अतीत में चार मौके (1958-69, 1969-71, 1978-88, 2001-08) ऐसे रहे हैं कि राष्ट्रपति और सेना प्रमुख के पद को एक ही व्यक्ति ने संभाला है. पाक़िस्तान के राजनीतिक इतिहास से सबक लेते हुए, तिकड़ी (राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और सेना प्रमुख) के आपसी संबंधों को चार प्रमुख श्रेणियों में बांटा जा सकता है:

वास्तव में पाक़िस्तान के अधिकांश प्रधानमंत्रियों ने अपने कार्यकाल की शुरुआत त्रिपक्षीय समझौते के साथ की है और उसका अंत सैन्य प्रमुख या राष्ट्रपति के साथ द्विपक्षीय समझौते के कारण हुआ है, जिन्हें अपने कार्यकाल के दौरान अक्सर त्रिपक्षीय टकराव से गुजरना पड़ता था.
  1. त्रिपक्षीय टकराव - जब तीनों शक्तियां (जब तीनों पद अलग-अलग लोगों के नियंत्रण में है) एक-दूसरे के खिलाफ़ काम करती हैं.
  2.  द्विपक्षीय टकराव - जब दो शक्तियां (जब दो पदों पर एक ही व्यक्ति काबिज़ है) एक-दूसरे के विरुद्ध काम करती है.
  3. द्विपक्षीय समझौता* - जब दो शक्तियां (जब तीनों पद अलग-अलग लोगों के नियंत्रण में है) तीसरे के खिलाफ़ एकजुट होकर काम करती हैं.
  4. त्रिपक्षीय समझौता - जब सभी ताकतें (जब तीनों पद अलग-अलग लोगों के नियंत्रण में है) एक-दूसरे के साथ मिलकर काम करती हैं.

ऐसा ज़रूरी नहीं है कि तिकड़ी के किसी भी एक सदस्य के कार्यकाल के पूरा होने तक यह श्रेणियां स्थिर रूप से काम करें. वास्तव में, ऐसा संभव ही नहीं है. वास्तव में पाक़िस्तान के अधिकांश प्रधानमंत्रियों ने अपने कार्यकाल की शुरुआत त्रिपक्षीय समझौते के साथ की है और उसका अंत सैन्य प्रमुख या राष्ट्रपति के साथ द्विपक्षीय समझौते के कारण हुआ है, जिन्हें अपने कार्यकाल के दौरान अक्सर त्रिपक्षीय टकराव से गुजरना पड़ता था. पाक़िस्तान के राजनीतिक चरित्र का यह पहलू बार-बार दिखाई पड़ता है: सेना प्रमुख किसी एक राजनीतिक उम्मीदवार का पक्ष लेते हैं, बाद में प्रधानमंत्री के साथ तनाव की स्थिति पैदा होती है, और आखिर में एक बार फिर से व्यवस्था के साथ छेड़छाड़ करके उसे (प्रधानमंत्री को) पद से हटा दिया जाता है. ये स्थिति ख़ासतौर पर जिया-जुनेजो के समय से 90 के दशक में नवाज़ शरीफ़-बेनजीर के बीच संघर्ष की स्थिति के बाद से हाल ही में इमरान-बाजवा मामले में देखने को मिली है. 

अर्थव्यवस्था की भीतरी उठा-पटक

अन्य कारकों के अलावा, जिस एक कारक ने तिकड़ी के आपसी संबंधों को बुरी तरह प्रभावित किया है, वह है: राज्य की आर्थिक स्थिति, जो अधिकांशतः समस्याग्रस्त रही है. सेना के गहरे कॉरपोरेट हितों, जिसे आयशा सिद्दीका ने "मिलबस" (मिलिट्री बिजनेस का संक्षिप्त रूप) का नाम दिया है, को पूरा करने के लिए अनौपचारिक तंत्रों का सहारा लिया जाता है, जो सेना के औपचारिक बजट से बाहर होते हैं. जिसे देश की राजनीतिक प्रणाली और उसके चरित्र के भेद का ही एक और स्वरूप कहा जा सकता है. हालांकि, अपनी समग्रता में देश की आर्थिक स्थिति सीधे तौर पर इस बात से जुड़ी हुई है कि मिलबस से सेना किस तरह से लाभ उठा रही है. चूंकि, आर्थिक स्थिति की बेहतरी के लिए राजनीतिक स्थिरता (चाहे सैन्य शासन हो या नागरिक शासन) होनी ज़रूरी है, इसलिए यह सीधे तौर पर तिकड़ी के आपसी संबंधों पर असर डालता है. ऐतिहासिक ही नहीं वर्तमान की घटनाओं से भी यह बात स्पष्ट होती है. उदाहरण के लिए, 1988 में, प्रधानमंत्री (बेनजीर भुट्टो), राष्ट्रपति (गुलाम इशाक खान) और सेना प्रमुख (मिर्जा असलम बेग) त्रिपक्षीय समझौते के तहत काम किया. लेकिन 1990 तक, यह संबंध कई कारणों से राष्ट्रपति और सेना प्रमुख के बीच द्विपक्षीय समझौते के रूप में बदल गया. प्रधानमंत्री के आर्थिक मोर्चे पर संघर्ष और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से असहमति ने उन्हें सत्ता से बाहर करने में मुख्य रूप से अपना योगदान दिया. हालिया दौर में, सेना प्रमुख (क़मर बाजवा), राष्ट्रपति (आरिफ अल्वी), और प्रधानमंत्री (इमरान खान) 2018 और 2020 के बीच त्रिपक्षीय समझौते के तहत काम करते रहे. बाजवा ने "देश की आर्थिक स्थिति की गंभीरता को देखते हुए" सेना के बजट को 'स्थिर' रखने की अभूतपूर्व मंशा जाहिर की. हालांकि, महामारी के दौरान और उसके बाद सरकार के आर्थिक कुप्रबंधन, और उसके बाद सेना प्रमुख के (खुलकर) क्षेत्रीय स्थिरता और भू-अर्थशास्त्र पर ध्यान केंद्रित करने के कारण इतना तनाव पैदा हुआ, जिसने अंततः 2022 में हुई राजनीतिक उठापटक में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई. इस बार, द्विपक्षीय समझौते की श्रेणी में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री (दोनों एक ही राजनीतिक दल से संबंधित थे) शामिल थे, जिन्हें सेना प्रमुख से खतरा महसूस हुआ. हालांकि, इस आख़िरी उदाहरण की विस्तृत व्याख्या ज़रूरी है.

18वां संशोधन और इमरान खान का राजनीतिक उभार 

पाकिस्तानी संविधान के 18वें संशोधन (2010) ने राष्ट्रपति की उन शक्तियों का ख़त्म कर दिया, जो 1985 के बाद से पद का हिस्सा रही हैं, इसलिए ये तर्क दिया जा सकता है कि 2010 के राष्ट्रपति का पद ताकतवर तिकड़ी का हिस्सा नहीं रहा. इन शक्तियों में अनुच्छेद 58(2)(b) के ज़रिये राष्ट्रीय सदन को भंग करना शामिल है. ऐतिहासिक रूप से, प्रत्येक राष्ट्रपति ने या तो अपने विवेक के आधार पर या फिर किसी बाहरी ताकत के लिए बिचौलिए के तौर पर इस शक्ति का प्रयोग करता रहा है. अनुच्छेद 58(2)(b) से जुड़ी संस्थानिक ताकत और 2010 में उसका विघटन, इन दोनों से यही स्पष्ट होता है कि कैसे व्यवस्थागत उपकरणों के ज़रिये राष्ट्रपति की शक्तियों को बढ़ाया या घटाया जा सकता है, और इस तरह से उसकी प्रभावशीलता पर नियंत्रित किया जा सकता है. हालांकि, 2010 के संशोधन के बाद के दो वर्षों में, इस बात के पर्याप्त सबूत थे कि राष्ट्रपति आसिफ जरदारी (औपचारिक पद पर होते हुए भी) के पाक़िस्तान के सेना प्रमुख के साथ संबंध ख़राब हो गए थे, जिसके कारण दोनों को सार्वजनिक रूप से सुलह के लिए मजबूर होना पड़ा.

हाल ही में, इमरान खान की साल भर की राजनीतिक गतिविधियों के चलते, ताकतवर तिकड़ी में राष्ट्रपति की भूमिका और ज्यादा बढ़ गई है. हालांकि उसके अपने स्वतंत्र अस्तित्व को चुनौती मिली है लेकिन पाक़िस्तान के राजनीतिक चरित्र की मांगों के कारण व्यवस्था के बाहर जाकर काम करने की उसकी प्रवृत्ति और उपलब्धता में कोई कमी नहीं आई है. इमरान खान, व्यवस्था को बाहर प्रभावित करने वाले एक अभिकर्ता के रूप में, उसमें बदलाव लाने के अपने प्रयासों में राष्ट्रपति कार्यालय के चरित्र पर बहुत ज्यादा निर्भर रहे हैं. यह बात प्रधानमंत्री के रूप में उनके कार्यकाल के आख़िरी दिनों के अलावा नए सेना प्रमुख के रूप में अपनी पसंद के व्यक्ति की नियुक्ति को लेकर जोड़तोड़ की कोशिशों के दौरान भी देखने को मिली. निसंदेह इमरान खान एक कद्दावर राजनैतिक ताकत के रूप में उभरे हैं, जिन्होंने सड़क पर पर्याप्त समर्थन जुटाकर फौज से लोहा लेने की इच्छाशक्ति दिखाई है, यहां तक कि सीधे टकराव की कीमत पर भी.

हालांकि यह तर्क भी दिया जा सकता है कि इन्हीं कारणों से इमरान खान निरकुंश साबित हो रहे हैं क्योंकि वह तिकड़ी के अन्य सदस्यों पर दबाव डालने के लिए औपचारिक पदों के इस्तेमाल से भी नहीं चूक रहे हैं और राष्ट्रपति कार्यालय का उपयोग एक राजनीतिक हथियार के तौर पर कर रहे हैं. इसलिए, भले ही ताकतवर तिकड़ी से जुड़ा वर्गीकरण ऐतिहासिक रूप से कहीं अधिक उपयुक्त जान पड़ता है, लेकिन आधुनिक समय में उसकी कार्यशैली में बदलाव ज़रूर आया है लेकिन उसका अस्तित्व सलामत है. नए सेना प्रमुख के प्रति इमरान खान की नापसंदगी किसी से छिपी नहीं है, जिससे इस बात की पूरी संभावना है कि भविष्य में राष्ट्रपति कार्यालय के माध्यम से विवाद की स्थिति पैदा हो सकती है. इसके अलावा, पाक़िस्तान के संवैधानिक इतिहास में ऐसी कई उथल पुथल भरी घटनाएं देखने को मिली हैं, जिनके प्रभाव दीर्घकालिक रहे हैं. ऐसे में, पाक़िस्तान के राजनीतिक दिशा को देखते हुए भविष्य में राष्ट्रपति की भूमिका में विस्तार की संभावना को ख़ारिज नहीं किया जा सकता.

आगे की दिशा

विदेश नीति के प्रमुख क्षेत्रों (विशेष रूप से कश्मीर) समेत कई अन्य कारक ताकतवर तिकड़ी के संचालन को प्रभावित करते हैं. हालांकि,  सेना के लिए आर्थिक स्थिरता का मुद्दा बेहद महत्त्वपूर्ण रहा है, जो उसके शासन के दौरान भी दिखाई पड़ता है. इसके अलावा, पिछले 14 साल के नागरिक शासन दौरान भी इसे लेकर उसकी प्राथमिकता पर संदेह नहीं किया जा सकता (जहां सेना परोक्ष रूप से नीतियों को प्रभावित कर रही थी, भले ही ऊपरी तौर पर वह अपने काम तक सीमित दिखती रही हो). इसलिए, ताकतवर तिकड़ी के बीच के संबंध समय विशेष पर चाहे जैसे भी हों, उन पर पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था का गहरा असर पड़ सकता है, जो लगातार अस्थिर बनी हुई है. 

इस साल के शुरुआत में, घरेलू और विदेशी, दोनों स्तरों पर पर्यवेक्षकों ने पाक़िस्तान के आर्थिक पतन की संभावना को लेकर चेतावनी जारी की थी, जिसे आईएमएफ द्वारा दिए एक गए एक और राहत पैकेज की मदद से टाल दिया गया. ऐसे समय में, मुनीर को एक ऐसे प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के साथ काम करना है, जिनमें से एक का आधिकारिक कार्यकाल एक वर्ष से भी कम समय पूरा होने वाला है, और अपने पार्टी के मुखिया और राज्य के प्रति ज़िम्मेदारियों के बीच झूलते हुए संविधान की मर्यादा को लांघ रहा है.

एक आशावादी को ऐसा लग सकता है कि आर्थिक संकट के कारण तिकड़ी के भीतर त्रिपक्षीय समझौते की एक पांचवीं श्रेणी खड़ी की जा सकती है. और यह हर एक व्यक्ति को उसके संवैधानिक दायरे के भीतर रहकर काम करने के लिए बाध्य करेगा, और उसे व्यवस्था के बाहर के किसी व्यक्ति की ओर से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से काम करने के लिए हतोत्साहित करेगा. और इस तरह से, राज्य के राजनीतिक चरित्र को व्यवस्था के क़रीब लाने में मददगार सिद्ध होगा. वास्तव में, बाजवा (अपने मक़सद के इतर) इसी स्थिति को लाना चाहते थे. अधिक संभावना इस बात की है कि तीनों तब तक त्रिपक्षीय समझौते के तहत मिलकर काम करेंगे, जब तक ऐसा करना उनके लिए आर्थिक और राजनीतिक रूप से मुफीद हो. भले ही आगे चलकर, असीम मुनीर नागरिक संस्थानों को और अधिक शक्तिशाली बनाने का फैसला करते हैं, तो भी ऐसी स्थिति में ताकतवर तिकड़ी के अन्य दो सदस्यों के विरोधी रुख अपना लेने पर, ऐसी किसी भी कोशिश से पाक़िस्तान की राजनीतिक व्यवस्था को स्थायी लाभ मिलना संभव नहीं है.


[1] यहां किसी भी पक्ष के बीच होने वाला 'समझौता' उनके आपसी हितों पर आधारित है, जिसका अस्तित्व किसी तरह की वैचारिक या राजनीतिक प्रतिबद्धता पर निर्भर नहीं करता. इसका अर्थ यह हुआ कि अक्सर ऐसा कोई भी समझौता किसी दीर्घकालिक संस्थागत रणनीति के लिए नहीं, तात्कालिक निजी लाभों को देखते हुए किया जाता है.

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