Author : Anirban Sarma

Published on Sep 16, 2023 Updated 0 Hours ago
‘जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम करने के लिए भारत में जलवायु-लचीली स्वास्थ्य प्रणालियों का निर्माण ज़रूरी’

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने जलवायु परिवर्तन को ‘मानवता के समक्ष सबसे बड़ा स्वास्थ्य ख़तरा’ माना है. WHO के मुताबिक़ जलवायु परिवर्तन सीधे तौर पर पर्यावरणीय और सामाजिक लिहाज़ से लोगों के स्वास्थ्य पर गहरा असर डालता है. साथ ही WHO ने यह भी कहा है कि क्लाइमेट चेंज की वजह से वर्ष 2030 से 2050 के दौरान कुपोषण, मलेरिया, डायरिया और हीट स्ट्रेस से हर साल 2,50,000 और अतिरिक्त लोगों की मृत्यु होने की आशंका है.

जलवायु परिवर्तन की वजह से जो भी स्वास्थ्य संकट आते हैं, उनसे ग्लोबल साउथ के विकासशील देश सबसे अधिक प्रभावित होते हैं.

जलवायु परिवर्तन की वजह से जो भी स्वास्थ्य संकट आते हैं, उनसे ग्लोबल साउथ के विकासशील देश सबसे अधिक प्रभावित होते हैं. जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (IPCC) की 2022 की रिपोर्ट के अनुसार एशिया में जलवायु संकट का व्यापक असर दिखाई दे रहा है और इससे न केवल लोगों का स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है, बल्कि बड़ी तादात में बीमारियां भी लोगों को अपनी चपेट में ले रही हैं.

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भारत में जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य का संबंध

जलवायु परिवर्तन से संबंधित स्वास्थ्य संकटों से भारत व्यापक स्तर पर प्रभावित है. जलवायु परिवर्तन से जुड़ी विभिन्न आपदाएं पूरे देश में लोगों के स्वास्थ्य को तीन प्रमुख तरीक़ों से प्रभावित कर रही हैं:

  • जलवायु परिवर्तन और लगातार होने वाला मौसमी उतार-चढ़ाव लोगों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डाल रहा है.
  • जलवायु परिवर्तन से खाद्य सुरक्षा बुरी तरह से प्रभावित होती है और इसकी वजह से लोगों का पोषण स्तर गिर रहा है.
  • क्लाइमेट चेंज की वजह से जो चरम मौसमी घटनाएं और प्राकृतिक आपदाएं सामने आती हैं, उनसे स्वास्थ्य देखभाल से जुड़ी सेवाओं में बाधा उत्पन्न होती है.

भीषण गर्मी और स्वास्थ्य पर इसका विपरीत प्रभाव

भारत के मौसम विभाग की तमाम रिपोर्ट्स पर नज़र डालें तो देश में गर्मी का मौसम लगातार न सिर्फ़ लंबा हो रहा है, बल्कि भीषण गर्मी वाला होता जा रहा है. वर्ष 2016, 2021 और 2022 में भारत के कई हिस्सों में अब तक की सबसे ज़्यादा तपती गर्मी का अनुभव किया गया है. वर्ष 2023 की बात करें तो पश्चिमी भारत में फरवरी में ही लू का अलर्ट जारी कर दिया गया था. देश में हीटवेव्स की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं और वर्ष 2015 में भारत के जितने राज्य गर्म हवाओं की चपेट में आए थे, वर्ष 2020 तक उनकी संख्या दोगुने से भी अधिक हो गई थी.

पूरी दुनिया की तरह ही भारत में भी हर साल भीषण गर्मी और अत्यधिक वायु प्रदूषण वाले दिनों की संख्या निरंतर बढ़ रही है. वर्ष 2050 तक भीषण गर्मी और वायु प्रदूषण की घटनाओं में और तेज़ी का अनुमान जताया गया है.

देखा जाए तो गर्म हवाओं की वजह से देशभर के लोगों में न केवल सांस और दिल से जुड़ी बीमारियां तेज़ी से बढ़ रही हैं, बल्कि विशेष तौर पर बच्चों और बुजुर्गों में हीटस्ट्रोक, थकान एवं डिहाइड्रेशन के मामले भी बढ़ रहे हैं. ज़ाहिर है कि ग़रीबों और कामगारों पर भीषण गर्मी का ज़बरदस्त असर पड़ रहा है और उनके लिए यह गर्मी जानलेवा भी साबित हो सकती है. बेतहाशा गर्मी का असर जिस प्रकार से लोगों से स्वास्थ्य पर पड़ता है और लोगों का जीवन ख़तरे में पड़ जाता है, निसंदेह रूप से इससे आर्थिक उत्पादकता भी प्रभावित होती है. आने वाले वर्षों में लगातार बढ़ती गर्मी की वजह से अनुमान है कि वर्ष 2050 तक भारत में दोपहर के वक़्त ऐसे हालात हो जाएंगे, जिनमें काम करना असंभव होगा. दूसरे शब्दों में कहें, तो भविष्य में श्रमिकों के काम करने के घंटे कम होने की आशंका है.

बेतहाशा गर्मी और ठहरी हुई हवा ओज़ोन प्रदूषण बढ़ाती है, साथ ही वातावरण में पार्टिकुलेट मैटर यानी सूक्ष्म कणों की मात्रा को भी बढ़ाती है. पूरी दुनिया की तरह ही भारत में भी हर साल भीषण गर्मी और अत्यधिक वायु प्रदूषण वाले दिनों की संख्या निरंतर बढ़ रही है. वर्ष 2050 तक भीषण गर्मी और वायु प्रदूषण की घटनाओं में और तेज़ी का अनुमान जताया गया है. इन घटनाओं के साथ जब वायु प्रदूषण फैलाने वाले दूसरे कारण भी जुड़ जाते हैं, तो इनका दुष्प्रभाव काफ़ी बढ़ जाता है. इस दुष्प्रभाव की वजह से आने वाले वर्षों में विभिन्न बीमारियों और न्यूरोलॉजिकल दिक़्क़तों के बढ़ने की संभावना है, साथ ही गर्भवती महिलाओं एवं नवजात शिशुओं पर भी इसका विपरीत प्रभाव बढ़ने की उम्मीद है.

आख़िर में भारत के अलग-अलग हिस्सों में गर्म जलवायु, अनियमित बारिश और सूखे जैसे हालातों की वजह से भी वेक्टर जनित बीमारियों, यानी जानवारों या मच्छरों द्वारा फैलाए जाने वाले रोगों (VBDs) में बढ़ोतरी हुई है. निपाह वायरस, जीका वायरस, चिकनगुनिया और डेंगू जैसी वेक्टर जनित बीमारियां अब एनडेमिक बनती हुई दिखाई दे रही हैं, अर्थात सालोंभर किसी न किसी क्षेत्र में इनका प्रकोप बना रहता है. जलवायु परिवर्तन की वजह से डायरिया जैसी बीमारियां प्रमुख तौर पर स्वास्थ्य चुनौती बन गई हैं. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक़ भारत में वर्ष 2016 और 2020 के बीच चाइल्डहुड डायरिया के मामले 9 प्रतिशत से बढ़कर 9.2 प्रतिशत हो गए हैं. वर्तमान में डायरिया देश की तीसरी सबसे अधिक फैलने वाली बीमारी है और बड़ी संख्या में पांच साल से छोटे बच्चों की मृत्यु का कारण है. 

यह बेहद ज़रूरी हो जाता है कि वर्ष 2018 में स्वीकृति के लिए रखे गए नेशनल एक्शन प्लान फॉर क्लाइमेट चेंज एंड ह्यूमन हेल्थ के मसौदे को न केवल अंतिम रूप दिया जाए, बल्कि उसे कार्यान्वित भी किया जाए.

खाद्य असुरक्षा और गिरता पोषण का स्तर

कई अध्ययनों के अनुसार जलवायु परिवर्तन और उसकी वजह से होने वाली प्राकृतिक आपदाओं के कारण भारत में न केवल कृषि उपज में कमी आ रही है, बल्कि उपज में पाए जाने वाले पोषक तत्वों में भी कमी आ रही है. इसके चलते देश में व्यापक स्तर पर खाद्य असुरक्षा एवं कुपोषण के मामलों में बढ़ोतरी हो रही है. उदाहरण को तौर पर देश में चावल एवं गेहूं जैसी मुख्य फसलों की उपज और उनके पोषक तत्वों में भारी गिरावट दर्ज़ की गई है. इतना ही नहीं बार-बार आने वाली प्राकृतिक आपदाओं का शिकार होने वाले ओडिशा जैसे राज्यों में तो खाद्य असुरक्षा के चलते बच्चों में लंबे समय तक का कुपोषण हो गया है.

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स्वास्थ्य प्रणालियों एवं सेवाओं में व्यावधान

ऐसे कई मौक़े आ चुके हैं, जब मौसमी घटनाओं और प्राकृतिक आपदाओं के चलते भारत में स्वास्थ्य के क्षेत्र से जुड़ी सभी व्यवस्थाएं और सेवाएं चरमरा गईं. उदाहरण के लिए वर्ष 2020 में अम्फान नाम के भयानक चक्रवात ने ओडिशा और पश्चिम बंगाल के बड़े हिस्से में न सिर्फ़ ज़बरदस्त तबाही मचाई थी, बल्कि कोविड-19 महामारी से जुड़े राहत कार्यों एवं अस्पतालों व स्वास्थ्य सेवाओं में भी बाधाएं पैदा कर दी थीं. इसके 15 दिनों बाद ही निसर्ग नाम के एक अन्य तूफान ने महाराष्ट्र में जमकर तबाई मचाई थी और राज्य की चिकित्सा सेवाओं को अस्त-व्यस्त कर दिया था. उल्लेखनीय है कि उस समय कोविड-19 के मामलों में महाराष्ट्र देश का सबसे प्रभावित राज्य था और वहां कोरोना मरीज़ों की संख्या सबसे अधिक थी. दो वर्षों बाद असम में आई भयानक बाढ़ ने वहां के कई ज़िलों में स्वास्थ्य सेवाओं पर गंभीर असर डाला था. वहां बाढ़ से हालात इतने बिगड़ गए थे कि कछार इलाक़े में पानी में डूबे एक कैंसर अस्पताल को अपने मरीज़ों का इलाज सड़क पर करना पड़ा था.

अपनाई जाने वाली नीतियां और प्रतिक्रियाएं

भारत में कई ऐसी नीतियां हैं और योजनाएं हैं, जिनमें इस बात को साफ तौर पर स्वीकार किया गया है कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव स्वास्थ्य पर पड़ता है. लेकिन जब इन नीतियों व योजनाओं को लागू करने की बात सामने आती है, तो जलवायु-लचीली स्वास्थ्य प्रणाली का निर्माण करने पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता है, जितना दिया जाना चाहिए. उदाहरण के तौर पर नेशनल एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज (NAPCC) में व्यापक रूप से यह स्वीकार किया गया है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से विशेष क्षेत्र और वर्ग के लोगों की हेल्थ पर गंभीर असर पड़ सकता है, साथ ही इसके कारण नए इलाक़ों में वेक्टर जनित बीमारियों का प्रसार बढ़ सकता है. हालांकि, देखा जाए तो इस नेशनल प्लान में सिर्फ़ बीमारी पनपने का कारण और उसके फैलने के तौर-तरीक़ों को लेकर रिसर्च किए जाने की सिफ़ारिश की गई है. लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि ‘प्राथमिक, सेकेंडरी एवं तीसरे स्तर की हेल्थकेयर सुविधाएं स्थापित करने’ को बढ़ावा देने और ‘वेक्टर नियंत्रण, साफ-सफाई एवं स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति समेत सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़े विभिन्न उपायों’ को सुधारने और उन्नत बनाने जैसे कार्रवाई करने वाले बिंदुओं पर ज़्यादा फोकस करना बेहद अहम हो सकता है.

क्लाइमेट चेंज की वजह से पैदा होने वाले स्वास्थ्य संकटों से निपटने के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित हेल्थ वर्कर्स की टीम को उन क्षेत्रों में ख़ास तौर पर तैनात किया जा सकता है, जहां प्राकृतिक आपदाओं की आशंका सबसे अधिक होती है.

देश में NAPCC के वर्तमान में जो आठ नेशनल मिशन संचालित किए जा रहे हैं, उनमें से एक में भी स्वास्थ्य का मुद्दा शामिल नहीं है. ऐसे में यह बेहद ज़रूरी हो जाता है कि वर्ष 2018 में स्वीकृति के लिए रखे गए नेशनल एक्शन प्लान फॉर क्लाइमेट चेंज एंड ह्यूमन हेल्थ के मसौदे को न केवल अंतिम रूप दिया जाए, बल्कि उसे कार्यान्वित भी किया जाए. हालांकि, कुछ समय के लिए ही सही, नेशनल प्रोग्राम ऑन क्लाइमेट चेंज एंड ह्यूमन हेल्थ के ज़रिए कुछ हद तक इसकी कमी की भरपाई करने की कोशिश की जा रही है. उल्लेखनीय है कि यह राष्ट्रीय कार्यक्रम न केवल जलवायु परिवर्तन की वजह से लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों को कम करना चाहता है, बल्कि विभिन्न हितधारकों को इस अहम मुद्दे के प्रति उत्तरदायी भी बना रहा है. इसके साथ ही यह नेशनल प्रोग्राम विभिन्न सेक्टरों के बीच पारस्परिक सहयोग को विकसित कर रहा है और स्वास्थ्य से जुड़ी तमाम तैयारियों को सशक्त कर रहा है, साथ ही इससे संबंधित हेल्थकेयर प्रणालियों के क्षमता निर्माण में भी योगदान दे रहा है.

जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को संबोधित करने के लिए देश में वर्ष 2019 का अपडेटेड नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट प्लान (NDMP) है, जिसमें क्लाइमेट और हेल्थ से जुड़ी विभिन्न चुनौतियों का मुक़ाबला करने के लिए बेहतर एवं व्यापक नज़रिया अपनाया गया है. NDMP में उल्लेख किया गया है कि प्राकृतिक आपदाओं की रोकथाम या इसके ख़तरों को कम करने से यथोचित स्वास्थ्य परिणाम हासिल हो सकते हैं. राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना राज्यों को हेल्थकेयर सिस्टम के सशक्तिकरण और आपदा के दुष्प्रभावों व ख़तरों से उबरने और उनसे निपटने में समुदायों की क्षमता को बढ़ाने हेतु एक फ्रेमवर्क उपलब्ध कराती है. इसके साथ ही NDMP स्वास्थ्य देखभाल से संबंधित हर क्षेत्र में और हर स्तर पर जोख़िम कम करने वाली रणनीतियों को शामिल करने एवं जलवायु परिवर्तन की वजह से आने वाली किसी आपदा से पहले कार्ययोजना तैयार करने की प्रक्रिया में स्वास्थ्य विशेषज्ञों व इमरजेंसी प्रबंधकों की भागीदारी के लिए भी रूपरेखा उपलब्ध कराता है.

ज़ाहिर है कि NAPCC और NDMP में शामिल किए गए प्रावधान की क़ामयाब इस बात पर निर्भर है कि राज्य उन्हें अपने स्टेट एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज (SAPCCs) और स्टेट डिजास्टर मैनेजमेंट प्लान्स (SDMPs) के ज़रिए कितने बेहतर तरीक़े से अपनाते और लागू करते हैं. वर्तमान समय की बात करें, तो राज्यों के स्तर पर आपदा की स्थित में जो भी क़दम उठाए गए हैं, उनमें जलवायु परिवर्तन से संबंधित स्वास्थ्य ख़तरों से निपटने को उतनी तवज्जो नहीं दी गई है, जितनी दी जानी चाहिए थी. ऐसे में ज़रूरत इस बात की है कि राज्य, ज़िला, पंचायत और सामुदायिक स्तर पर विभिन्न हितधारकों के साथ मिलकर काम करते हुए इन योजनाओं के कार्यान्वयन को जितना हो सके, उतना विकेंद्रीकृत किया जाए. इसके अलावा आपदा की स्थिति में सभी स्तरों पर स्वास्थ्य कर्मियों को शामिल किए जाने की और जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है.

इसके साथ ही स्वास्थ्य एवं जलवायु परिवर्तन से जुड़े विभिन्न किरदारों का जो भी अनुभव और जानकारी है, उसे संकलित किया जाना चाहिए, ताकि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के अनुकूलन से संबंधित बेहतरीन कार्यविधियों को विकसित करने में मदद मिल सके. भारत के पास इस तरह की जानकारी और अनुभव का अथाह भंडार पहले से ही है. लेकिन हेल्थ सेक्टर किस प्रकार से क्लाइमेट चेंज के कारण पैदा होने वाले ख़तरों का प्रभावशाली तरीक़े से मुक़ाबला कर सकता है, इसके लिए ज़्यादा से ज़्यादा केस स्टडीज किए जाने की ज़रूरत है. ऐसे करने से जो भी जानकारी हासिल होगी, उन्हें अन्य क्षेत्रों में उपयोग करने के लिए एक मॉडल के रूप में अपनाया जा सकता है. साथ ही साथ एक ऐसा ऑनलाइन प्लेटफॉर्म बनाने की भी ज़रूरत है, जिसके माध्यम से इस जानकारी को अन्य लोगों को साझा किया जा सके. इसके अतिरिक्त, मीडिया की मदद से आम लोगों में इस विषय पर जागरूकता लाई जा सकती है कि आपदाओं के आने पर लोग अपनी सेहत को किस प्रकार से सुरक्षित रख सकते हैं.

कुल मिलाकर जलवायु परिवर्तन की वजह से लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर को कम करने के लिए तीन बुनियादी बदलाव अमल में लाने चाहिए. पहला यह कि स्वास्थ्य प्रणालियों को इस हिसाब से उन्नत किया जाना चाहिए, ताकि वे क्लाइमेट में होने वाले किसी भी उतार-चढ़ाव से पैदा होने वाले संकटों और ख़तरों का मुक़ाबला करने में सक्षम हों. इसके लिए सबसे बड़ी ज़रूरत स्थानीय स्तर पर उपलब्ध हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर, स्वास्थ्य सेवाओं और सुविधाओं को उसके अनुसार विकसित करने की है. दूसरा बदलाव यह किया जाना चाहिए कि ज़मीनी स्तर पर स्वास्थ्य सुविधाओं को पहुंचाने में जुटीं आशा वर्कर्स समेत विभिन्न हेल्थकेयर पेशेवरों को जो भी प्रशिक्षण दिया जाता है, उसमें जलवायु परिवर्तन की वजह से पैदा होने वाले ख़तरों की जानकारी और उनसे निपटने के उपायों के जानकारी भी दी जानी चाहिए. इसके लिए एक विशेष कौशल विकास कार्यक्रम बनाने की तत्काल ज़रूरत है. इतना ही नहीं, क्लाइमेट चेंज की वजह से पैदा होने वाले स्वास्थ्य संकटों से निपटने के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित हेल्थ वर्कर्स की टीम को उन क्षेत्रों में ख़ास तौर पर तैनात किया जा सकता है, जहां प्राकृतिक आपदाओं की आशंका सबसे अधिक होती है. आख़िर में तीसरा क़दम जो उठाना जाना चाहिए, वो यह है कि जलवायु परिवर्तन के दुष्परिमाणों को कम करने के लिए शुरू की गई पहलों और हेल्थकेयर सेक्टर में ज़रूरी बदलावों के बीच सुगम एकीकरण सुनिश्चित करने के लिए सरकार के अलग-अलग मंत्रालयों व विभागों को एक मिलीजुली रणनीति बनानी चाहिए. इतना ही नहीं सरकारी मंत्रालयों और विभागों को इसके लिए साझा लक्ष्य निर्धारित करने चाहिए और योजना बनाने एवं उन्हें ज़मीनी स्तर पर लागू करने के दौरान गैर-सरकारी हितधारकों से मिले सुझावों पर भी गौर करना चाहिए.


अनिर्बन सरमा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं.

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Anirban Sarma

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Anirban Sarma is Director of the Digital Societies Initiative at Observer Research Foundation (ORF). He is presently a Lead Co-Chair of the Think20 Brazil Task ...

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