Published on Apr 17, 2024 Updated 0 Hours ago

तमाम दृष्टिकोण के तहत सच्चाई यही है कि दुनिया भर में बुनियादी ढांचागत ज़रूरतें इतनी है कि जिसे एक देश द्वारा मुहैया कराना मुमकिन नहीं है और ये ज़रूरतें कोविड19 महामारी के बाद ज़्यादा प्रखर हुई हैं.

भविष्य से जोड़ने वाले पुल – वैकल्पिक कनेक्टिविटी के प्रतीक और उनके भू-राजनीतिक प्रभाव

चीन की वन बेल्ट – वन रोड पहल कनेक्टिविटी के संदर्भ में दुनिया भर में सबसे महत्वाकांक्षी परिकल्पना है लेकिन यह अकेली ऐसी पहल नहीं है, जिसका महत्व हो. हर तर्क के दृष्टिकोण से बीआरआई का सबसे बड़ा वैश्विक योगदान यही है कि इसने दुनिया भर में कनेक्टिविटी के महत्व को उजागर किया है. इसने अपने प्रतिद्वंद्वियों को इंफ्रास्ट्रक्चर को प्रभुत्व जमाने के तौर पर इस्तेमाल करने को लेकर सतर्क कर दिया है. इसने अपने सहयोगी देशों को ज़रूरत से ज़्यादा वादा कर और बेहद कम चीजों को उपलब्ध करा कर निराश किया है. एक ओर जहां चीन ने इसके अनुभवों से सबक लिया है और बीआरआई को फिर से संचालित करने का काम किया है तो दूसरी ओर इसने कनेक्टिविटी को लेकर प्रतिद्वंद्वी परिकल्पनाओं को विस्तार दिया है जो साल 2021 और आने वाले समय में नतीजे देने लगेंगे.

हालांकि, चीन को उसके अपने ही आंगन में चुनौतियां मिल रही हैं. दक्षिणपूर्व एशिया में जापान एक ऐसा देश है जिसका इंफ्रास्ट्रक्चर मुहैया कराने में कोई मुक़ाबला नहीं है तो चीन के मुक़ाबले ज़्यादातर बाज़ारों में जापान ज़्यादा निवेश भी कर रहा है. जापान के गुणवत्ता वाले इंफ्रास्ट्रक्चर पर ज़ोर ने अब जी-7, जी-20 से लेकर कई द्विपक्षीय कोशिशों में अपनी मौजूदगी हासिल कर ली है. इसमें दो राय नहीं कि चीन की बीआरआई परियोजना ने जापान और यूरोप के बीच नज़दीकियां बढ़ाने का मौका दिया है जिसके बाद पिछले वर्ष ‘पार्टनरशिप ऑन सस्टेनेबल कनेक्टिविटी एंड क्वालिटी इंफ्रास्ट्रक्चर’ की घोषणा की गई थी और इन कोशिशों के बाद आने वाले वर्ष में इससे संबंधित पहली परियोजना को ज़मीन पर उतरते देखा जा सकता है.

भारत द्वारा रणनीतिक लिहाज़ से महत्वपूर्ण रोड एंड रेल प्रोजेक्ट को कारगर बनाना चीन द्वारा पेश की गई चुनौतियां के मुक़ाबले भारत के बढ़ते आत्मविश्वास को दर्शाता है. 

कनेक्टिविटी को लेकर भारत की भी ऐतिहासिक कोशिशें जारी हैं. दशकों तक चीन से सटे इलाक़े के सरहद को अंतर्राष्ट्रीय तौर पर असंबद्ध छोड़ दिया गया था. लेकिन हाल के वर्षों में भारत द्वारा रणनीतिक लिहाज़ से महत्वपूर्ण रोड एंड रेल प्रोजेक्ट को कारगर बनाना चीन द्वारा पेश की गई चुनौतियां के मुक़ाबले भारत के बढ़ते आत्मविश्वास को दर्शाता है. साल 2017 में डोकलाम की पहाड़ियों पर गतिरोध और इस वर्ष पूर्वी लद्दाख में हिंसक झड़प ऐसे रणनीतिक लिहाज़ से महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट की कामयाबी पर असर डालते हैं. क्योंकि अपनी सीमाओं से आगे भारत दक्षिण में नॉर्थ साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर का अहम किरदार है. एशिया-अफ्रीका ग्रोथ कॉरिडर को लेकर नई दिल्ली और टोक्यो का साथ आना एक बेहतर विचार था जिसे कोरोना महामारी के बाद फिर से मज़बूत बनाने की आवश्यकता है.

नींद से जागता यूरोपियन यूनियन

यूरोप अभी भी इन संदर्भों को लेकर अंगडाई ले रहा है. जबकि कई वर्षों से चीन को लेकर यूरोपीयन यूनियन के स्टैंड को कमज़ोर कर चीन केंद्रीय और पूर्वी यूरोप में दस्तक दे चुका है और तो और जो देश यूरोपीयन यूनियन में जा सकते हैं उनके साथ चीन ने क्लांइट स्टाइल में रिश्ते जोड़ रखे हैं. फिलहाल यूरोपीयन यूनियन 2018 के “कनेक्टिंग यूरोप एंड एशिया” की रणनीति को फिर से बहाल करने पर ज़ोर दिया जा रहा है जिससे इसे भू-राजनीतिक तौर पर ज़्यादा स्पष्ट और विस्तारवादी बनाया जा सके जिससे अफ्रीका और लैटिन अमेरिकी देश भी इसमें शामिल हो सकें. इस लिहाज़ से यूरोपीयन यूनियन संसद में ईयू-एशिया कनेक्टिविटी को लेकर हाल ही में लाया गया प्रस्ताव इस दिशा में एक प्रोत्साहनात्मक कदम कहा जा सकता है जिसके तहत मौज़ूदा यूरोपीयन यूनियन की कोशिशों पर लगातार नज़र रखी गई और वैश्विक कनेक्टिविटी रणनीति के लिए यूरोपीयन कमीशन की बात बुलंद की गई. इससे भी ज़्यादा प्रोत्साहित करने वाली पहल तो ये होगी कि यूरोपीयन कमीशन के प्रस्तावित “यूएस-ईयू एजेंडा फॉर ग्लोबल चेंज” से कनेक्टिविटी को जोड़ा जा सके.

अमेरिका इस संबंध में अभी तक, न तो अपनी कोई दृष्टि दुनिया के देशों से साझा कर पाया है लेकिन ऐसी उम्मीद है कि बाइडेन-हैरिस की जोड़ी इस नीति में आने वाले दिनों में बदलाव ज़रूर लाएंगे. अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन को विरासत में एक विस्तृत आर्थिक टूलकिट मिला होगा जिसमें  कार्यशील यूएस एक्सपोर्ट इंपोर्ट बैंक और यूएस डेवलपमेंट फाइनेंस कॉर्पोरेशन शामिल हैं. अब यह पूरी तरह से नए प्रशासन को सोचने की ज़रूरत है कि क्या वह ब्लू डॉट नेटवर्क, जिसे एक साल पहले अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया ने मिलकर घोषित किया था, उसे रखना, या फिर उसमें कांट छांट या फिर उसमें सुधार लाना चाहेंगे. वॉशिंगटन अपने यूरोपीयन सहयोगी देशों के साथ ऐसी कोशिशों को विस्तार दे सकता है और साथ में पर्यावरण मानकों को और सख्त़ बना सकता है. या अमेरिका इससे कहीं आगे बढ़कर अपने उद्देश्य को सामने रख सकता है जिसमें एक ऐसी कनेक्टिविटी की धारणा को मज़बूती मिले जिसमें ना सिर्फ इंफ्रास्ट्रक्चर बल्कि डिजिटल ट्रेड और व्यक्तिगत साझेदारी को भी जगह मिल सके.

अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन को विरासत में एक विस्तृत आर्थिक टूलकिट मिला होगा जिसमें  कार्यशील यूएस एक्सपोर्ट इंपोर्ट बैंक और यूएस डेवलपमेंट फाइनेंस कॉर्पोरेशन शामिल हैं. 

साल 2021 और इससे भी आगे ऐसी और अन्य कोशिशों को लेकर बहुत ज़्यादा मांग है. उदाहरण के तौर पर दक्षिण कोरिया की नई दक्षिण नीति भी इन सबके बीच आगे बढ़ रही है. हालांकि, ऐसे तमाम दृष्टिकोणों के तहत सच्चाई यही है कि दुनिया भर में बुनियादी ढांचागत ज़रूरतें इतनी हैं कि जिसे एक देश द्वारा मुहैया कराना मुमकिन नहीं है, और ये ज़रूरतें कोविड 19 महामारी के बाद ज़्यादा प्रखर हुई हैं. अमेरिकी पार्टनर और सहयोगी देशों के बीच ज़्यादा से ज़्यादा साझेदारी और अमेरिका में नए नेतृत्व के साथ ऐसी दृष्टि और भी एक दूसरे पर आश्रित हो सकती है. हालांकि, अपने प्रतिद्वंद्वियों को एक दूसरे के करीब लाने और कनेक्टिविटी को लेकर भू-राजनीतिक संदर्भों को रेखांकित करने में चीन को श्रेय देना लाज़मी होगा.

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