Author : Vivek Mishra

Expert Speak Raisina Debates
Published on Mar 16, 2024 Updated 0 Hours ago

ट्रांस-अटलांटिक सुरक्षा, इंडो-पैसिफिक में अमेरिका के सहयोगियों और पश्चिम एशिया में सुरक्षा चिंताओं को लेकर ट्रंप का दृष्टिकोण उनके अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा के विज़न को तय करेगा.

ट्रंप के नज़रिए से अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा की तैयारी

आयोवा, न्यू हैम्पशायर और साउथ कैरोलिना में एक के बाद एक जीत के साथ बुलंदियों पर पहुंचे रिपब्लिकन पार्टी के संभावित राष्ट्रपति उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप ने लगता है कि अपनी स्थिति मज़बूत कर ली है. ज़्यादातर पोल में डेमोक्रेटिक पार्टी के मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडेन के ख़िलाफ़ उनकी बढ़त को बाकी दुनिया के लिए एक ऐसी विदेश नीति की तैयारी के महत्वपूर्ण संकेत के तौर पर काम करना चाहिए जो नज़रिए और शैली में काफी अलग हो सकती है. अगर ट्रंप राष्ट्रपति चुनाव जीत जाते हैं तो उनकामेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ (MAGA) का नारा ऐसे वैश्विक परिदृश्य पर लागू होगा जो चार साल पहले राष्ट्रपति पद से उनकी विदाई के समय से बहुत ज़्यादा बदल चुका है

डोनाल्ड ट्रंप की दलील इस बात को दिखाने पर केंद्रित रह सकती है कि नेटो को अमेरिका की बहुत ज़्यादा सहायता अनुचित है. इस तरह वो नेटो को वित्तीय सहायता के मामले में अटलांटिक पार के देशों से समानता हासिल करने की ज़रूरत की वकालत करेंगे.

पहले कार्यकाल के दौरान ट्रंप ने अपनी विदेश नीति को कैसे तय किया इसकी एक झलक देखिए- राष्ट्रपति रहते हुए ट्रंप ज्वाइंट कंप्रिहेंसिव प्लान ऑफ़ एक्शन (JCPOA) और ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप (TPP) से बाहर हो गए, उन्होंने अमेरिका के सहयोगियों को धमकी तो दी लेकिन फंड में कटौती करने या नेटो से पूरी तरह अलग होने से परहेज किया. राष्ट्रपति के रूप में संभावित दूसरे कार्यकाल में इस बात की संभावना है कि वो इन चूके हुए मौकों में से कुछ को अपनी राजनीति और कैंपेन के वादों के अनुकूल अधिक शक्तिशाली बनाएंगे. इस बात को देखते हुए कि 2020 में नेटो के फंड में अमेरिका ने लगभग 69 प्रतिशत का योगदान दिया था, उन्हें नेटो के फंड में कटौती करने और वैश्विक वित्तीय प्रतिबद्धताओं, विशेष रूप से लड़ाई और शांति मिशन की गतिविधियों से जो अमेरिका के संसाधनों को खाली करते हैं, से हटने के लिए अब मज़बूत औचित्य मिल सकता है. डोनाल्ड ट्रंप की दलील इस बात को दिखाने पर केंद्रित रह सकती है कि नेटो को अमेरिका की बहुत ज़्यादा सहायता अनुचित है. इस तरह वो नेटो को वित्तीय सहायता के मामले में अटलांटिक पार के देशों से समानता हासिल करने की ज़रूरत की वकालत करेंगे. ट्रंप की विदेश और सुरक्षा नीतियों को तय करने वाले दूसरे कदमों के तहत ट्रंप प्रशासन ने अतीत में अफ़ग़ानिस्तान से जल्दबाज़ी में सैनिकों को वापस लेने का आदेश दिया था और कुछ ख़ास देशों को निशाना बनाकर ट्रैवल बैन लागू किया था

अमेरिका का दृष्टिकोण

ट्रंप ने पिछले दिनों ये इशारा देते हुए बयान दिया था कि अगर नेटो के सदस्य अपने वित्तीय दायित्व को पूरा नहीं करते हैं तो वो रूस को उन देशों पर हमला करने के लिए प्रोत्साहित करेंगे. ये सबसे नया संकेत है कि उनकी नीतियां प्राथमिक तौर पर अमेरिकी विदेश नीति के एक बेहद-रूढ़िवादी MAGA परिप्रेक्ष्य पर आधारित रहेंगी. 

इस तथ्य के अलावा कि डेमोक्रेट्स की तुलना में रिपब्लिकन खेमे में रूस को लेकर अपेक्षाकृत अनुकूल विचार हो सकता है, ट्रंप ने घरेलू स्तर पर ख़ुद को मज़बूत बनाने के लिए सहयोगियों, साझेदारों और दोस्तों को लेकर अपने नज़रिए में लगातार विदेश में अमेरिकी हितों को प्राथमिकता दी है. इसके लिए उन्होंने संरचनात्मक बाधाओं की भी परवाह नहीं की

 इस संबंध में इंडो-पैसिफिक रीजन एक मुख्य रणनीतिक केंद्र के तौर पर उभरा है जो पश्चिम एशिया पर सुरक्षा के ज़ोर से पैसिफिक क्षेत्र और व्यापक हिंद महासागर क्षेत्र की तरफ साझा दृष्टिकोण में बदलाव का संकेत देता है.

जैसे-जैसे अमेरिकी विदेश नीति में बदलाव आया है, उसकी एक ध्यान देने योग्य विशेषता रही है दुनिया भर में वर्चस्व और असर की निरंतर तलाश. इसने पिछली शताब्दी के ज़्यादातर हिस्सों में उदारवादी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था की नींव रखी. हालांकि पिछले दशक में इस व्यवस्था को चुनौती मिली है क्योंकि बड़ी ताकतों ने ख़ुद यूरोप और एशिया- दोनों में यथास्थिति बदलने की मांग की है. इसके लिए अमेरिका की तरफ से घरेलू स्तर और विदेशों में- दोनों जगह फिर से बदलाव की आवश्यकता हुई है. इस अनुकूलन का एक प्रमुख पहलू अस्पष्ट नीतिगत दृष्टिकोण रहा है जहां अमेरिका वैश्विक स्तर पर तो एक दबदबे वाली ताकत की मुद्रा बरकरार रखता है लेकिन ज़्यादा ध्यान कुछ ख़ास क्षेत्रों पर देता है. इस संबंध में इंडो-पैसिफिक रीजन एक मुख्य रणनीतिक केंद्र के तौर पर उभरा है जो पश्चिम एशिया पर सुरक्षा के ज़ोर से पैसिफिक क्षेत्र और व्यापक हिंद महासागर क्षेत्र की तरफ साझा दृष्टिकोण में बदलाव का संकेत देता है. ये दृष्टिकोण इस विश्वास से रेखांकित होती है कि जैसे-जैसे क्षेत्र में अधिक देश अपनी क्षमता बढ़ाते हैं, वैसे-वैसे उनके लिए क्षेत्रीय सुरक्षा, स्वास्थ्य, मानव संसाधन, आपदा प्रबंधन (HADR) और अन्य गैर-पारंपरिक पहलुओं जैसे क्षेत्रों में सुरक्षा के प्रावधान और बोझ साझा करने में बड़ी भूमिका निभाने के लिए एक स्वाभाविक झुकाव होना चाहिए. इस मंथन में भारत के द्वारा इंडो-पैसिफिक सुरक्षा के प्रतिमान में केंद्र में आना एक ख़ास उदाहरण रहा है

वैश्विक सुरक्षा को लेकर ट्रंप का नज़रिया अमेरिका की सुरक्षा नीति और दुनिया भर में उसकी व्यापक विदेश नीति, जिसने लंबे समय तक अलग-अलग हालात का सामना किया है, के कुछ मूलभूत और संरचनात्मक विचारों के ख़िलाफ़ है. तीन मुख्य फैक्टर बदलती दुनिया में सुरक्षा नीति को नया आकार देने में ट्रंप की धारणा को सहारा देते हैं. पहला फैक्टर घरेलू मजबूरियों से पैदा होता है जिसकी ख़ासियत है प्रवासियों से भेदभाव करना और घरेलू सुरक्षा का बढ़-चढ़कर प्रचार जो सुरक्षा उपायों में बढ़ोतरी को प्रेरित करता है, ख़ास तौर पर 9/11 हमलों के बाद. इस भावना ने अमेरिका-मेक्सिको सीमा पर एक दीवार बनाने की मांग जैसी नीतियों को जन्म दिया है. साथ ही अमेरिकी समाज में मौजूद प्रवासियों के ख़िलाफ़ सोच गहरी जड़ें जमा चुकी है. अमेरिका के घरेलू राजनीतिक परिदृश्य पर संघर्ष और इमिग्रेशन का साझा असर और ट्रंप के राष्ट्रपति पद छोड़ने के बाद के वर्षों में दिखाई देने वाले तनाव का ट्रंप के संभावित दूसरे कार्यकाल के तहत फैसला लेने पर असर पड़ना तय है

दूसरा फैक्टर है दुनिया के दूसरे हिस्सों के साथ-साथ अमेरिका के एक वर्ग में दूसरे विश्व युद्ध के बाद की व्यवस्था में अमेरिका को एक महाशक्ति मानने के यकीन में धीरे-धीरे कमी आना. रिपब्लिकन विचारधारा में साफ तौर पर एक नस्ल है जिसने पिछली शताब्दी के स्थापित आर्थिक और सुरक्षा औचित्य के मौजूदा महत्व पर सवाल खड़ा किया है. चीन के उदय औरबाकी के उदयने संस्थानों और वैश्विक व्यवस्था में मूलभूत यकीन पर वार किया है. ये स्थिरता और सरकार के बर्ताव के सामने चुनौती है जिससे ग्रे ज़ोन रणनीति (बिना पारंपरिक युद्ध के बढ़त हासिल करने का तरीका) और अनियमित युद्ध जैसे नए आयाम सामने आए हैं. इन बदलावों ने धीरे-धीरे उदारवादी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को कमज़ोर कर दिया है जिसकी वजह से अलग-अलग देशों, विशेष रूप से अमेरिका, के लिए ख़ुद को बदलना ज़रूरी हो गया है. ट्रंप का ये कहना कि अलग-अलग देश और सहयोगी अपनी सुरक्षा के लिए प्राथमिक रूप से ख़ुद ज़िम्मेदार हैं और अमेरिका अपनी मजबूरियों की वजह से वैश्विक सुरक्षा का इकलौता गारंटर नहीं हो सकता है, इस सोच से मेल खाता है. सबसे महत्वपूर्ण बात है कि ये बदलाव अस्थायी हैं और अगले दशक के अस्थायी चरण में बने रहने की संभावना है

आगे की राह 

ट्रांस-अटलांटिक सुरक्षा और व्यापक अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर डोनाल्ड ट्रंप का नज़रिया उदारवाद के बाद की अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था, जिसकी संरचना अभी भी आकार ले रही है और जो पूरा होने से बहुत दूर है, को लेकर पहले उठाया गया कदम हो सकता है. नेटो की फंडिंग को लेकर यूरोपीय देशों को पिछले दिनों ट्रंप की धमकी अमेरिका की स्थिति को मज़बूत करेगी और ट्रांस-अटलांटिक साझेदारों को और ज़्यादा करने के लिए प्रेरित करेगी. वहीं अमेरिका अपने संसाधनों को घरेलू स्तर पर क्षमताओं को बढ़ाने पर पर विशेष रूप से ध्यान देने में लगा सकता है. वैसे तो नेटो साझेदारों को ट्रंप के संदेश का मतलब ट्रांस-अटलांटिक क्षेत्र में सामूहिक सुरक्षा के लिए अधिक योगदान के उद्देश्य से अनुरोध के रूप में लगाया जा सकता है क्योंकि अमेरिका अपनी भागीदारी कम कर रहा है लेकिन ये ट्रंप के इस भरोसे पर भी ज़ोर देता है कि सामूहिक सुरक्षा में अमेरिका के इकलौते नेतृत्व का युग ख़त्म हो गया है. इसके बदले वो सुझाव देते हैं कि अमेरिका नेतृत्व तो कर सकता है लेकिन उसे पूरा बोझ नहीं उठाना चाहिए. ये रवैया इंडो-पैसिफिक में अमेरिका के अभियानों में भी स्पष्ट होता है जहां अमेरिका ने कनेक्टिविटी, इंफ्रास्ट्रक्चर और दूसरे क्षेत्रीय साझेदारों के सहयोग वाले दृष्टिकोण के रूप में नियम आधारित व्यवस्था को बनाए रखने को बढ़ावा देने पर ज़ोर लगाया है. इस तरह वैश्विक सुरक्षा को लेकर ट्रंप की धारणा अमेरिकी नेतृत्व पर नहीं बल्कि ऐसे नेतृत्व पर केंद्रित हो सकती है जो सामूहिक प्रयासों से निर्देशित हो और जो अमेरिकी चिंताओं को प्राथमिकता दे. हालांकि इस तरह का संतुलन हासिल करना चुनौतीपूर्ण साबित हो सकता है क्योंकि किसी भी अमेरिकी नेतृत्व को उदारवादी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के लिए किसी भी ख़तरे का जवाब देने के लिए आख़िरी उपाय के तौर पर अनुकरणीय कदम और अमेरिकी सुरक्षा की छतरी पर फिर से भरोसा देने की आवश्यकता होगी. 

किसी भी अमेरिकी नेतृत्व को उदारवादी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के लिए किसी भी ख़तरे का जवाब देने के लिए आख़िरी उपाय के तौर पर अनुकरणीय कदम और अमेरिकी सुरक्षा की छतरी पर फिर से भरोसा देने की आवश्यकता होगी. 

अगर डोनाल्ड ट्रंप वास्तव में अगले राष्ट्रपति बन जाते हैं तो अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर तीन विषय उनके दृष्टिकोण को निर्देशित कर सकते हैं. ट्रांस-अटलांटिक एकजुटता का मामला, ख़ास तौर पर यूक्रेन-रूस युद्ध के जारी रहने पर अमेरिका कैसे नेटो की सहायता करता है, अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर ट्रंप के रवैये और प्रतिबद्धता का बैरोमीटर बन सकता है. एक और इम्तिहान ये होगा कि ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका अपने संधि सहयोगियों से कैसे सलूक करता है, ख़ास तौर पर इंडो-पैसिफिक में जापान, दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया जैसे सहयोगियों से. अंत में, अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर ट्रंप के नज़रिए को आकार देने में तीसरा प्रमुख फैक्टर इस बात पर निर्भर करेगा कि पश्चिम एशिया और अफ्रीका में बढ़ती सुरक्षा चिंताओं के बीच जब बात इन क्षेत्रों में अतिरिक्त सुरक्षा की भूमिका लेने की होगी तो राष्ट्रपति के रूप में ट्रंप कितने दृढ़ होंगे


विवेक मिश्रा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में फेलो हैं

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