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एक छोटे से गांव (पश्चिम बंगाल के नादिया ज़िले में भादुड़ी गांव जहां 4,558 लोग रहते हैं1[i]) में 30 साल की बिथिका बिश्वास के शुरुआती दिनों ने उसे वो बनाया जो आज वो है. उम्र बढ़ने के साथ बिथिका का नौ सदस्यों का परिवार (माता-पिता और उनके सात बच्चे) खेत में मज़दूरी का काम करने वाले उसके पिता पर पूरी तरह से निर्भर था. बिथिका के पिता की मामूली आमदनी की वजह से उसका परिवार किसी सामान्य दिन में एक ही वक़्त खाना खा पाता था, कोई अच्छा दिन होता था तो दो वक़्त खाना मिल जाता था जबकि तीन वक़्त का खाना कभी-कभी ही मिल पाता था. बिथिका का अनुभव भारत के शोषित और कमज़ोर समुदायों की कहानी कहता है जिनके लिए खाद्य असुरक्षा एक वास्तविकता बनी हुई है.2[ii] 2019-21 के दौरान राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे बताता है कि पांच साल या उससे कम उम्र के 7.7 प्रतिशत भारतीय बच्चे गंभीर रूप से कमज़ोर है, 19.3 प्रतिशत बच्चे कमज़ोर हैं और 35.3 प्रतिशत बच्चे छोटे कद के हैं.a[1],3[iii]
बिथिका के स्मार्टफ़ोन ने उसे अपने परिवार से जोड़ने के अलावा भी कई काम किए. 2012 में बिथिका ने एक स्वयं-सहायता समूह (SHG)c बनाया. ये कोई आसान काम नहीं था क्योंकि स्वयं-सहायता समूह के हर सदस्य को ज्वाइनिंग फीस के रूप में 250 रुपये का योगदान करना था. इस रक़म का इस्तेमाल बैंक में खाता खोलने और स्वयं-सहायता समूह के लिए ज़रूरी सामान ख़रीदने में किया गया.
इस हालत ने बिथिका के परिवार को कठिन फ़ैसले लेने के लिए मजबूर कर दिया और नतीजा पढ़ाई-लिखाई में रुकावट के रूप में निकला. बिथिका कहती है, “मैं पढ़ने-लिखने में अच्छी थी लेकिन ग़रीबी की वजह से पढ़ाई जारी नहीं रख सकी. मैंने 8वीं क्लास तक पढ़ाई की और 16 साल की उम्र में मेरी शादी हो गई क्योंकि मेरे पिता हम सभी भाई-बहनों का पेट नहीं भर सकते थे. आगे बढ़ने के दौरान मैंने काफ़ी कठिनाइयां झेली लेकिन शायद मेरा सबसे बड़ा अफ़सोस ये था कि मैं अपनी पढ़ाई जारी नहीं रख सकी.”
बिथिका का पति महाराष्ट्र में मुंबई के एक होटल में काम करता था और शादी के ठीक बाद वो मुंबई चला गया. पति-पत्नी के बीच क़रीब 2,000 किमी की दूरी और मोबाइल हैंडसेट ख़रीदने के लिए पैसे नहीं होने की वजह से उनके बीच बातचीत चिट्ठी के ज़रिए होती थी या फिर पूरी तरह योजना बनाकर एक टेलीफ़ोन बूथ b[2] के ज़रिए. ये टेलीफ़ोन बूथ एक स्टोर की तरह होते हैं जिसमें दोनों शहरों में लैंडलाइन फ़ोन होते हैं, एक शहर का बूथ फ़ोन करने के लिए और दूसरे शहर का बूथ फ़ोन रिसीव करने के लिए. फ़ोन करने के लिए दोनों को दो रुपये खर्च करने पड़ते थे. लेकिन ये स्थिति 2016 में उस वक़्त बदल गई जब बिथिका के पति ने एक मोबाइल ख़रीदा और 2018 में बिथिका भी एक सेकेंड हैंड एंड्रॉयड स्मार्टफ़ोन की मालकिन बन गई जिसे उसने 3,500 रुपये में ख़रीदा था. उस वक़्त एक नये शुरुआती स्तर के स्मार्टफ़ोन का दाम क़रीब 7,000 रुपये होता था. बिथिका याद करते हुए दोहराती है, “जब मैंने पहली बार फ़ोन ख़रीदा तो मैं उसके बारे में कुछ भी नहीं जानती थी. लेकिन जब मैंने फ़ोन का इस्तेमाल शुरू किया तो मुझे पता चला कि मुझे इसकी कितनी ज़रूरत थी.”
वैसे तो मोबाइल फ़ोन बहुत काम का था लेकिन शुरुआत में इसकी वजह से कई बार टकराव हुए. बिथिका कहती है, “कई लोगों ने स्मार्टफ़ोन की ज़रूरत पर सवाल उठाए, उनका कहना था कि एक बेसिक फ़ोन से ही काम चल जाता.” कई लोगों ने बिथिका से ये भी कहा कि, “घर की बहू को फ़ेसबुक अकाउंट की क्या ज़रूरत है?”
बिथिका के स्मार्टफ़ोन ने उसे अपने परिवार से जोड़ने के अलावा भी कई काम किए. 2012 में बिथिका ने एक स्वयं-सहायता समूह (SHG)c[3] बनाया. ये कोई आसान काम नहीं था क्योंकि स्वयं-सहायता समूह के हर सदस्य को ज्वाइनिंग फीस के रूप में 250 रुपये का योगदान करना था. इस रक़म का इस्तेमाल बैंक में खाता खोलने और स्वयं-सहायता समूह के लिए ज़रूरी सामान ख़रीदने में किया गया. वैसे बिथिका के पास ज़रूरी रक़म नहीं थी और उसे एक अन्य स्वयं-सहायता समूह से इस शर्त पर कर्ज़ लेना पड़ा कि वो ये रक़म एक साल में चुका देगी और इसके बदले वो उस स्वयं-सहायता समूह की खाता-बही का हिसाब-किताब एक साल तक मुफ़्त में रखेगी. बिथिका ने दोनों शर्तें मान ली.
Source: National Family Health Survey, 2019-21[iv]4
इस तरह की मुश्किलों का अनुभव करने के बाद बिथिका दूसरों को इस दुर्भाग्य से बचाने के लिए उत्सुक थी. स्वयं-सहायता समूह की संस्थापक सदस्य के रूप में वो अपने स्मार्टफ़ोन का इस्तेमाल समुदाय के दूसरे सदस्यों को आत्मनिर्भर बनाने में करना चाहती थी, जैसा कि उसने ख़ुद के लिए किया था. बिथिका ने रिलायंस फाउंडेशन की मदद से बांग्ला भाषा के कीबोर्ड के साथ अपने फ़ोन पर टाइप करना सीखा. उसने एक वॉट्सऐप ग्रुप बनाने के लिए अपने स्वयं-सहायता समूह में स्मार्टफ़ोन का इस्तेमाल करने वालों का नंबर इकट्ठा किया. बिथिका कहती है, “हमारा इलाक़ा काफ़ी हद तक कृषि पर निर्भर है और यहां हाल के दिनों में पावरलूम का इस्तेमाल शुरू किया गया है.d[4] लगभग हर कोई वित्तीय मुश्किलों का सामना करता था और इससे पार पाने के लिए उन्हें कर्ज़ लेना पड़ता था और बंधुआ मज़दूरी करनी पड़ती थी. मेरा मक़सद उन्हें इस दुष्चक्र से बचाना था. इसलिए जब मुझे स्मार्टफ़ोन मिला तो मैंने अपने ग्रुप में जानकारी साझा करना शुरू कर दिया.” बिथिका को रिलायंस फाउंडेशन की तरफ़ से बनाये गये सूचना का प्रसार करने वाले ग्रुप में भी जोड़ा गया और वो एक माध्यम बन गई जिसके ज़रिये फाउंडेशन के कार्यक्रमों, योजनाओं और अवसरों के बारे में सूचना साझा की जाने लगी.
स्मार्टफ़ोन के ज़रिये संचार की श्रृंखला बनाई गई और हर किसी तक जानकारी पहुंचने लगी. उदाहरण के लिए, पंचायतe[5] वॉट्सऐप ग्रुप, जिसमें गांव में स्मार्टफ़ोन रखने वाले हर व्यक्ति को शामिल किया गया, राशन (सरकार द्वारा दिया जाने वाला अनाज) और काम के अवसरों के बारे में ज़रूरी सरकारी रजिस्ट्रेशन के बारे में जानकारी देने लगा. इसमें आख़िरी तिथि और ज़रूरी सहायक दस्तावेज़ों के बारे में विस्तार से जानकारी देने के अलावा ये भी बताया जाता था कि जॉब कार्ड कब उपलब्ध कराया जाएगा. स्मार्टफ़ोन ने गांव में इस्तेमाल करने वालों को इस बात की भी सहूलियत दे दी कि वो पशुपालन और कृषि से जुड़े विशेषज्ञों के साथ वीडियो मीटिंग करें. साथ ही रिलायंस फाउंडेशन जैसे संगठनों ने अलग-अलग सत्र में स्वयं-सहायता समूहों के काम-काज के बारे में वीडियो मीटिंग की सुविधा मुहैया कराई.
वैसे तो मोबाइल फ़ोन बहुत काम का था लेकिन शुरुआत में इसकी वजह से कई बार टकराव हुए. बिथिका कहती है, “कई लोगों ने स्मार्टफ़ोन की ज़रूरत पर सवाल उठाए, उनका कहना था कि एक बेसिक फ़ोन से ही काम चल जाता.” कई लोगों ने बिथिका से ये भी कहा कि, “घर की बहू को फ़ेसबुक अकाउंट की क्या ज़रूरत है?” स्वयं-सहायता समूह की कई सदस्यों ने अपने फ़ोन को अपने-अपने पति के साथ साझा भी किया (भारत के कई हिस्सों में तकनीक तक पहुंच के मामले में महत्वपूर्ण लैंगिक असमानता बनी हुई है)5[v] लेकिन जब उन्हें पता चलता था कि उनकी पत्नी के फ़ोन में दूसरे पुरुषों का भी नंबर सेव था तो वो अक्सर इस बात का मुद्दा बनाते थे. लेकिन ये चुनौतियां कम समय तक ही रहीं. आज जब भी बिथिका का बच्चा खेलने के लिए उसका फ़ोन लेता है तो बिथिका की सास तुरंत फ़ोन को उससे बचाती हैं. बिथिका की सास कहती हैं कि फ़ोन बिथिका के लिए ज़रूरी चीज़ है और इसको नुक़सान नहीं होना चाहिए. बिथिका के पति को भी पता है कि देर रात बिथिका जो कॉल करती है वो पूरे समुदाय की बेहतरी के लिए होती है. बिथिका ने न सिर्फ़ अपने घर की चारदीवारी के भीतर सोच बदल दी है बल्कि गांव की सोच में भी बदलाव किया है. बिथिका कहती है, “उनके विचार बदल गए हैं. अब वो जानते हैं कि फ़ोन ख़राब नहीं हैं और उनका इस्तेमाल अच्छे काम के लिए किया जा सकता है.”
कोविड-19 महामारी के दौरान ये दिखा भी था. पंचायत का वॉट्सऐप ग्रुप कोविड-19 को लेकर सूचनाओं का केंद्र बना था और फ़ोन एवं वीडियो कॉल के ज़रिए बैठकों का आयोजन हुआ था. फ़ोन का इस्तेमाल सूचनाओं के समन्वय और ज़मीनी कार्रवाई के लिए भी किया गया था. इसके साथ ही प्रखंड विकास कार्यालय से मरीज़ों की संख्या एवं क्वॉरंटीन से जुड़े नियमों को लेकर भी फ़ोन का उपयोग किया गया. स्वयं-सहायता समूहों (जिसकी बैठक आमने-सामने नहीं हो सकती थी) से लिए गए कर्ज़, दूसरे संगठनों द्वारा ऑफर किए गए अल्पकालीन कर्ज़ और राज्य एवं केंद्र सरकारों के द्वारा मुहैया कराई गई वित्तीय मदद- ये सभी सूचनाएं ग्रुप के सदस्यों को उनको फ़ोन पर उपलब्ध थीं.
महामारी के दौरान बिथिका ने ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों को कोविन प्लैटफॉर्म से जोड़ने के लिए एक मुफ़्त अभियान शुरू किया ताकि उन्हें टीका लगवाने के लिए रजिस्टर किया जा सके. वहीं समुदाय के कुछ और लोगों ने यही सेवा मुहैया कराने के लिए फीस लेने की कोशिश की. बिथिका ने तुरंत इस बात की तरफ़ ध्यान दिलाया कि वो दूसरों की मदद इसलिए करना चाहती है क्योंकि वो कर सकती है, उसका मक़सद मदद के ज़रिए पैसा कमाना नहीं है.
महामारी के दौरान बिथिका ने ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों को कोविन प्लैटफॉर्म से जोड़ने के लिए एक मुफ़्त अभियान शुरू किया ताकि उन्हें टीका लगवाने के लिए रजिस्टर किया जा सके. वहीं समुदाय के कुछ और लोगों ने यही सेवा मुहैया कराने के लिए फीस लेने की कोशिश की. बिथिका ने तुरंत इस बात की तरफ़ ध्यान दिलाया कि वो दूसरों की मदद इसलिए करना चाहती है क्योंकि वो कर सकती है, उसका मक़सद मदद के ज़रिए पैसा कमाना नहीं है. बिथिका जो भी काम करती है, उनमें से बुनाई इकलौता काम है जो वो पैसे के उद्देश्य से करती है. सूचनाओं को जमा करना एवं उन्हें फैलाना, स्वयं-सहायता समूहों एवं सहकारी समितियों के साथ काम और महामारी का प्रबंधन बिथिका ने बिना किसी मेहनताना के सिर्फ़ समाज के फ़ायदे के लिए किया. बिथिका कहती है कि बचपन में अपनी बहन के साथ स्कूल यूनिफॉर्म साझा करने (एक बहन सुबह में यूनिफॉर्म पहनती थी जबकि दूसरी बहन दोपहर में) और स्कूल में लंच के दौरान घर से लाए गए खाने को दूसरे बच्चों के द्वारा खाते हुए देखने के उसके अनुभव की वजह से उसने ये फ़ैसला लिया कि वो उन बंधनों से आज़ाद होगी जो अक्सर महिलाओं को एक दायरे में बांध देते हैं. ये सोच वो अपने साथ अपने ससुराल तक ले गई. खेतों में काम करने के बदले उसने पावरलूम पर काम किया. कर्ज़ के लिए स्थानीय साहूकार पर अपनी सास की निर्भरता और उसके बदले ज़्यादा ब्याज़ चुकाते हुए देखने के बाद बिथिका ने फ़ैसला लिया कि वो सिर्फ़ स्वयं-सहायता समूहों से ही मदद लेगी जो कि कम ब्याज़ पर कर्ज़ मुहैया कराते हैं, उनकी पुर्नभुगतान की प्रक्रिया आसान होती है और उनका उद्देश्य कर्ज़ लेने वालों को फ़ायदा पहुंचाना होता है, न कि उन्हें वित्तीय संकट में धकेलना.
बिथिका का सिद्धांत सीधा है- वो ख़ुद काम करेगी या करवाएगी. पिछले 10 वर्षों से उसने न सिर्फ़ अपने स्वयं-सहायता समूह को बढ़ाया है बल्कि आज वो क्षेत्र में 300 से ज़्यादा स्वयं-सहायता समूहों की सहकारी समिति का नेतृत्व करती है. बिथिका अब कंप्यूटर का इस्तेमाल करना सीखना चाहती है, वो आत्मनिर्भरता बढ़ाने और समुदाय को सशक्त बनाने में कंप्यूटर को अगले क़दम के रूप में देखती है. वास्तव में एक बेहतर भविष्य के लिए बिथिका के अभियान में तकनीक सबसे बड़ी पूंजी रही है. तकनीक ने बिथिका को जोड़ा और उसे समर्थ बनाया. तकनीक ने बिथिका को समय, दूरी और भाषा की पाबंदियों से आज़ाद किया है. स्वयं-सहायता समूहों की तरफ़ से दिए जाने वाले कर्ज़ को लेकर समुदाय के सदस्यों को शिक्षित करके एवं उन्हें साहूकारों के चंगुल से बचाकर, महामारी के दौरान वित्तीय मदद के विकल्पों के बारे में जागरुक करके और पशुपालन एवं खेती की गुणवत्ता में सुधार करके बिथिका ने तकनीक के इस्तेमाल के ज़रिए अपने समाज को तरक़्क़ी के लिए सक्षम बनाया है. वो ज़ोर देकर कहती है, “मुझे ये साबित करना है कि भले ही हम महिलाएं हैं लेकिन हम कुछ भी कर सकते हैं.” वो कर सकती है, इस बात ने आगे के सफ़र के लिए बिथिका की हिम्मत बढ़ाई है.
सितारा श्रीनिवास
स्रोत: द मोबाइल जेंडर गैप रिपोर्ट 20226[vi],7[vii]
ज़रूरी सबक़
स्वयं-सहायता समूहों के साथ और उनके बीच संचार के लिए वॉट्सऐप जैसे मैसेजिंग ऐप में चैट ग्रुप का इस्तेमाल उनके काम-काज में क्रांतिकारी बदलाव ला रहा है और कई अन्य समुदाय के सदस्यों को उनकी सामुदायिक विकास की गतिविधियों के तहत लाने में मदद कर रहा है.
महिलाओ के द्वारा स्वतंत्र रूप से मोबाइल फ़ोन के इस्तेमाल के साथ अक्सर जुड़ने वाले लांछन से पार पाने में पारिवारिक समझ और समर्थन पहला क़दम है. वैसे तो सामुदायिक स्तर पर मोबाइल फ़ोन की पैठ बढ़ रही है लेकिन पुरुषों और बुजुर्ग महिलाओं के लिए जानकारी मुहैया कराने वाले कार्यक्रम चलाये जाने चाहिए ताकि उन्हें महिलाओं के द्वारा मोबाइल के इस्तेमाल से जुड़े सामाजिक और आर्थिक फ़ायदों के बारे में सचेत किया जा सके.
NOTES
[1] a According to the World Health Organization, wasting is defined as low weight for height, and stunting as low height for age. Wasting in severe circumstances could lead to death, and stunting could prevent children from reaching their cognitive and physical potential.
[1] b STD, or Standard Trunk Dialing, booths were a network of coin operated pay phones installed in public spaces in India. This was predominantly the main way many Indians communicated with those in other cities/towns/villages. With the wide penetration of mobile phones in the world today, these are now relics of the past.
[3] c Self-help groups (SHGs) are an affinity-based group of 10-20 people, usually women from similar social and economic backgrounds, who collect money from those who can contribute and give the funds to members in need. Members may also save contributions and begin lending funds back to the SHG’s members themselves or to others in a village for a particular purpose. Many SHGs are lined with banks and can deliver micro-credit.
[4] d Bithika and other weavers of the area produce Tant fabrics, which are native to West Bengal.
[5] e The panchayat, composed of the words panch (five) and ayat (assembly), is the group of five that govern at the village level in India. The Panchayat Whatsapp Group was the medium through which the local administration (Panchayat) could communicate and engage with the residents.
[i] 1 Wikivillage, “Bhaduri-Town”, Wikivillage https://www.wikivillage.in/town/west-bengal/nadia/ranaghat-1/bhaduri
[ii] 2 Subhasree Ray and Shoba Suri, “Global Nutrition Report 2021 – India’s nutrition profile and how to meet global nutrition target” Observer Research Foundation, December 02, 2021, https://www.orfonline.org/expert-speak/global-nutrition-report-2021/
[iii] 3 National Family Health Survey – 5 (2019-21), “India Fact Sheet”, International Institute for Population Sciences (IIPS), http://rchiips.org/nfhs/NFHS-5_FCTS/India.pdf
[iv] 4 National Family Health Survey -5 (2019-21), “India – Volume-1”,“International Institute for Population Sciences (IIPS), http://rchiips.org/nfhs/NFHS-5Reports/NFHS-5_INDIA_REPORT.pdf
[v] 5 Mathew Shanahan, The Mobile Gender Gap Report 2022, GSMA, 2022
https://www.gsma.com/r/wp-content/uploads/2022/06/The-Mobile-Gender-Gap-Report-2022.pdf?utm_source=website&utm_medium=download-button& utm_campaign=gender-gap-2022
[vi] 6 Mathew Shanahan, The Mobile Gender Gap Report 2022, GSMA, 2022
https://www.gsma.com/r/wp-content/uploads/2022/06/The-Mobile-Gender-Gap-Report-2022.pdf?utm_source=website&utm_medium=download-button& utm_campaign=gender-gap-2022
[vii] 7 Mitali Nikore and Ishita Uppadhayay, “India’s gendered digital divide: How the absence of digital access is leaving women behind,” Observer Research Foundation, August 22, 2021, https://www.orfonline.org/expert-speak/indias-gendered-digital-divide/
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