Published on Jan 24, 2022 Updated 0 Hours ago

चीन के पास ‘दुनिया भर से डाटा जमा करने’ की क्षमता है और यह ‘आपके समाज के वाकई बेहद अहम डाटा तक पहुंच है, जो समय के साथ आपकी संप्रभुता को कमज़ोर करेगा’. अमेरिका भी इस तरह के डाटा संग्रह और बाद में उसके दोहन में दूसरे पक्षों की संलग्नता पर चिंता जता चुका है. 

#Battle for Minds: दिमाग़ों पर कब्ज़े की लड़ाई का भविष्य

प्रबोधन या ज्ञानोदय (Enlightenment) शायद इंसानी ज़िंदगी में सबसे बड़ा बदलाव लेकर आया. शुरू में यह यूरोप तक सीमित था, लेकिन जायज़ (जैसे व्यापार और वाणिज्य) या नाजायज़ (जैसे उपनिवेशवाद) दोनों ज़रियों से इस क्रांति का विचार पूरी दुनिया में फैल चुके हैं, जिसने दुनिया की चिंतन प्रक्रियाओं और समझ-बूझ को प्रभावित किया है. समालोचात्मक रूप से सोचने और तर्क की क्षमता के अलावा, उत्तर प्रबोधन काल (post enlightenment period) की एक महत्वपूर्ण ख़ास खूबी है व्यक्तिगत स्वतंत्र इच्छा पर ज़ोर. सूचना, मुक्ति के लिए एक संसाधन बन गयी. हालांकि, इंसानी दिमाग़ किसी भी अन्य मशीन की तरह ही ‘हैक’ किया जा सकता है.

विरोधियों के ख़िलाफ़ राज्य के उद्देश्यों को हासिल करने के लिए ऐसे उपकरणों की इस्तेमाल की वास्तविक सीमा इससे कहीं ज्यादा दूर तक है. असल में, ऐसे उपकरणों का इस्तेमाल एक व्यक्तिगत ढंग से अपने विरोधियों के नागरिक-वर्ग के नैरिटव को आकार देने के लिए किया जा रहा है.

शुरू में इस तरह की धारणाओं की महज विज्ञान गल्प (science fiction) के रूप में कल्पना की गयी, जिन्हें सिनेमाई नज़र से पेश किया गया, लेकिन नज़रदारी पूंजीवाद (surveillance capitalism) के उदय ने एक ऐसे सिस्टम को बढ़ावा दिया है जहां कारोबारी संस्थाओं को व्यवहार-संबंधी वैश्लेषिकी (behavioural analytics), कृत्रिम बुद्धिमत्ता (ArtificiaI Intelligence), मशीन लर्निंग, और बिग डाटा एनालिटिक्स जैसी तकनीकों के ज़रिये यूज़र्स को ट्रैक करने, उनके अनुभवों को व्यक्तिगत बनाने, रुचि का अनुमान लगाने और उन पर तरह-तरह के प्रयोगों के लिए प्रोत्साहित किया जाता है. ऐसी तकनीकों का इस्तेमाल विभिन्न क्षेत्रों के खिलाड़ियों द्वारा किया गया है- ‘डरावने’ (creepy) वैयक्तीकृत विज्ञापन (personalised ads) मुहैया कराने की कोशिश करने वाली कारोबारी संस्थाओं से लेकर, केन्या और ब्रिटेन जैसे देशों में चुनाव जीतने के लिए तकनीक का फ़ायदा उठाने की कोशिश करने वाले राजनीतिक दलों तक. इन सबमें एक चीज़ एक जैसी है: वे अपना नैरेटिव (narrative, आख्य़ान) बेचने के लिए, किसी की समालोचनात्मक ढंग से सोचने की क्षमता पर क़ाबिज़ होने की कोशिश करते हैं.

हाल के समय में, इन उपकरणों का इस्तेमाल चुनावी दख़लअंदाज़ी के लिए किया गया है. हालांकि, विरोधियों के ख़िलाफ़ राज्य के उद्देश्यों को हासिल करने के लिए ऐसे उपकरणों की इस्तेमाल की वास्तविक सीमा इससे कहीं ज्यादा दूर तक है. असल में, ऐसे उपकरणों का इस्तेमाल एक व्यक्तिगत ढंग से अपने विरोधियों के नागरिक-वर्ग के नैरिटव को आकार देने के लिए किया जा रहा है. पारंपरिक रूप से, अंतरराष्ट्रीय क़ानून की दृष्टि में, एक राज्य चार तत्वों से बना होता है : ‘a) एक स्थायी आबादी; b) एक परिभाषित भूभाग; c) सरकार; d) दूसरों राज्यों के साथ रिश्तों में जाने की क्षमता.’

इस मैदान के पुराने खिलाड़ी, चीन के अपने रणनीतिक चिंतन में ‘तीन तरह के युद्ध’ की धारणा लंबे समय से स्थापित है. इन ‘तीन तरह के युद्ध’ में क़ानूनी युद्ध के अलावा मनोवैज्ञानिक युद्ध और जनमत युद्ध शामिल हैं

दुनिया की समझ को बदलना

इस संज्ञानात्मक युद्ध या 6वीं पीढ़ी के युद्ध का उद्देश्य विरोधी को अपनी राजनीतिक इच्छा मानने को बाध्य करने के लिए उसके नागरिक-वर्ग के बीच असंतोष के बीज बोकर और विभाजन पैदाकर उसकी सरकार की वैधता को खत्म करना है. कहने का मतलब है, युद्ध का यह रूप संप्रभुता के तीसरे तत्व, यानी विदेशी दख़लअंदाज़ी से मुक्त एक स्वतंत्र सरकार को निशाना बनाता है. ‘किसी सहयोगी या किसी प्रतिपक्षी को विशेष रूप से तैयार की गयी जानकारी पहुंचा कर’ राज्यों का उद्देश्य ‘उसे स्वेच्छा से पूर्व-निर्धारित निर्णय लेने के लिए प्रवृत्त करना’ होता है, और इस तरह ‘रिफ्लेक्सिव कंट्रोल’ (reflexive control) लागू किया जाता है. इस पूरी क़वायद का अंतिम उद्देश्य अपने टारगेट के ‘observe, orient, decide, and act’ लूप के इंटरसेप्शन के ज़रिये उनकी मूल मान्यताओं (core belief system) और दुनिया की समझ को बदलना है. ये विषय अकादमिक और बौद्धिक जगत के दायरे में लंबे समय से रहे हैं, लेकिन हाल के वर्षों की घटनाओं ने यह उजागर किया है कि इस तरह की गतिविधियां किस हद तक चल रही हैं. भारी मात्रा में विदेशी डाटा जमा करने (harvesting) से लेकर प्रोपगैंडा की बमबारी तक, इन घटनाओं ने राज्यों के लिए इन नये ‘जादुई हथियारों’ से लैस होने का महत्व दिखाया है.

जो राज्य इससे हतप्रभ रह गये, उन्होंने शुरुआत में प्रतिक्रियात्मक तरीक़े से प्रतिक्रिया दी. राज्यों ने ख़तरे से बचने के लिए विरोधी राज्यों की तकनीकी सेवा पर रोक लगाने का सहारा लिया. हालांकि, राज्यों की इस बारे में समझ लगातार बढ़ रही है और वे इस रणनीतिक दृष्टिकोण को अपनी रणनीतियों और सिद्धांतों (doctrines) में शामिल कर रहे हैं. भले ही इसे शामिल करने की दर में भिन्नता हो, लेकिन एक स्पष्ट रणनीतिक दिशा तो है ही. इसके अलावा, राज्य इन मुद्दों को लेकर एक समझ का संप्रभुता के नज़रिये से भी प्रदर्शन कर रहे हैं. उदाहरण के लिए, ऐप बैन या 5जी इंफ्रास्टक्चर से कंपनियों को बाहर किये जाने के दौरान, राष्ट्रीय सुरक्षा के तर्क का स्पष्ट ज़िक्र किया गया.

तकनीक में बढ़ती जटिलता, और बढ़ते भू-राजनीतिक तनावों के साथ, आने वाले वर्षों में दिमाग़ की दुनिया को हथियार में बदला जाना बढ़ने की उम्मीद है. जिस तरह और ज्यादा राज्य होड़ के इस नये मैदान की भूमिका को स्वीकार कर रहे हैं, उसे देखते हुए दिमाग़ की दुनिया का दोहन भी बढ़ने की उम्मीद है. 

हाल के वर्षों में, अमेरिका, ब्रिटेन, चीन, रूस, ताइवान और कनाडा जैसे विभिन्न देशों ने, कम या ज्यादा, दिमाग़ के युद्धक्षेत्र को या तो स्वीकार किया है, या फिर उस पर चर्चाओं को अपने सुरक्षा दस्तावेजों में समाहित किया है. इस मैदान के पुराने खिलाड़ी, चीन के अपने रणनीतिक चिंतन में ‘तीन तरह के युद्ध’ की धारणा लंबे समय से स्थापित है. इन ‘तीन तरह के युद्ध’ में क़ानूनी युद्ध के अलावा मनोवैज्ञानिक युद्ध और जनमत युद्ध शामिल हैं. रूस ने Gerasimov doctrine के ज़रिये इसी तरह का दृष्टिकोण अपनाया है, जो इस बात पर जोर देता है कि ‘जंग का मुख्य मैदान दिमाग़ है, नतीजतन, नयी-पीढ़ी की जंगों में सूचना और मनौवैज्ञानिक तरीके के युद्ध हावी रहेंगे.’

दिमाग़ की दुनिया को हथियार में बदला जाना

इसी तर्ज़ पर, ताइवान की 2021 की राष्ट्रीय रक्षा रिपोर्ट ‘संज्ञानात्मक युद्ध’ के एक आयाम को समाहित करती है, जिसका उद्देश्य यह रिपोर्ट यूं परिभाषित करती है, ‘साइबर घुसपैठ तथा मानसिकता और जनमत के साथ हथकंडेबाजी (manipulation) के ज़रिये विषय (subject) की सामाजिक विचारधाराओं, मानसिकता, और कानून-एवं-व्यवस्था की समझ को मोड़ना.’ यह रिपोर्ट उल्लेख करती है कि इसे ‘उच्च दक्षता वाले आधुनिक कंप्यूटिंग सिस्टम, इंटरनेट, और सोशल मीडिया’ के इस्तेमाल से हासिल किया जाता है. इसका उद्देश्य इस ‘प्रोपगैंडा को द्वीप (ताइवान) के अंदर, हर घर में, हरेक के दिमाग़ में, और अंतत: व्यक्ति के मन तक फैला देना है.’

उदाहरण के लिए, एक कनाडाई ख़ुफ़िया रिपोर्ट उल्लेख करती है कि चीन जैसे राज्यों का लक्ष्य आंतरिक नियंत्रण को अपनी सीमाओं से परे स्थित श्रोताओं तक लागू करने के लिए सृजित तरीक़ों का विस्तार करना है. चीन के ‘राजनीतिक जोखिम को सूचना और सूचना तकनीकों के ज़रिये टालने के लंबे समय से प्रयासों’ को, चीन के उद्देश्यों और ‘पार्टी की विश्व-दृष्टि’ के अनुरूप  अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोणों और नियमनों में बदलाव की पहल से ‘संपूरित’ किया जा रहा है. ब्रिटेन की ख़ुफ़िया एजेंसी एमआई6 के प्रमुख रिचर्ड मूर, इसी तरह की चेतावनी चीन के ‘क़र्ज़ के जाल और डाटा के जाल’ के ख़िलाफ़ देते हैं. वह कहते हैं कि चीन के पास ‘दुनिया भर से डाटा जमा करने’ की क्षमता है और यह ‘आपके समाज के वाकई बेहद अहम डाटा तक पहुंच है, जो समय के साथ आपकी संप्रभुता को कमज़ोर करेगा’. अमेरिका भी इस तरह के डाटा संग्रह और बाद में उसके दोहन में दूसरे पक्षों की संलग्नता पर चिंता जता चुका है.

तकनीक में बढ़ती जटिलता, और बढ़ते भू-राजनीतिक तनावों के साथ, आने वाले वर्षों में दिमाग़ की दुनिया को हथियार में बदला जाना बढ़ने की उम्मीद है. जिस तरह और ज्यादा राज्य होड़ के इस नये मैदान की भूमिका को स्वीकार कर रहे हैं, उसे देखते हुए दिमाग़ की दुनिया का दोहन भी बढ़ने की उम्मीद है. ऐसे तरीक़ों को लागू करना कम खर्चीला और आसान होने का मतलब यह भी है कि राज्यों से इसके विपरीत ‘रक्षात्मक’ क़दमों में संलग्न होने की उम्मीद की जाती है, जैसे अपने सूचना संसार में विरोधी की पहुंच को सीमित करना. हालांकि, इन तरीक़ों के प्रसार के साथ, जो राज्य इसमें नहीं लगे हैं, उन्हें भी ऐसा करने के लिए बाध्य होने की उम्मीद की जाती है. इसके अलावा, नज़रदारी पूंजीवाद अब भी जिस तरह एक हावी बिजनेस मॉडल है, उसे देखते हुए लगता है कि विरोधी के दिमाग़ की दुनिया को अपने अधीन करने की नयी तकनीकें और तरकीबें भी इसी रास्ते पर चलेंगी.

ऐसे भू-राजनीतिक परिदृश्य में, राज्य लगातार इससे अनजान रहते हैं कि वे किसी संज्ञानात्मक हमले के अधीन हैं या नहीं. यह वैश्विक स्तर पर ज्यादा चाक-चौबंद राज्यों की ओर ले जा सकता है, लेकिन यह भी हो सकता है कि कुछ राज्य इस अस्पष्टता का लाभ अपने रणनीतिक उद्देश्यों के लिए उठाएं. निष्कर्ष यह है कि, ‘दिमाग़ का युद्धक्षेत्र’ नेतृत्व और नागरिक-वर्ग को एक जैसा प्रभावित करते हुए, आज की ज़िंदगी का स्थायी हिस्सा बनता दिखता है. 

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