26 मई को बशर अल-असद अगले सात साल के लिए फिर से सीरिया के राष्ट्रपति चुन लिए गए. असद को 95.1 प्रतिशत वोटों के साथ सीरिया की जनता का ज़बरदस्त समर्थन मिला. विरोधियों पर असद की जीत का ये अंतर, दुनिया के तमाम लोकतांत्रिक देशों के नेताओं के लिए ख़्वाब जैसा है. चुनाव में असद के प्रतिद्वंदियों अब्दुल्ला सलूम अब्दुल्ला और महमूद अहमद मारी को बस 1.5 और 3.3 फ़ीसद वोट ही मिले.
55 वर्ष के आंखों के डॉक्टर बशर अल-असद पिछले 21 साल से सीरिया के राष्ट्रपति हैं. उन्हें अपने पिता हाफ़िज़ अल-असद की मौत के बाद देश की कमान मिली थी. लेकिन, बशर के शासन काल का आधा से ज़्यादा दौर मौत और विस्थापन की भयावाह दास्तान है. क़रीब एक दशक लंबे गृह युद्ध के दौरान जब बशर अल-असद अपने तमाम विरोधी गुटों से लड़ रहे थे, तब उन पर जान-बूझकर शहरों को तबाह करने, विरोधी दलों के नेताओं को क़ैद या उनकी हत्या कराने और सीरिया के लाखों नागरिकों को सुरक्षित ठिकानों की तलाश में देश छोड़कर भागने पर मजबूर करने जैसे आरोप लगे. गृह युद्ध में हज़ारों सीरियाई नागरिक मारे गए. 55 लाख से ज़्यादा लोग शरणार्थी बन गए और 62 लाख लोगों को अपने देश में ही दर-बदर होना पड़ा.
55 वर्ष के आंखों के डॉक्टर बशर अल-असद पिछले 21 साल से सीरिया के राष्ट्रपति हैं. उन्हें अपने पिता हाफ़िज़ अल-असद की मौत के बाद देश की कमान मिली थी.
2011 में जब सीरिया की सरकार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन शुरू हुए थे, तो लोग राजनीतिक और आर्थिक सुधारों की मांग कर रहे थे. हालांकि, जल्द ही संगठित इस्लामिक समूह इन प्रदर्शनों पर हावी हो गए और बशर विरोधी प्रदर्शन, अरब स्प्रिंग की सीरिया शाखा में तब्दील हो गया. इसके बाद सीरिया के क्रांतिकारियों के लिए शायद ही कोई उम्मीद बाक़ी रही. आज 11 वर्ष बाद, लोकतंत्र की उम्मीद तो बची ही नहीं, किसी को बशर सरकार के इस दावे पर भी यक़ीन नहीं है कि उनकी जीत सीरियाई जनता की इच्छा को दिखाती है.
जीत का मज़ाक
सीरिया के विपक्षी दलों ने बशर अल-असद की जीत को एक मज़ाक़ बताते हुए कहा कि ये सीरिया की जनता की नुमाइंदगी नहीं करता. तुर्की में रहने वाले एक विपक्षी नेता यहया अल-अरीदी ने कहा कि, ‘ये चुनाव असल में सरकार का एक फ़ैसला है, जिसमें रूस और ईरान ने भी मदद की है. ये ज़ुल्म के सिलसिले को जारी रखना ही है.’
यहया अल-अरीदी का इशारा संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में शुरू की गई उस राजनीतिक प्रक्रिया की ओर था, जिसके तहत एक संवैधानिक समिति बनाई गई है. इसके ज़रिए सीरिया की सरकार और विपक्षी दलों के बीच देश के एक संविधान पर सहमति बनाने की कोशिश की जा रही है. जिसके बाद देश में ऐसे चुनाव कराए जा सकें, जिसमें सीरिया के असली विपक्षी नेता भी शामिल हों.
अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने भी सीरिया के चुनावों को ये कहकर ख़ारिज कर दिया कि ये न तो ‘स्वतंत्र हैं और न निष्पक्ष’. अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी और फ्रांस ने एक साझा बयान में सीरिया की सरकार की इस बात के लिए आलोचना की कि उसने संयुक्त राष्ट्र की निगरानी के बिना ही चुनाव कराए. इन देशों ने चुनाव को अवैध कहकर ख़ारिज कर दिया. इन देशों के विदेश मंत्रियों ने अपने साझा बयान में कहा कि, ‘हम अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी के विदेश मंत्री मिलकर ये साफ़ कर देना चाहते हैं कि 26 मई को सीरिया में हुए राष्ट्रपति चुनाव न तो निष्पक्ष हैं और न ही स्वतंत्र. हम संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 2254 के दायरे से बाहर जाकर चुनाव कराने के असद सरकार के फैसले का विरोध करते हैं और हम सीरिया के नागरिक संगठनों और उन विपक्षी दलों का समर्थन करते हैं, जिन्होंने इस चुनाव प्रक्रिया को अवैध कहकर इसकी आलोचना की है.’
अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी और फ्रांस ने एक साझा बयान में सीरिया की सरकार की इस बात के लिए आलोचना की कि उसने संयुक्त राष्ट्र की निगरानी के बिना ही चुनाव कराए.
चारों देशों के इस बयान में आगे कहा गया था कि, ‘किसी भी चुनाव के विश्वसनीय होने के लिए इसमें सीरिया के अपने ही देश में दर-बदर लोगों के साथ हर नागरिक को शामिल होने का मौक़ा मिलना चाहिए. इस चुनाव में देश से बाहर रहने वाली सीरियाई जनता को भी एक सुरक्षित और निष्पक्ष माहौल में शामिल होने का मौक़ा मिलना चाहिए.’ राष्ट्रपति चुनाव में विद्रोहियों के क़ब्ज़े वाले उत्तरी पश्चिमी इलाक़ों के लोगों ने वोट नहीं डाला था और न ही उन लाखों शरणार्थियों ने मतदान किया था, जो उन देशों में रह रहे हैं, जहां तब से सीरिया के दूतावास नहीं हैं, जब से उन्होंने असद सरकार से संबंध तोड़ लिए थे.
अमेरिका की नाकामी
अमेरिकी विशेषज्ञ कहते हैं कि बशर अल-असद का सत्ता में बने रहना और एक फ़र्ज़ी चुनाव कराने का दुस्साहस ये दिखाता है कि इस इलाक़े को लेकर अमेरिकी नीति नाकाम रही है. 2015 में रूस ने सीरिया में दख़ल देते हुए, उनकी सरकार को हार से बचा लिया था. अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ में अपनी नाकामी के बोझ से दबा अमेरिका, ओबामा के दौर में ही मध्य पूर्व से पीछे हटने लगा था. ओबामा के बाद डोनाल्ड ट्रंप भी इसी नीति पर चलते रहे.
पश्चिमी देशों के लिए सीरिया का सवाल हमेशा ही पेचीदा रहा है. मौजूदा अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन एशिया पर ज़ोर दे रहे हैं. ऐसे में डर यही है कि सीरिया में पश्चिम की दिलचस्पी और भी कम होगी.
वहीं, अन्य लोग कहते हैं कि पीछे मुड़कर देखें, तो अमेरिकी नीति की आलोचना करना आसान है. लेकिन, सीरिया में उग्रवादियों की मौजूदगी से पश्चिमी देश सीरिया में वैसा नो-फ्लाई ज़ोन बनाने में नाकाम रहे, जैसा उन्होंने लीबिया में किया था. कुछ लोग मानते हैं कि बशर अल-असद सरकार ने जान-बूझकर कट्टरपंथियों की घुसपैठ अपने विरोधियों के समूह में कराई थी. पश्चिमी देशों के लिए सीरिया का सवाल हमेशा ही पेचीदा रहा है. मौजूदा अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन एशिया पर ज़ोर दे रहे हैं. ऐसे में डर यही है कि सीरिया में पश्चिम की दिलचस्पी और भी कम होगी.
बशर अल-असद कहते हैं कि उन्हें पश्चिम की कोई परवाह नहीं है. लेकिन, एक बर्बाद अर्थव्यवस्था और बड़े पैमाने पर हुई तबाही ने बाथ पार्टी के पारंपरिक गढ़ों में भी विरोध की चिंगारी भड़का दी है. खाने और ईंधन की क़ीमतें आसमान छू रही हैं. बिजली और रोज़गार की भारी कमी है. अब दिखावे के इस चुनाव ने सीरिया का हित चाहने वाले दुनिया के उन लोगों की स्थिति को कमज़ोर कर दिया है. ये लोग सीरिया पर लगे अमेरिकी प्रतिबंध हटाने का अभियान चला रहे थे, जिससे सीरिया में पुनर्निर्माण की प्रक्रिया शुरू करके, सीरिया जनता की तकलीफ़ें कुछ कम की जा सकें.
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