Author : Kuhu Agarwal

Expert Speak Urban Futures
Published on Jun 18, 2024 Updated 1 Days ago

शहरी नियोजन में समावेशन का ध्यान अक्सर बाद में आता है जिसकी वजह से बाद में ठीक करने के लिए किए जाने वाले काम अप्रभावी साबित होते है. समावेशी डिज़ाइन को परिवहन नीति-निर्माण का मुख्य घटक बनाने के लिए प्रतिमान बदलने की ज़रूरत है.

बाधा-मुक्त मार्ग: सभी तरह से सक्षम लोगों के लिए शहरों का डिज़ाइन

कल्पना कीजिए कि आप व्हीलचेयर पर या हाथ में एक सफ़ेद छड़ी लेकर किसी शहर में घूम रहे हैं, जहां आपके दरवाज़े के बाहर पड़ने वाला हर कदम एक तरह से जुआ है- क्या आज का शहर आपके हित में खड़ा होगा या यह बाधाओं की भूल-भुलैया होगी? 

26 मिलियन से ज़्यादा विकलांग भारतीयों के लिए यह एक ऐसी सच्चाई है जिसका सामना उन्हें रोज़ करना पड़ता है, जो ऐसे शहरी माहौल को झेलते हैं जिसमें आमतौर पर उनकी कोई अहमियत नहीं है या उनकी ज़रूरतों को अक्सर भुला दिया जाता है. भारत के शहरों की हलचल भरी सड़कों पर हर दिन एक ख़ामोश संघर्ष देखने को मिलता है. ट्रैफ़िक की अराजकता और रोज़मर्रा की ज़िंदगी की भागदौड़ के बीच, एक ऐसी आबादी, जो महत्वपूर्ण है लेकिन जिसकी अक्सर अनदेखी की जाती है, को आवाजाही में विकट बाधाओं का सामना करना पड़ता है. 

26 मिलियन से ज़्यादा विकलांग भारतीयों के लिए यह एक ऐसी सच्चाई है जिसका सामना उन्हें रोज़ करना पड़ता है, जो ऐसे शहरी माहौल को झेलते हैं जिसमें आमतौर पर उनकी कोई अहमियत नहीं है या उनकी ज़रूरतों को अक्सर भुला दिया जाता है. 

सार्वजनिक स्थानों, परिवहन और बुनियादी ढांचे को अधिक समावेशी बनाने के सरकारी प्रयास के तहत 2015 में शुरू किया गया सुगम्य भारत अभियान, स्मार्ट सिटी मिशन सहित सभी सरकारी पहलों में विकलांगों की ज़रूरतों को पूरा किए जाने को अनिवार्य बनाता है. इसमें भवन निर्माण कानूनों और विकलांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम 2016 के अनुसार सार्वजनिक और निजी इमारतों, कार्यस्थलों और विभिन्न सार्वजनिक सुविधाओं में सुगम्य उपायों को लागू करना शामिल है. फिर भी, जैसे-जैसे समावेशिता की रूपरेखा सामने आती है, यह महत्वपूर्ण सवाल बना रहता है: क्या ये अनिवार्य परिवर्तन विकलांग व्यक्तियों के लिए ज़मीनी स्तर पर सुविधाएं दिए जाने का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं, या ये केवल कागज़ों का पेट भरने के लिए उठाए गए कदम हैं?

भारतीय शहरों में सुगम्यता संबंधी चुनौतियां 

इस संबंध में बेंगलुरु को एक बेहद स्पष्ट केस स्टडी के रूप में लिया जा सकता है. स्मार्ट सिटी मिशन के लिए सुर्खियों में रहने के बावजूद, शहर में सुगमता के मामले में विकास अपर्याप्त है. शहर के फ़ुटपाथ अक्सर पार्क किए गए वाहनों और अतिक्रमण से बाधित रहते हैं, जिससे व्हीलचेयर उपयोगकर्ताओं और आवाजाही में दिक्कत महसूस करने वाले विकलांग लोगों के लिए यह समझना मुश्किल हो जाता है कि वह जाएं तो जाएं कहां से. रैंप या ढालू रास्ते का न होना और ऊबड़-खाबड़ सतहें आम हैं, जिससे इन लोगों का कई क्षेत्रों तक पहुंचना मुश्किल हो जाता है. 

दिल्ली के हलचल भरे दिल में, इसकी सार्वजनिक परिवहन प्रणाली के भीतर दो तरह के शहरों की कहानी दिखाई देती है. एक तरफ़, सुगमता के आदर्श के रूप में मेट्रो है, जिसके प्लेटफ़ॉर्म और ट्रेनें सभी के लिए एक सुगम्य प्रवेश द्वार हैं, जहां रास्तों पर स्पर्शनीय (टेक्टाइल या छूकर महसूस किए जाने वाले) चिन्ह हैं, जो दृष्टिहीनों का मार्गदर्शन करते हैं और व्हीलचेयर का इस्तेमाल करने वालों के लिए ट्रेन में जाने के लिए समतल प्लेटफॉर्म हैं. इसकी तुलना शहर की बस प्रणाली से करें, जहां समावेशिता की ओर बढ़ने की कोशिशों का सामना एक बाधा से होता है- टूटे हुए रैंप, बुनियादी ढांचे में उपेक्षा, और कर्मचारियों के बीच जागरूकता की साफ़ कमी सुगम्यता की एक बिल्कुल अलग तस्वीर पेश करती है. इन चुनौतियों को आख़िरी छोर तक कवरेज का महत्वपूर्ण मुद्दा और बड़ा बना देता है, जहां नेटवर्क में अंतराल अक्सर उन लोगों को गंतव्य से पहले ही उनके हाल पर छोड़ देता है जिन्हें सबसे अधिक ज़रूरत होती है.

पहुंच की कमी न केवल विकलांग व्यक्तियों की शारीरिक गतिविधियों में बाधा डालती है, बल्कि उनके मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य और सामाजिक एकीकरण को भी महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करती है.

मुंबई की लोकल यात्री ट्रेन प्रणाली इसका इस्तेमाल करने वाले लोगों की भारी संख्या के कारण दबाव में है, रोज़ 7.5 मिलियन से अधिक लोग इस पर निर्भर रहते हैं. अपनी क्षमता से 2.6 गुना ज़्यादा यात्रियों को लाने-ले जाने वाली लोकल ट्रेनों में बहुत ज़्यादा भीड़ होती है. इससे न केवल बार-बार दुर्घटनाएं होती हैं, बल्कि विकलांग व्यक्तियों के लिए ट्रेनों का सुरक्षित उपयोग करना लगभग असंभव हो जाता है. ट्रेनों और प्लेटफ़ॉर्म के बीच का बड़ा अंतराल खतरे को बढ़ाता है, और अक्सर शारीरिक रूप से स्वस्थ यात्री विकलांग यात्रियों के लिए तय डिब्बों में बैठ जाते हैं. 

अगर महानगरीय क्षेत्र, जहां आम तौर पर अधिक संसाधन और मज़बूत बुनियादी ढांचा होता है, विकलांग व्यक्तियों के लिए पहुंच संबंधी समस्याओं से जूझ रहे हैं, तो टियर 2 और टियर 3 शहरों में स्थिति और भी अधिक चुनौतीपूर्ण हो सकती है. चूंकि, भारत में टियर 2 और टियर 3 शहर अभी विकसित हो रहे हैं, इसलिए उनके पास शहरी नियोजन के आधारभूत चरणों से ही समावेशिता को एकीकृत करने का एक अनूठा अवसर है. महानगरों के विपरीत, जो अक्सर मौजूदा संरचनाओं में बाद में समाधान जोड़ते हैं, ये उभरते शहर अपने बुनियादी ढांचे को आधारशिला के रूप में सुलभता के साथ डिज़ाइन कर सकते हैं. शुरू से ही पूरी तरह से सुसज्जित सार्वजनिक परिवहन, सुगम्य सार्वजनिक भवन और अच्छी तरह से बनाए गए फुटपाथों को शामिल करके, इन शहरों में समावेशिता के लिए नए मानक स्थापित करने की क्षमता है. 

पहुंच की कमी न केवल विकलांग व्यक्तियों की शारीरिक गतिविधियों में बाधा डालती है, बल्कि उनके मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य और सामाजिक एकीकरण को भी महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करती है. स्वायत्त रूप से सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करने में असमर्थता या बिना सहायता के सार्वजनिक भवनों तक पहुंचने में सक्षम न होने से बहिष्कृत किए जाने और निर्भरता की भावनाओं को बढ़ावा मिलता है. उदाहरण के लिए, राजधानी के एक प्रसिद्ध महिला कॉलेज में, व्हीलचेयर में जीवन और सामाजिक उद्यमिता विषय पर चर्चा करने के लिए आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान, विकलांगों के अधिकारों के पैरोकार और निपमैन फाउंडेशन के संस्थापक श्री निपुण मल्होत्रा ​​को भाषण स्थल तक पहुंचने के लिए एक अस्थायी रैंप का इस्तेमाल करना पड़ा. इससे सुरक्षा जोखिम तो पैदा हुआ ही और यह भी साफ़ नज़र आया कि आयोजक पहुंच की मूलभूत आवश्यकता को पूरा करने को लेकर कितने कम तैयार थे. 

शहरी नियोजन में समावेशी डिज़ाइन और संवेदनशीलता की आवश्यकता 

भारत में विकलांग व्यक्तियों के लिए शहरों में आवाजाही से जुड़ी समस्याएं सिर्फ़ बुनियादी ढांचे की अपर्याप्तता के कारण नहीं हैं, बल्कि सार्वजनिक स्थानों और सेवाओं को डिज़ाइन करने, लागू करने और देखरेख करने वालों में विकलांग लोगों की ज़रूरतों के प्रति संवेदनशीलता और समझ की भारी कमी से भी उत्पन्न होती हैं. यह अक्सर स्पर्शनीय फर्श जैसी अच्छी सोच के साथ तैयार सुविधाओं के अनुचित कार्यान्वयन की ओर ले जाता है. दृष्टिबाधित व्यक्तियों की सहायता के लिए बनाए गए स्पर्शनीय पथ अक्सर तब अपने उद्देश्य को पूरा करने में विफल हो जाते हैं जब उनके व्यावहारिक उपयोग की वास्तविक समझ के बिना उनका निर्माण किया जाता है. उदाहरण के लिए, ऐसी स्पर्शनीय टाइलें जो कहीं नहीं ले जाती हैं, अचानक समाप्त हो जाती हैं, या अनुचित तरीके से रखी जाती हैं, मदद करने के बजाय बाधा डालती हैं. जैसे कि बोलार्ड, जो शहरी सुरक्षा और यातायात नियंत्रण के अभिन्न अंग होते हैं लेकिन ठीक तरीके से न बनाए जाने पर, अनजाने में ही व्हीलचेयर का इस्तेमाल करने वालों की आवाजाही में बाधा उत्पन्न कर सकते हैं. इसमें मुख्य दिक्कत दो बोलार्ड के बीच के कम अंतर से आती है, जिनमें व्हीलचेयर की चौड़ाई का ध्यान नहीं रखा जाता और वह इनमें से गुज़र नहीं पातीं.  

मौजूदा समय में, शहरी नियोजन में समावेशन अक्सर बाद में किए जाने वाले एक काम के रूप में नज़र आता है, जिसके कारण सार्वजनिक स्थानों को ऐसे तरीकों से ठीक-ठाक करने की कोशिश की जाती है जो शायद ही कभी प्रभावी होती हैं.

मौजूदा समय में, शहरी नियोजन में समावेशन अक्सर बाद में किए जाने वाले एक काम के रूप में नज़र आता है, जिसके कारण सार्वजनिक स्थानों को ऐसे तरीकों से ठीक-ठाक करने की कोशिश की जाती है जो शायद ही कभी प्रभावी होती हैं. अब ज़रूरत एक प्रतिमान परिवर्तन (पैराडाइम शिफ़्ट) की है जिसमें समावेशी डिज़ाइन केवल एक अतिरिक्त नहीं बल्कि सार्वजनिक बुनियादी ढांचे और परिवहन प्रणालियों से संबंधित सभी नीति-निर्माण प्रक्रियाओं का बुनियादी घटक हों. 

अंततः, पूरी तरह से सुलभ शहरों की ओर यात्रा एक चुनौती और अवसर- साधारण स्थानों को समावेशी क्षेत्रों में बदलने का आह्वान-  दोनों है. जैसे-जैसे हम प्रौद्योगिकी की शक्ति का उपयोग करते हैं और हर स्तर पर समावेशिता को बढ़ावा देते हैं, हम ऐसे शहरों का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं जो न केवल सभी को समायोजित करते हैं बल्कि उनका पूरे दिल से स्वागत करते हैं. यह शहरी सुगम्यता का भविष्य है: न केवल आवाजाही को सक्षम बनाना, बल्कि जीवन को सशक्त बनाना. 


(कुहु अग्रवाल ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन में एक रिसर्च इंटर्न हैं)  

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