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क्या प्रतिबंध लगाने से PFI की गतिविधियां काबू में बनी रहेंगी या PFI फिर से खड़ा होकर भारत के लिए एक ताक़तवर ख़तरा बनेगा?
28 सितंबर 2022 को गृह मंत्रालय ने भारत के राजपत्र में एक अधिसूचना जारी कर पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (PFI) और उसके सहयोगी संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया. इन सहयोगी संगठनों में रिहैब इंडिया फाउंडेशन, कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया, नेशनल वुमेंस फ्रंट और जूनियर फ्रंट शामिल हैं. इन संगठनों को ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) की धारा 3 के तहत प्रतिबंधित करके उन्हें ‘ग़ैर-क़ानूनी’ घोषित किया गया है. प्रतिबंध लगाने की कार्रवाई कई सुरक्षा एजेंसियों के द्वारा PFI पर देशव्यापी कार्रवाई के बाद की गई. 11 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में इस संगठन के 300 से ज़्यादा नेताओं को गिरफ़्तार किया गया. इसके अलावा, संगठन के बैंक खातों को ज़ब्त कर लिया गया. PFI के सदस्यों को UAPA की धारा 10 के तहत उम्र क़ैद की सज़ा दी जा सकती है.
PFI को नेशनल डेवलपमेंट फ्रंट (NDF) का अवतार समझा जाता है जिसकी स्थापना 1994 में केरल में की गई थी. 2006 में NDF ने ख़ुद को विघटित कर लिया और PFI के रूप में फिर से खड़ा हुआ. इसका उद्देश्य संभवत: अल्पसंख्यकों- ख़ास तौर पर केरल में रहने वाले मुस्लिम समुदाय- को प्रभावित करने वाले सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर ध्यान देना था. हालांकि, दिलचस्प बात ये है कि PFI केवल NDF का अवतार नहीं है बल्कि इसकी संरचना रूस की ‘मैत्रीओश्का’ गुड़िया (जो मां के द्वारा बच्चे को अपने भीतर रखने का परंपरागत प्रतिनिधित्व करती है) की तरह है. ‘मैत्रीओश्का’ में कम होते आकार की कई गुड़िया एक-दूसरे के भीतर होती हैं. जिस तरह हर गुड़िया का तस्वीर संबंधी अलग प्रतिनिधित्व होता है लेकिन वो एक बड़ी गुड़िया का हिस्सा होती है, उसी तरह PFI का एक मातृ संगठन सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (SDPI) है.
सुरक्षा एजेंसियों के द्वारा कई वर्षों की निगरानी- जिस दौरान उन्होंने नज़दीक से संगठन के विकास, उसकी बढ़ती गतिविधियों और सुरक्षा को लेकर उसके नतीजे को देखा- के बाद ही PFI पर प्रतिबंध लगाया गया.
2006 में NDF के राजनीतिक मोर्चे के रूप में PFI उभरा. इसने समाज के अलग-थलग और कमज़ोर वर्ग के लोगों के इस्तेमाल के एजेंडे के साथ भलाई से जुड़े कार्यक्रमों की योजना बनाने और उन्हें लागू करने के लिए कई बैठकें की.
PFI के उभरने के पीछे केरल में कई घटनाक्रम हैं. इसकी जड़ें 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद के घटनाक्रम से जुड़ी हैं. विभाजन के बाद ऑल इंडिया मुस्लिम लीग, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (IUML) और पाकिस्तान मुस्लिम लीग में बंट गई. IUML ने अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए काम करने का दावा करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) का विरोध करने के लिए केरल में इस्लामिक सेवक संघ (ISS) की स्थापना की. इसके कई दशक बाद 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के दौरान सुरक्षा एजेंसियों ने देश विरोधी गतिविधियों की योजना बनाने के लिए ISS और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी इंटर-सर्विसेज़ इंटेलिजेंस (ISI) के बीच संबंध पाया. इसकी वजह से आख़िरकार 1992 में ISS पर प्रतिबंध लगा दिया गया. लेकिन इस प्रतिबंध का असर कम ही दिनों तक रहा क्योंकि इसने 1994 में नेशनल डेवलपमेंट फ्रंट (NDF) की स्थापना का रास्ता तैयार किया. NDF ने केरल में दावाह (इस्लाम में आमंत्रण) की योजना के साथ काम किया यानी सत्यसारिणी या मरकज़-उल-हिदाया एजुकेशनल एंड चैरिटेबल ट्रस्ट जैसे संगठनों के ज़रिए दूसरे समुदायों के बीच इस्लाम का प्रचार. 2006 में NDF के राजनीतिक मोर्चे के रूप में PFI उभरा. इसने समाज के अलग-थलग और कमज़ोर वर्ग के लोगों के इस्तेमाल के एजेंडे के साथ भलाई से जुड़े कार्यक्रमों की योजना बनाने और उन्हें लागू करने के लिए कई बैठकें की. 2013 में PFI ने स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) के सदस्यों के साथ नज़दीकी तौर पर बातचीत की और उन्हें कन्नूर ज़िले में एक आतंकी ट्रेनिंग कैंप में बुलाया. इस मामले में PFI के 21 सदस्यों को 2016 में सज़ा हुई.
अपने दुष्प्रचार के ज़रिए PFI रणनीतिक तौर पर भारत के सामाजिक ताने-बाने पर हमला करता रहा है. साथ ही कमज़ोर समुदायों जैसे कि दलितों या अनाथों की भावनाओं को भड़काकर लोकतंत्र और भारतीय संविधान की धारणा को खोखला करता रहा है. उदाहरण के लिए, असम सरकार ने PFI के छात्रवृत्ति कार्यक्रम को लेकर चेतावनी दी. PFI ने छात्रवृत्ति कार्यक्रम का इस्तेमाल राज्य में अपने उद्देश्यों के लिए जन समर्थन तैयार करने के अवसर के रूप में किया. भारत के दूसरे हिस्सों में ‘स्कूल चलो’, ‘सर्व शिक्षा ग्राम’ और ‘एडॉप्ट स्टूडेंट’ (छात्र को गोद लो) जैसे अभियानों के ज़रिए PFI ने अक्सर आर्थिक रूप से कमज़ोर लोगों को जमा किया और उन्हें सरकार को चुनौती देने के लिए भड़काया. जुलाई 2022 में PFI ने “भारत 2047- भारत में इस्लाम के शासन की स्थापना की तरफ़” के शीर्षक से एक दस्तावेज़ जारी किया. PFI का ये दस्तावेज़ भारत सरकार के दस्तावेज़ “विज़न इंडिया @ 2047” के जवाब में था.
कई बार आधिकारिक बयानों के ज़रिए आरोप लगाए गए हैं कि PFI का संबंध ग़ैर-क़ानूनी आतंकी संगठनों जैसे कि जमात-उल-मुजाहिदीन (JMB) और इस्लामिक स्टेट (IS) के साथ है. बयानों के मुताबिक़, ये संबंध ख़ास तौर पर केरल में है जहां PFI के कुछ कार्यकर्ता इस्लामिक स्टेट में शामिल हो गए हैं और उन्होंने सीरिया, इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में आतंकी गतिविधियों में भाग लिया है.
PFI और उसके सहयोगी संगठनों पर प्रतिबंध लगाने के बावजूद उसकी राजनीतिक शाखा सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (SDPI) अभी भी सक्रिय रूप से काम कर रही है. SDPI ने आरोप लगाया है कि PFI पर पाबंदी भारतीय लोकतंत्र और उसके तहत मिले संवैधानिक अधिकारों को चुनौती देती है. इसके अलावा, SDPI अपने ट्विटर हैंडल पर नियमित रूप से मैसेज डाल रही है और हिजाब पर प्रतिबंध, राष्ट्रीय भाषा के रूप में हिंदी का विरोध जैसे विषयों पर चर्चा कर रही है. साथ ही ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2022 में भारत की गिरी हुई रैंकिंग को लेकर भारत सरकार का मज़ाक़ उड़ा रही है. इससे ये संकेत मिलता है कि लोगों का समर्थन हासिल करने के लिए उसका संघर्ष लगातार जारी है. इस तरह की हरकतों को कम नहीं समझना चाहिए क्योंकि इससे ये संभावना बनती है कि PFI अपने पुराने लक्ष्यों पर काम करते हुए एक नये नाम और पहचान के साथ फिर से खड़ा हो सकता है. ख़बरों के मुताबिक़ प्रतिबंध लगने के बाद से PFI ने अपने वॉट्सऐप ग्रुप का नाम पहले के ‘मीडिया पॉपुलर फ्रंट’ या ‘पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया’ की जगह सिर्फ़ ‘मीडिया अपडेट’ कर लिया है. इसी तरह ‘कैंपस फ्रंट एरनाड’ नाम के ट्विटर अकाउंट को बदलकर अब इंतिफादा कर दिया गया है.
केरल के मुस्लिम संगठनों ने PFI पर प्रतिबंध का समर्थन किया है. लेकिन इसके साथ-साथ, जमात-ए-इस्लामी हिंद ने पाबंदी का विरोध करते हुए दावा किया कि एक लोकतंत्र में ये सही नहीं है. उसने PFI के सदस्यों से अनुरोध किया है कि वो क़ानूनी और वैचारिक- दोनों स्तर पर प्रतिबंध का विरोध करें.
PFI पर एक साथ छापे के बाद से उसके कई स्वयंसेवक और सदस्य भूमिगत हो गए हैं. ये उनकी विचारधारा और भारत सरकार के ख़िलाफ़ उनके अभियान का मुक़ाबला करने में एक चुनौती बनेगी. 2001 में जब सिमी पर पाबंदी लगाई गई थी तो सिमी के कई सदस्य PFI में शामिल हो गए थे. इसलिए, इस बात की संभावना है कि पाबंदी से सिर्फ़ PFI टूट सकता है, उसकी विचारधारा नहीं.
हिंसा, अपराध, अवैध गतिविधियों और आतंकी घटनाओं में PFI के शामिल होने को देखते हुए सुरक्षा एजेंसियों को ये सुनिश्चित करना चाहिए कि कुछ वर्षों के बाद PFI फिर से खड़ा न हो जाए. PFI के नये अवतार को रोकने के लिए एक दीर्घकालीन समाधान ज़रूर करना चाहिए. सुरक्षा एजेंसियां दो संभावित विकल्पों पर काम कर सकती हैं.
2020 के जाफ़राबाद दंगे और दिल्ली में CAA विरोधी रैली जैसी घटनाओं में PFI की व्यापक रूप से हिस्सेदारी को देखते हुए सुरक्षा एजेंसियों को सबूत इकट्ठा करके भारत की एकता, सुरक्षा और संप्रभुता को नुक़सान पहुंचाने में PFI की भूमिका को साबित करना चाहिए.
सबसे पहले सुरक्षा एजेंसियों को 2002 के आतंक रोकथाम अधिनियम के तहत PFI के अधिकार-पत्र को हटाना चाहिए. 2020 के जाफ़राबाद दंगे और दिल्ली में CAA विरोधी रैली जैसी घटनाओं में PFI की व्यापक रूप से हिस्सेदारी को देखते हुए सुरक्षा एजेंसियों को सबूत इकट्ठा करके भारत की एकता, सुरक्षा और संप्रभुता को नुक़सान पहुंचाने में PFI की भूमिका को साबित करना चाहिए. दूसरी बात, सुरक्षा एजेंसियां कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय के विशेषज्ञों के समूह की 2012 की रिपोर्ट का हवाला दे सकती हैं जिसमें स्वतंत्रता से पहले के समय के क़ानून सोसाइटीज़ रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 को नये अनुच्छेद के साथ संशोधित करने का प्रस्ताव दिया गया था. संशोधन के बाद ये क़ानून आधुनिक समय के अनुसार ज़्यादा पारदर्शी और उत्तरदायी बन जाएगा और नये आर्थिक माहौल के अनुकूल होगा. इस क़ानून के तहत पंजीकृत हर संगठन पूरे भारत में मौजूदगी की आकांक्षा रखता है जिस पर कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय के द्वारा प्रस्तावित कई राज्यों के सोसाइटीज़ रजिस्ट्रेशन बिल 2012 और मॉडल लॉ के ज़रिए निगरानी रखी जा सकती है.
इसलिए, UAPA के तहत PFI पर प्रतिबंध लगाना सिर्फ़ एक पहला क़दम है और इसके बाद सोसाइटीज़ रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 में संशोधन ज़रूर करना चाहिए. इससे हर संगठन को ज़िम्मेदार बनाया जा सकेगा और उनकी छानबीन की जा सकेगी.
अगर PFI प्रतिबंध को चुनौती देता भी है तो भारतीय सुरक्षा एजेंसियों को अपनी कार्रवाई जारी रखनी चाहिए और इस संगठन पर दबाव बनाना चाहिए ताकि ये बिल्कुल अलग तरह के संगठन में ख़ुद को बदल नहीं सके.
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