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13 मार्च को अमेरिका और ब्रिटेन ने ऑस्ट्रेलिया को परमाणु चालित पनडुब्बियां देने की घोषणा की. इस ऐलान का ऑस्ट्रेलिया और उसके पास-पड़ोस पर दूरगामी असर पड़ने वाला है.
13 मार्च को अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने, सैन डिएगो शहर में ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्रियों के साथ समुद्र के किनारे प्रेस कांफ्रेंस की. जिसमें अमेरिका और ब्रिटेन ने ऑस्ट्रेलिया को परमाणु शक्ति से चलने वाली पनडुब्बियां देने का ऐलान किया. जब तीनों नेताओं ने ये घोषणा की, उस वक़्त उनके पीछे अमेरिका की परमाणु पनडुब्बियां दिख रही थीं. 2021 में में ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका ने मिलकर AUKUS सुरक्षा गठबंधन बनाने का ऐलान किया था. जिसके तहत अब अमेरिका और ब्रिटेन ने, उन्नत क़िस्म की पनडुब्बियां ऑस्ट्रेलिया को देने की घोषणा की है. ये परमाणु पनडुब्बियां अगले एक दशक में ऑस्ट्रेलिया की नौसेना को मिल जाएगी. ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री एंथनी अल्बानीज़ी इसे पहले ही, ‘ऑस्ट्रेलिया के इतिहास में रक्षा क्षमता की इकलौती सबसे लंबी छलांग’ बता चुके है.
हालांकि, समझौते को लेकर ऑस्ट्रेलिया में अभी भी कुछ घबराहट है. अपने संभावित दुश्मनों को डराने लायक़ क्षमता विकसित करने के लिए ऑस्ट्रेलिया को अभी भी अनुकूल राह की ज़रूरत है. लेकिन, ऑकस को लेकर सलाह मशविरों के सबसे सकारात्मक नतीजे भी बिना कमियों वाले नहीं रहे है. मुख्य मुद्दा ये है कि ऑस्ट्रेलिया के बहुत से क्षेत्रीय साझीदार इस समझौते का विरोध कर रहे हैं. उन्हें लगता है कि इससे इस क्षेत्र में हथियारों की होड़ शुरू हो जाएगी. इंडोनेशिया जैसे कुछ देशों ने तो AUKUS को लेकर खुलकर अपनी आशंकाएं ज़ाहिर की है. वहीं भारत (ऑस्ट्रेलिया का क्वाड साझीदार) जैसे देश, सियासी तौर पर भले ही AUKUS का समर्थन कर रहे हों, लेकिन, इस क्षेत्र के समुद्री इलाक़े में ऑस्ट्रेलिया की परमाणु चालित पनडुब्बियों की गतिविधियों को लेकर उनमें भी विरोधाभास है.
ऑस्ट्रेलिया के नीति निर्माता और अधिकारियों ने अपने साथी देशों के समकक्षों को ये समझाने का प्रयास किया है कि AUKUS से ऑस्ट्रेलिया को परमाणु हथियारों की क्षमता नहीं हासिल होगी.
ऑस्ट्रेलिया ने अपनी तरफ़ से इन आशंकाओं को दूर करने की कोशिश की है. ऑस्ट्रेलिया के नीति निर्माता और अधिकारियों ने अपने साथी देशों के समकक्षों को ये समझाने का प्रयास किया है कि AUKUS से ऑस्ट्रेलिया को परमाणु हथियारों की क्षमता नहीं हासिल होगी. इससे तो बस परमाणु शक्ति से चलने वाली पनडुब्बियां ही मिलेंगी. ऑस्ट्रेलिया ने तो ऑकस को क्वाड जैसे दूसरे समूहों से अलग बताने का भी प्रयास किया है. अधिकारी, क्वाड को एक ऐसा समूह बताते है, जो इस क्षेत्र के लिए दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है. जबकि AUKUS को वो एक तकनीकी समझौता अधिक बताते है
हालांकि, इससे ये सच नहीं झुठलाया जा सकता कि ये एक सैन्य समझौता है, जिसमें एशिया के समुद्री समीकरणों को नया आकार देने की संभावनाएं है. ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और ब्रिटेन ने समझौता होने से लेकर अब तक के ऐलान के बीच के 14 महीनों के दौरान अपने घोषित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कई विकल्पों पर विचार किया है. हालांकि आख़िर में तीनों देशों ने तय किया है कि 2030 के दशक तक अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया को वर्जिनिया दर्जे की तीन परमाणु संचालित पनडुब्बियां देगा. ऑस्ट्रेलिया के पास इसके अलावा दो और पनडुब्बियां ख़रीदने का विकल्प होगा. इसके अलावा तीनों देश मिलकर, SSN-AUKUS नाम से पनडुब्बियों का नया दस्ता भी तैयार करेंगे. अमेरिका के बहुत से नीति निर्माता, ऑस्ट्रेलिया को परमाणु पनडुब्बी की तकनीक देने को लेकर आशंकित थे. अमेरिका के दो बड़े सीनेटर्स ने इस साल जनवरी में राष्ट्रपति जो बाइडेन को चिट्ठी लिखकर उनसे अपील की थी कि वो ऑस्ट्रेलिया को परमाणु संचालित पनडुब्बियां न बेचें. दोनों सीनेटर्स ने चेतावनी दी थी कि ऐसा करने से अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा ख़तरे में पड़ जाएगी, क्योंकि ऐसी पनडुब्बियों की ख़ुद अमेरिका के पास कमी थी. जब ये चिट्ठी मीडिया में लीक की गई, तो अमेरिका के दोनों दलों के सांसदों ने एक बयान जारी करके AUKUS को अपना समर्थन दोहराते हुए कहा था कि, ‘ये एक ऐसा ज्वार है, जो सभी नौकाओं को उबार लेगा.’ इन सबसे इतर, अमेरिका ख़ुद अपने लिए पर्याप्त परमाणु पनडुब्बियां बनाने के लिए संघर्ष कर रहा है. अमेरिका ने 2052 तक अपने बेड़े में 60 से 69 परमाणु संचालित पनडुब्बियां शामिल करने का लक्ष्य रखा है. अमेरिका की पनडुब्बी के लंगर डालने वाले चार सूखी गोदियों को मरम्मत की दरकार है. ऐसे में अमेरिका के लिए ऑस्ट्रेलिया को देने के लिए सही समय पर पनडुब्बियां बनाना एक बड़ी चुनौती होगी.
तीनों देशों ने जिस दूसरे विकल्प पर ग़ौर किया था, उसके तहत ब्रिटेन द्वारा अपने एस्ट्यूट दर्जे के कार्यक्रम का विस्तार ऑस्ट्रेलिया तक करना था. इस योजना की राह में भी रोड़े थे. ब्रिटेन अपने लिए ड्रेडनॉट दर्जे की बैलिस्टिक मिसाइल क्षमता वाली पनडुब्बी (SSBN) का निर्माण कर रहा है. वहीं, ऑस्ट्रेलिया के लिए वो एस्ट्यूट दर्जे की स्थानापन्न तकनीक के विकल्प के तौर पर तैयार कर रहा है. अगर ऑस्ट्रेलिया, एस्ट्यूट दर्जे की पनडुब्बी लेता भी, तो उसे पनडुब्बी में लगे उपकरणों से तालमेल बिठाने में दिक़्क़त होती. क्योंकि, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका की मौजूदा पनडुब्बियां, इससे अलग है.
अमेरिका के दोनों दलों के सांसदों ने एक बयान जारी करके AUKUS को अपना समर्थन दोहराते हुए कहा था कि, ‘ये एक ऐसा ज्वार है, जो सभी नौकाओं को उबार लेगा.’ इन सबसे इतर, अमेरिका ख़ुद अपने लिए पर्याप्त परमाणु पनडुब्बियां बनाने के लिए संघर्ष कर रहा है.
तीसरे विकल्प के तौर पर तीनों देशों ने एक नई परमाणु पनडुब्बी विकसित करने पर भी विचार किया था. 13 मार्च को सैन डिएगो में हुए ऐलान के मुताबिक़, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन मिलकर SSN-AUKUS नाम की नई पनडुब्बी विकसित करेंगे, जिसमें अमेरिका की उच्च तकनीक का इस्तेमाल भी किया जाएगा.
इस राह में भी कई चुनौतियां हैं. ऑस्ट्रेलिया को अमेरिका से तकनीक निर्यात के नियंत्रण की चुनौती से पार पाना होगा. अमेरिका ने अपने यहां से तकनीक के निर्यात और आदान-प्रदान के लिए सख़्त नियम बना रखे है. इससे तकनीक के स्थानांतरण की राह में चुनौतियां आएंगी. ख़ास तौर से समुद्र के अंदर की क्षमताओं और इलेक्ट्रॉनिक युद्ध के साज़-ओ-सामान के मामले में. इस रास्ते में इंटरनेशनल ट्रैफिक इन आर्म्स रेग्यूलेशंस (ITAR) और ‘नोफॉर्म’ नाम का एक वर्गीकरण सबसे बड़ी बाधा है, जो ग़ैर अमेरिकी संस्थाओं से सूचना साझा करने पर रोक लगाते हैं. इस समझौते को लागू करने की एक ही राह है कि अमेरिका अपनी निर्यात नियंत्रण व्यवस्था में सुधार करे और इंटरनेशनल ट्रैफिक इन आर्म्स रेग्यूलेशंस में कुछ रियायतें देने का प्रावधान करे. हालांकि, विशेषज्ञ कहते हैं कि ये काम कहना जितना आसान है, करना उतना ही मुश्किल.
भारत ने अमेरिका के साथ बुनियादी समझौते किए हैं और अहम एवं उभरती तकनीकों के मामले में एक पहल शुरू की है. लेकिन, तकनीक हासिल करने को लेकर नौकरशाही के जाल से पार पाना अभी भी बहुत मुश्किल काम है.
AUKUS को लेकर हो रही हलचल को समझना भारत के पर्यवेक्षकों के लिए काफ़ी महत्वपूर्ण है. अपने सबसे नज़दीकी साथी देशों के साथ भी अमेरिका को तकनीक के आदान-प्रदान में दिक़्क़तें आ रही हैं. ऐसा नहीं है कि अमेरिका अपने साझेदारों की मदद नहीं करना चाहता; असल में अमेरिका की निर्यात नियंत्रण की व्यवस्था इतनी सख़्त और पुरानी है कि इसमें किसी दोस्त देश को तकनीक प्रदान करने की रियायत देने की गुंजाइश नहीं निकाली जा सकती. भारत, जो कभी भी अमेरिका के उतने क़रीब नहीं रहा, जितना ऑस्ट्रेलिया है, उसे इस बात का अंदाज़ा हो जाना चाहिए कि अमेरिका से महत्वपूर्ण तकनीक प्राप्त करना बहुत बड़ी चुनौती है. हालांकि, भारत ने अमेरिका के साथ बुनियादी समझौते किए हैं और अहम एवं उभरती तकनीकों के मामले में एक पहल शुरू की है. लेकिन, तकनीक हासिल करने को लेकर नौकरशाही के जाल से पार पाना अभी भी बहुत मुश्किल काम है.
दूसरा सबक़ ये है कि अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के अंतर्गत परमाणु तकनीक का संचालन मुश्किल है. ऑस्ट्रेलिया के को अत्यधिक संवर्धित यूरेनियम (HEU) से चलने वाले रिएक्टर वाली परमाणु संचालित पनडुब्बियों का संचालन करने के लिए, उस कमी का लाभ उठाना होगा, जिसमें ग़ैर परमाणु शक्ति संपन्न देशों को परमाणु पनडुब्बियां चलाने के लिए IAEA की निगरानी वाले भंडार से परमाणु ईंधन प्राप्त करने की इजाज़त होती है. विशेषज्ञ कहते हैं कि ऐसा करने से एक ख़तरनाक मिसाल क़ायम होगी, जिसके बाद परमाणु तकनीक का प्रसार करने वाले संभावित देशों द्वारा, नौसैनिक रिएक्टर कार्यक्रम का इस्तेमाल करके, भविष्य में एटमी हथियार विकसित करने का डर होगा. जैसा कि कुछ लोगों ने सुझाव दिया है कि अगर ऑस्ट्रेलिया की HEU संचालित परमाणु पनडुब्बी के रिएक्टर को उनके जीवनकाल के लिए ईंधन उपलब्ध कराया जाता है, तो फिर ऑस्ट्रेलिया रिएक्टर्स में फिर से ईंधन नहीं डाल पाएगा और उसे पनडुब्बी का संचालन पूरा करने (लगभग 30 साल) के बाद पनुडब्बियों को निर्माता देश को वापस करना होगा. ये स्पष्ट नहीं है कि क्या ऐसी व्यवस्था ऑस्ट्रेलिया के लिए लाभप्रद होगी.
भारत के लिए प्रोपल्ज़न तकनीक हासिल करना भी एक जटिल मसला होगा, क्योंकि भारत परमाणु अप्रसार संधि का हिस्सा नहीं है. अमेरिका और ब्रिटेन जैसे आपूर्तिकर्ता देशों से उच्च संवर्धित यूरेनियम से संचालित रिएक्टर्स को हासिल करने में तकनीक के तबादले की राह में जो जटिलताएं आएंगी, उनको देखते हुए भारत के पास सिर्फ़ एक ही व्यावहारिक विकल्प बचता है कि वो 40 प्रतिशत संवर्धित यूरेनियम वाला विकल्प चुने जिसका इस्तेमाल भारत की स्वदेशी परमाणु बैलिस्टिक मिसाइल से लैस पनडुब्बी करती है और, भारतीय नौसेना की परमाणु हमला करने में सक्षम पनडुब्बी कार्यक्रम के लिए फ्रांस से उच्च शक्ति वाला रिएक्टर ख़रीदे. फ्रांस की घोषित नीति है कि वो अपनी परमाण्विक पनडुब्बियों में कम संवर्धित यूरेनियम इस्तेमाल करेगा, जिसका प्रयोग एटमी हथियारों में नहीं किया जा सकता है; ये तकनीक बिना किसी विरोध के स्थानांतरित की जा सकती है. फ्रांस ने भारत को साथ मिलकर 6 परमाण्विक पनडुब्बियां बनाने का प्रस्ताव दिया है. हालांकि, भारत के लिए समस्या ये है कि फिर वो रिएक्टर के ईंधन के लिए फ्रांस पर निर्भर होगा. उसे फ्रांस से छोटे कम संवर्धित यूरेनियम (LEU) से चलने वाले रिएक्टर कोर का ईंधन लेना होगा. फ्रांस ने ये लक्ष्य सफलता से हासिल कर लिया है. लेकिन, इससे एक बार में ईंधन डालने पर रिएक्टर की आयु दस वर्ष ही रह गई है. उसके बाद उसमें फिर से ईंधन डालना होगा. ये अपने आप में पेचीदा मसला है. जब बात अहम तकनीकों के स्थानांतरण की आती है, और ख़ास तौर से नौसैनिक परमाणु तकनीक की, तो साफ़ है कि इस क्षेत्र में हासिल किए जा सकने वाले लक्ष्य सीमित ही है.
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A former naval officer Abhijit Singh Visiting Fellow at ORF. A maritime professional with specialist and command experience in front-line Indian naval ships he has been ...
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