मार्च 2019 में भारत ने उपग्रह को मार गिराने (ASAT) की क्षमता का कामयाब तजुर्बा किया था. इस परीक्षण के बाद भारत दुनिया का ऐसा चौथा देश (अमेरिका, रूस और चीन के बाद) बन गया जिसके पास एंटी सैटेलाइट ताक़त है. एक और देश इज़राइल के बारे में कहा जाता है कि उसके पास भी उपग्रहों को मार गिराने की ताक़त है. लेकिन, इज़राइल ने अब तक अपनी इस क्षमता की नुमाइश नहीं की है. भारत के एंटी सैटेलाइट परीक्षण के दौरान, धरती से 300 किलोमीटर की ऊंचाई पर उड़ रहे उपग्रह को मार गिराया गया था. ये अमेरिका द्वारा 2008 में किए गए एंटी सैटेलाइट परीक्षण के लगभग बराबर ही था. हालांकि भारत के इस परीक्षण ने एंटी सैटेलाइट हथियारों, उनसे पैदा होने वाले ख़तरों और उनके इस्तेमाल से अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा पर पड़ने वाले असर को लेकर नई बहस छिड़ गई है. ये बहस शून्य में नहीं हो रही है. हाल के वर्षों में अंतरिक्ष में हथियारों की होड़ के बढ़ते चलन को लेकर काफ़ी वाद-विवाद हो रहा है. निश्चित रूप से भारत के उपग्रह मारक परीक्षण ने इस सवाल को दोबारा खड़ा कर दिया है कि आख़िर कोई देश इस रास्ते पर चलता क्यों है. क्योंकि इस राह पर चलने में कई ख़तरे, अनिश्चितताएं और सुरक्षा संबंधी दुविधाएं अपने आप पैदा हो जाती हैं. इसके साथ साथ ऐसे सवाल भी उठते हैं कि अंतरिक्ष में हथियारों की होड़ की तरफ़ तेज़ी से बढ़ रही दुनिया को किस तरह रोका जा सकता है.
अमेरिका ने भविष्य में उपग्रहों को मार गिराने वाले परीक्षण करने पर इकतरफ़ा पाबंदी लगाने का एलान किया है. 18 अप्रैल को अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने एक बयान में कहा था कि, ‘अमेरिका ये वादा कर रहा है कि वो तबाही लाने वाले सीधे अंतरिक्ष में जाने वाली मिसाइलों का परीक्षण नहीं करेगा और इसके साथ साथ, अमेरिका अपने इस क़दम को अंतरिक्ष में ज़िम्मेदारी भरे बर्ताव के मानक के तौर पर स्थापित करने की कोशिश करेगा.’ अमेरिका के इस एलान में दुनिया काफ़ी दिलचस्पी ले रही है. बहुत से देश बाइडेन के इस क़दम से काफ़ी उत्साहित हैं. लेकिन, अभी तक ज़्यादातर देशों ने अमेरिका के इस क़दम का समर्थन करने से परहेज़ ही किया है हो सकता है कि भारत भी ऐसे एंटी सैटैलाइट परीक्षण करने पर ख़ुद से रोक लगाकर उन देशों की क़तार में खड़ा हो जाए, जो अमेरिका के परीक्षण पर रोक लगाने के फ़ैसले का खुलकर समर्थन कर रहे हैं.
निश्चित रूप से भारत के उपग्रह मारक परीक्षण ने इस सवाल को दोबारा खड़ा कर दिया है कि आख़िर कोई देश इस रास्ते पर चलता क्यों है. क्योंकि इस राह पर चलने में कई ख़तरे, अनिश्चितताएं और सुरक्षा संबंधी दुविधाएं अपने आप पैदा हो जाती हैं.
जब बहुत से देशों को भारत के एंटी सैटैलाइट टेस्ट के बाद ये लगने लगा था कि भारत अंतरिक्ष के शांतिपूर्ण इस्तेमाल के अपने वादे से पीछे हट रहा है, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस परीक्षण को अंतरिक्ष में अपने संसाधनों की सुरक्षा के लिए ज़रूरी क़दम बताकर इसका बचाव किया था. ये सच है कि भारत अंतरिक्ष में हथियारों की होड़ लगाने नहीं जा रहा है. लेकिन, भारत के लिए ये भी उचित नहीं होता कि वो उपग्रहों को मार गिराने की अपनी क्षमता का प्रदर्शन नहीं करता. क्योंकि चीन अंतरिक्ष में दूसरे देशों को नुक़सान पहुंचाने वाली अपनी क्षमताओं में लगातार इज़ाफ़ा कर रहा है. इसमें एंटी सैटेलाइट ताक़त भी शामिल है. चीन की बढ़ती अंतरिक्ष शक्ति को लेकर भारत लंबे समय से आशंकित रहा है. ख़ास तौर से 2007 में चीन द्वारा उपग्रह को मार गिराने की क्षमता (ASAT) के सफल परीक्षण के बाद से. चीन के इस क़दम ने भारत को भी मजबूर किया कि वो चीन को चेतावनी देने के लिए ख़ुद की उपग्रह मारक क्षमता का विकास करे. DRDO के पूर्व प्रमुख डॉक्टर वी के सारस्वत, कई बार ये दावा कर चुके हैं कि भारत ऐसी ऐसी ज़रूरी तकनीक विकसित कर रहा है जिनका इस्तेमाल वो दुश्मन के उपग्रह को नष्ट करने में कर सके.
राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी चुनौतियां
हालांकि, एंटी सैटेलाइट हथियार समेत अंतरिक्ष में दूसरे को नुक़सान पहुंचाने वाली दूसरी क्षमताओं के भारत और इसके बाहर कई आलोचक हैं. एक सोच ये भी है कि ऐसी तकनीकों का विकास और उनकी नुमाइश से किसी भी देश के सामने खड़े ख़तरे कम तो बिल्कुल नहीं होते हैं. इसके उलट ऐसे परीक्षणों से पूरे क्षेत्र में असुरक्षा की भावना बढ़ जाती है, और संबंधित देश की चुनौती भी. ऐसे ख़तरों से कोई देश तभी सुरक्षित रह सकता है, जब इलाक़े में उसके दुश्मन देश ऐसी क्षमता हासिल करने की कोशिश न करें. हो सकता है कि उपग्रह को मार गिराने वाले हथियार, निकट भविष्य की चुनौतियों का समाधान कर सकें. लेकिन, इन क्षमताओं से दूसरे देशों की कमज़ोरी बढ़ जाती है और इस वजह से देर-सबेर उन्हें अपने विकल्पों का नए सिरे से मूल्यांकन करना ही पड़ता है. भारत के साथ भी यही तो हुआ था. भारत कई दशकों से ऐसी नीति पर चलता रहा है, जिसमें अंतरिक्ष में हथियारों की होड़ की गुंजाइश न हो. हालांकि, जब चीन ने एंटी सैटेलाइट परीक्षण किया था, तो भारत को भी अपनी अंतरिक्ष की संपत्तियों को सुरक्षित बनाने और चीन को चेतावनी देने के लिए नए विकल्पों की तलाश करनी पड़ी थी. क्योंकि, बाहरी अंतरिक्ष में हथियारों की होड़ न लगाने का भारत का तर्क चीन ने स्वीकार नहीं किया था. आज दुनिया भर में असुरक्षा का माहौल बढ़ रहा है, फिर चाहे वो अंतरराष्ट्रीय हो या क्षेत्रीय हालात. ऐसे में आशंका इसी बात की है कि और भी देश इस रास्ते पर चलकर अंतरिक्ष में काम आने वाले हथियार विकसित करेंगे. जबकि ऐसे हथियारों से असुरक्षा और अनिश्चितता बढ़ती ही है. इसीलिए, जो देश अपने अंतरिक्ष कार्यक्रमों को असैन्य इस्तेमाल तक सीमित रखना चाहते हैं वो भी शायद मजबूरी में राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी चुनौतियों को देखते हुए इन विकल्पों पर गौर करें. जब तक अंतरिक्ष की हर बड़ी ताक़त उपग्रह मारक हथियारों से पैदा होने वाले ख़तरों को स्वीकार नहीं करता और अंतरिक्ष में हथियारों की होड़ पर लगाम नहीं लगाता, तब तक ये ख़तरा बना रहेगा. जहां तक सवाल कुछ देशों की इस सोच का है कि उनके लिए उपग्रह मार गिराने वाले हथियारों का विकास करना एक वाजिब सुरक्षा संबंधी क़दम है, वहीं दूसरे देश भी इस दिशा में आगे बढ़ने को जायज़ ही ठहराएंगे. ये सुरक्षा की चुनौती की एक ऐसी दुविधा है, जिसमें हर पक्ष का नुक़सान ही है.
ये सच है कि भारत अंतरिक्ष में हथियारों की होड़ लगाने नहीं जा रहा है. लेकिन, भारत के लिए ये भी उचित नहीं होता कि वो उपग्रहों को मार गिराने की अपनी क्षमता का प्रदर्शन नहीं करता. क्योंकि चीन अंतरिक्ष में दूसरे देशों को नुक़सान पहुंचाने वाली अपनी क्षमताओं में लगातार इज़ाफ़ा कर रहा है. इसमें एंटी सैटेलाइट ताक़त भी शामिल है.
ख़ुशक़िस्मती से एंटी सैटेलाइट हथियारों का एक पहलू ये भी है कि कम से कम अब तक तो किसी देश ने ये हथियार तैनात नहीं किए हैं. अभी भी ये देश तकनीकी क्षमता की नुमाइश तक सीमित हैं. इसके चलते दुनिया के पास एक छोटा सा मौक़ा अभी भी है कि वो बाहरी अंतरिक्ष में सुरक्षा संबंधी चेतावनी और हथियारों की होड़ को बढ़ावा दिए जाने से रोक सकता है. इसके लिए ज़रूरी है कि तनाव कम करने के लिए तुरंत बहुपक्षीय वार्ता शुरू की जाए. इसके अलावा अंतरिक्ष कार्यक्रमों को लेकर खुलापन और पारदर्शिता लाई जाए. इसके साथ साथ सभी देश कुछ ऐसे क़दम भी उठाएं जिससे उनका एक दूसरे पर भरोसा बढ़ सके. क्योंकि आज भले ही इन हथियारों को तैनात नहीं किया गया है. लेकिन, बहुत जल्द इन हथियारों को बाहरी अंतरिक्ष में तैनात किए जाने की आशंका तो बनी हुई है. ऐसे में अन्य देशों की चुनौती बढ़ जाएगी और वो भी अपनी एंटी सैटेलाइट ताक़त का विकास करने में जुट जाएंगे.
दूसरे ख़तरे भी हैं. शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ के बीच लगी होड़ की तुलना में आज हथियारों की होड़ में बहुत से देश शामिल हैं. इसके साथ साथ चूंकि आज अंतरिक्ष की ज़्यादातर बड़ी ताक़तें पारंपरिक सैन्य अभियानों तक के लिए अंतरिक्ष क्षेत्र का इस्तेमाल कर रही हैं. ऐसे में अंतरिक्ष में एक दूसरे की संपत्तियों को निशाना बनाने का लालच तो बना ही हुआ है. शीत युद्ध के दौरान बाहरी अंतरिक्ष को गिनी चुनी सामरिक ज़रूरतें पूरी करने के लिए इस्तेमाल किया जाता था. इसमें हथियारों में कमी लाने की पुष्टि करने और बैलिस्टिक मिसाइल लॉन्च होने पर पहले से चेतावनी देने वाली सुविधाएं शामिल थीं. लेकिन शीत युद्ध के बाद के दौर में पारंपरिक सैन्य अभियान चलाने के लिए भी अंतरिक्ष पर अमेरिका की निर्भरता और बढ़ गई है. रूस और चीन ने भी अमेरिका की इन ज़रूरतों का गहरा अध्ययन किया है. इसके साथ साथ, चीन द्वारा सैन्य शक्ति का बार-बार इस्तेमाल करने से चिंताएं न केवल बड़ी ताक़तों की बढ़ी हैं. बल्कि भारत जैसे देशों के लिए भी चुनौती बढ़ गई है.
सीमित संवाद एक सही क़दम
एंटी सैटेलाइट हथियारों के विकास और इनकी होड़ पर तभी रोक लगाई जा सकती है, जब हथियारों पर लगाम लगाने की बहुपक्षीय वार्ताओं में एंटी सैटेलाइट टेस्ट करने को भी एक बड़ा मुद्दा बनाया जाए. ऐसे में उपग्रह मार गिराने वाली क्षमता रखने वाले चार देशों के बीच सीमित संवाद एक सही क़दम हो सकता है. नियम क़ायदों, सिद्धांतों और ज़िम्मेदार बर्ताव के ज़रिए अंतरिक्ष के ख़तरे कम करने के लिए संयुक्त राष्ट्र के अंतर्गत मौजूदा ओपन एंडेड वर्किंग ग्रुप (OEWG) इस बातचीत के लिए एक अच्छा मंच हो सकता है, जहां सभी देश अंतरिक्ष में हथियारों की होड़ कम करने के वादे कर सकते हैं. अगर ऐसा नहीं हो सकता है, तो हम बाहरी अंतरिक्ष में गतिविधियां चलाने के लिए कई गुना बेहद ख़तरनाक माहौल में काम करने को मजबूर होंगे.