Author : Madhavi Jha

Expert Speak Health Express
Published on Dec 30, 2024 Updated 0 Hours ago

एंटीमायक्रोबियल रेजिस्टंस यानी प्रतिरोध की जटिल समस्या से एक समन्वित रणनीति बनाकर ही निपटा जा सकता है. इसमें सरकार तथा विभिन्न हितधारकों के बीच समन्वय बेहद आवश्यक है.

एंटीबायोटिक टीबायोटिक का असर क्यों हो रहा है बेअसर?

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एंटीबायोटिक रेजिस्टंस सार्वजनिक स्वास्थ्य की एक बेहद गंभीर समस्या है. लोग अक्सर एंटीबायोटिक्स का सेवन ख़ुद ही कर लेते हैं. इसके अलावा एंटबायोटिक दवाईयां  आमतौर पर दवाई की दुकानों पर बगैर पर्ची के काउंटर से ही बेची जाती हैं. इसके अलावा एंटीमायक्रोबियल रेजिस्टंस (AMR) को लेकर सामान्यत: जागरूकता बेहद कम है. ऐसे में इस बात की आवश्यकता है कि भारत में सरकारी नीतियों के प्रभाव तथा नीति प्रवर्तन तथा ऊपर दी गई अन्य बातों को लेकर अधिक जांच की जाए. एंटीबायोटिक अब्यूस यानी एंटीबायोटिक दवाइयों का अत्यधिक सेवन और इसके दुरुपयोग के कारण AMR की समस्या से जुझना पड़ता है. यह समस्या देश के समक्ष एक बड़ी चुनौती पेश कर रही है. यह बात विशेष रूप से ग्रामीण और अर्धविकसित इलाको पर लागू होती है.


अकेले 2019 में ही एंटीबायोटिक-रेजिस्टंट बीमारियों के कारण भारत में 300,000 लोगों की सीधे मृत्यु होने की जानकारी है.

अकेले 2019 में ही एंटीबायोटिक-रेजिस्टंट बीमारियों के कारण भारत में 300,000 लोगों की सीधे मृत्यु होने की जानकारी है. इसमें नवजात बच्चों का भी समावेश है. एंटीबायोटिक-रेजिस्टंट बीमारियों के कारण 1 मिलियन अन्य मौते हुई हैं. यह संकट स्वास्थ्य सेवाओं पर काफ़ी बोझ बढ़ाता है. इसके कारण एंटीबायोटिक्स की प्रभावकारिता पर भी असर होता है. ऐसे में संक्रमणकारी बीमारियों के प्रबंधन में मुश्किलें पेश आती हैं. ड्रग-रेजिस्टंस यानी दवाई-प्रतिरोध की समस्या से निपटने की देश की कोशिशों में ड्रग-रेजिस्टंट बीमारियों का उपचार करने के लिए स्थानीय स्तर पर विकसित की गई पहली एंटीबायोटिक नैफिथ्रोमाइसि काम में सकती है. नैफिथ्रोमाइसिन को बायोटेक्नोलॉजी इंडस्ट्री रिसर्च असिस्टेंस काउंसिल (BIRAC) के सहयोग से विकसित किया जा रहा है. इसे कम्युनिटी एक्वायर्ड बैक्टीरियल न्यूमोनिया (CABP) के कारक ड्रग-रेजिस्टंट बैक्टिरिया का उपचार करने के लिए विकसित किया जा रहा है.

एंटीमायक्रोबियल रेजिस्टंस उस वक़्त होता है जब बैक्टीरिया, वायरसेस, फंगी और पैरासाइट्‌स जैसे माइक्रोआर्गेनिज्म्स इवॉल्व यानी विकसित होकर इन्हें रोकने के लिए बनाई गई दवाइयों का ही प्रतिरोध करने लगते हैं. ये दवाईयां किसी वक़्त इन माइक्रोआर्गेनिज्म्स  के खिलाफ प्रभावी साबित हुआ करती थीं. एंटीबायोटिक्स का ओवरयूज यानी अत्यधिक सेवन, यह चाहे सेल्फ मेडिकेशन यानी दवाई स्वत: लेने की वजह से हो या फिर गलत मात्रा में दवाई लेने की वजह से हो, के कारण एक चुनिंदा दबाव पैदा होता है जो रेजिस्टंट बैक्टीरिया को फलने-फुलने और बढ़ने में सहायक साबित होता है. इस वजह से एंटीबायोटिक्स का प्रतिरोध करने वाले माइक्रोआर्गेनिज्म्स  की संख्या बढ़ जाती है.


एंटीमायक्रोबियल रेजिस्टंस (AMR) के कारण



संक्रामक बीमारियों को लेकर सामान्यत: जागरुकता की कमी और स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच होने की वजह से ही अक्सर नागरिक उपचार करवाने से कतराते हैं. इसके परिणाम स्वरुप ऐसे लोग पेशेवर रूप से अज्ञानी लोगों से ही एंटीमायक्रोबियल दवाईयां ले लेते हैं. ये दवाईयां देने वाले गैर-पेशेवर लोगों के पास इन दवाइयों के डोसेज यानी कितनी मात्रा में दवाई दी जानी है, का ज्ञान नहीं होता. इन लोगों को ही इस बात की जानकारी होती है कि यह दवाई कितने दिनों तक दी जानी चाहिए. इसके अलावा सामाजिक-आर्थिक कारक जैसे गरीबी, निरक्षरता, अत्याधिक आबादी और भूख़मरी के कारण मामला और गंभीर हो जाता है. केरल तथा तमिलनाडु जैसे विकसित राज्यों के मुकाबले बिहार तथा उड़ीसा जैसे राज्यों में गरीबी और निरक्षरता ज़्यादा पाई जाती है. ऐसे में इन राज्यों में सेल्फ-मेडिकेशन और अनुचित एंटीबायोटिक उपयोग की दर अधिक होती है. एंटीबायोटिक उपचार यदि पर्याप्त रूप से नहीं हुआ तो कुछ बैक्टीरिया इससे बचने में सफ़ल हो जाते है, जिसकी वजह से उन्हें स्थितियों से सामंजस्य बैठाने और कुछ मामलों में फलने-फुलने का अवसर मिल जाता है. ऐसे में अगर इन जर्म्स यानी रोगाणुओं में एंटीबायोटिक रेजिस्टंस विकसित हो गया तो भविष्य में होने वाले संक्रमण का उपचार और भी चुनौतीपूर्ण हो जाता है. अत: प्रतिरोध सार्वजनिक स्वास्थ्य के समक्ष एक कड़ी चुनौती बनकर खड़ा है. क्योंकि इसकी वजह से ऐसी बीमारियां विकसित हो सकती हैं जिनका उपचार करने के लिए केवल अधिक शक्तिशाली औषधियों की ज़रूरत होगी, बल्कि उपचार का तरीका भी बदलना होगा. ऐसे में स्वास्थ्य को लेकर एक गंभीर समस्या पैदा हो सकती है. 

 

अतिसंवेदनशील स्ट्रेंस की वजह से होने वाले इंफेक्शंस यानी संक्रमण के मुकाबले एंटीबायोटिक-रेसिस्टेंट बैक्टीरिया की वजह से होने वाले संक्रमण के दो या उससे अधिक गुणा विपरीत असर डालने का अनुमान है. यह विपरीत असर चिकित्सकीय अर्थात बीमारी का और गंभीर होना या आर्थिक यानी संसाधनों के अधिक उपयोग और स्वास्थ्य सेवा पर ज़्यादा ख़र्च के रूप में देखा जा सकता है. भारत में नियोप्लास्म यानी कोशिकाओं का असामान्य प्रसार, ट्ययूबरक्यूलोसिस यानी तपेदिक/टीबी और रेस्पिरेटोरी इंफेक्शंस यानी सांस लेने वाले संक्रमण, एंटरिक इंफेक्शंस, डायबिटीज (मधुमेह), किडनी (गुर्दे) संबंधी बीमारियां और माताओं तथा नवजातों को प्रभावित करने वाली बीमारियों के मुकाबले AMR की वजह से ज़्यादा मौतें होती हैं. एक अनुमान है कि 2050 तक एंटीमायक्रोबियल रेजिस्टंस के कारण अकेले भारत में 2 मिलियन मृत्यु होंगी. वर्तमान में 41 बिलियन अमेरिकी डॉलर की अनुमानित मूल्य वाला संपन्न भारतीय फार्मास्यूटिकल उद्योग यानी औषधि उद्योग एंटीबायोटिक रेजिस्टंस के मुद्दे पर अपने अहम योगदान के लिए पहचाना जाता है. एंटीबायोटिक उद्योग में प्रतिस्पर्धा संबंधी डायनैमिक्स की ओर भी ध्यान आकर्षित किया जाता है. कहा जाता है कि हाल ही में तैयार किए गए एंटीबायोटिक्स के अत्यधिक उपयोग को इसलिए बढ़ावा दिया जाता है क्योंकि उद्योग के समक्ष सेल्स यानी बिक्री का दबाव होता है. यूनाइटेड नेशंस जनरल असेंबली (UNGA) ने हाल ही में एक पहल HERA (हेल्थ इमरजेंसी प्रिपैरेडनेस एंड रिस्पॉंस अथॉरिटी) आरंभ की है. इसके तहत पीडियाट्रिक एंटी-ट्ययूबरक्यूलोसिस मेडिकेशंस यानी बाल चिकित्सा में उपयोगी तपेदिक रोकने वाली औषधि, मेटाजिनॉमिक डायग्नॉस्टिक्स तथा ट्ययूबरक्यूलोसिस (TB) वैक्सीन MTBVAC को बनाने के लिए EU4हेल्थ प्रोग्राम के तहत वित्त पोषण उपलब्ध करवाया जा रहा है. एंटीबायोटिक्स के बेपरवाह प्रोत्साहन को रोकना भी HERA का एक और उद्देश्य है. इसके बावजूद यह भी सुनिश्चित किया जाएगा कि नए एंटीबायोटिक्स के विकास को बढ़ावा देने के लिए वित्तपोषण की पद्धतियां जैसे राजस्व गारंटी व्यवस्था भी बरकरार रहे.

 

भारत में AMR 

अपनी सातवीं वार्षिक रिपोर्ट में इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च यानी भारतीय वैद्यकीय अनुसंधान परिषद (ICMR) की एंटीमायक्रोबियल रेजिस्टेंस सर्विलांस नेटवर्क (AMRSN) ने यह पाया था कि सांस की बीमारियों, न्यूमोनिया, सेप्सिस तथा डायरिया का उपचार करने के लिए इस्तेमाल की जा रही एंटीबामयोटिक की प्रभावकारिता में चिंताजनक कमी देखी जा रही है. 2023 में भारत के सार्वजनिक तथा निजी स्वास्थ्य सेवा सुविधाओं, जिसमें इंटेंसिव केयर यूनिट्‌स एवं आउटपेशेंट व्यवस्था शामिल हैं, से कुल 99,492 सैंपल्स की जांच की गई थी. इसमें बैक्टीरियल रेजिस्टेंस के लिए एशेरिकिया कोलाई (E. Coli), क्लैबसिएला यानी के. निमोनिया, स्यूडोमोनास एरुगिनोसा तथा स्टैफिलोकोकस ऑरियस के सैंपल की जांच की गई थी. जांच में पाया गया कि -कोली में एंटीबायोटिक्स को लेकर चिंताजनक रेजिस्टंस यानी प्रतिरोध देखा गया. -कोली जिन एंटबायोटिक्स का प्रतिरोध करते पाया गया उसमें सिप्रोफ्लोसेसिन, लिवोफ्लोसेसिन, सिफोटैक्साइम तथा सिफेटैजिडिमाइन का समावेश था. इन दवाइयों की -कोली के ख़िलाफ़ प्रभावकारिता में नियमित रूप से 20 प्रतिशत से नीचे जा रही थी.

 एंटीबायोटिक उपचार यदि पर्याप्त रूप से नहीं हुआ तो कुछ बैक्टीरिया इससे बचने में सफ़ल हो जाते है, जिसकी वजह से उन्हें स्थितियों से सामंजस्य बैठाने और कुछ मामलों में फलने-फुलने का अवसर मिल जाता है. ऐसे में अगर इन जर्म्स यानी रोगाणुओं में एंटीबायोटिक रेजिस्टंस विकसित हो गया तो भविष्य में होने वाले संक्रमण का उपचार और भी चुनौतीपूर्ण हो जाता है. 

अस्पताल तथा अन्य स्वास्थ्य सेवा संस्थान अच्छी-खासी मात्रा में एंटीमायक्रोबियल वेस्ट यानी कचरे का उत्पादन करते हैं. यह या तो सीधे-सीधे मरीज से होने वाले स्राव के कारण पैदा होता है या फिर अप्रत्यक्ष रूप से अनुपयोगी दवाइयों के निपटान की वजह से उत्पन्न होता है. इसी कचरे की वजह से ऐसा वातावरण तैयार होता है जहां बैक्टीरिया को एंटीबायोटिक के संपर्क में आने का मौका मिलता है. संभवत: इसी संपर्क के कारण आसपास के इलाके में रेजिस्टंट स्ट्रेंस को पैदा होने और फ़ैलने का मौका मिलता है. अध्ययन के अनुसार भारत के अस्पतालों के अपशिष्ट में बड़ी मात्रा में टिनिडाज़ोल, सल्फोनामाइड्स और फ़्लोरोक्विनोलोन पाया जाता है. इसकी वजह से भी जिनोटॉक्सिक चेंजेस यानी अनुवांशिक कोशिकाओं में परिवर्तन करते हुए प्रतिरोधी सूक्ष्मीजीव पैदा हो सकते हैं. दूषित जल के शुद्धिकरण से 80-85 फ़ीसदी एंटीमायक्रोबियल अवशेष को निकाला जा सकता है. लेकिन 45 फ़ीसदी से कम भारतीय स्वास्थ्य सेवा सुविधाओं में इसके लिए ज़रूरी व्यवस्था मौजूद है. इसी वजह से एंटीमायक्रोबियल कचरे के पर्यावरण तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर को लेकर चिंताएं व्यक्त की जा रही है.

 

भारत AMR को कैसे जवाब दे सकता है

 

दवाई उद्योग में भारत एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी है. दुनिया की 80-90 प्रतिशत एंटीबायोटिक्स यही उत्पादित होती है. ऐसे में भारत AMR नीतियों को प्रभावित करने की अनूठी स्थिति में है. भारत अपने यहां एक्टिव फार्मास्यूटिकल इंग्रेडियंट (API) क्षेत्र को विकसित कर सकता है. ऐसा करते हुए वह ऐसी सस्टेनेबल प्रैक्टिसेस यानी सतत/टिकाऊ प्रक्रियाओं को सुनिश्चित कर सकता है जो कड़े पर्यावरणीय कानून के साथ संतुलन साधने वाले होंगे. इन कड़े पर्यावरणीय कानूनों का उद्देश्य पर्यावरण का एंटीबायोटिक्स अपशिष्ट से बचाव करना है. इसका कारण यह है कि हैदराबाद के पाटनचेरु-बोल्लारम इंडस्ट्रियल एस्टेट जैसे औद्योगिक इलाकों से निकलने वाले दूषित जल में अजिथ्रोमाइसिन और सिप्रोफ्लोसेसिन जैसे एंटीबायोटिक्स ख़तरनाक मात्रा में मौजूद होते हैं. इसके अलावा आर्थिक प्रतिस्पर्धा से बचाना भी इसका एक उद्देश्य होता है

 

वन हेल्थदृष्टिकोण में लोगों के स्वास्थ्य, जानवरों, पेड़ों तथा पर्यावरण जैसे क्षेत्रों में काम करने वालों के बीच समन्वय स्थापित करने पर बल दिया गया है. मिट्टी, जल तथा वायुमंडल से गुजरने वाले रेजिस्टंट बैक्टीरिया के हानिकारक स्ट्रेंस मनुष्यों की आबादी में फ़ैलने के साथ ही जानवर तथा पेड़ों को भी प्रभावित कर सकते हैं. चूंकि घरेलू जानवर तथा वन्यजीव ही मानव में बीमारियां पैदा करने वाल 60 प्रतिशत वायरसेस के स्रोत होते हैं, अत: पर्यावरण और जानवरों की रक्षा करने से भी मानवीय स्वास्थ्य को सुरक्षित रखा जा सकता है.

 

इस नीति के तहत भारत ने अनेक पहलों को लागू किया है. इसमें AMR के लिए नेशनल एक्शन प्लान (NAP) का समावेश है. NAP विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की ओर से तय अंतरराष्ट्रीय गाइडलाइंस का अनुपालन करता है. ICMR तथा इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च भी एंटीमायक्रोबियल रेजिस्टंस इनिशिएटिव के तहत इंडिग्रेटेड वन हेल्थ सर्विलांस नेटवर्क के साथ जुड़े हुए हैं. इसका लक्ष्य इंडियन वेटरनरी लैब्स को इंटीग्रेटेड AMR सर्विलांस के लिए तैयार करना है.

 

एंटीबायोटिक दवाइयों के सर्वोत्तम उपयोग के लिए आवश्यक उपाय, मात्रा पर निगरानी, दवाई का चयन, लेने की विधि तथा लेने की अवधि, एंटीमायक्रोबिजल स्टीवार्डशिप में विस्तार से बताए गए है. फुड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (FDA) यानी खाद्य एवं औषधि प्रशासन एवं WHO समर्थित स्टीवार्डशिप इनिशिएटिव्स को भारत में व्यापक रूप से लागू करना और सरकारी समर्थन मुहैया करवाना आवश्यक है. फिजिशियंस, माइक्रोबायोलॉजिस्ट्‌स, फार्माकोलॉजिस्टस्‌, नर्सेस और केमिस्ट्‌स सभी को वैद्यकीय शिक्षा के तहत आवश्यक पाठ्यक्रम के रूप में एंटीमायक्रोबियल स्टीवार्डशिप प्रोग्राम्स (AMSP) लेना अनिवार्य किया जाना चाहिए

 

एंटीमायक्रोबियल रेजिस्टंस (AMR) का मुकाबला करने के लिए स्वास्थ्य सेवा संबंधी बुनियादी सुविधाओं और डायग्नोस्टिक्स में निवेश बढ़ाना आवश्यक है. इसके साथ ही एंटीबायोटिक्स के उपयोग और उसके निपटान को लेकर कड़े नियम बनाना तथा एंटीबायोटिक के सही उपयोग को लेकर जनजागृति करने जैसे मुद्दे AMR से निपटने के लिए तैयार किए जाने वाली विस्तृत योजना में शामिल होने चाहिए. ग्रामीण इलाकों में अच्छी गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच, फार्मास्यूटिकल प्रदूषण कम करने वाले शहर केंद्रित इनिशिएटिव्स और बेहतर AMR सर्विलांस भी काफ़ी अहम है. इसके अलावा पब्लिक-प्राइवेट सहयोग, वैश्विक स्तर पर सर्वोत्तम प्रथाओं का आदान-प्रदान करने के लिए समन्वय और सहयोग कोशिशें भी ज़रूरी है. इसके साथ ही नई एंटीबायोटिक्स तथा अल्टरनेटिव थेरेपी यानी पर्यायी पद्धतियों पर हो रहे अनुसंधान को भी बढ़ावा और समर्थन दिया जाना चाहिए.

 

शहरी टर्शियरी केयर सुविधाओं यानी तृतीयक स्वास्थ्य केंद्रों में AMSPs ज़्यादा प्रचलित हैं, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में इनका उपयोग अब भी नहीं किया जाता. सार्वजनिक स्वास्थ्य पर AMR के असर को चिंताजनक मानते हुए भारत सरकार ने इसका मुकाबला करने के लिए अनेक पहल की हैं. एक अध्ययन के अनुसार भारत के पश्चिम बंगाल राज्य के कम-श्रेणी वाले अस्पतालों में एंटीबायोटिक दवाईयां लिखने की दर ऊंची (प्रायमरी अस्पताल में APR: 63.8 प्रतिशत तथा सेकंडरी अस्पताल में 60.8 प्रतिशत) और मल्टीपल यानी बहुभागी (सेकंडरी अस्पताल में MPR: 23.8 प्रतिशत) देखी गई. इसी प्रकार यह देखा गया कि एंटीमायक्रोबियल स्टीवार्डशिप प्रोग्राम पर अमल केवल संक्रमण नियंत्रण उपायों जैसे कमेटियों एवं ऑडिट के माध्यम से ही लागू किए गए थे. इन अस्पतालों में भारत की दो-तिहाई आबादी आती है. लेकिन इनका संक्रमण नियंत्रण और AMR रोकथाम प्रयास एक-दूसरे से जुड़े ही नहीं थे. इस तरह के उदाहरणों के कारण भी विशेषज्ञ AMSPs ज़रूरी हो जाता है.

 भारत अपने यहां एक्टिव फार्मास्यूटिकल इंग्रेडियंट (API) क्षेत्र को विकसित कर सकता है. ऐसा करते हुए वह ऐसी सस्टेनेबल प्रैक्टिसेस यानी सतत/टिकाऊ प्रक्रियाओं को सुनिश्चित कर सकता है जो कड़े पर्यावरणीय कानून के साथ संतुलन साधने वाले होंगे. 

इस वक़्त भारत में स्टीवार्डशिप प्रोग्राम्स की प्रभावकारिता का पता लगाने और एंटीबायोटिक्स के उपयोग की जांच करने के लिए बेहद कम अध्ययन हो रहा है. चूंकि ICMR विनियमन देश के सभी क्षेत्रों पर लागू नहीं होता, अत: भारत में मौजूदा ASP ऑपरेशंस से साफ़ हो जाता है कि अभी स्थिति में सुधार के लिए काफ़ी कुछ किया जाना बाकी है.

 

निष्कर्ष 

AMR का मुकाबला करना एक जटिल चुनौती है. इसके लिए विस्तृत तथा बहु-क्षेत्रीय रणनीति की आवश्यकता है. इस रणनीति के तहत जनजागृति अभियान चलाने, ओवर--काउंटर मेडिकेशंस की बिक्री को विनियमित करने के लिए कानूनी ढांचे को कड़ा करने और एंटीबायोटिक स्टीवार्डशिप प्रोग्राम को विस्तारित करना, विशेषत: उपेक्षित एवं ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा व्यवस्थाओं तक, शामिल है. AMR के लिएवन हेल्थमॉडल एवं नेशनल एक्शन प्लान जैसे कार्यक्रमों ने इसकी बुनियाद रख दी है, लेकिन अब इस पर अमल तथा प्रवर्तन संबंधी कमियों को दूर करने के लिए काफ़ी काम किया जाना बाकी है. AMR समस्या से निपटने के लिए भारत पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप को बढ़ावा देने के साथ नई चिकित्सा पद्धतियों को विकसित करने के लिए वित्तपोषण मुहैया करवाते हुए अपना योगदान दे सकता है. इसके साथ ही वह सस्टेनेबल फार्मास्यूटिकल प्रैक्टिसेस भी सुनिश्चित कर सकता है. सार्वजनिक स्वास्थ्य की सुरक्षा एवं एंटीबायोटिक्स की प्रभावकारिता को दीर्घावधि तक टिकाए रखने के लिए एक विस्तृत, बेहतर-समन्वित प्रयास आवश्यक है. इस प्रयास में मजबूत प्रशासन और विभिन्न क्षेत्रों के बीच सहयोग अहम भूमिका अदा करेगा.


माधवी झा, ऑर्ब्जवर रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च इंटर्न हैं.

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