Author : Kabir Taneja

Expert Speak Raisina Debates
Published on Jul 09, 2024 Updated 2 Days ago

पेज़ेश्कियान की जीत, अयातुल्लाह और इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कोर (IRGC) दोनों के लिए कड़वी दवा सरीखी है. लेकिन, मध्य पूर्व और पूरे इस्लामिक विश्व में चुनाव की कामयाबी दिखाना भी ईरान के इस्लामिक गणराज्य के लिए काफ़ी अहम है.

ईरान: एक संकोची ‘सुधारवादी’जो अब होगा केंद्रीय भूमिका में मुख्य मंच पर!

ईरान में राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी की एक हेलीकॉप्टर दुर्घटना में असामयिक मौत के बाद अचानक जो चुनाव कराने पड़े थे, उसका बड़ा चौंकाने वाला नतीजा निकला है. चुनाव के दूसरे दौर के बाद, कट्टरपंथी प्रत्याशी सईद जलीली को शिकस्त देकर सुधार समर्थक उम्मीदवार मसूद पेज़ेश्कियान ने जीत हासिल की है. 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद से इस बार का चुनाव सबसे कम मतदान वाले चुनावों में से एक था.

 मसूद पेज़ेश्कियान पेशे से डॉक्टर हैं. उन्होंने ऐसे वक़्त में राष्ट्रपति का पद संभाला है, जब ईरान को घरेलू और बाहरी दोनों मोर्चों पर टकराव के कई बिंदुओं से एक साथ निपटना है.

मसूद पेज़ेश्कियान पेशे से डॉक्टर हैं. उन्होंने ऐसे वक़्त में राष्ट्रपति का पद संभाला है, जब ईरान को घरेलू और बाहरी दोनों मोर्चों पर टकराव के कई बिंदुओं से एक साथ निपटना है. चुनाव के नतीजों के एलान के बाद तेहरान के दक्षिण में इमाम ख़ोमैनी के मक़बरे पर हुए एक समारोह में मसूद पेज़ेश्कियान ने कहा कि, ‘हमारे सामने एक बड़ा इम्तिहान है. मैं उन सबकी बातें सुनने का वादा करता हूं, जिनको अब तक नहीं सुना गया है. मैं हुकूमत की सभी शाखाओं को एकजुट करने की कोशिश करूंगा.’

 

राष्ट्रपति के साथ कौन कौन है?

 

ईरान में राजनीति बहुस्तरीय और बहुआयामी है. 1979 की इस्लामिक क्रांति, जिसमें पश्चिम समर्थिक पहलवी राजवंश का तख़्तापलट किया गया था, उसके बाद से ही देश के लिए सर्वोच्च नेता (अयातुल्लाह) अली ख़मेनेई और सबसे ताक़तवर इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कोर (IRGC) ही सत्ता के प्रमुख केंद्र रहे हैं. IRGC एक बुनियादी सैन्य संगठन है, जो सीधे अयातुल्लाह को रिपोर्ट करता है. हालांकि, इस्लाम के शिया फ़िरक़े का गढ़ कहे जाने वाले ईरान ने पिछले कई दशकों से एक ऐसी चुनावी प्रक्रिया को बनाए रखा है, जिसके ज़रिए दुनिया को दिखाया जाता है कि ईरान के नागरिक अपनी हुकूमत ख़ुद चुनते हैं. इसके साथ साथ ईरान अपनी राजनीतिक व्यवस्था का प्रचार एक ऐसे सियासी ढांचे के तौर पर करता है, जो उसके पड़ोस के अरब देशों की राजशाही के उलट कहीं ज़्यादा समावेशी है.

 

ऐसे में मसूद पेज़ेश्कियान की जीत शायद अयातुल्लाह और IRGC दोनों के लिए दवा की एक कड़वी ख़ुराक़ जैसी है. इन चुनावों में जिन छह उम्मीदवारों को जांच परखकर चुनाव में उतरने की इजाज़त दी गई थी, उसमें से अकेले पेज़ेश्कियान ही सुधारवादी नेता थे. उनके प्रचार अभियान के दौरान दुनिया को ईरान के अधिक समावेशी नज़रिए पर काफ़ी ज़ोर दिया गया था. इसमें पश्चिमी देशों के साथ अच्छे संबंध स्थापित करना भी शामिल था और शायद इससे भी अहम बात ये कि पेज़ेश्कियान के प्रचार अभियान के दौरान ज़्यादा विवादित घरेलू मसलों जैसे कि महिलाओं के अधिकार और देश की नैतिकता लागू करने वाले पुलिस बल द्वारा हिजाब पहनने का फरमान लागू करने के मामले में नरम रुख़ अपनाने के संकेत दिए गए थे. पेज़ेश्कियान के लिए ईरान की चुनावी प्रक्रिया कोई नई नहीं है. इससे पहले वो 2013 और 2021 में भी राष्ट्रपति पद के लिए अपनी क़िस्मत आज़मा चुके हैं. इस बार ऐसा लगता है कि उनको ईरान की युवा आबादी ने कहीं ज़्यादा खुलकर समर्थन दिया. 

 ईरान के नागरिकों की औसत उम्र 32 वर्ष ही है. यानी वो युवा आबादी वाला देश है. जबकि बरसों से अमेरिका द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों और विश्व बाज़ार से अलग थलग रहने की वजह से ईरान की आर्थिक विकास की रफ़्तार सुस्त पड़ी हुई है. 

ईरान के नागरिकों की औसत उम्र 32 वर्ष ही है. यानी वो युवा आबादी वाला देश है. जबकि बरसों से अमेरिका द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों और विश्व बाज़ार से अलग थलग रहने की वजह से ईरान की आर्थिक विकास की रफ़्तार सुस्त पड़ी हुई है. ऐसे में पेज़ेश्कियान की जीत उल्लेखनीय है, क्योंकि उन्होंने कट्टरपंथियों के पसंदीदा प्रत्याशियों को शिकस्त दी है. पेज़ेश्कियान ने पहले मुख्य चुनाव के दौरान मुहन्मद बाबर क़लीबाफ़ को हराया, जिन्हें IRGC का समर्थन हासिल था, और उसके बाद दूसरे दौर के चुनाव में क़लीबाफ़ के विकल्प के तौर पर उतारे गए सईद जलीली को भी शिकस्त दे दी.

 

यहां ये बात याद रखने लायक़ है कि तमाम मौजूदा परिचर्चाओं के बावजूद, ख़ुद पेज़ेश्कियान की जीत भी कोई बड़ा क्रांतिकारी बदलाव नहीं है और न ही वो व्यवस्था में उथल-पुथल पैदा करने वाले हैं. ईरान का सत्ता तंत्र उनसे बख़ूबी वाक़िफ़ है, क्योंकि इस तंत्र की मंज़ूरी के बग़ैर उनकी उम्मीदवारी को हरी झंडी नहीं दी जा सकती थी.

 

ईरान की विदेश नीति में बदलाव की उम्मीद कम है

 

मजबूरी में आई ईरान की सत्ता में ये तब्दीली, बेहद नाज़ुक दौर में हुई है. दुश्मन को भयभीत रखने की कोशिश में ईरान ने जिस ‘आक्रामक रक्षा’ की नीति पर चलना शुरू किया था, उसकी वजह से सीरिया और इराक़ जैसे देशों में वो सीधे तौर पर युद्ध में शामिल हो गया है. इसके अलावा वो ग़ज़ा पट्टी में हमास को, लेबनान में हिज़्बुल्लाह को, यमन में हूतियों को समर्थन दे रहा है, ताकि इज़राइल और अमेरिका के हितों को एक साथ चुनौती दे सके. 2008 में एक तक़रीर में ख़मेनेई ने कहा था कि, ‘मुस्लिम देश इस्लामिक गणराज्य के लिए सामरिक गहराई हैं.’ कई मायनों में इस काफ़ी पुरानी रणनीति को IRGC के नेता और क़ुद्स फ़ोर्स (IRGC की विदेशी अभियान चलाने वाली शाखा) के मुखिया क़ासिम सुलेमानी की अगुवाई में बड़ी आक्रामकता से लागू किया गया था. सुलेमानी जनवरी 2020 में अमेरिका के एक ड्रोन हमले में मारे गए थे.

 ईरान की विदेश नीति के मुख्य पहलू पर अयातुल्लाह और अब शायद IRGC का भी नियंत्रण बढ़ता जा रहा है. पेज़ेश्कियान के राज में भी इसमें कोई तब्दीली आने की उम्मीद कम ही है.

अपने पूर्ववर्ती इब्राहिम रईसी की तरह पेज़ेश्कियान को भी विदेश नीति के मामले में कोई ख़ास तजुर्बा नहीं है. जब बात विदेश नीति और सुरक्षा संबंधी मामलों की आती है, तो ईरान के राष्ट्रपति के तौर तरीक़ों और सीमाओं को आम तौर पर स्पष्ट रूप से परिभाषित कर दिया गया है. प्रशासन, क्षमता निर्माण, सेवाओं को जनता तक पहुंचाने, शिक्षा, स्वास्थ्य और वैचारिक सर्वोच्चता बरक़रार रखने से जुड़े घरेलू मामलों को सबसे अधिक प्राथमिकता दी जाती है. आम तौर पर ईरान के राष्ट्रपति घरेलू मामलों पर ज़्यादा ध्यान देते हैं. इसका एक अपवाद पूर्व राष्ट्रपति हसन रूहानी के दौर में देखने को मिला था, जब उन्होंने बहादुरी दिखाते हुए अपने देश के परमाणु कार्यक्रम को लेकर सुरक्षा परिषद के 5 स्थायी सदस्यों और यूरोपीय संघ (P5+1) के साथ समझौता मज़बूत करके करके ईरान को विश्व की मुख्य धारा में लाने की कोशिश की थी. इस समझौते को ज्वाइंट कॉम्प्रिहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन (JCPOA) का नाम दिया गया था. इस पर 2015 में हस्ताक्षर किए गए थे. लेकिन, 2018 में ट्रंप प्रशासन के दौर में अमेरिका ने इस समझौते से अपना हाथ खींच लिया था. अमेरिका के इस क़दम ने ईरान के कट्टरपंथियों का हौसला बढ़ा दिया था और नरमपंथी और सुधारवादियों को हाशिए पर धकेल दिया गया था. इस संदर्भ में देखें, तो पेज़ेश्कियान की जीत उल्लेखनीय है.

 

हालांकि, ईरान की विदेश नीति के मुख्य पहलू पर अयातुल्लाह और अब शायद IRGC का भी नियंत्रण बढ़ता जा रहा है. पेज़ेश्कियान के राज में भी इसमें कोई तब्दीली आने की उम्मीद कम ही है. इसमें ग़ज़ा पट्टी, आक्रामक रक्षा पंक्ति और चीन एवं रूस के साथ गठबंधनों का निर्माण भी शामिल है. इन मामलों में नए राष्ट्रपति का दखल बहुत कम होगा. इसके पीछे दो कारण हैं: ज़ाहिर है कि पहला कारण राजनीतिक है, जिसका आधार 1979 में हुई क्रांति के बाद सत्ता का केंद्रीयकरण होता आया है. दूसरा अधिक सामरिक है और इसकी जड़ें 1980 से लेकर 1988 तक चले ईरान इराक़ युद्ध तक जाती हैं. वैसे तो ये जंग अब इतिहास की किताबों तक समेट दी गई है. लेकिन, युद्ध के दौरान जब ईरान पश्चिमी देशों के हथियारों से जंग लड़ रहा था और उसको उन हथियारों के कल पुर्ज़े, गोला बारूद और मरम्मत की सुविधाएं भी नहीं मिल रही थीं, तो ईरान की कमज़ोरियां उजागर हो गई थीं और उनका ईरान की सामरिक सोच पर गहरा असर पड़ा था. कई मिसालों से ये बात आज भी रेखांकित होती है. जैसे कि ईरान की वायुसेना आज भी अमेरिका में बने F-14 लड़ाकू विमान उड़ा रही है.

 

इराक़ के साथ युद्ध से ईरान को जो सबक़ मिले थे, उन्हें आज भी लागू किया जाता है. इसकी वजह से आज का ईरान मौजूदा विश्व व्यवस्था की मुख्यधारा का सदस्य बनने के बजाय, ‘अस्तित्व बचाने की जद्दोजहद वाला देश’ बन गया है. आज बड़ी ताक़तों के बीच प्रतिद्वंदिता के नए दौर में चीन और रूस के साथ ईरान के रिश्तों की चर्चा तो बहुत होती है. लेकिन ईरान इन देशों के साथ अपने रिश्तों को भी अपने सामरिक हितों को ध्यान में रखकर ही चलाता है. उसकी सोच यही है कि अपना सब कुछ किसी एक देश पर ही दांव पर नहीं लगाना है. भले ही वो देश कोई भी क्यों न हो. इस बात को इस तरह समझें कि विद्वान युन सुन ने हाल ही में तर्क दिया था कि ‘चीन, ईरान में किसी ऐसे नेता की जीत को ही तरज़ीह देगा जो इस क्षेत्र में ईरान और चीन के साथ तालमेल से उसके पश्चिम विरोधी एजेंडे का पर्याप्त रूप से समर्थन कर रहा हो. चीन, ईरान के चुनाव में किसी ऐसे नेता की जीत के पक्ष में नहीं होगा, जो ईरान को एटमी जंग की तरफ़ धकेल दे और पूरे क्षेत्र को इज़राइल व अमेरिका के साथ जंग में झोंक दे.’

 अब पेज़ेश्कियान घरेलू सामाजिक और सांस्कृतिक नीतियों के मामलों में सरकार का रुख़ अधिक स्वीकार्य और ‘नरमपंथी’ झुकाव वाला बना पाते हैं या नहीं, ये सत्ता संभालने के साथ ही उनका पहला और मुख्य इम्तिहान होगा.

इस बीच, पेज़ेश्कियान के शासन काल में भारत के साथ भी ईरान के संबंध सामान्य रहने की उम्मीद है और इसमें किसी ख़ास परिवर्तन की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए. कट्टरपंथी हो या फिर सुधारवादी, ईरान के किसी भी अन्य नेता की तरह पेज़ेश्कियान भी भारत के साथ संबंध सुधारकर अर्थव्यवस्था, सुरक्षा औऱ क्षेत्रीय भू-राजनीति में साझा हितों को आगे बढ़ाने की कोशिश जारी रखेंगे.

 

निष्कर्ष

 

समर्थकों का एक छोटा सा तबक़ा भी है, जिसने पेज़ेश्कियान को राष्ट्रपति पद तक पहुंचाने में अहम भूमिका अदा की है. कट्टपंथियों से घिरे होने के बावजूद, इस वर्ग की भूमिका काफ़ी अहम होगी. सर्वोच्च नेता ख़मेनेई और रिवोल्यूशनरी गार्ड कोर के लिए भले ही ये नतीजे उम्मीद के मुताबिक़ न रहे हों. लेकिन, इस क्षेत्र ही नहीं तमाम इस्लामिक देशों के बीच अपनी हैसियत बनाए रखने के लिहाज़ से ईरान के इस्लामिक गणराज्य के लिए इन चुनावों की कामयाबी दिखाना भी उतना ही महत्वपूर्ण है. अब पेज़ेश्कियान घरेलू सामाजिक और सांस्कृतिक नीतियों के मामलों में सरकार का रुख़ अधिक स्वीकार्य और ‘नरमपंथी’ झुकाव वाला बना पाते हैं या नहीं, ये सत्ता संभालने के साथ ही उनका पहला और मुख्य इम्तिहान होगा. इस दौरान, ईरान की विदेश नीति की दशा-दिशा पहले जैसी रहने की संभावना अधिक है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.