Author : J. M. Mauskar

Published on Jul 01, 2017 Updated 0 Hours ago

पेरिस समझौता मौलिक रूप से इस हद तक अलग है कि इसमें किसी पक्ष द्वारा व्यक्त की गई प्रतिबद्धता बुनियादी तौर पर उसकी प्रक्रिया से संबंधित है।

पेरिस समझौते से अमेरिका का हटना: खींच-तान से अडिग रहे भारत

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा व्हाइट हाउस के रोज़ गार्डन से जून की पहली तारीख को पेरिस समझौते से अपने देश के हटने की घोषणा किए जाने के बाद से ही मीडिया में इससे जुड़े लेखों, ब्लॅाग्स और टिप्पणियों की बाढ़ सी आ गई है। विश्व भर के नेताओं की शुरूआती प्रतिक्रिया में एक समान विचार यह रहा कि उन्होंने पेरिस समझौते के लक्ष्यों और उद़देश्यों के लिए प्रतिबद्धता व्यक्त की, जो भारत जैसे देशों के लिए वास्तव में स्वागत योग्य है, जिन्होंने फ्रांस के राष्ट्रपति की ओर से प्रस्तुत पेरिस समझौते के मसौदे पर सर्वसम्मति बनाने की दृष्टि से दिसम्बर 2015 में पेरिस में उल्लेखनीय लचीलेपन का प्रदर्शन किया था। ट्रम्प की घोषणा से उठा गुबार अब कुछ हद तक शांत हो चुका है, ऐसे में हमें निष्पक्ष और तर्कसंगत रूप से हालात का आकलन करना चाहिए और इस बारे में विचार विमर्श करना चाहिए कि अब हमें क्या करना होगा । साथ ही हमें किसी सम्प्रभु देश के सम्प्रभु फैसले से सहमत न होने के बावजूद, उसका सम्मान भी करना चाहिए।

अब तक 195 देशों ने पेरिस समझौते पर ‘हस्ताक्षर’ किए हैं। इनमें से 148 देशों ने इसे ‘अनुमोदित/स्वीकृत/मंजूर’ किया है। हालांकि यूरोपीय संघ के चेक गणराज्य और नीदरलैंड जैसे देशों और अंगोला, कोलम्बिया, मिस्र, ईरान, इराक, कतर और तंजानिया जैसे अन्य देशों ने अब तक इसका अनुमोदन ​नहीं किया है। कोई भी समझौता अनुमोदन आदि के बाद ही उस देश में लागू हो सकता है।

अमेरिकी अपवाद और पेरिस समझौता

आज के गति​रोध का कारण अमेरिकी अनुमोदन से जुड़ी संवेदनशीलता और 2020 के बाद क्योतो संधि के उत्तराधिकारी (अमेरिका और चीन/भारत को बांधने के लिए) के रूप में कानूनन बाध्यकारी संधि के लिए यूरोपीय संघ तथा अन्य देशों के अनुरोध से संबंधी वैश्विक चिंताएं हो सकती हैं। जहां हर कोई इसका दोष राष्ट्रपति ट्रम्प पर मढ़ रहा है, वहीं तथ्यात्मक दृष्टि से देखा जाए तो 2014 के लीमा कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज़ (सीओपी) से पहले ही अमेरिकी रिपब्लिकन लगातार नए जलवायु परिवर्तन (सीसी) समझौते के बारे में (खास तौर पर सीनेट को शामिल किए बिना इसके अनुमोदन) गंभीर चिंताओं और सीमाओं की हिमायत कर रहे थे। पेरिस सीओपी से ऐन पहले, अमेरिकी सीनेटरों और कांग्रेस के सदस्यों द्वारा इस बारे में खुले पत्र लिखे गए। पेरिस समझौते का मामला 2016 के चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र में भी उठाया गया। इसलिए, जैसे ही 15 दिसम्बर, 2015 को पेरिस समझौते को अंतिम रूप दिया गया, जिस तरह राष्ट्रपति ओबामा ने सीनेट की भूमिका के बिना इसे ‘विशेष’ मंजूरी दी थी, तभी से उनके उत्तराधिकारी का राजनीतिक और तर्कसंगत रूप से इस फैसले से हटना तय ​हो गया था। ‘जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेशन’ (यूएनएफसीसीसी) को सीनेट की ‘सलाह और मंजूरी’ के बाद अनुमोदित किए जाने पर गौर किया जाए, ऐेसे में पेरिस समझौते के प्रति के अमेरिका का ‘समपर्ण’ काफी अलग है।

पेरिस समझौते जैसे अनुमोदित समझौतों से बाहर जाने या फिर अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय संबंधी संधि से आंशिक रूप से बाहर जाने के अलावा, अमेरिका संधियों के कानून संबंधी विएना कन्वेशन, 1969 या संयुक्त राष्ट्र की समुद्री कानून संधि,1994 जैसी कई प्रमुख संधियों के बारे ​में विचार विमर्श करने और उन पर हस्ताक्षर करने , लेकिन बाद में उनका अनुमोदन न करने के लिए अपवाद रहा है।

अमेरिका द्वारा यूएनएफसीसीसी के अंतर्गत क्योतो संधि पर उपराष्ट्रपति अल गोर के हस्ताक्षर करने के बावजूद उसका अनुमोदन नहीं किया जाना, अमेरिकी अपवाद का एक अन्य उदाहरण है। इस संदर्भ में, बिल्कुल ताजा उदाहरण राष्ट्रपति ट्रम्प द्वारा पेरिस समझौते से हटने के इरादे की घोषणा है, लेकिन जब तक बाहर जाने की औपचारिक प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती, अमेरिका पेरिस समझौते का सदस्य बना रहेगा।

पेरिस समझौते के अंतर्गत अमेरिका की प्रतिबद्धताएं

कहा जा रहा है कि राष्ट्रपति ट्रम्प की घोषणा के बाद, अमेरिका पेरिस समझौते के तहत मंजूर की गई प्रतिबद्धताओं के लिए बाध्य नहीं रहेगा, चाहे वे प्रतिबद्धताएं अपने क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के लिए शमनकारी कार्यों या अनुकूलन कार्यों से संबंधित हों या विकासशील देशों के लिए वित्त और प्रौद्योगिकी के प्रावधान से संबंधित हों। लेकिन वास्तविकता यह है कि 2015 के मध्य में प्रस्तुत किया गया अमेरिका के नैशनली डिटर्मिन्ड कांट्रिब्यूशन (प्रतिबद्धता रहित) में किसी तरह के अनुकूलन कार्यों या अन्य देशों को वित्त और प्रौद्योगिकी के प्रावधान के बारे में कुछ नहीं कहा गया है। इतना ही नहीं, क्योतो संधि की तुलना में, पेरिस समझौता मौलिक रूप से इस हद तक अलग है कि समझौते में किसी देश द्वारा व्यक्त की गई प्रतिबद्धता खासतौर पर उसकी प्रक्रिया;नैशनली डिटर्मिन्ड कांट्रिब्यूशन (एनडीसी) को प्रस्तुत करने और उसे सामयिक बनाने,कार्यान्वयन की दिशा में हुई प्रगति के बारे में सूचना देने आदि से संबंधित है न कि एनडीसी लक्ष्य हासिल करने या किसी खास राशि के वित्त आदि जैसे परिणाम प्राप्त करने के लिए।दूसरी ओर, क्योतो संधि के तहत, विकसित देशों ने विशिष्ट समय सीमा के भीतर ग्रीन हाउस गैस (उत्सर्जन) में कमी लाने की प्रतिबद्धता व्यक्त की थी। अंत में, पेरिस समझौते के तहत किसी भी तरह का कार्यान्वयन मुख्य रूप से यूरोपीय संघ के लिए केवल क्योतो संधि की दूसरी प्रतिबद्धता अवधि के समाप्त होने और अमेरिका, भारत और चीन सहित अन्य देशों के लिए कोपेनहेगन संकल्प के बाद ही शुरू होगा, जैसा कि 2010 के कानकुन जलवायु सम्मेलन में स्वीकार किया गया था, दोनों ही 2013-2020 तक की अवधि को कवर करते हैं।

अन्य बातों के साथ-साथ, इस दूसरी प्रतिबद्धता अवधि के लिए दिसम्बर, 2011 में डरबन सम्मेलन में विकासशील देशों द्वारा दिसम्बर, 2015 तक 2020 के बाद के नए समझौते के बारे में बातचीत की प्रक्रिया की शुरूआत कर कीमत चुकायी गई । जहां एक ओर विकासशील और विकसित दोनों तरह के देशों सहित विभिन्न देशों द्वारा शमनकारी प्रदर्शन कमोबेश संतोषजनक (अमेरिका, यूरोपीय संघ तथा भारत सही रास्ते पर हैं)रहा है, वहीं दूसरी ओर, चाहे अमेरिका हो कोई अन्य देश,यही बात विकासशील देशों के लिए वित्तीय और प्रौद्योगिकी के प्रावधान के बारे में नहीं कही जा सकती।विशेष तौर पर, हरित जलवायु कोष (जीसीएफ) 2009 के कोपेनहेगन जलवायु सम्मेलन का परिणाम था, जो पेरिस समझौते से काफी पहले की बात है और उसकी शुरूआत अब तक नहीं हो सकी है। जीसीएफ के कोष में 10 बिलियन डॉलर से भी कम हैं,जबकि कोपेनहेगन में किए गए वादे के अनुसार विशेषकर जीसीएफ सहित विभिन्न स्रोतों से इसमें 100 सालाना डॉल्रर की रकम आनी चाहिए।गौरतलब है कि जीसीएफ के संबंध में अन्य ऐनेक्स आई देशों का योगदान अमेरिका से बेहतर नहीं है।

अमेरिका का हटना

जहां तक राष्ट्रपति ट्रम्प की घोषणा के बाद से जलवायु संबंधी विचार विमर्श में अमेरिका के भाग न लेने का अनुमानों का प्रश्न है, पेरिस समझौते के अनुच्छेद 28 विशेषकर 28.1 और 28.2 में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि कोई भी पक्ष (देश) समझौता लागू होने के तीन वर्ष बाद, 4 नवम्बर, 2019 से पहले इससे हटने की अधिसूचना नहीं दे सकता। उसके बाद किसी देश की इस समझौते से हटने की न्यूनतम अवधि 12 महीने है, जो 5 नवम्बर, 2020 से पहले मुमकिन नहीं है। इसका मतलब है कि 5 नवम्बर, 2020 तक अमेरिका पेरिस समझौता पूरी तरह सदस्य बना रहेगा और इस समझौते में संशोधन के प्रस्ताव प्रस्तुत करने सहित इसके विभिन्न नियमों और व्यवस्थाओं से संबंधित विचार-विमर्श में भाग ले सकेगा। इतना ही नहीं, अनुच्छे 16 में पहले से किए गए प्रावधान के अनुसार पेरिस समझौते के मूल यूएनएफसीसीसी के एक पक्ष के रूप में अमेरिका समझौते से संबंधित विचार-विमर्श में भाग ले सकता है। उपरोक्त घटनाक्रमों का आकलन अगले राष्ट्रपति चुनाव के लिए होने वाले मतदान के संदर्भ में भी किया जा सकता है, जो संवैधानिक तौर पर नवम्बर के पहले मंगलवार को कराए जाते हैं, जो 2 नवम्बर, 2020 को होगा। यह भी देखा जा सकता है कि समझौते से हटने के लिए नोटिस शायद इस तारीख से बहुत पहले, उदाहरण के तौर पर, नवम्बर 2019 को ही भेज दिया जाए और वर्तमान राष्ट्रपति इसके बाद भी, जनवरी, 2021 तक सत्ता में बने रहें। सैद्धांतिक रूप से, बेशक नया राष्ट्रपति 2021 में फिर से पेरिस समझौते में शामिल हो सकता है, लेकिन आज इस बारे में बात करना जल्दबाजी होगी। ऐसा इसलिए, क्योंकि अमेरिका वर्तमान में ट्रम्प की घोषणा के फॉलो अप के रूप में और प्रमुख देश होने के नाते संयुक्त राष्ट्र में कथित औपचारिक कार्यवाही कर रहा होगा और केवल कार्यवाही का कंटेंट ही हमें बता सकता है कि अमेरिका वास्तव में बाहर जाने की प्रक्रिया को कैसे करना चाहता है।

विकल्प , जो ट्रम्प ने नहीं अपनाए

राष्ट्रपति ट्रम्प ने जो कदम उठाया, उसके विकल्प के तौर पर वह वर्तमान जलवायु परिवर्तन (सीसी)संधि, यूएनएफसीसीसी को छोड़ सकते थे, जिससे हटना संयुक्त राष्ट्र संधि रजिस्ट्री/यूएनएफसीसीसी को अमेरिकी अधिसूचना की तारीख से महज एक साल बाद प्रभावी होता। नतीजतन, अनुच्छेद 28.3 की शर्तों के अनुसार अमेरिका 2018 के भीतर ही पेरिस समझौते से ही बाहर हो गया होता। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, जिसके अपने सकारात्मक प्रभाव हैं, जो उनकी घोषणा के कारण उठे भावनाओं के ज्वार के कारण फिलहाल दिखाई नहीं दे रहे हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिका अब तक यूएनएफसीसीसी के सभी सिद्धांतों और प्रावधानों के लिए बाध्य है। ऐसा भी लग रहा है कि अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने 19वीं सदी से यह राय व्यक्त कर रखी है कि अमेरिका में घरेलू नीतियों और नियमों को संवैधानिक तौर पर अनुमोदित किसी भी अंतर्राष्ट्रीय संधि के साथ तालमेल बिठाना होगा, जिसके लिए यूएनएफसीसीसी के अनुमोदन की सिफारिश अमेरीकी सीनेट की ओर से प्रमुखता से की गई है

राष्ट्रपति ट्रम्प ने पेरिस समझौते को ‘सलाह और मंजूरी’ के लिए विलम्ब से अमेरिकी सीनेट के ​पास भेजने का एक अन्य विकल्प नहीं अपनाया।

लीमा/पेरिस सीओपी से पहले, अन्य बातों के अलावा रिपब्लिकन का यह कहना था कि क्योंकि सीसी समझौते में वित्तीय प्रतिबद्धताएं और घरेलू आर्थिक परिणाम शामिल हैं, इसलिए इसे सीनेट के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिए था, इस तरह की कार्यवाही से राष्ट्रपति ओबामा सहमत नहीं थे। हालांकि इस आनाकानी का आशय वे लोग ज्यादा बेहतर ढंग से समझ सकते हैं, जो अमेरिकी संवैधानिक कानून और राजनीति को बखूबी समझते हैं, ऐसा लगता है कि राष्ट्रपति ट्रम्प यह मामला अपने हाथ में रखना चाहते हैं।

पेरिस समझौते का स्वरूप

अनेक पर्यवेक्षक अपनी हाल की टिप्पणियों में पेरिस समझौते को एक फ्रेमवर्क जलवायु समझौता बताते आए हैं। दरअसल, दिसम्बर, 2015 में पेरिस सीओपी से ऐन पहले इस कथन का इस्तेमाल कुछ कामन्टेटर्स ने यूएनएफसीसीसी और उसके सीबीडीआर (साझा लेकिन अलग-अलग जिम्मेदारियां) और निष्पक्षता के सिद्धांतों को हटाने तथा “नई स्लेट” पर कुछ नया शुरू करने के प्रयासों के मद्देनजर किया था। गौरतलब है कि राष्ट्रपति ओबामा ने 1990 के दशक में यूएनएफसीसीसी के मामले में अपनाए गए तरीके के विपरीत, इस समझौते को सलाह और मंजूरी के लिए सीनेट को भेजने की बजाए, अपने अधिकार से मंजूरी दे दी थी। इतना ही नहीं, पेरिस समझौते के अंतर्गत वर्तमान में जारी विचार-विमर्श परिणामस्वरूप नियमों और कानूनों पर हो रहा है, जिनमें से ज्यादातर स्पष्ट तौर पर दिसम्बर 2015 के ​पेरिस निर्णयों के संदर्भ में समान संधि नियमों और कानूनों के आधार पर जारी रखे गए होंगे। इस तरह पेरिस समझौता स्पष्ट तौर पर यूएनएफसीसीसी विशेषकर उसके सिद्धांतों के अंतर्गत है।

भारत के लिए नेतृत्व की भूमिका का सुझाव 

जलवायु परिवर्तन के बारे में राष्ट्रपति ट्रम्प की धारणाओं की शिकायत करने की बजाए, हमें अमेरिका के पक्षपात को हाइलाइट करते समय इस ओर इशारा करना चाहिए कि कार्बन-डाई ऑक्साइड (सीओ2)का फ्लो नहीं बल्कि स्टॉक’ सीसी का मूल कारण है।ऐसा इ​सलिए है,क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग उर्फ जलवायु परिवर्तन का कारण सीओ2 का वार्षिक फ्लो नहीं, बल्कि उसका स्टॉक है, जिसमें अमेरिका, यूरोपीय संघ, चीन और भारत की संचयी हिस्सेदारी मोटे तौर पर 25, 22, 10 और 4 प्रतिशत है, जो उनके वर्तमान वैश्विक जीडीपी शेयर-जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल, ऊर्जा उत्पादन से बंधी है और जीडीपी स्पष्ट तौर पर परस्पर संबद्ध है। भारतीय नेतृत्व द्वारा अधिक जलवायु शमनकारी कार्यों के लिए प्रतिबद्ध​ता व्यक्त किए जाने का अर्थ भारतीयों पर अनुचित बोझ के लिए सहमती देना होगा, जहां लगभग दो-तिहायी परिवार बिजली, कमर्शियल कुकिंग एनर्जी, नल से जलापूर्ति और स्वच्छता तक पहुंच से वंचित हैं। इसके अलावा, भारत और चीन से जीएचजी उत्सर्जन में अमेरिका जैसी कमी लाने को कहना अनुचित तो होगा ही साथ ही तकनीकी रूप से शायद मुमकिन भी नहीं होगा।

पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के लिए भारत की प्रतिबद्धता की फिर से पुष्टि करना सही कदम है और ऐसा शीर्ष राजनीतिक स्तर पर पहले ही किया जा चुका है। निकट भविष्य में जलवायु के संदर्भ में नेतृत्व उन्हीं देशों द्वारा किया जाना चाहिए, जिनके यहां ऐतिहासिक दायित्वों का शीर्षतम स्तर है। भारत को अपनी नेतृत्वकारी भूमिका सौर और अन्य गैर-जीवाश्म ऊर्जा उत्पादन तथा विविध अनुकूलन कार्यों में निभानी चाहिए, लेकिन महज अमेरिका के पेरिस समझौते से बाहर होने के कारण उसे अपने और गैर-अमेरिकी विकसित देशों के बीच बराबरी के ठप्पे वाली भूमिका में नहीं आना चाहिए।

भारतीय नेतृत्व द्वारा अधिक जलवायु शमनकारी कार्यों के लिए प्रतिबद्ध​ता व्यक्त किए जाने का अर्थ भारतीयों पर अनुचित बोझ के लिए सहमती देना होगा, जहां लगभग दो-तिहायी परिवार बिजली,कमर्शियल कुकिंग एनर्जी, नल से जलापूर्ति और स्वच्छता तक पहुंच से वंचित हैं।

अमेरिका के बाहर जाने के भूराजनीतिक आयाम

महात्मा गांधी अक्सर कहा करते थे कि मार्ग , लक्ष्य जितना ही महत्वपूर्ण है या किसी भी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए अपनाए गए साधन भी उद्देश्य जितने ही महत्वपूर्ण हैं। इसलिए भारत को क्या करना चाहिए, तय करने के लिए हमें ‘मार्ग’ बनाम ‘लक्ष्य’ के बारे में गांधीजी की धारणा को ध्यान में रखना होगा।

व्यापक रूप से मिल रहे सुझावों के बावजूद हमें अमेरिकी घोषणा पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए जल्दबाजी में नए गठबंधन नहीं करने चाहिए। शुरूआत में, फ्रांस और जर्मनी जैसे कुछ विकसित देश जो ऐसे जलवायु गठबंधन करने का सुझाव दे रहे हैं, पहले से ही यूरोपीय संघ जैसे अपने क्षेत्रीय गठबंधनों में मजबूती से बंधे हुए हैं, जलवायु परिवर्तन के बारे में जिनका रुख मोटे तौर पर भारत से अलग है। जापान, कनाडा और आस्ट्रेलिया जैसे अन्य विकसित देशों के भारत के साथ जलवायु के बारे में किसी नई संभावित समझ से कहीं ज्यादा अमेरिका के साथ मजबूत सुरक्षा और/या कारोबारी संबंध हैं।

हमें ऊर्जा के क्षेत्र में विशेष रूप से अमेरिकी सहायता और समर्थन की जरूरत है। अब समय आ गया है कि भारत अपने कोयला क्षेत्र और खास तौर पर स्वच्छ कोयले पर ध्यान दे। दरअसल भारत की जलवायु नीति अपने आप में ही कोयले, खास तौर पर स्वच्छ कोयले के ज्यादा इस्तेमाल की इजाजत देती है। हमें भारतीय कोयला क्षेत्र को बाजार द्वारा संचालित होने देना चाहिए और इसे अपने कारोबारी लक्ष्यों की समीक्षा करने तथा महज अमेरिका के हटने के बाद की जलवायु चिंताओं के कारण अपने अस्तित्व को खतरे में डालने के लिए बाध्य नहीं करना चाहिए। कोई भी देश अमेरिका के स्वच्छ कोयले के एजेंडे के साथ सकारात्मक रूप से एक सीध में आ सकता है और साथ ही ‘प्लेनेट फर्स्ट’ ‘सेव दे क्लाइमेट’ आदि जैसी सही भावनाओं को प्रकट करते हुए अमेरिका के साथ व्यापक सहयोग कर सकता है। कठोर बौद्धिक सम्पदा अधिकार (आईपीआर) समस्या, पेरिस समझौते की प्रमुख कमजोरी है, जिसे संभवत: केवल अमेरिका के साथ आपसी सहयोग के जरिए सुलझाया जा सकता है। जहां एक ओर हमें अमेरिकी स्थिति को अपनाने की जरूरत नहीं है, वहीं हमें कोयले सहित स्वच्छ ऊर्जा का व्यापक समर्थन करते हुए वैश्विक स्थायी लीडर के रूप में खुद को स्थापित करने की जरूरत है।

कुछ ही दिनों में होने वाली प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रपति ट्रम्प की लम्बे समय से अपेक्षित मुलाकात , जलवायु परिवर्तन मैट्रिक्स से संबंधित ऊर्जा और पर्यावरण के क्षेत्रों में भारत-अमेरिकी सहयोग के द्विपक्षीय आयामों के बारे संकेत दे सकती है। जुलाई 2017 में जर्मनी की अध्यक्षता में होने वाले जी 20 शिखर सम्मेलन में जलवायु से संबंधित निष्कर्षों पर भी उत्सुकता से गौर करने की जरूरत है, खासतौर पर इस बात पर कि विकसित और विकासशील देश किस प्रकार आखिरकार अमेरिका के खिलाफ खड़े होते हैं, जो संभवत: राष्ट्रपति ट्रम्प की 1 जून की घोषणा के बाद हुई शुरूआती प्रतिक्रिया जैसा नहीं होगा। इस साल नवम्बर में बॉन में होने वाले जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में ही शायद तस्वीर साफ हो सकेगी।

पेरिस समझौते से अमेरिका के हटने की अमेरिकी योजना की वैश्विक प्रतिक्रिया या दोबारा विचार विमर्श के बारे में जब तक स्थिति स्पष्ट नहीं हो जाती, तब तक भारत द्वारा एनडीसी में वृद्धि किए जाने या जलवायु परिवर्तन से संबंधित शमनकारी कार्यों में अग्रणी भूमिका निभाने या विकसित या विकासशील देश के दर्जे की परवाह किए बगैर मझौले आकार के अन्य देशों के साथ गठबंधन करने बारे में बात करना भी फिलहाल जल्दबाजी होगी।

भारतीय आवश्यकताएं

इस समय उचित यही होगा कि पेरिस समझौते का अनुमोदन करते समय अपने घोषणा पत्र की भाषा पर अडिग रहा जाए। इसके अनुमोदन से संबंधित भारत की घोषणा निम्नलिखित है :

”भारत सरकार अपनी समझ से घोषणा करती है कि, वह अपने राष्ट्रीय कानूनों के अनुसार, विशेषकर गरीबी उन्मूलन और समस्त नागरिकों के लिए बुनियादी जरूरतों के प्रावधान वाले अपने विकास के एजेंडे को ध्यान में रखते हुए, प्रगति के लिए कार्बन की कम मात्रा के मार्ग का अनुसरण करने की प्रतिबद्धता के साथ और दुनिया भर से ऊर्जा एवं प्रौद्योगिकियों के स्वच्छ साधनों की भारमुक्त उपलब्धता तथा वित्तीय संसाधनों के पूर्वानुमान पर, और जलवायु परिवर्तन से निपटने की वैश्विक प्रतिबद्धता के निष्पक्ष और महत्वाकांक्षी आकलन के आधार पर पेरिस समझौते के अनुमोदन कर रही है।”

जलवायु परिवर्तन के बारे में भारतीय लोकाचार, दृष्टि और प्रतिबद्धता उसके एनडीसी और घोषणा में स्पष्ट तौर पर स्थापित की गई है। बेहतर होगा कि इन पर टिके रहा जाए और ट्रम्प की घोषणा के बाद जारी, चाहे वह अंतर्राष्ट्रीय हो या घरेलू खींच-तान को नजरंदाज किया जाए।

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