दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों की उपलब्ध सूची पर सरसरी निगाह दौड़ाएं तो जो एक बात साझा तौर पर उभरकर सामने आती है वो है- भारत. दुनिया में अशुद्ध हवा वाले 10 शीर्ष शहरों की सूची में हमेशा ही भारत के कम से कम तीन शहर शामिल रहते हैं. सालाना आंकड़ों की बात करें तो कोविड-19 से हुई मौतों के मुक़ाबले वायु प्रदूषण से आठ गुणा से भी ज़्यादा लोगों की जान गई है. अक्टूबर 2020 में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और इसके केंद्र दिल्ली ने वायु प्रदूषण और कोविड-19 के स्तरों में दोहरे उछाल का सामना किया था. जनता में काफ़ी हो हल्ला मचने और अदालत में जनहित याचिका दायर किए जाने के बाद 28 अक्टूबर को एक अध्यादेश पारित किया गया. ये अध्यादेश था- राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और आसपास के इलाक़ों में वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग.
पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण प्राधिकरण की पड़ताल
क्या ये उच्चाधिकार-प्राप्त आयोग दिल्ली और एनसीआर में राष्ट्रीय मानक पर खरा उतरने वाली हवा की उपलब्धता सुनिश्चित करने में कामयाब होगा? भारत की वायु नीति का इतिहास कई इत्तेफ़ाकों पर निर्भर रहा है. इस संदर्भ में पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण प्राधिकरण (ईपीसीए) की पड़ताल करते हैं. ये प्राधिकरण 1998 में अस्तित्व में आया था. इसका मक़सद “एनसीआर में पर्यावरण संरक्षण करना और गुणवत्ता में सुधार लाते हुए पर्यावरण प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण करना है.” 22 वर्षों के बाद इस प्राधिकरण को भंग कर उसकी जगह आयोग का गठन किया गया है.
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आयोग को वायु प्रदूषण के स्तर पर नज़र रखने का काम सौंपा गया है. इसके साथ ही निगरानी और शोध के बाद कानूनों का अमल सुनिश्चित करना भी इसकी ज़िम्मेदारियों में शामिल है. इतना ही नहीं आयोग को वायु प्रदूषण के स्तर में कमी लाने के लिए नवाचार युक्त समाधान प्रस्तुत करने को भी कहा गया है. आयोग के आदेशों और निर्देशों के साथ किसी राज्य सरकार का टकराव होने की स्थिति में आयोग के निर्देशों को ही मान्य समझा जाएगा. आयोग द्वारा पारित किसी आदेश या निर्देश के ख़िलाफ़ उठे किसी भी तरह के मामले की सुनवाई करने का अधिकार सिविल अदालतों के पास नहीं होगा.
दीर्घकाल तक साफ़ हवा सुनिश्चित करने के लिए नियामक संस्थाओं के स्तर पर बड़े फेरबदल की ज़रूरत है. इसके तहत एक शक्तिशाली, अच्छे ढंग से वित्त-पोषित, स्वतंत्र एजेंसी के गठन की आवश्यकता है.
अपने लंबे कार्यकाल में ईपीसीए ने सुप्रीम कोर्ट की सलाहकार संस्था के तौर पर काम किया. ईपीसीए दिल्ली में आपात परिस्थितियों में लागू किए जाने वाले ग्रेडेड रैपिड एक्शन प्लान पर नज़र रखने का काम करता रहा. कुल मिलाकर इसने एक निगरानी संस्था का दायित्व निभाया. इसने औद्योगिक ईंधन के तौर पर पेटकोक के इस्तेमाल को कम से कमतर करने में कामयाबी हासिल की. ये भविष्य की दिशा में एक बड़ा कदम था. इसके कई सिफ़ारिश ऐसे थे जिनपर अमल करने के लिए एक से ज़्यादा एजेंसियों द्वारा सक्रिय भूमिका निभाने की ज़रूरत थी. इनमें राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (एसपीसीबी), दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति (डीपीसीसी) (जिसे आगे एसपीसीबी के व्यापक नाम से ही पुकारा जाएगा) और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड शामिल हैं. एसपीसीबी का काम प्रदूषण की रोकथाम, नियंत्रण या उसमें कमी लाने से जुड़े किसी भी मामले में राज्य सरकारों को सलाह देना है. इसके साथ ही उन्हें प्रदूषण से जुड़ी सूचनाएं इकट्ठा कर उनका प्रसार भी करना होता है. साथ ही साथ प्रदूषण की रोकथाम, नियंत्रण और उसके स्तर में कमी लाने के प्रयास भी इसकी ज़िम्मेदारियों में शामिल है.
यहां दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं. पहला, ईपीसीए और आयोग के निर्णयों को अमल में लाने में एसपीसीबी की बेहद महत्वपूर्ण भूमिका है. दूसरा, आयोग और एसपीसीबी की ज़िम्मेदारियों में कई बातें समान है. ख़ासतौर पर फ़ैसले लेने और उनकी तामील के मामलों में ऐसा देखा जा रहा है. साफ़ है कि आयोग की कार्यकुशलता काफ़ी हद तक एसपीसीबी की कामयाबियों पर निर्भर करेगी.
नियामक संस्थाएं से उम्मीद पालना कहां तक तर्कसंगत
दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में दिल्ली, फ़रीदाबाद और गुरुग्राम शामिल हैं. ऐसे में यहां के प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों का कामकाज कैसा है? डीपीसीसी तो 48 कनिष्ठ पर्यावरण इंजीनियरों की नियुक्ति को लेकर जद्दोजहद कर रहा है. 1998 में सृजित किए गए कई पदों को अब तक भरा नहीं जा सका है क्योंकि इन पर नियुक्तियों से जुड़े नियम बनाने में ही 16 वर्षों का समय लग गया. इसके ज़्यादातर वरिष्ठ कर्मचारी अब 50 साल की आयु सीमा को पार कर चुके हैं. एक लंबे और अनिश्चितताओं से भरे इंतज़ार के बाद हाल ही में उनकी पदोन्नति की गई है. यहां पेंशन का प्रावधान नहीं है. नियमों के उल्लंघन के संभावित मामलों की निगरानी और उनपर कार्रवाई के लिए डीपीसीसी साल दर साल अस्थायी कर्मचारियों की सेवाएं लेता आ रहा है. हरियाणा प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में 70 फ़ीसदी कर्मचारियों का अभाव है. दोनों ही मामलों में वैज्ञानिकों और इंजीनियरों को ही वकीलों के तौर पर भी काम करना पड़ रहा है. यही लोग विभिन्न अदालतों में दाखिल की गई याचिकाओं पर अपने जवाब तैयार करते हैं. दोनों ही मामलों में मौजूदा कर्मचारी अनेकानेक दायित्वों का निर्वाह करते हैं क्योंकि उनको निपटाने के लिए अलग से लोग रखे ही नहीं गए हैं. 2020 की सर्दियों में डीपीसीसी से जुड़े एक वैज्ञानिक (नाम गोपनीय रखा गया है) ने खुलासा किया था कि वो नींद की कमी और थकावट के चलते बेहद बीमार महसूस कर रहे हैं. कई दिनों से वो और उनके सहयोगी वो काम तो कर ही रहे थे जिसके लिए उन्हें नियुक्त किया गया था. इसके अलावा वो कानूनी मसलों की भी निगरानी कर रहे थे और कोविड-19 से जुड़े कूड़ा प्रबंधन का कामकाज भी संभाल रहे थे. इसके साथ ही सर्दियों में उन्हें दिन का काम ख़त्म कर रात के समय अवैध तरीके से जलाई जाने वाली आग से वायु प्रदूषण के स्तर में होने वाले इज़ाफ़े पर निगरानी रखने का दायित्व भी दिया गया. हरियाणा में एवियन फ़्लू के ख़तरों के मद्देनज़र एचएसपीसी के वैज्ञानिकों से पॉल्ट्री फॉर्मों की जांच पड़ताल करने और हर तरह के मामले सुलझाने की उम्मीद की जाती है. हालांकि इन वैज्ञानिकों को पशुपालन के क्षेत्र में किसी भी तरह का प्रशिक्षण नहीं दिया गया है. सवाल उठता है कि जब नियामक संस्थाएं ख़ुद बेहाल हैं तो ऐसे में स्वच्छ वायु की योजनाओं पर अमल की उम्मीद पालना कहां तक तर्कसंगत होगा? पिछले वर्षों में ईपीसीए के प्रभावी होने के लेकर की जाने वाली चर्चाओं में एक बात प्रमुखता से उभर कर आती रही. वो बात थी इस संस्था के लंबे कार्यकाल के दौरान दिल्ली की आबोहवा की गुणवत्ता में आई भारी गिरावट. ये हक़ीक़त है लेकिन इससे ये भी ज़ाहिर होता है कि संस्थागत तौर पर इन बड़ी कमज़ोरियों के चलते ईपीसीए द्वारा हासिल किए गए नतीजे किस कदर मद्धिम पड़ गए हैं. लगता ऐसा ही है कि आयोग के संदर्भ में भी यही सब कुछ दोहराया जाएगा.
इन परिस्थितियों के मद्देनज़र ये सवाल उठ सकता है कि अगर ये नियामक संस्थाएं और सरकार के कार्यकारी अंग सुचारु ढंग से काम कर रहे होते तो क्या आयोग की ज़रूरत भी थी?
इससे भी अहम बात ये है कि इन परिस्थितियों के मद्देनज़र ये सवाल उठ सकता है कि अगर ये नियामक संस्थाएं और सरकार के कार्यकारी अंग सुचारु ढंग से काम कर रहे होते तो क्या आयोग की ज़रूरत भी थी?
ऐसे आसार हैं कि इस मामले में इतिहास ख़ुद को एक बार फिर दोहराएगा. आयोग के सदस्य चाहे कितने भी उत्कृष्ट या प्रकांड क्यों न हों लेकिन एक टूटी फूटी नियामक व्यवस्था के रहते वो अपना काम ठीक से नहीं कर सकते. किसी भी फ़ौज का जनरल अकेले बिना कुशल लड़ाकों के कोई भी जंग नही जीत सकता. दूसरी बात ये कि संस्थागत सुधारों की तत्काल आवश्यकता है, हालांकि ये आयोग के अधिकार क्षेत्र और उसकी ज़िम्मेदारियों में शामिल नहीं है. इसके अलावा राज्य सरकारों पर पहले ही इसकी ज़िम्मेदारी सौंपी गई है. अगर आयोग अपनी दुखती रग की पहचान कर संस्थागत मज़बूती की ओर कदम आगे बढ़ाता है तो इसपर अपने अधिकार क्षेत्र के उल्लंघन के आरोप लग सकते हैं. ऐसे में आयोग की सत्ता पर ऊंगलियां उठने की आशंका बनी रहेगी. बदले में आयोग के स्वंय बेमानी साबित हो जाने का ख़तरा रहेगा क्योंकि इसकी तमाम ज़िम्मेदारियां तो पहले से ही एसपीसीबी के पास हैं. बहरहाल इन बातों को खुद ब खुद न तो कामयाबी और न ही ख़तरे के तौर पर देखा जाना चाहिए. तीसरी बात ये कि दिल्ली ही हिंदुस्तान नहीं है. आयोग का अधिकार क्षेत्र दिल्ली और एनसीआर पर होने वाले इसके प्रभावों तक सीमित है. हालांकि 2020 में हमें इस बात का एहसास हुआ कि देश के अनेक शहरों की ही तरह समुद्र के किनारे बसे मुंबई और चेन्नई जैसे शहर भी वायु प्रदूषण के ख़तरनाक स्तर से जूझ रहे हैं. वायु प्रदूषण जैसे इतने अहम मामले में सिर्फ़ दिल्ली को इस तरह की वरीयता देना संवैधानिक तौर पर भी ग़लत है. राष्ट्रीय स्वच्छ वायु योजना के तहत 122 नॉन एटेंनमेंट सिटीज़ की एक सूची तैयार की गई है. ऐसे में इन तमाम शहरों की समस्याओं और यहां की चुनौतियों के समाधान के लिए हम कितने आयोग बनाएंगे? दिल्ली में भी वायु की गुणवत्ता में सुधार के लिए बड़े उपाय करने होंगे. मिसाल के तौर पर दिल्ली के संदर्भ में भौगोलिक और राजनीतिक सीमाओं के आर-पार असर करने वाले मुद्दों को लेते हैं. दिल्ली के 300 किमी के दायरे में 11 ऊर्जा संयंत्र सक्रिय हैं. उन्हें उत्सर्जन के नए मानक जल्द से जल्द हासिल करने चाहिए जिसे पिछले लंबे वक़्त से लगातार टाला जा रहा है. अदालतें भी इस मामले की सुनवाई कर रही हैं. इस बारे में आयोग की भूमिका बेहद सीमित है. हालांकि इस मामले को नहीं उठाने से आयोग की स्थिति कमज़ोर पड़ती है.
स्वतंत्र एजेंसी के गठन की ज़रुरत
अगर ये शक्तिशाली आयोग हवा को शुद्ध नहीं बना सकता तो कौन सी संस्था ये कामयाबी हासिल करेगी? दीर्घकाल तक साफ़ हवा सुनिश्चित करने के लिए नियामक संस्थाओं के स्तर पर बड़े फेरबदल की ज़रूरत है. इसके तहत एक शक्तिशाली, अच्छे ढंग से वित्त-पोषित, स्वतंत्र एजेंसी के गठन की आवश्यकता है. इसे पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय समेत तमाम दूसरे मंत्रालयों के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए. इसे संसद के प्रति जवाबदेह बनाया जाना चाहिए ताकि ये बिना किसी भय के सभी ज़रूरी फ़ैसले ले सके. इसकी अगुवाई करने का जिम्मा किसी मौजूदा सरकारी अधिकारी को दिया जाना चाहिए. इस संस्था में उनके कामकाज के हिसाब से ही उनके आगे का करियर तय होना चाहिए. वैकल्पिक तौर पर किसी वैज्ञानिक को भी ये ज़िम्मेदारी दी जा सकती है. दुनिया के बाक़ी देशों, ख़ासतौर से अमेरिका में ईपीए के मौजूदा मॉडल हमारे लिए उपयुक्त उदाहरण नहीं हो सकते. भारत में वायु प्रदूषण सिर्फ़ तकनीकी चुनौती का ही विषय नहीं है बल्कि हमारी आर्थिक यात्रा और राष्ट्रीय आकांक्षाओं का भी परिणाम है. इस विकराल समस्या पर काबू पाने के लिए इस नई संस्था को अर्थशास्त्रियों, चिकित्सकों, सामाजिक विज्ञानियों, छोटे उद्यमियों और वैज्ञानिकों के ज्ञान का पूरा-पूरा लाभ उठाना चाहिए. ऐसा करने के लिए इन तमाम लोगों को इस संस्था के सबसे महत्वपूर्ण कर्मियों के तौर पर शामिल किया जाना चाहिए. सच्चाई यही है कि मौजूदा व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव लाए बिना भारत में सिर्फ़ आयोगों और प्राधिकरणों के गठन का ही सिलसिला चलता रहेगा. ऐसे में स्वच्छ हवा सुनिश्चित करना सिर्फ़ कागज़ी उम्मीद बनकर ही रह जाएगी.
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