Author : Alok Raj Gupta

Published on Jun 19, 2019 Updated 0 Hours ago

‘द ग्रेट स्मॉग ऑफ़ इंडिया’ नाम की किताब के लेखकों ने दावा किया है कि आज़ादी के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध में जितने लोग मारे गए, उनसे कहीं ज़्यादा लोगों की जान एक हफ़्ते में वायु प्रदूषण से चली जाती है.

दिल्ली में वायु प्रदूषण: नीतियां, जनता और लोगों के बीच बसी आम धारणा

घड़ी की सुइयां बड़ी तेज़ी से भाग रही हैं. भारत में वायु प्रदूषण से हालात इतने भयंकर हो गए हैं कि अब ये लोगों से सेहत की भारी क़ीमत वसूल रहा है. इसकी वजह से आर्थिक विकास पर भी बुरा असर पड़ रहा है. आने वाले वक़्त में इसके और भी बुरे असर देखने को मिलने की आशंका है. बहुत सी रिसर्च में वायु प्रदूषण के बुरे असर के बारे में विस्तार से बताने की कोशिश की गई है. आईआईटी बॉम्बे की एक स्टडी के मुताबिक़, वायु प्रदूषण से 2015 में अकेले दिल्ली को ही 6.4 अरब डॉलर [i] का नुक़सान हुआ था. 2017 में ख़राब और प्रदूषित हवा की वजह से 12 लाख लोगों की जान चली गई थी. [ii] ख़राब हवा के संकेत देने के कई पैमाने हैं. ये सारे हमारे देश में वायु प्रदूषण के ख़राब हालात की तरफ़ ही इशारा करते हैं. और ये तो वो सबूत हैं, जिनका हिसाब लगाया जा सकता है. प्रदूषण के कई ऐसे दूरगामी असर भी होते हैं, जिनका हमें अब तक अंदाज़ा नहीं है. मसलन, हमारे पास अब तक ऐसा कोई सूचकांक नहीं है, जिससे ये पता चल सके कि प्रदूषित वातावरण में पलने वाले बच्चों पर इसका कितना बुरा असर होता है. इसी तरह हम अब तक ये आकलन नहीं कर पाए हैं कि प्रदूषण की वजह से किसी इंसान की उत्पादकता कितनी कम होती है. और, अगर उसकी मौत हो जाती है, तो उस पर निर्भर उसके परिजनों पर इसका कितना बुरा और गहरा असर होता है. हालांकि, हमें ये बात पक्के तौर पर पता है कि वायु प्रदूषण रूपी ये राक्षस, दिनों-दिन हमारी कल्पना से भी ज़्यादा विशाल समस्या का रूप धरता जा रहा है. सवाल ये है कि ये इतनी बड़ी समस्या है, फिर भी वायु प्रदूषण को महामारी क्यों नहीं माना जा रहा है? इससे निपटने के लिए तेज़ी से ज़रूरी क़दम क्यों नहीं उठाए जा रहे हैं? आख़िर, सरकार या इसके असर के बारे में बताने वाली एजेंसियां, प्रदूषण से निपटने के लिए ठोस क़दम उठाने से क्यों हिचक रही हैं? क्यों साल-दर-साल हालात जस के तस बने रहते हैं?

पिछले कुछ वर्षों में, इस समस्या के समाधान के लिए कुछ क़दम उठाए गए हैं. लेकिन, इनका कोई ख़ास असर देखने को नहीं मिला है. क्योंकि वायु प्रदूषण की विशाल समस्या के आगे ये क़दम बौने पड़ गए हैं. ऐसे में, जो थोड़े-बहुत प्रयास हो भी रहे हैं, वो बेअसर साबित हो रहे हैं.

‘द ग्रेट स्मॉग ऑफ़ इंडिया’ नाम की किताब के लेखकों ने दावा किया है कि आज़ादी [iii] के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध में जितने लोग मारे गए, उनसे कहीं ज़्यादा लोगों की जान एक हफ़्ते में वायु प्रदूषण से चली जाती है. अगर समस्या इतनी गंभीर है, तो इससे निपटने के लिए एक आंदोलन की शुरुआत हो जानी चाहिए थी. यहीं पर हम देखते हैं कि वायु प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए उठाए गए क़दम नाकाफ़ी साबित हो रहे हैं. हमें तो वायु प्रदूषण की गंभीरता को लोगों को समझाने के लिए माहौल बनाने में ही काफ़ी मशक़्क़त करनी पड़ी है. लेकिन, लोग इसे लेकर तभी गंभीर होते हैं, जब स्वच्छ हवा का सूचकांक ख़राब संकेत देने लगता है. वायु प्रदूषण को क़ाबू करने के उपायों की बात करें, तो इनमें से ज़्यादातर बेअसर साबित हो रहे हैं. जैसे कि 2017 और 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने अचानक ही दिल्ली में पटाखे जलाने पर रोक लगाने का जो फ़रमान सुनाया, उन्हें पहले और बेहतर तरीक़े से लागू किया जा सकता था.

वायु प्रदूषण के ख़िलाफ़ हमारी लड़ाई कमज़ोर होने की एक बड़ी वजह ये है कि इसमें जनता सक्रिय रूप से भागीदार नहीं बन रही है. इस बात को बेहतर ढंग से समझने के लिए, हमें ईएनवीइकोलॉजिग नाम की संस्था के सर्वे पर एक नज़र डालनी होगी. ये दुनिया भर में क़ुदरत के साथ तालमेल करके होने वाले विकास और ऊर्जा के अर्थशास्त्र पर काम करने वाली मशहूर संस्था है. ईएनवीइकोलॉजिक ने दिल्ली के 9 ज़िलों के 5 हज़ार से ज़्यादा लोगों से बातचीत की. इस सर्वे की प्रमुख बातें कुछ इस तरह हैं:

— सर्वे में शामिल 35 फ़ीसद लोग ये मानते ही नहीं कि दिल्ली में प्रदूषण के हालात बहुत ख़तरनाक हैं. इनमें से 75 प्रतिशत लोगों के तो 10 साल से कम उम्र के बच्चे भी हैं. कुल मिलाकर इस सर्वे में शामिल 20 फ़ीसद लोगों का ये मानना है कि प्रदूषण को लेकर हौव्वा खड़ा किया जा रहा है, जबकि हक़ीक़त इतनी बुरी नहीं है.

— क़रीब 60 प्रतिशत लोग ये नहीं मानते हैं कि दिल्ली में घरों के भीतर प्रदूषण की समस्या है. उनका ये मानना है कि घर के बाहर वायु प्रदूषण है, लेकिन घर के अंदर के हालात उतने नुक़सानदेह नहीं हैं.

— सर्वे में शामिल आधे से ज़्यादा लोगों को ये पता ही नहीं था कि दिल्ली में कचरा जलाने पर पाबंदी है और ऐसा करने पर पांच हज़ार रुपए जुर्माना लग सकता है.

सर्वे के इन नतीजों से साफ़ है कि दिल्ली के बाशिंदों के बीच वायु प्रदूषण के स्वास्थ्य पर असर को लेकर जागरूकता नहीं है. न ही इससे निपटने के लिए उठाए गए क़दमों और नियम-क़ायदों के बारे में उन्हें जानकारी है.

वायु प्रदूषण से निपटने के लिए उठाए जा रहे क़दमों का कितना असर है, इसका संकेत इस बात से भी मिलता है कि, बेहतरीन समझ में आने वाली नीतियों को लेकर जनता में कोई उत्साह नहीं दिखता. इसका नतीजा ये होता है कि वायु प्रदूषण रोकने के लिए उठाया गया अच्छे से अच्छा क़दम भी नाकाम हो जाता है. मसलन, सर्वे में शामिल 40 प्रतिशत लोगों ने माना कि वो वाहनों को लेकर ऑड-इवेन नीति का पालन नहीं करना चाहते हैं. वहीं, 24 प्रतिशत लोग डीज़ल इंजन वाली गाड़ियां छोड़कर इको-फ्रैंडली गाड़ियां लेने को तैयार नहीं हैं.

भारत के नीति-नियंता, आम तौर पर, वायु प्रदूषण जैसी हर बड़ी समस्या से ‘कमांड ऐंड कंट्रोल’ वाले तरीक़े से निपटने की कोशिश करते हैं. लेकिन, इस समस्या को राष्ट्रीय स्तर पर क़ाबू में करने के लिए सरकार को नीतियां बनाने के अलावा भी बहुत कुछ करना होगा. सरकार ये उम्मीद नहीं कर सकती कि वो सिर्फ़ नियम बना दे और जनता उसका पालन करेगी. जो क़दम उठाए जा सकते हैं, वो कुछ इस तरह हैं:

— पहले समस्या को लेकर जनता की समझ को बढ़ाना होगा. लोगों के बीच स्वास्थ्य और अच्छी जीवन-शैली को लेकर जागरूकता बढ़ानी होगी.

— किसी भी संभावित क़ानून पर पहले जनता की राय जानने की कोशिश करनी चाहिए. अगर जनता के बीच इसे लेकर उत्साह नहीं है, तो ये समझने की कोशिश सरकार को करनी चाहिए कि आख़िर इसकी वजह क्या है.

— जनता को मौजूदा नियम-क़ायदों की जानकारी देनी चाहिए. इन नियमों के फ़ायदे भी लोगों को समझाने चाहिए. वायु प्रदूषण से निपटने के लिए ज़रूरी उपायों का प्रचार कई गुना बढ़ाना होगा, ताकि ये जनता के बीच चर्चा का मुद्दा बने. ये काम ठीक उसी तरह करना होगास जैसे स्वच्छ भारत अभियान के लिए प्रचार किया गया.

अच्छी उपज के लिए खेत की अच्छे से जुताई करनी ज़रूरी है. किसी भी नीति को बनाने से पहले उसे लेकर जागरूकता पैदा करना बहुत बुनियादी ज़रूरत है, जो हमारे देश में देखने को नहीं मिलती. हमें हमेशा ऊपर से नियमों को लादने के बजाय जनता को जागरूक करने पर ज़ोर देना चाहिए. और उनकी भागीदारी बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए. तभी, नीतियां असर दिखाएंगी.


[i] Maji, Kamal Jyoti et al. “Disability-adjusted life years and economic cost assessment of the health effects related to PM2.5 and PM10 pollution in Mumbai and Delhi, in India from 1991 to 2015”

Environmental Science & Pollution Research (2017), https://doi.org/10.1007/s11356-016-8164-1

[ii] https://www.sciencedirect.com/science/article/pii/S2542519618302614

[iii] Singh, Siddharth. The Great Smog of India (Penguin Random House, 2018), 5.

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