Author : Elizabeth Hessek

Published on Feb 01, 2021 Updated 0 Hours ago

2020 की शुरुआत में कोविड-19 महामारी ने ये रिश्ते बदल दिए. इसमें सबसे बड़ा बदलाव शहरों में लोगों की आवाजाही पर पड़ा. पब्लिक ट्रांसपोर्ट एजेंसियों ने तब देखा कि यात्रा करने वालों की संख्या में भारी गिरावट आई.

महामारी के बाद: असफलताओं को दरकिनार कर पब्लिक ट्रांसपोर्ट के भविष्य पर ध्यान

शहरी जिंदगी बहुत उलझी हुई होती है. सामाजिक संबंध, आर्थिक रिश्ते और इंफ्रास्ट्रक्चर का जाल, ये मिलकर शहरी अहसास को एक शक्ल देते हैं. 2020 की शुरुआत में कोविड-19 महामारी ने ये रिश्ते बदल दिए. इसमें सबसे बड़ा बदलाव शहरों में लोगों की आवाजाही पर पड़ा. पब्लिक ट्रांसपोर्ट एजेंसियों ने तब देखा कि यात्रा करने वालों की संख्या में भारी गिरावट आई. असल में महामारी से बचने के लिए स्वास्थ्य सेवा अधिकारी लोगों को घर के अंदर ही रहने की सलाह दे रहे थे. घर से दफ्तर का काम करने, दुकानों, सांस्कृतिक और दूसरे सार्वजनिक संस्थानों के बंद होने का मतलब यह था कि लोगों को सफर करके मंजिल तक पहुंचने की जरूरत नहीं रह गई.

पिछले साल वसंत ऋतु में जब पहला लॉकडाउन खत्म हुआ और दुनिया भर में शहरों में लोग महामारी के बीच नए ढंग से जीने की आदत डाल रहे थे, तब भी पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करने वालों की संख्या महामारी के पहले की तुलना में काफी कम बनी हुई थी. कुछ जगहों पर ऐसा सोच-समझकर किया गया. मुंबई उपनगरीय रेलवे सेवा को मार्च 2020 में बंद किया गया और जुलाई में उसे सिर्फ जरूरी कामकाज करने वालों के लिए खोला गया और उसके बाद सिलसिलेवार ढंग से उसकी सेवा बहाल की गई. दूसरे शहरों में नॉर्मल पब्लिक ट्रांसपोर्ट सर्विस के बावजूद यात्रियों की संख्या कम बनी रही.

अमेरिका के फिलाडेल्फिया में अक्टूबर 2020 में क्षेत्रीय रेल से यात्रा करने वालों की संख्या कोविड से पहले की तुलना में 15 फीसदी  थी. न्यूयॉर्क में दिसंबर 2020 तक सब-वे का इस्तेमाल करने वालों की संख्या महामारी से पहले के मुकाबले सिर्फ 30 फीसदी  थी. लोगों में सार्वजनिक जगहों पर जाने पर महामारी का शिकार होने का डर था. वैसे भी सरकारी एजेंसियां इस बीच लोगों को कोविड-19 से बचने के लिए भीड़-भाड़ से दूर रहने की सलाह दे रही थीं. इसलिए यात्रियों की संख्या में कमी आना हैरान नहीं करता. लेकिन इस घबराहट से उन कई स्टडी के नतीजे मेल नहीं खाते.

सरकारी एजेंसियां इस बीच लोगों को कोविड-19 से बचने के लिए भीड़-भाड़ से दूर रहने की सलाह दे रही थीं. इसलिए यात्रियों की संख्या में कमी आना हैरान नहीं करता. लेकिन इस घबराहट से उन कई स्टडी के नतीजे मेल नहीं खाते. 

सैंट पब्लिके फ्रांस ने जून में ऐसी ही एक स्टडी की थी. इसमें पब्लिक ट्रांसपोर्टेशन से कोरोना वायरस का एक भी क्लस्टर जुड़ा हुआ नहीं पाया गया.   जापान में भी वायरोलॉजिस्ट्स को टोक्यो के रेल नेटवर्क में कोई क्लस्टर नहीं मिला , ऑस्ट्रिया और ताइपेई में भी कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग में ऐसे ही नतीजे मिले. वहां भी पब्लिक ट्रांसपोर्ट कोविड-19 के फैलने का सबब नहीं था.

पब्लिक ट्रांसपोर्ट के दौरान वायरस का ख़तरा

दूसरी सार्वजनिक जगहों की तुलना में बंद पब्लिक ट्रांसपोर्ट में कोरोना वायरस फैलने की आशंका कम क्यों होती है? इसमें कोई शक नहीं है कि पब्लिक ट्रांजिट समेत कोई भी पब्लिक स्पेस इस लिहाज से खतरे से खाली नहीं है. ऊपर जिन स्टडी का जिक्र किया गया है, उनमें कोरोना वायरस के न फैलने की सबसे बड़ी वजह लोगों का ठीक से मास्क लगाना था. दूसरी जगहों पर भी वायरस के अधिक लोगों को संक्रमित न करने की यही वजह पाई गई. इसके अलावा, पब्लिक ट्रांजिट के दौरान लोगों के सतर्क रहने से यह जोख़िम और भी कम हो जाता है.

यह भी सच है कि ऑफिस, जिम या सोशल इवेंट (जहां कोरोना वायरस के क्लस्टर अधिक संख्या में होते हैं) के मुकाबले पब्लिक ट्रांजिट में लोग कम समय गुजारते हैं. सार्वजनिक यातायात का इस्तेमाल करते वक्त लोग एक दूसरे से बात करने से बच रहे हैं. इससे हर सांस के साथ जो पार्टिकल्स हवा में पहुंचते हैं, उनकी संख्या कम रहती है. और पब्लिक ट्रांजिट वाली गाड़ियों में HVAC सिस्टम्स  लगे होते हैं, जो पैसेंजर कंपार्टमेंट के अंदर हवा को लगातार साफ करते हैं और वहां ताजी हवा पहुंचाते रहते हैं. बोस्टन, न्यूयॉर्क और सैन फ्रांसिस्को में सार्वजनिक यातायात के संसाधनों के अंदर कम से कम हर साढ़े पांच मिनट पर  हवा पूरी तरह बदल जाती है.

साइंस और शोध के इन नतीजों के बावजूद आने वाले कई बरसों तक पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करने वालों की संख्या कम बनी रह सकती है. असल में महामारी का डर लंबे समय तक बना रहेगा और इससे उबरने के बाद नई आदतें बनेंगी. पब्लिक ट्रांसपोर्ट से जुड़े अधिकारियों को डर है कि अगर यात्रियों की संख्या कम बनी रही तो इससे इन संसाधनों पर सरकारी खर्च घट सकता है. अगर ऐसा हुआ तो फिलाडेल्फिया के  SEPTA, जैसे नेटवर्क तबाह हो सकते हैं. ऐसे में शहर का एक वर्ग पब्लिक ट्रांसपोर्ट से महरूम हो सकता है.

शहर के जिन इलाकों में पब्लिक ट्रांसपोर्ट व्यवस्था कमजोर है, वहां इसके डिसइन्वेस्टमेंट के दो गंभीर परिणाम होंगे. पहली बात तो यह कि इससे पर्यावरण को नुकसान पहुंचेगा, जो पहले ही शहरों के लिए गंभीर चुनौती बना हुआ है. दूसरे, इससे सामाजिक गैर-बराबरी भी बढ़ेगी, जो पहले ही महामारी के कारण बढ़ी है. पब्लिक ट्रांसपोर्ट में निवेश से शहरों में ग्रीन हाउस गैसों के एमिशन को कम रखने और हवा-पानी को गुणवत्ता सुधारने में मदद मिली है, जिन पर गाड़ियों की संख्या में बढ़ोतरी का बुरा असर हुआ है. सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा में सुधार और शहरों को समुद्र के बढ़ते जलस्तर से बचाने की ओर महामारी से पहले लोगों का जोर बढ़ रहा था. लेकिन कोविड-19 के दस्तक के बाद डरे लोग फिर से निजी गाड़ियों का इस्तेमाल अधिक करने लगे हैं. इससे पर्यावरण को बचाने की मुहिम को झटका लगा है.

साइंस और शोध के इन नतीजों के बावजूद आने वाले कई बरसों तक पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करने वालों की संख्या कम बनी रह सकती है. असल में महामारी का डर लंबे समय तक बना रहेगा और इससे उबरने के बाद नई आदतें बनेंगी. 

सच्चाई यह है कि शहरों में रहने वाले ज्यादातर लोग कार से यात्रा करने की लग्ज़री अफोर्ड नहीं कर सकते. फिलाडेल्फिया की स्टडी  बताती है कि कोविड-19 महामारी के दौरान पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करने वालों में से ज्य़ादातर कम आय वर्ग के लोग थे. इनमें वे अश्वेत लोग शामिल थे, जो शहर में ज़रूरी कामकाज करते हैं. मुंबई  में महामारी के दौरान असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों के लिए रोज़गार का संकट पैदा हो गया था क्योंकि तब वहां ट्रेन सेवा रुक गई थी और उनके पास फैक्ट्री तक जाने के दूसरे सार्वजनिक यातायात के संसाधन मौजूद नहीं थे.

यातायात इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश

कम यात्रियों के बावजूद शहरी समाज पब्लिक ट्रांसपोर्ट में डिसइन्वेस्टमेंट गवारा नहीं कर सकता. यह बात याद रखनी चाहिए कि इसकी पर्यावरण और समाज के लिए क्या अहमियत है. यह इन दोनों से गहरे जुड़ा हुआ है. जब शहर कोविड-19 महामारी से उबरेंगे तो उन्हें समानता और सशक्त शहर के निर्माण के लक्ष्य पर ध्यान रखना होगा. इस मामले में अगर कोई झटका लगा तो वह ठीक नहीं होगा. इसलिए उन्हें पब्लिक ट्रांसपोर्ट में निवेश बढ़ाना होगा. अगर कम समय के लिए भी इसमें निवेश बंद हो गया तो उससे इकॉनमिक रिकवरी को भी धक्का लगेगा. किसी भी सिस्टम को फिर से शुरू करने की लागत अधिक आती है, जबकि उसके रखरखाव की लागत कम होती है. यह भी याद रखना होगा कि पब्लिक ट्रांसपोर्ट पर बुरा असर पड़ा तो यात्रियों की संख्या बरसों प्रभावित रह सकती है . इसलिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम में अक्लमंदी के साथ निवेश करना होगा, उसकी प्राथमिकता भी तय करनी होगी ताकि यह टिकाऊ बना रहे. इससे महामारी और उसके बाद भी शहरों में जीवनस्तर को सुधारने में मदद मिलेगी.

इस इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश का फैसला लोगों की जरूरत और चुनिंदा परेशानियों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए. ताइपेई में बेहतरीन सैनिटेशन अभियान चलाने और सैकड़ों की संख्या में यात्रियों के टेंपरेचर की जांच के लिए नई भर्तियों से मुसाफिरों की संख्या महामारी के पहले वाले स्तर पर बनाए रखने में मदद मिली. फिलाडेल्फिया जैसे शहरों में भी सुरक्षा के लिए इस तरह के निवेश से यात्रियों का डर दूर हो सकता है. अभी वे इसी जह के कारण पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं.

साइंस और शोध के इन नतीजों के बावजूद आने वाले कई बरसों तक पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करने वालों की संख्या कम बनी रह सकती है. असल में महामारी का डर लंबे समय तक बना रहेगा और इससे उबरने के बाद नई आदतें बनेंगी. 

पेरिस में सामाजिक दूरी के साथ यातायात व्यवस्था की खातिर 176 किलोमीटर का रास्ता साइकल के लिए अस्थायी तौर पर  बनाया गया. उसके बाद से यह स्थायी रास्ता बन चुका है. इससे पेरिस में रहने वालों की आवाजाही बेहतर हुई है. मुंबई में जहां रोज इतनी बड़ी संख्या में लोग यात्रा करते हैं (इस मामले में वह दुनिया में पहले नंबर पर है), अगर वहां  पैदल चलने और साइकल मार्ग में निवेश किया जाए  तो लोगों को आवाजाही का एक नया जरिया मिल सकता है. इससे पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम पर दबाव भी घटेगा. अगर पब्लिक ट्रांजिट की बाधाओं को दूर करना है और इसकी अहमियत बतानी है तो इसके लिए एक बड़ा कदम इनमें किराये को खत्म करने का हो सकता है.

कोविड-19 महामारी ने शहरी व्यवस्था, अर्थव्यवस्था और समुदायों के बीच के रिश्ते की अहमियत हमारे सामने ला दी है. जैसे-जैसे शहर इस स्वास्थ्य संकट से बाहर निकलेंगे, उन्हें उसके साथ-साथ इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश भी बढ़ाना होगा, जिससे हम ऐसा भविष्य बना सकें, जिसमें सबको बराबर का हक मिले.


ये लेख  कोलाबा एडिट सीरीज़ का हिस्सा है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.