-
CENTRES
Progammes & Centres
Location
अब तक अफ़ग़ानिस्तान में कोई राजनीतिक समझौता न हो पाने और तालिबान के पूरे देश पर जीत हासिल करने की आशंका के चलते रूस के लिए जोख़िम बढ़ गया है, क्योंकि वो अफ़ग़ानिस्तान में सुरक्षा का भरोसा देना चाहता है.
अमेरिका के अपनी सेना वापस बुलाने और तालिबान के सत्तासीन होने के बाद, अफ़ग़ानिस्तान की जंगी हालात लगातार बिगड़ते जा रहे हैं. ऐसे में अन्य साझीदारों जैसे कि, रूस, चीन और ईरान की भूमिका बढ़ती जा रही है. पिछले कई वर्षों से रूस लगातार अफ़ग़ानिस्तान के मसले पर अपना असर बढ़ाने में जुटा हुआ है; फिर चाहे वो तालिबान से ताल्लुक़ बढ़ाना हो, जिसकी शुरुआत कई बरस पहले हुई थी, या फिर शांति वार्ता के तीन प्रमुख पक्षों या अन्य पक्षों के साथ संवाद करना हो, या फिर अपनी मेज़बानी में शांति वार्ता आयोजित करना हो, पूर्व महाशक्ति रूस ने अपनी मौजूदगी का दायरा बढ़ाया है.
सच तो ये है कि अमेरिका और रूस के बीच ख़राब होते रिश्तों के बीच, दोनों पक्ष अफ़ग़ानिस्तान के हालात पर लगातार आपस में सलाह-मशविरा करते रहे हैं. दोनों ही देश, अफ़ग़ानिस्तान में अमन बहाली के लिए सभी पक्षों के बीच बातचीत की वकालत करते हैं. इनमें अफ़ग़ान सरकार, राजनीतिक नेता, तालिबान, सामाजिक समूह को वार्ता का हिस्सा बनाना शामिल है.
अफ़ग़ानिस्तान में शांति का कोई भी समझौता रूस के लिए बहुत अहम है. क्योंकि, एक स्थिर अफ़ग़ानिस्तान में ही रूस के सामरिक और सुरक्षा संबंधी हित सुरक्षित रह सकते हैं. साझा सुरक्षा संधि संगठन (CSTO) के भागीदार के तौर पर रूस की कई ज़िम्मेदारियां बनती हैं और अफ़ग़ानिस्तान में बढ़ती हिंसा से रूस को फ़िक्र इस बात की है कि कहीं ये मध्य एशिया के देशों और ख़ुद उसके अपने इलाक़े तक न फैल जाए. शरणार्थियों की आमद से जुड़े मसले, ड्रग की तस्करी और कट्टरवाद के विस्तार जैसी अफ़ग़ानिस्तान से जुड़ी रूस की कई अन्य चिंताएं भी है. इस्लामिक स्टेट का ख़तरा, रूस की सबसे बड़ी फ़िक्र है. रूस के रक्षा मंत्री सर्जेई शोइगू पहले ही चेतावनी दे चुके हैं कि सीरिया, लीबिया और दूसरे देशों से इस्लामिक स्टेट के आतंकवादी अफ़ग़ानिस्तान पहुंच रहे हैं. इस चुनौती को देखते हुए रूस ने ताजिकिस्तान में अपने सैनिक अड्डे की ताक़त को और बढ़ाया है.
शरणार्थियों की आमद से जुड़े मसले, ड्रग की तस्करी और कट्टरवाद के विस्तार जैसी अफ़ग़ानिस्तान से जुड़ी रूस की कई अन्य चिंताएं भी है. इस्लामिक स्टेट का ख़तरा, रूस की सबसे बड़ी फ़िक्र है.
रूस को लगता है कि अगर तालिबान, अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर क़ाबिज़ हो गए, तो उनसे संवाद करना ज़रूरी हो जाएगा. तभी इन मसलों पर रूस अपने हितों की हिफ़ाज़त कर पाएगा. इसीलिए, रूस में अभी भी तालिबान के प्रतिबंधित संगठन होने के बावजूद, दोनों पक्षों के बीच कई बैठकें हो चुकी हैं. रूस के विदेश मंत्रालय ने तालिबान से ये भरोसा लिया है कि ‘वो मध्य एशियाई देशों की सीमा का उल्लंघन नहीं करेगा’. इसके अलावा, तालिबान ने रूस को ये यक़ीन भी दिलाया है कि वो अफ़ग़ानिस्तान से इस्लामिक स्टेट के ख़तरे को दूर करेगा और गृह युद्ध के ख़ात्मे के बाद देश में ड्रग के उत्पादन का भी उन्मूलन करेगा.
तालिबान से आतंकवाद और कट्टरवाद पर क़ाबू पाने का भरोसा मिलने के बावजूद, अगर तालिबान ने अपना वादा नहीं निभाया, तो रूस भविष्य में ऐसे किसी भी हालात के लिए ख़ुद को तैयार रखना चाहता है. रूस के विदेश और रक्षा मंत्री पहले ही अफ़ग़ानिस्तान में बढ़ती अस्थिरता और ख़राब होते सुरक्षा के हालात के लिए चिंता जता चुके हैं. तालिबान अपनी जीत तय देखकर अफ़ग़ानिस्तान में और भी अस्थिरता बढ़ा सकते हैं.
इस बीच, पिछले एक महीने के दौरान एक के बाद एक जीत हासिल करके तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान के उज़्बेकिस्तान और ताज़िकिस्तान से लगने वाले सूबों पर पूरी तरह से नियंत्रण स्थापित कर लिया है. इसे देखते हुए, रूस ने हाल ही में अफ़ग़ानिस्तान की सीमा के पास उज़्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान के साथ साझा युद्धाभ्यास किया. इसके अलावा चीन के उत्तर पश्चिमी इलाक़े में भी रूस और चीन की सेनाएं युद्धाभ्यास कर रही हैं. ये इलाक़ा चीन के उस शिंजियांग सूबे के पूरब में है, जिसकी थोड़ी सी सीमा अफ़गानिस्तान से लगती है.
रूस ने अफ़ग़ानिस्तान के पश्तूनों के साथ भी अपने संपर्क बढ़ाए हैं. जबकि, पहले रूस मुख्य रूप से उज़्बेक और ताजिक समुदायों के साथ ही नज़दीकी रखता था. माना जा रहा है कि रूस ये क़दम इसलिए उठा रहा है कि, ‘अगर कोई एक पक्ष कमज़ोर होता है’, तो भी अफ़ग़ानिस्तान में उसका प्रभाव और हित सुरक्षित रहें. इन नीतियों के चलते रूस की पाकिस्तान से भी नज़दीकी बढ़ी है, क्योंकि ख़ुद पाकिस्तान के खड़े किए गए तालिबान पर उसका बहुत गहरा असर है. इसके अलावा रूस ने अन्य क्षेत्रीय ताक़तों जैसे कि चीन और ईरान से भी अफ़ग़ानिस्तान पर संवाद बढ़ाया है.
असल में, अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका की वापसी ने रूस और चीन दोनों के लिए चुनौती बढ़ा दी है. अब दोनों के सामने हालात पर क़ाबू पाने का असल ‘इम्तिहान’ है. रूस और अमेरिका के बीच चल रहे मौजूदा तनाव के बीच, अफ़ग़ानिस्तान के बिगड़ते हालात ने रूस को मौक़ा दे दिया है कि वो विश्व की अग्रणी ताक़त के तौर पर अमेरिका की भूमिका पर सवाल उठाए. क्योंकि रूस का कहना है कि अमेरिका, अफ़ग़ानिस्तान में अपने मिशन में नाकाम रहा. लेकिन, अमेरिका द्वारा अपनी सेना वापस बुला लेने से अनिश्चितता बढ़ गई है. हालांकि रूस ये तो कभी नहीं चाहता था कि अफ़ग़ानिस्तान में स्थायी तौर पर पश्चिमी देशों की सेनाएं तैनात रहें, क्योंकि इससे रूस के अपने प्रभाव पर नकारात्मक असर पड़ता था.
रूस ने अफ़ग़ानिस्तान के पश्तूनों के साथ भी अपने संपर्क बढ़ाए हैं. जबकि, पहले रूस मुख्य रूप से उज़्बेक और ताजिक समुदायों के साथ ही नज़दीकी रखता था. माना जा रहा है कि रूस ये क़दम इसलिए उठा रहा है कि, ‘अगर कोई एक पक्ष कमज़ोर होता है’, तो भी अफ़ग़ानिस्तान में उसका प्रभाव और हित सुरक्षित रहें.
भारत हमेशा इस बात पर ज़ोर देता रहा है कि वो अफ़ग़ानिस्तान की वाजिब तरीक़े से चुनी गई सरकार से ही आधिकारिक रूप से बातचीत करेगा. जबकि, अफ़ग़ानिस्तान में अपना हित देखने वाले अन्य देश तालिबान से सीधे संवाद कर रहे हैं. तालिबान के प्रति भारत का ये रुख़ इसलिए समझ में आता है कि उसने तालिबान प्रभावित इलाक़ों में पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों के ज़रिए सीमा पार से आतंकवाद का सामना किया है. ऐसे में तेज़ी से बदलते अफ़ग़ानिस्तान के हालात में भारत के विकल्प बहुत सीमित नज़र आते हैं. तालिबान के सैन्य ताक़त के बल पर सत्ता पर क़ाबिज़ होने के बजाय भारत, अफ़ग़ान सरकार और तालिबान के बीच एक राजनीतिक समझौते को तरज़ीह देना चाहेगा. भारत के नीतिगत विकल्पों का दायरा बढ़ाने और हित सुरक्षित रखने के लिए, ये कहा जाता रहा है कि भारत के पास दोस्ताना क्षेत्रीय ताक़तों के साथ संवाद करने से बेहतर कोई और विकल्प नहीं है. इसके अलावा वो पर्दे के पीछे से तमाम अफ़ग़ान समूहों के साथ बातचीत कर सकता है.
अफ़ग़ानिस्तान के तमाम पक्षों के साथ भारत का संवाद बढ़ाने में रूस काफ़ी मददगार साबित हो सकता है. रूस की तरह भारत भी अफ़ग़ानिस्तान से कट्टरपंथ और आतंकवाद के विस्तार के ख़तरे को लेकर चिंतित है और वो अफ़ग़ानिस्तान में इस्लामिक सरकार की स्थापना के पक्ष में नहीं है. भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर का कहना है कि रूस और भारत को मिलकर काम करना होगा ताकि, अफ़ग़ानिस्तान में पिछले वर्षों के दौरान जो ‘आर्थिक, सामाजिक और लोकतांत्रिक प्रगति’ हुई है, उसे बचाकर रखा जा सके. इस्लामिक स्टेट के ख़तरे को लेकर भी रूस और भारत के विचार एक जैसे हैं. अफ़ग़ानिस्तान में राजनीतिक संवाद के ज़रिए स्थिरता क़ायम होने से दोनों ही देशों का फ़ायदा होगा. अगर ऐसा होता है तो इसका रूस और भारत के बीच कनेक्टिविटी बढ़ाने की योजनाओं पर भी सकारात्मक असर पड़ेगा.
अफ़ग़ानिस्तान के मसले पर आपस में बातचीत करने के अलावा रूस और भारत, दूसरे बहुपक्षीय मंचों जैसे कि शंगाई सहयोग संगठन के ज़रिए भी अफ़ग़ानिस्तान में आपसी सहयोग को बढ़ा सकते हैं. चूंकि, मध्य एशिया के देश, एक अस्थिर अफ़ग़ानिस्तान से पैदा होने वाले सुरक्षा के हालात को लेकर चिंतित हैं, तो शंघाई सहयोग संगठन, इस मुद्दे पर सभी देशों के बीच सहयोग का उपयोगी ज़रिया बन सकता है.
रूस की तरह भारत भी अफ़ग़ानिस्तान से कट्टरपंथ और आतंकवाद के विस्तार के ख़तरे को लेकर चिंतित है और वो अफ़ग़ानिस्तान में इस्लामिक सरकार की स्थापना के पक्ष में नहीं है.
शंघाई सहयोग संगठन और अफ़ग़ानिस्तान कॉन्टैक्ट ग्रुप, क्षेत्रीय देशों और अफ़ग़ान सरकार को सुरक्षा के मसले पर सीधे सहयोग करने का मंच मुहैया कराता है. भारत की रणनीति के लिए लिहाज़ से ये बहुत अहम है. कट्टरपंथ और आतंकवाद का विस्तार एक साझा चिंता है. इस मंच पर सभी देशों की साझा चिंता के मसलों को क्षेत्रीय आतंकवाद निरोधक संरचना (RATS) के ज़रिए हल करने की कोशिश की जा सकती है.
हालांकि, ये तो साफ़ है कि अफ़ग़ानिस्तान को लेकर भारत का नज़रिया हमेशा अन्य देशों से नहीं मिलने वाला है. लेकिन, भारत को सुरक्षा का एक सीमित एजेंडा तैयार करने की कोशिश करनी चाहिए, जिससे उसके अपने हित सध सकें. इसमें रूस की भी अहम भूमिका हो सकती है.
ख़ुद को यूरेशिया की एक अहम ताक़त के तौर पर देखने वाले रूस के पास ये मौक़ा है वो ख़ुद को इस क्षेत्र की ज़िम्मेदार और स्थिरता लाने वाले देश के तौर पर पेश कर सके. अब तक अफ़ग़ानिस्तान में कोई राजनीतिक समझौता न हो पाने और तालिबान के पूरे देश पर जीत हासिल करने की आशंका के चलते, रूस के लिए जोखिम बढ़ गया है, क्योंकि वो अफ़ग़ानिस्तान में सुरक्षा का भरोसा देना चाहता है. सुरक्षा संबंधी इस चुनौती से निपटने के लिए, रूस के लिए ये अहम होगा कि वो भारत समेत तमाम क्षेत्रीय ताक़तों से सक्रिय रूप से संवाद करे. हालांकि, अफ़ग़ानिस्तान को लेकर रूस का नज़रिया भारत से अलग है, क्योंकि भारत, पाकिस्तान की भूमिका को लेकर ख़ास तौर से चिंतित है. ऐसे में यूरेशिया में रूस के दूरगामी हितों को तभी फ़ायदा होगा जब वो पाकिस्तान के साथ अपने संबंध बेहतर बनाने की कोशिश में भारत के साथ अपने रिश्ते न ख़राब करे.
आज भारत को अपने हितों की रक्षा के लिए तमाम पक्षों के संपर्क स्थापिन करने और क्षेत्रीय ताक़तों के साथ संवाद बढ़ाने की ज़रूरत है. ये काम आसान नहीं रहने वाला है, ख़ास तौर से इसलिए भी, कि रूस, ईरान और मध्य एशिया के दूसरे देशों की नज़र में भारत, तमाम दोस्त देशों में से महज़ एक है.
जहां तक भारत की बात है, तो उसके लिए अफ़ग़ानिस्तान के मौजूदा हालात बड़ी मुश्किल हैं. आज भारत को अपने हितों की रक्षा के लिए तमाम पक्षों के संपर्क स्थापिन करने और क्षेत्रीय ताक़तों के साथ संवाद बढ़ाने की ज़रूरत है. ये काम आसान नहीं रहने वाला है, ख़ास तौर से इसलिए भी, कि रूस, ईरान और मध्य एशिया के दूसरे देशों की नज़र में भारत, तमाम दोस्त देशों में से महज़ एक है. इसके अलावा, भारत के पास वो ताक़त भी नहीं है कि उसे त्रिपक्षीय वार्ता/ विस्तारित त्रिपक्षीय वार्ता जैसे उन तमाम मंचों पर आमंत्रित किया जाए, जहां अफ़ग़ानिस्तान के भविष्य को लेकर चर्चा हो रही हो.
इन हालात में भारत के अफ़ग़ानिस्तान के मसले पर, रूस से सीधा संवाद करने की अहमियत और भी बढ़ जाती है, और अगर दोनों देश अफ़ग़ानिस्तान के मसले पर एक राय क़ायम कर पाते हैं, तो ये सामरिक साझेदारी के लिहाज़ से एक सकारात्मक संकेत होगा. इससे भारत, जंग से बेहाल अफ़ग़ानिस्तान में न सिर्फ़ अपने हित सुरक्षित रख सकेगा, बल्कि रूस भी यूरेशिया की एक अहम शक्ति के रूप में अपनी स्थिति मज़बूत कर पाएगा और भारत के साथ अपने रिश्ते भी बेहतर कर सकेगा.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.
Nivedita Kapoor is a Post-doctoral Fellow at the International Laboratory on World Order Studies and the New Regionalism Faculty of World Economy and International Affairs ...
Read More +