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तुर्की और अमेरिका का एक साझा हित है. दोनों काबुल सरकार को गिरने से बचाना चाहते हैं. वे इस सरकार को तब-तक बचाए रखना चाहते हैं, जब तक कि अफ़गानियों के नेतृत्व में वहां के अलग-अलग पक्षों के बीच वार्ता से कोई अंतिम राजनीतिक हल नहीं निकल जाता.
अफ़ग़ानिस्तान से अगस्त में अमेरिकी सैनिकों की पूरी तरह से वापसी के बाद काबुल हवाई अड्डे की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी तुर्की पर होगी. इसे देखते हुए तुर्की में बाइडेन-एर्दोआन की आपसी रिश्तों को सुधारने की कोशिशों के अप्रत्याशित परिणाम की उम्मीद की जा रही है. वैसे, अफ़ग़ानिस्तान में तुर्की की इस भूमिका को अमेरिका बहुत अहमियत देने के मूड में नहीं है क्योंकि इससे गंभीर जोख़िम और अनिश्चितताएं जुड़ी हैं. अमेरिकी सैनिकों की वापसी के मद्देनज़र अफ़गानिस्तान में तुर्की की इस नई भूमिका पर पाकिस्तानी जानकारों ने भी संभलकर प्रतिक्रिया दी है. सामान्य परिस्थितियों में तुर्की की ऐसी कूटनीतिक सफ़लता और नाटो के तहत बड़ी ज़िम्मेदारी मिलने का पाकिस्तानियों ने जश्न मनाया होता. इधर, भारत भी अफ़ग़ानिस्तान में तुर्की की नई भूमिका को लेकर आशंकित है. उसे लगता है कि इसका भारत की अफ़ग़ानिस्तान नीति पर असर पड़ सकता है.
अतीत की ओर लौटें तो अमेरिका की अफ़गान नीति वर्षों से एक बोझ बन गई थी. इसमें आगे का रास्ता क्या होगा, इसका कोई अता-पता नहीं था. उसका कारण यह था कि अफ़गानिस्तान के भविष्य को लेकर अमेरिका की कोई स्पष्ट सोच नहीं थी. अमेरिकी सैनिक दो दशक तक अफ़ग़ानिस्तान में बने रहे, लेकिन इस दौरान देश का राजनीतिक भविष्य कैसी शक्ल अख्त़ियार कर रहा है, उसके पास इसकी कोई स्पष्ट तस्वीर नहीं थी. यह कहना भी गलत नहीं होगा कि पाकिस्तान के साथ रिश्तों में उतार-चढ़ाव के कारण अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका वह मकसद हासिल नहीं कर पाया, जिसकी ख़ातिर उसने यहां सैनिक भेजे थे. यह बात भी मायने रखती है कि मध्य एशिया अब अमेरिकी विदेश नीति की प्राथमिकताओं में शामिल नहीं है. रणनीतिक लिहाज़ से अब मध्य एशिया और पश्चिम एशिया की जगह अमेरिका के लिए एशिया प्रशांत क्षेत्र ने ले ली है. एशिया प्रशांत में सहयोगी देशों को अमेरिका की तत्काल मदद की जरूरत है. यहां चीन का प्रभाव बढ़ने से कहीं अधिक व्यापारिक लेन-देन खतरे में पड़ सकता है. सच तो यह है कि इस क्षेत्र में चीन का प्रभाव लगातार बढ़ भी रहा है. मध्य एशिया में चीन के उभार ने अमेरिका के साथ रूस को भी चिंतित कर रखा है. इसलिए अफ़ग़ानिस्तान में तुर्की की नई भूमिका अपेक्षाकृत कम जोख़िम वाली है. इसी कारण से अमेरिका ने काबुल अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे जैसे संवेदनशील और महत्वपूर्ण ठिकाने की ज़िम्मेदारी तुर्की को सौंपना स्वीकार किया है.
मध्य एशिया अब अमेरिकी विदेश नीति की प्राथमिकताओं में शामिल नहीं है. रणनीतिक लिहाज़ से अब मध्य एशिया और पश्चिम एशिया की जगह अमेरिका के लिए एशिया प्रशांत क्षेत्र ने ले ली है. एशिया प्रशांत में सहयोगी देशों को अमेरिका की तत्काल मदद की जरूरत है.
एशिया को लेकर तुर्की की जो रणनीति रही है, उसमें अफ़गानिस्तान का स्थान हमेशा काफी ऊपर रहा है. 1870 के बाद से रूसी साम्राज्य के खिलाफ़ जब ब्रिटेन और तुर्की ने हाथ मिलाया, तब भी अफ़गानिस्तान केंद्र में था. 1910 में भारत में ब्रिटिश राज के खिलाफ़ तुर्की-जर्मन अभियान में भी काबुल को महत्वपूर्ण भूमिका मिली. यहां राजा महेंद्र प्रताप सिंह के नेतृत्व में भारत की पहली अस्थायी सरकार बनी. राजा साहब के ऑट्टोमन अधिकारियों के साथ क़रीबी ताल्लुक़ात थे और उनकी खलीफ़ा तक सीधे पहुंच थी. तुर्की में जब मुस्तफ़ा कमाल अतातुर्क सत्ता में आए, तब भी अफ़गानिस्तान की यह भूमिका बनी रही. कमाल अतातुर्क के अफ़गानिस्तान के बादशाह अमानुल्लाह ख़ान के साथ क़रीबी रिश्ते थे. इससे बादशाह को अफ़ग़ानिस्तान में आधुनिक शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात सुविधाएं और बुनियादी ढांचा क्षेत्र में बेहतरी लाने में भी मदद मिली. रूस और चीन के अफ़ग़ानिस्तान की ओर बढ़ते कदमों को देखते हुए 1939 में सादाबाद समझौता हुआ. यह वह दौर था, जब भारत में अंग्रेज़ी राज से मुक्ति पाने के लिए आंदोलन काफी तेज़ हो गया था. ब्रिटिश जब 1947 में भारत छोड़कर गए, तब भारतीय उपमहाद्वीप दो स्वतंत्र देशों- भारत और पाकिस्तान में बंट गया. इसके बाद धीरे-धीरे पाकिस्तान ने अफ़ग़निस्तान की जगह ले ली और तुर्की की रणनीतिक योजना से अफ़ग़ानिस्तान बाहर हो गया.
वहीं, जब सोवियत संघ ने अफ़ग़ानिस्तान पर हमला किया, तो उसके खिलाफ़ एक अंतरराष्ट्रीय जिहाद शुरू हुआ, इस जिहाद में अमेरिका ने भी मदद की. पैसा सऊदी अरब ने दिया और जिहाद की ख़ातिर पाकिस्तान की धरती का इस्तेमाल हुआ. उसके बाद से पाकिस्तान और तुर्की के रिश्ते अच्छे बने तो रहे, लेकिन पाकिस्तान की रक्षा नीति के लिए तुर्की नहीं, सऊदी अरब अधिक महत्वपूर्ण बना रहा. ख़ासतौर पर पश्चिम एशियाई देशों से पाकिस्तान के संबंधों में सऊदी की महत्वपूर्ण भूमिका बनी रही. यह भी सच है कि अफ़ग़ानिस्तान के भविष्य को लेकर आज पाकिस्तान और तुर्की के बीच कई मुद्दों पर असहमतियां हैं.
ऐतिहासिक तौर पर तुर्की मानता आया है कि अफ़ग़ानिस्तान में रहने वाले उज्बेक, हज़ारा और ताजिक मूल के लोग उसके स्वाभाविक सहयोगी हैं. अब्दुल राशिद दोस्तम एक उज्बेक हैं और वह अफ़ग़ानिस्तान में तुर्की के सबसे नज़दीकी सहयोगी हैं.
ऐतिहासिक तौर पर तुर्की मानता आया है कि अफ़ग़ानिस्तान में रहने वाले उज्बेक, हज़ारा और ताजिक मूल के लोग उसके स्वाभाविक सहयोगी हैं. अब्दुल राशिद दोस्तम एक उज्बेक हैं और वह अफ़ग़ानिस्तान में तुर्की के सबसे नज़दीकी सहयोगी हैं. दूसरी ओर, अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान के जो सहयोगी हैं, उनमें से ज्य़ादातर उसे सोवियत संघ के खिलाफ़ जिहाद के दौरान मिले, लेकिन तालिबान इकलौती ताक़त है, जिस पर पाकिस्तान निर्भर करता है. भारत और ईरान के खिलाफ़ तालिबान क्या राय रखता है, यह बात किसी से छिपी नहीं है. वह पाकिस्तान और खाड़ी देशों के शाही परिवारों और ख़ासतौर पर सऊदी अरब को जोड़ता है, जो ईरान को अपने लिए ख़तरा मानते हैं. यूं तो तालिबान ने रणनीति के तौर पर ईरान और भारत के खिलाफ़ अपने सुर नरम किए हैं और उसने रूस और चीन को भी आश्वासन दिया है कि वह शांति के लिए दोनों की योजना को मानेगा. दूसरी तरफ, अमेरिका की वापसी के बाद पाकिस्तान अपनी तरफ से दोस्त तुर्की के लिए कोई भूमिका सुरक्षित नहीं कर पाया. उसे जो भूमिका मिली, अमेरिका की वजह से मिली.
नाटो के तहत तुर्की को अफ़ग़ानिस्तान में जो ज़िम्मेदारी मिली है, वह पाकिस्तान के साथ तालिबान को भी मुश्किल में डालने वाली है. हाल ही में तुर्की मूल के अफ़ग़ानियों ने तालिबान के खिलाफ़ प्रदर्शन किया और उन्होंने देश के लिए भविष्य के किसी भी समझौते में वाजिब भागीदारी की मांग की. तुर्की मूल के इन लोगों ने कहा कि अगर ऐसा नहीं होता है तो वे अफ़ग़ानिस्तान से अलग ‘दक्षिण तुर्किस्तान’ देश बनाने की मुहिम शुरू करेंगे. यूं तो अफ़ग़ानिस्तान में ऐसे अलगाववादी आंदोलन का कोई ज़मीनी आधार अभी नहीं है, फिर भी इस बयान के सांकेतिक महत्व से इनकार नहीं किया जा सकता. यह भी सच है कि तुर्की मूल के अफ़गानियों ने यह बात तालिबान से ज्य़ादा पाकिस्तान को ध्यान में रखकर कही.
पाकिस्तान की स्थिति अजीब हो गई है. उसे अपने ‘भाई तुर्की’ की खातिर तालिबान से तुर्की विरोधी तेवरों में कमी लाने के लिए कहना होगा. ख़ासतौर पर इस बात को देखते हुए कि तुर्की को अब काबुल हवाई अड्डे की ज़िम्मेदारी मिली है. एक अजीब बात यह भी हुई है कि तुर्की के अफ़ग़ानिस्तान में रुकने की योजना पर तालिबान की प्रतिक्रिया को सऊदी अरब के मीडिया में भी जगह मिल रही है, लेकिन इसमें हैरानी की कोई बात नहीं. यह उसी ‘खेल’ का हिस्सा है, जिसका ज़िक्र ऊपर हुआ है. वैसे, तुर्की की ओर से अभी तक इन बयानों का कोई जवाब नहीं आया है. माना जा रहा है कि अप्रैल में इंस्ताबुल में जो शांति वार्ता होने वाली थी, तालिबान ने उसमें शामिल होने से मना कर दिया था और तुर्की इस बात से नाराज है.
एक अजीब बात यह भी हुई है कि तुर्की के अफ़ग़ानिस्तान में रुकने की योजना पर तालिबान की प्रतिक्रिया को सऊदी अरब के मीडिया में भी जगह मिल रही है, लेकिन इसमें हैरानी की कोई बात नहीं. यह उसी ‘खेल’ का हिस्सा है, जिसका ज़िक्र ऊपर हुआ है.
इन सबके बीच सबसे बड़ा सवाल यही है कि अमेरिका ने तुर्की को अफ़ग़ानिस्तान में इतनी बड़ी भूमिका ऐसे वक्त में क्यों दी, जबकि दोनों देशों के बीच रिश्ते अब तक के सबसे बुरे दौर से गुजर रहे हैं? उसका कारण यह है कि तुर्की और अमेरिका का एक साझा हित है. दोनों चाहते हैं कि काबुल सरकार पूरी तरह से ढह न जाए. वे चाहते हैं कि काबुल सरकार का तब तक नियंत्रण बना रहे, जब तक कि अफ़गानियों के नेतृत्व में वहां के अलग-अलग पक्षों के बीच बातचीत में कोई अंतिम राजनीतिक सुलह न हो जाए. उधर, रूस और चीन दोनों जानते हैं कि तालिबान के पास काबुल पर कब्ज़ा करने की सैन्य ताकत नहीं है. अगर वे इसकी कोशिश करते हैं तो गृहयुद्ध तेज़ होगा और अव्यवस्था बढ़ेगी. तालिबान के पास इतनी राजनीतिक ताकत भी नहीं है कि वह ऐसा प्रस्ताव पेश करे, जो अफ़गानी नस्लीय समूहों और अफ़गान सरदारों को मंजूर हो.
इन हालात में संघर्ष तेज़ होता है और काबुल सरकार गिरती है तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय को फिर से अफ़ग़ानिस्तान में दख़ल देना पड़ सकता है. तुर्की के सैनिकों के रुकने का मतलब यह है कि यह स्थिति रुक या कम से कम टल सकती है. तुर्की ने लीबिया में संयुक्त राष्ट्र से मान्यताप्राप्त सरकार का समर्थन किया था. साल 2020 में सीरियाई सैनिकों के खिलाफ़ उसने कार्रवाई की थी और उसके लिए ड्रोन का भी कारगर इस्तेमाल किया था. इसलिए संयुक्त राष्ट्र से मान्यता प्राप्त काबुल सरकार के समर्थन का मतलब है कि तुर्की और अमेरिका दोनों के पास समूचे अफ़गानिस्तान पर तालिबान के नियंत्रण को रोकने का कानूनी आधार है, बशर्ते वे ट्रंप सरकार के साथ हुए एग्रीमेंट के मुताबिक किसी सार्थक वार्ता प्रक्रिया से ना जुड़ें.
सवाल यह भी है कि क्या तालिबान वाकई तुर्की के खिलाफ़ जाकर अफ़ग़ानिस्तान में उसके हितों को नुकसान पहुंचाने के लिए हिंसा का सहारा लेगा? ऐसा तभी हो सकता है, जब तालिबान को पाकिस्तान से गुपचुप समर्थन मिले. लेकिन पाकिस्तान के साथ तुर्की के रिश्ते अच्छे हैं, इसलिए अमेरिका यह उम्मीद कर रहा है कि तालिबान किसी भी सूरत में तुर्की के खिलाफ़ मोर्चा नहीं खोलेगा.
आज तुर्की जिस भूमिका में है, पहले उसमें भारत के रहने की चर्चा हो रही थी. भारत ने वहां के रणनीतिक समीकरण को समझने में गलती की. साथ ही, वह अफ़गानिस्तान में चल रहे संघर्ष को सुलझाने के किसी अंतरराष्ट्रीय पहल का हिस्सा नहीं बनना चाहता था.
आज तुर्की जिस भूमिका में है, पहले उसमें भारत के रहने की चर्चा हो रही थी. भारत ने वहां के रणनीतिक समीकरण को समझने में गलती की. साथ ही, वह अफ़गानिस्तान में चल रहे संघर्ष को सुलझाने के किसी अंतरराष्ट्रीय पहल का हिस्सा नहीं बनना चाहता था. शायद, भारतीय नीति-निर्माताओं को लगा कि अमेरिका वहां अनिश्चित काल तक या कहीं लंबे समय तक सैनिकों को रखेगा, लेकिन यह सोच गलत साबित हुई. वैसे, यह भी सच है कि अफ़गानिस्तान में तुर्की को जो भूमिका मिली है, वह पाकिस्तान के विरोध करने पर नहीं मिल सकती थी.
इन सबके बीच, अगर काबुल सरकार को गिरने से बचाया जा सका तो इससे न सिर्फ़ सार्थक वार्ता में मदद मिलेगी बल्कि अफ़ग़ानिस्तान नब्बे के दशक वाले दौर में लौट पाएगा. भारत को भी काबुल पर तालिबान का कब्ज़ा रोकने की किसी अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय पहल में शामिल होना चाहिए. एक ऐसा उद्देश्य है, जो उसे अमेरिका, तुर्की और काबुल सरकार के साथ ला खड़ा करता है.
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Ankara-based academician Omair Anas teaches International Relations at Yildirim beyazit University Ankara Turkey
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