Author : Sushant Sareen

Published on Feb 23, 2022 Updated 0 Hours ago

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की हुकूमत को व्यवहारिक रूप से मान्यता देने भर से ही ये सुनिश्चित नहीं हो सकेगा कि वो एक ज़िम्मेदार सरकार और विश्व समुदाय के सदस्य के रूप में सही बर्ताव करने लगेंगे. 

अफ़ग़ानिस्तान: सिर्फ़ लड़कियों की शिक्षा को मंज़ूरी देने से तालिबान के शासन को स्वीकार नहीं किया जा सकता है!

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अफ़ग़ानिस्तान का मसला सिर्फ़ इस बारे में नहीं है कि हार के बाद अमेरिका या पश्चिमी देश और बाक़ी राष्ट्र बड़ा दिल दिखा रहे हैं या फिर घटिया हरकत पर उतर आए हैं; ये मामला तालिबान की हुकूमत के मिज़ाज और उसके किरदार का है कि वो बाक़ी दुनिया से किस तरह का रिश्ता रखता है और इस क्षेत्र और बाक़ी दुनिया के लिए तालिबान की सरकार से ख़तरा कितना बड़ा है. अफ़ग़ानिस्तान के संकट को तालिबान की ज़हरीली विचारधारा से अलग करके नहीं देखा जा सकता है. न ही कोई ज़िम्मेदार और संवेदनशील देश इस बात की अनदेखी कर सकता है कि अगर इस कट्टरपंथी मध्यकालीन मानसिकता वाले संगठन को स्थिर और मज़बूत बनने दिया जाता है, तो उससे बाक़ी दुनिया को कितना बड़ा ख़तरा पैदा हो सकता है. तालिबान का अल क़ायदा जैसे अंतरराष्ट्रीय जिहादी संगठनों और जैश-ए-मुहम्मद, तहरीक़-ए-तालिबान और जमात अंसारुल्लाह जैसे क्षेत्रीय दहशतगर्दी समूहों से बिरादराना ताल्लुक़ात भी बराबर की चिंता का विषय है. ऐसे में तालिबान के राज से अफ़ग़ानिस्तान में पैदा हुए मानवीय संकट, या फिर तालिबान की हुकूमत की मदद करके उसे पांव न जमाने दिया गया, तो इस्लामिक स्टेट खुरासान (ISK) जैसे दहशतगर्द संगठन ताक़तवर हो जाएंगे, जैसे तर्कों पर ज़ोर देने का मतलब असली समस्या को समझने से ही इंकार कर देना है. ये किसी ऐसी विचारधारा को पिछले दरवाज़े से मान्यता देकर वैधानिक बनाने जैसा होगा, जिसकी सोच और दुनिया को लेकर उसका नज़रिया इस्लामिक स्टेट खुरासान जैसा ही है, और जो संगठन सिर्फ़ और सिर्फ़ ताक़त के बल पर हुकूमत करना जानता है. मगर, तालिबान के प्रायोजक, समर्थक, उसके प्रचारक और दूत आज यही सब करने की कोशिश कर रहे हैं.

ये मामला तालिबान की हुकूमत के मिज़ाज और उसके किरदार का है कि वो बाक़ी दुनिया से किस तरह का रिश्ता रखता है और इस क्षेत्र और बाक़ी दुनिया के लिए तालिबान की सरकार से ख़तरा कितना बड़ा है.

वैसे भी अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने तालिबान को मान्यता देने के लिए बहुत बड़ी बड़ी शर्तें नहीं लगाई हैं. मोटे तौर पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय तालिबान से जो अपेक्षा करता है, उसका ख़ाका अमेरिका के विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने काबुल पर तालिबान के क़ब्ज़े के कुछ दिनों बाद ही पेश किया था: तालिबान से ये उम्मीद की गई थी कि वो समावेशी और जहां तक संभव हो सभी समुदायों की नुमाइंदगी करने वाली ऐसी सरकार का गठन करे जिसमें अन्य जातीय समूहों और अल्पसंख्यकों को भी व्यवस्था में एक हिस्सा मिले; महिलाओं और जातीय, सांप्रदायिक और नस्लीय अल्पसंख्यकों को अधिकारों की गारंटी (पढ़ाई और काम करने का अधिकार) दे; आतंकवादी संगठनों से रिश्ते तोड़ ले और किसी वैश्विक और अन्य देश के संगठन द्वारा अफ़ग़ानिस्तान की धरती का इस्तेमाल पनाह हासिल करने और साज़िश करने के लिए इस्तेमाल न होने दे; मानव अधिकारों का सम्मान करे और पिछली सरकारों के सदस्यों और तालिबान के विरोधियों के ख़िलाफ़ किसी तरह की बदले की कार्रवाई को रोके; और अफ़ग़ान नागरिकों को देश छोड़ने की इजाज़त दे.

अगर तालिबान ने इन वादों को पूरा भी किया होता तो भी क्या इससे उसकी बुनियादी सोच में कोई बदलाव आ जाता? इसमें कोई दो राय नहीं कि लड़कियों को पढ़ाई करने देने की अहमियत है, लेकिन क्या लड़कियों को स्कूल जाने की इजाज़त देना और या महिलाओं को काम करने की मंज़ूरी देने को ऐसा पैमाना बनाना ठीक है, जिससे तालिबान हुकूमत की स्वीकार्यता बढ़ जाए? क्या सरकार में अल्पसंख्यक समुदायों या ग़ैर तालिबान संगठनों या फिर कुछ महिलाओं की नाम मात्र नुमाइंदगी से अंतरराष्ट्रीय समुदाय को तालिबान की नीयत पर यक़ीन कर लेना चाहिए? अभी जो हालात दिख रहे हैं, उसमें तो तालिबान ने इसमें से बुनियादी बातें भी नहीं मानी हैं. वैसे तो उन्होंने बार बार भरोसा दिया है और अंतरराष्ट्रीय समुदाय की मांग पर कुछ आदेश भी जारी किए हैं, लेकिन तालिबान ने असल में अपने किए इन वादों को तोड़ने का ही काम किया है. मीडिया का गला घोंट दिया गया है; सामाजिक संगठनों को धमकाया डराया जा रहा है, वो लापता हो रहे हैं या फिर मार दिए जा रहे हैं; लड़कियों को शिक्षा से वंचित रखा जा रहा है- उनके लिए स्कूल और कॉलेज के दरवाज़े बंद रखे गए हैं; इकतरफ़ा हत्याएं और बदले की भावना से क़त्ल की घटनाएं आम हो चुकी हैं; सफ़र करने की आज़ादी अभी भी सीमित ही है; नाम भर की समावेशी सरकार भी अभी दूर की कौड़ी दिख रही है; तालिबान ने अभी आतंकी संगठनों से संबंध ख़त्म करने को लेकर भी किसी तरह का झुकाव नहीं दिखाया है. यहां तक कि अब तो पाकिस्तान भी ये शिकायत कर रहा है कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की अमीरात की ज़मीन पर तहरीक़-ए-तालिबान (TTP) अपनी गतिविधियां चला रहा है.

इसमें कोई दो राय नहीं कि लड़कियों को पढ़ाई करने देने की अहमियत है, लेकिन क्या लड़कियों को स्कूल जाने की इजाज़त देना और या महिलाओं को काम करने की मंज़ूरी देने को ऐसा पैमाना बनाना ठीक है, जिससे तालिबान हुकूमत की स्वीकार्यता बढ़ जाए?

पाकिस्तान की दोहरी चाल

पिछले छह महीने के दौरान तालिबान द्वारा अंतरराष्ट्रीय समुदाय से किए गए एक भी वादे को पूरा न किए जाने के बावजूद, अब ऐसे क़दम उठाए जा रहे हैं, जिससे तालिबान की सरकार को स्वीकार करने, उसे वैधानिक दर्ज़ा देने और यहां तक कि मान्यता देने की कोशिशें साफ़ नज़र आ रही हैं. इनमें से कुछ क़दम तो अगस्त 2021 में काबुल पर तालिबान के क़ब्ज़े के कुछ हफ़्तों के बाद ही शुरू हो गई थीं. कहने की ज़रूरत नहीं है कि असल में ये पाकिस्तान है, जो लगातार तालिबान की हुकूमत को मान्यता दिलाने की पुरज़ोर कोशिश कर रहा है. पिछले साल नवंबर तक पाकिस्तान के अधिकारी इस बात को लेकर बहुत मुतमईन थे कि आख़िरकार दुनिया तालिबान की हुकूमत को मंज़ूर कर ही लेगी. उन्हें लगता था कि दुनिया के पास तालिबान की सरकार को स्वीकार करने और आख़िर में उसे मान्यता देने के अलावा कोई और विकल्प है नहीं. पाकिस्तान ने तालिबान की हुकूमत को अंतरराष्ट्रीय समुदाय से मान्यता दिलाने के लिए दो तरीक़े अपनाए हैं: एक तरफ़ प्रधानमंत्री इमरान ख़ान अफ़ग़ानिस्तान में तेज़ी से बढ़ रहे मानवीय संकट का ख़ौफ़ दिखाकर दुनिया को डराते हैं. वहीं दूसरी तरफ़ उनके विदेश मंत्री ये चेतावनी दे रहे हैं कि अगर अफ़ग़ानिस्तान के हालात की अनदेखी की गई, तो दहशतगर्दी फैलाने वाले संगठनों को किस तरह से ताक़त मिलेगी.

दिसंबर महीने में तो ऐसा लग रहा था कि तालिबान को मान्यता दिलाने की पाकिस्तान की कोशिशें रंग लाने लगी हैं. इस्लामाबाद में हुई इस्लामिक देशों के संगठन (OIC) की बैठक में न केवल अफ़ग़ानिस्तान की मदद का वादा किया गया, बल्कि ये मांग की गई अमेरिका में ज़ब्त अफ़ग़ानिस्तान के विदेशी मुद्रा भंडार को जारी किया जाए. अगले महीने संयुक्त राष्ट्र ने किसी एक देश के लिए मानवीय मदद की सबसे बड़ी अपील जारी की और अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अफ़ग़ानिस्तान के लिए पांच अरब डॉलर मांगे. इस बीच, कुछ यूरोपीय देश सक्रिय हो गए और उन्होंने वादा किया कि वो अफ़ग़ान अध्यापकों की तनख़्वाह अदा करेंगे. अलग- अलग देशों के प्रतिनिधिमंडल भी काबुल का दौरा करने लगे थे या फिर वो क़तर की राजधानी दोहा में तालिबान के नुमाइंदों से मुलाक़ात करने लगे थे. तालिबान को उस वक़्त और ज़बरदस्त समर्थन हासिल हुआ जब नॉर्वे ने तालिबान के कार्यकारी विदेश मंत्री अमीर मुत्तक़ी को अलग अलग भागीदारों से बातचीत के लिए ओस्लो आने का न्यौता दिया.

एक तरफ़ प्रधानमंत्री इमरान ख़ान अफ़ग़ानिस्तान में तेज़ी से बढ़ रहे मानवीय संकट का ख़ौफ़ दिखाकर दुनिया को डराते हैं. वहीं दूसरी तरफ़ उनके विदेश मंत्री ये चेतावनी दे रहे हैं कि अगर अफ़ग़ानिस्तान के हालात की अनदेखी की गई, तो दहशतगर्दी फैलाने वाले संगठनों को किस तरह से ताक़त मिलेगी.

वैसे तो नॉर्वे और अन्य देशों के वार्ताकारों ने ज़ोर देकर ये कहा कि तालिबान के नुमाइंदों के साथ इस बैठक का मतलब न तो उसकी हुकूमत को वैधानिकता देना है और न ही उसको व्यवहारिक अर्थों में मान्यता देना है. लेकिन, तालिबान ने इसे अपनी हुकूमत को मान्यता मिलने की दिशा में बढ़ा एक और क़दम ही माना. काबुल में पहले ही कई देशों के दफ़्तर काम कर रहे हैं- ख़बरें तो ऐसी भी आईं कि भारत भी काबुल में अपना दूतावास खोलने के विकल्पों पर ग़ौर कर रहा है. इन बातों से ज़ाहिर है कि तालिबान का हौसला बढ़ा है कि वो दुनिया से अपने आपको मनवा लेने में कामयाब हो रहे हैं. अभी पिछले ही हफ़्ते स्विटज़रलैंड के एक स्वयंसेवी संगठन जेनेवा कॉल ने तालिबान के प्रतिनिधिमंडल की मेज़बानी की. इस दौरान ‘नागरिकों की हिफ़ाज़त, मानवीय मदद की स्थिति, स्वास्थ्य सेवाओं का सम्मान और बारूदी सुरंगों और अफ़ग़ानिस्तान में जंग के बाद बचे विस्फोटकों के भविष्य को लेकर चर्चा की गई.’ मोटे तौर पर देखें तो जिस तरह से मध्य पूर्व और यूरोप के कुछ देश तालिबान से बात करने के लिए एक दूसरे पर गिरे पड़े जा रहे हैं, उससे ऐसा साफ़ हो जाता है कि तालिबान की हुकूमत को क़ाग़ज़ी तौर पर नहीं, मगर व्यवहारिक स्तर पर मान ही लिया गया है.

इसके अलावा, दुनिया में ऐसे अफ़ग़ान विशेषज्ञों की भी कोई कमी नहीं है- ये वही लोग हैं जिन्होंने दुनिया को उस ख़्वाबगाह की सैर कराई थी कि ‘तालिबान अब बदल गए हैं’ और अब वो सभ्य संसार के साथ क़दम से क़दम मिलाकर चलने को तैयार हैं- ये अफ़ग़ान विशेषज्ञ दुनिया के तमाम देशों से बार बार यही अपील कर रहे हैं कि वो ‘तालिबान के साथ काम करना शुरू करें’ और वो ये भी बताते रहते हैं कि ‘तालिबान से बात करना’ ही सबसे सही क़दम क्यों है. ज़ाहिर है कि ये सभी विशेषज्ञ ये नहीं बताते हैं कि पिछले कई वर्षों के दौरान, तालिबान से इतने दौर की बातचीत करने का नतीजा आख़िर क्या निकला है. न ही ये विशेषज्ञ यही बताते हैं कि तालिबान ने ख़ुद की ओर से किए गए कितने वादे निभाए हैं, कितने मुद्दों पर रियायतें दी हैं, और विवादित मुद्दों पर समझौते किए हैं. ये अफ़ग़ानिस्तान विशेषज्ञ ये तो निश्चित रूप से नहीं बताते हैं कि किस तरह तालिबान ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ बातचीत करने वो सब कुछ हासिल कर लिया, जो वो चाहते थे और बदले में ख़ुद कुछ भी नहीं दिया.

सच तो ये है कि अफ़ग़ानिस्तान की जिस जमा रक़म पर रोक लगाई गई है, उन्हें जारी भी कर दिया जाता तो भी अफ़ग़ान अर्थव्यवस्था की बुनियादी दिक़्क़तें दूर नहीं होतीं. 

तालिबान को मिलने वाली अंतरराष्टीय फंड पर रोक

लेकिन, तालिबान के हक़ में तमाम दलीलें देने के बावजूद, अमेरिका के राष्ट्रपति ने अफ़ग़ानिस्तान के विदेशी मुद्रा भंडार को रोकने के लिए जो कार्यकारी आदेश जारी किया है, उसने आने वाले लंबे समय के लिए तालिबान को अंतरराष्ट्रीय मान्यता या वैधता मिलने की संभावना को ख़ारिज कर दिया है. इस बात की उम्मीद भी बहुत कम है कि आने वाले समय में तालिबान पर लगे प्रतिबंध हटाए जाएंगे. अमेरिका के इस क़दम के बाद, तथाकथित अफ़ग़ान विशेषज्ञों ने बाइडेन प्रशासन द्वारा तालिबान का फंड रोकने के क़दम की कड़ी आलोचना की है. लेकिन, सच यही है कि अमेरिका ने अफ़ग़ान नागरिकों को मानवीय मदद की ज़रूरत पूरी करने और संसाधनों पर तालिबान का क़ब्ज़ा रोकने के बीच बारीक़ संतुलन बनाने की कोशिश की है, जिससे कि तालिबान अपनी हुकूमत को और मज़बूत करके जंग लड़ने की अपनी मशीनरी को और ताक़तवर न बना लें.

हालांकि, ये आदर्श समाधान नहीं है. लेकिन इस वक़्त जो ज़मीनी हालात हैं उन्हें देखते हुए ये शायद सबसे उचित विकल्प है. सच तो ये है कि अफ़ग़ानिस्तान की जिस जमा रक़म पर रोक लगाई गई है, उन्हें जारी भी कर दिया जाता तो भी अफ़ग़ान अर्थव्यवस्था की बुनियादी दिक़्क़तें दूर नहीं होतीं. क्योंकि, पश्चिमी देशों द्वारा अफ़ग़ानिस्तान को अरबों डॉलर की मदद जारी रखे बिना अफ़ग़ान हुकूमत चलाना न संभव है, न ये सरकार टिकाऊ होगी और न ही इसका ख़र्च चलाया जा सकता है. अफ़ग़ानिस्तान को मिलने वाली ये विदेशी ख़ैरात तो उसी दिन बंद हो गई थी, जब तालिबान ने हुकूमत में साझा करने के तमाम प्रस्तावों को ख़ारिज करते हुए काबुल पर क़ब्ज़ा किया था. ऐसे में अमेरिका ने जो रक़म रोकी है, वो मिल भी जाती तो अफ़ग़ानिस्तान को थोड़ी बहुत रियायत ही मिल पाती और वैसा भी तब होता, जब हम ये मानकर चलें कि तालिबान इस रक़म से अपनी जनता को मदद पहुंचाता.

भारत को समझना होगा कि अगर तालिबान जैसी कट्टरपंथी ताक़तों को मज़बूत होने का मौक़ा दिया जाता है, तो इसकी भारी क़ीमत भारत जैसे देशों को ही चुकानी पड़ेगी.

अमेरिका के इस क़दम का निश्चित रूप से तालिबान द्वारा अफ़ग़ानिस्तान पर अपना शिकंजा कसने की कोशिशों पर असर पड़ेगा. ये बहुत ज़रूरी है कि तालिबान जैसी हुकूमतों को टिककर राज करने की इजाज़त न दी जाए और इससे उनको अपनी मध्यकालीन सोच को थोपने का मौक़ा न मिले. ये बात न सिर्फ़ यूरोप के उन लोगों के लिए सही है, जो अफ़ग़ानिस्तान के हालात पर दुखी हैं, बल्कि भारत में मौजूद उन लोगों के लिए भी तार्किक है जो अफ़ग़ानिस्तान के खेल में भारत के दोबारा दाख़िल होने का मौक़ा देख रहे हैं. फ़ौरी तौर पर कुछ चालें चलने के बजाय भारत को अफ़ग़ानिस्तान के हालात को लेकर दूरगामी सामरिक नज़रिया अपनाना चाहिए. भारत को समझना होगा कि अगर तालिबान जैसी कट्टरपंथी ताक़तों को मज़बूत होने का मौक़ा दिया जाता है, तो इसकी भारी क़ीमत भारत जैसे देशों को ही चुकानी पड़ेगी. तालिबान और पाकिस्तान के बीच बढ़ते मतभेदों के चलते, तालिबान से संपर्क बनाने के फ़ौरी फ़ायदे आज भले ही दिख रहे हों, लेकिन हमें इस लालच में पड़ने से बचना चाहिए. इसमें कोई दो राय नहीं कि एक कमज़ोर पाकिस्तान, भारत के हक़ में है. लेकिन, तालिबान जैसी ख़तरनाक सोच वाले संगठन के नेतृत्व में एक स्थिर या मज़बूत अफ़ग़ानिस्तान का निर्माण भारत के हित में नहीं रहने वाला है.

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