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भारत और ऑस्ट्रेलिया SIDS से सहयोग को प्राथमिकता तो देते हैं. पर, मौजूदा भू-राजनीतिक होड़ को देखते हुए इन दोनों के साथ विकास में साझेदारी को मज़बूती देकर ये छोटे विकासशील द्वीपीय देश भी फ़ायदा उठा सकते हैं.
पर्थ में इसी साल फरवरी में इंडियन ओशन कांफ्रेंस हुई थी. उसके बाद दिल्ली में डेफसैट 2024 का आयोजन किया गया था. ऐसे आयोजनों के ज़रिए भारत और ऑस्ट्रेलिया, धीरे धीरे ऐसे समझौतों पर सहमति बना रहे हैं, ताकि दोनों देश तमाम अलग अलग क्षेत्रों में अपनी साझेदारी को गहराई दे सकें. मिसाल के तौर पर हाल ही में दोनों देशों ने अंतरिक्ष और रक्षा के क्षेत्र में अपना सहयोग बढ़ाने के लिए एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए हैं. आज दुनिया में जिस तरह भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक मुक़ाबला बढ़ रहा है, उसे देखते हुए ये समझौता हिंद प्रशांत क्षेत्र के लिए काफ़ी महत्वपूर्ण हो सकता है. मगर, हिंद प्रशांत के भौगोलिक विस्तार के लिए ये काफ़ी निर्णायक समय है, जहां छोटे द्वीपीय देश अपनी चुनौतियों, विवादों और नज़रियों को दुनिया के सामने खुलकर रख रहे हैं.
पर्यावरण को हो रही क्षति और जलवायु परिवर्तन की चुनौतियां SIDS के अस्तित्व के लिए संकट बनकर बिल्कुल उनके सामने खड़ी हैं. ये देश जलवायु परिवर्तन के सामने सबसे कमज़ोर स्थिति वाले भौगोलिक क्षेत्रों में से हैं. इनके सामने प्राकृतिक आपदाओं, समुद्र के स्तर में वृद्धि, ज़मीन घटने, जैव विविधता को नुक़सान, लोकतंत्र की कमी, क़र्ज़ का बढ़ता बोझ और प्रशासन संबंधी चुनौतियां खड़ी हैं. ऐसे में एजेंडा 2030 के लिए ये छोटे देश एक संभावित टकराव का इलाक़ा बन गए हैं. प्रशांत क्षेत्र के ज़्यादातर द्वीपीय देश, जैसे कि तुवालू, फिजी और वानुआतु के ऊपर GDP की तुलना में 70 प्रतिशत क़र्ज़ है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) की अलग अलग देशों के बारे में रिपोर्ट के मुताबिक़, महामारी के बाद प्रशांत क्षेत्र के द्वीपीय देशों के ऊपर उनकी GDP की तुलना में क़र्ज़ का औसत बोझ काफ़ी बढ़ गया है. महामारी के पहले जहां इसका औसत 32.9 प्रतिशत था, वहीं अब ये बढ़कर 42.2 प्रतिशत हो चुका है. इसके अलावा बाक़ी दुनिया से दूर होने, नाज़ुक इकोसिस्टम और छोटी आबादी (दुनिया की कुल आबादी का केवल 1 प्रतिशत) होने की वजह से इन देशों की विकास संबंधी दुविधाएं और बढ़ जाती हैं.
ये देश जलवायु परिवर्तन के सामने सबसे कमज़ोर स्थिति वाले भौगोलिक क्षेत्रों में से हैं. इनके सामने प्राकृतिक आपदाओं, समुद्र के स्तर में वृद्धि, ज़मीन घटने, जैव विविधता को नुक़सान, लोकतंत्र की कमी, क़र्ज़ का बढ़ता बोझ और प्रशासन संबंधी चुनौतियां खड़ी हैं.
आर्थिक सुस्ती, दुनिया भर में छिड़े तमाम संघर्षों, बढ़ती खाद्य सुरक्षा और कमज़ोर होती वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं जैसी बढ़ती चुनौतियों की वजह से इन देशों के टिकाऊ विकास के लक्ष्य (SDGs) हासिल करने के लिए पूंजी जुटा पाना निश्चित रूप से एक बड़ी चुनौती बन गया है. इस मामले में SIDS पूंजी जुटाने की पहेली की एक अहम कड़ी बन गए हैं. अगर हम ये देखें कि पूंजी जुटाने के नए नए तरीक़ों जैसे कि निजी क्षेत्र के योगदान और सार्वजनिक पूंजी हासिल करके पूंजी का प्रवाह बढ़ाने संबंधी परिचर्चाएं बढ़ रही हैं. ऐसे में स्थायित्व के लिए पूंजी जुटाना अपरिहार्य बनता जा रहा है. इस मामले में जलवायु परिवर्तन के अनुरूप ख़ुद को ढालने की तुलना में इसके ख़तरे कम करने पर ज़ोर देने का असंतुलन भी देखने को मिलता है. एडेप्टेशन रिपोर्ट 2023 के अनुसार 2021 में विकासशील देशों को एडेप्टेशन की मद में दी जाने वाली मदद 15 फ़ीसद घटकर 21 अरब डॉलर ही रह गई है. अनुकूलन के लिए पूंजी की बढ़ती ज़रूरत और पूंजी के अनिश्चित प्रवाह की वजह से अब अनुकूलन के लिए पूंजी की कमी सालाना 194 से 366 अरब डॉलर तक जा पहुंची है.
आज किसी भी देश की विदेश नीति में विकास में साझेदारी या सहयोग का पहलू एक महत्वपूर्ण अवयव बन गया है. वैसे तो ये कई दशकों से अस्तित्व में था. लेकिन हाल के दिनों में विकास में साझेदारी के विचार को काफ़ी अहमियत दी जाने लगी है. भारत, चीन, इंडोनेशिया और ब्राज़ील जैसे कई विकासशील देश कौशल विकास, क्षमता निर्माण और जानकारी साझा करने जैसे अहम संसाधन मुहैया कराने की ज़िम्मेदारी उठाने लगे हैं. ऐसे में विकास में साझेदारी पश्चिमी देशों का एकाधिकार अब गए ज़माने की बात बन चुका है. यही नहीं, अब ‘सहायता’ की जगह ‘साझेदारी’ या फिर ‘सहयोग’ को तरज़ीह दी जाने लगी है, जिससे ऐसे संबंधों के मिज़ाज में आए बदलाव का पता चलता है. अब ऐसे रिश्ते बराबरी के स्तर पर बनाए जाते हैं.
भारत का दर्जा विकासशील अर्थव्यवस्था का है. इसलिए, वो ग्लोबल साउथ के अन्य देशों के साथ अपने कौशल और अनुभवों को साझा करना चाहता है. इस मामले में SIDS को विकास और सामरिक दोनों ही मामलों में फ़ायदा होगा.
भू-सामरिक और भू-आर्थिक नज़रिए से देखें, तो हिंद प्रशांत क्षेत्र के ये छोटे विकासशील द्वीपीय देश, भारत और ऑस्ट्रेलिया, दोनों के लिए काफ़ी महत्वपूर्ण हो गए हैं. वैसे तो ऑस्ट्रेलिया इस क्षेत्र में न्यूज़ीलैंड जैसे देशों के साथ पहले से ही काम कर रहा है. लेकिन, ऑस्ट्रेलिया को चाहिए कि वो आपदा से निपटने में लचीलेपन, क्षमता के निर्माण, जैव विविधता और इकोसिस्टम के संरक्षण जैसे मामलों में भारत के साथ संभावित साझेदारी पर विचार करे. ये ऐसा सहयोग है, जिससे दोनों ही देशों को फ़ायदा होगा. भारत द्वारा की गई हाल की पहलें, जैसे कि फोरम फॉर इंडिया पैसिफिक आइलैंड्स को-ऑपरेशन (FIPIC), छोटे विकासशील द्वीपीय देशों के लिहाज़ से क्षेत्रीय भू-राजनीति पर काफ़ी असर डाल रही हैं. इसके अलावा, भारत की विकास की अपनी यात्रा भी अनूठी रही है. चूंकि भारत का दर्जा विकासशील अर्थव्यवस्था का है. इसलिए, वो ग्लोबल साउथ के अन्य देशों के साथ अपने कौशल और अनुभवों को साझा करना चाहता है. इस मामले में SIDS को विकास और सामरिक दोनों ही मामलों में फ़ायदा होगा. ये द्वीपीय देश, ऊर्जा से लेकर जलवायु परिवर्तन और आपका प्रबंध से लेकर लचीलेपन के निर्माण जैसी कई चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. यही नहीं, ये भी देखा गया है कि ये देश जीवाश्म ईंधन पर कुछ ज़्यादा ही निर्भर हैं; क्योंकि, ऊर्जा के नए संसाधन विकसित करने और दूर-दराज में बसे लोगों तक पहुंचाने में काफ़ी लागत आती है; ऊर्जा के ख़राब आंकड़े और ट्रेंड के साथ साथ इन मसलों से प्रभावी तरीक़े से निपटने के लिए कुशल लोगों की कमी भी एक समस्या है. यही नहीं प्रशांत क्षेत्र के द्वीपीय देशों के बीच सहयोग, दोनों ही देशों के लिए अहम है. ख़ास तौर से हाल के वर्षों में बढ़ती भू-राजनीतिक होड़ को देखते हुए. चीन ने प्रशांत क्षेत्र के लिए एक विशेष दूत की नियुक्ति की है. इससे ऑस्ट्रेलिया और क्वाड में उसके सहयोगियों पर दबाव बढ़ा है कि वो प्रशांत क्षेत्र के SIDS के साथ अपने संपर्क बढ़ाएं. 2023 के आख़िर में भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर फिजी के दौरे के बाद सीधे ऑस्ट्रेलिया के सिडनी शहर गए थे. इस दौरान उन्होंने कहा था कि दुनिया भर में भारत के प्रभाव, हितों और उसकी मौजूदगी में इज़ाफ़ा होता जा रहा है और द्विपक्षीय संबंधों में ऑस्ट्रेलिया के साथ क्षेत्रीय साझेदारियां भारत की विदेश नीति के काफ़ी मज़बूत स्तंभ हैं. हाल ही में क्वाड के विदेश मंत्रियों ने जो साझा बयान जारी किया था, उसमें भी प्रशांत क्षेत्र के द्वीपीय देशों के साथ साझेदारी को मज़बूत बनाने पर बल दिया गया था.
टिकाऊ विकास के लिए पूंजी मुहैया कराने के मामले में मौजूदा कमियों ने भी विकास में मददगारों की चिंता बढ़ा दी है.
हालांकि, ग्लोबल साउथ की नुमाइंदगी करने वाले भारत के विकास के अलग अलग मॉडलों को ग्लोबल नॉर्थ के देश ऑस्ट्रेलिया के विकास के मॉडलों के साथ जोड़ना थोड़ा मुश्किल होगा. फिर भी ग्लोबल साउथ के विकास में सहायता देने वाले अन्य देशों जैसे कि चीन की तुलना में भारत का विकास में साझेदारी का मॉडल पश्चिमी देशों को शायद ज़्यादा पसंद आए. इस संदर्भ में त्रिपक्षीय साझेदारियां धीरे धीरे फिर से चर्चा के केंद्र में आ रही हैं. दुनिया के साथ भारत के संपर्क का ये एक अहम पहलू बनकर उभरा है. हालांकि, एक वक़्त में ये विकल्प कम पसंद किया जाता था. पहले के दौर में पारंपरिक दानदाताओं के साथ संपर्क करने में भारत की अनिच्छा, स्पष्ट रूप-रेखा और दिशा-निर्देशों के अभाव के साथ साथ प्रोत्साहन की कमी की वजह से भी थी. टिकाऊ विकास के लिए पूंजी मुहैया कराने के मामले में मौजूदा कमियों ने भी विकास में मददगारों की चिंता बढ़ा दी है. अब ये चर्चाएं काफ़ी ज़ोरों पर हैं कि निजी खिलाड़ियों को जोड़कर विकास के लिए वित्त जुटाने में नई जान कैसे फूंकी जाए. कैसे सामाजिक प्रभाव के निवेश के नए विकल्प मुहैया कराए जाएं और नीतिगत इकोसिस्टम के लिए वास्तविक क्षमता निर्माण कैसे किया जाए. इस मामले में त्रिपक्षीय सहयोग काफ़ी कारगर साबित हो सकता है. समाज के किरदारों और संसाधनों, विकास में भागीदार बनने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं, दानदाताओं और निजी क्षेत्र एकजुट करके उन्हें एक दिशा देकर, विकास वित्त की पहलों को शायद बढ़ाकर पेश किया जा सकता है, विशेष रूप से छोटे द्वीपीय विकासशील देशों के मामले में. इस तरह से त्रिपक्षीय सहयोग से संपर्क बढ़ाने और सभी साझीदारों के बीच लाभ के वितरण को भी सुनिश्चित किया जा सकेगा. ये ऐसी बात है जिसका भारत और ऑस्ट्रेलिया दोनों ही लाभ उठा सकते हैं, ताकि वो प्रशांत क्षेत्र के अपने साझीदारों के साथ संपर्क बढ़ा सकें.
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Dr Swati Prabhu is Associate Fellow with the Centre for New Economic Diplomacy at the Observer Research Foundation. Her research explores the interlinkages between development ...
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