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Published on Jun 07, 2024 Updated 1 Hours ago
जलवायु संकट की चेतावनी: आख़िर क्यों इसे सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिये आपातकालीन स्थिति कहा जा रहा है?

लॉकडाउन, बेहद नुक़सान से भरा और अभूतपूर्व व्यवधानों का एक उथल-पुथल वाला दौर दुनिया ने देखा. इसका अनुभव करने के बाद जब विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने यह घोषणा की कि COVID-19 अब पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी ऑफ इंटरनेशनल कंसर्न (PHEIC) नहीं है तो वैश्विक समुदाय ने राहत की सांस ली. लेकिन यह राहत एक और स्थाई सच्चाई के साथ मिली है : एक संकट की समाप्ति का मतलब यह नहीं है कि मानव स्वास्थ्य के समक्ष मौजूद चुनौतियां ख़त्म हो गई हैं. जैसा कि WHO के डायरेक्टर-जनरल ने बखूबी कहा था, "मानव जाति के समक्ष मौजूद परस्पर व्यापक और एक दूसरे में गुंथे हुए संकटों को देखते हुए कहा जा सकता है कि महामारी ही हमारे सामने मौजूद एकमात्र संकट नहीं है." जलवायु परिवर्तन भी मानव जाति के समक्ष मंडराने वाला एक ऐसा ही संकट है, जिसका मानव स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव पड़ेगा.

मानव और ग्रहों के स्वास्थ्य निर्विवाद और स्वाभाविक रूप से आपस में जुड़े हुए है. अत: जलवायु परिवर्तन को सार्वजनिक स्वास्थ्य का मुद्दा मानकर तत्काल इस पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है. जलवायु परिवर्तन जैसे-जैसे क्रिटिकल टिपिंग प्वाइंट की ओर बढ़ रहा है, वैसे ही इसकी वज़ह से मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाला प्रभाव भी साफ़ होने लगा है. ऐसे में जब WHO ने आधिकारिक रूप से जलवायु परिवर्तन को ‘21 वीं सदी में स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़े ज़ोख़िम’ के रूप में मान्यता दी तो आश्चर्य नहीं हुआ. अब दुनिया के विभिन्न क्षेत्र और इलाकों से जलवायु परिवर्तन को सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए आपातकाल के रूप में वर्गीकृत करने की मांग उठने लगी है.

यह लेख मानवीय स्वास्थ्य पर जलवायु परिवर्तन के गंभीर प्रभाव और इंटरनेशनल हेल्थ रेग्यूलेशंस (IHR) के तहत इसे सार्वजिनक आपातकाल के रूप में मान्यता देने को लेकर मौजूद चुनौतियों और इसकी ज़रुरत का परीक्षण करता है. 

क्या जलवायु परिवर्तन को कानूनी रूप से सार्वजनिक स्वास्थ्य की आपात स्थिति के रूप चिन्हित किया जा सकता है? यह लेख मानवीय स्वास्थ्य पर जलवायु परिवर्तन के गंभीर प्रभाव और इंटरनेशनल हेल्थ रेग्यूलेशंस (IHR) के तहत इसे सार्वजिनक आपातकाल के रूप में मान्यता देने को लेकर मौजूद चुनौतियों और इसकी ज़रुरत का परीक्षण करता है. यह इस बात की भी जांच करता है कि कैसे विश्व स्वास्थ्य प्रशासन और जलवायु परिवर्तन को लेकर तत्काल उठाए जाने वाले कदम इस वक्त एक-दूसरे के साथ गुंथे हुए है.

PHEIC और इंटरनेशनल हेल्थ रेग्यूलेशंस/अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य विनियमन 

स्वास्थ्य संकट के दौरान WHO की ओर से घोषित होने वाली सबसे बड़ी चेतावनी PHEIC को ही माना जाता है. PHEIC को IHR के तहत विनियमित किया जाता है. इसकी घोषणा के साथ ही तत्काल कार्रवाई आवश्यक हो जाती है. ऐसे में विभिन्न देशों के बीच वैश्विक परिणाम वाले स्वास्थ्य संकट से निपटने के लिए समन्वित जवाबी कार्रवाई को प्राथमिकता दी जाती है. इसे केवल ध्यान आकर्षित करने के लिए संकेतात्मक घोषणा नहीं माना जाता. बल्कि इस घोषणा के साथ ही विभिन्न देशों को आपात स्थिति से निपटने के लिए अपनी क्षमताओं को विकसित और तैयार भी करना पड़ता है.

जब PHEIC की घोषणा हो जाती है तो स्वास्थ्य संकट को पहचानने और उससे निपटने की व्यवस्था करने का दायित्व सरकार का हो जाता है. इस जवाबदारी और ज़िम्मेदारी को सरकारों पर सौंपने की तुलना कुछ विद्वान एरगा ओमनेस अर्थात सबके लिए दायित्व सौंपे जाने से करते हैं. IHR के अंतर्गत राष्ट्रीय हेल्थ सिस्टम्स को मजबूत करना और इस तरह की चुनौतियों के संदर्भ में WHO को जानकारी देना सरकारों का कर्तव्य माना गया है.

PHEIC की घोषणा होने के साथ ही यह भी आवश्यक हो जाता है कि पर्यावरणीय स्वास्थ्य संकटों का भी प्रशासनिक स्तर पर आपसी सहयोग के साथ जवाब दिया जाए. इसका उद्देश्य वैश्विक स्तर पर स्वास्थ्य सुरक्षा को मजबूत करने के लिए समन्वय के साथ काम करना है. यह सहयोग संसाधन जुटाने, जवाबी कार्रवाई के लिए राजनीतिक और वित्तीय समर्थन हासिल करने के साथ अनुसंधान और विकास संबंधी गतिविधियों के लिए नियमित फंडिंग की व्यवस्था करने में अहम साबित होता है.

यह चेतावनी भी होती है कि अब वैश्विक स्तर पर समन्वित जवाब देकर महामारी के ख़तरे की गंभीरता को कम किया जाए.

किसी स्वास्थ्य संकट को PHEIC के रूप में मान्यता दिलवाने का एक और अहम पहलू यह है कि IHR के आर्टिकल 49 का उपयोग करते हुए WHO अस्थायी सिफ़ारिश जारी कर वैश्विक स्तर पर समन्वित जवाब सुनिश्चित करने की क्षमता रखता है. PHEIC की घोषणा के साथ जारी की गई सिफ़ारिशों के कारण सीमाओं पर ही स्वास्थ्य ज़ोख़िमों को प्रबंधित करने का एक समान दृष्टिकोण अपनाया जा सकता है, जिसका उद्देश्य बीमारी के फ़ैलाव को रोकते हुए अंतरराष्ट्रीय परिवहन, व्यापार तथा यात्रा नीतियों में न्यूनतम हस्तक्षेप सुनिश्चित करना होता है. इस तरह की घोषणा अंतरराष्ट्रीय वर्ग को उभरती अथवा तीव्र होते स्वास्थ्य संकट के प्रति आगाह कर देती है. यह चेतावनी भी होती है कि अब वैश्विक स्तर पर समन्वित जवाब देकर महामारी के ख़तरे की गंभीरता को कम किया जाए. अत: PHEIC संबंधी घोषणा एक प्रोएक्टिव यानी सक्रिय साधन का काम करती है, जो अंतरराष्ट्रीय वर्ग को उभरती या तीव्र होते स्वास्थ्य संकट के प्रति सतर्क करते हुए वैश्विक स्तर पर समन्वित जवाबी कार्रवाई के महत्व को उजागर करती है.

 

जलवायु परिवर्तन को PHEIC वर्गीकृत करने में कानूनी कमियां

 

जलवायु परिवर्तन में, सार्वजनिक स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव डालने की क्षमता है, यह बात सर्वविदित है. लेकिन जब इसे PHEIC के रूप में वर्गीकृत करने की बात आती है तो यह मामला जटिल चुनौतियों से भरा हो जाता है. जलवायु परिवर्तन, मानव स्वास्थ्य पर साफ़ तौर पर दुष्प्रभाव डाल रहा है, जिसका संज्ञान लिया जाना चाहिए. लेकिन जलवायु परिवर्तन को PHEIC मानने की राह में कुछ कानूनी बारीकियां रुकावट पैदा करती है. 

सबसे बड़ी चुनौती ‘PHEIC’ की बेहद कड़ी और कठिन व्याख्या के साथ जलवायु परिवर्तन को खड़ा करने की है. IHR के अनुसार, PHEIC का मतलब एक ऐसी अभूतपूर्व घटना जो यह आगे दिए गए नियमों के तहत किए गए प्रावधानों को पूरा करती हो : (i) किसी देश के माध्यम से दूसरे देश तक अंतरराष्ट्रीय फ़ैलाव के चलते पैदा होने वाला सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट, और (ii) जिसके लिए संभावित रूप से समन्वित अंतरराष्ट्रीय जवाबी कार्रवाई ज़रूरी हो. ‘घटना’ का वर्णन इस प्रकार किया गया है, ‘किसी बीमारी का प्रत्यक्षीकरण यानी दिखना या फिर कोई दुर्घटना जिसमें बीमारी को फ़ैलाने की क्षमता हो’. इसी प्रकार ‘बीमारी’ अर्थात कोई भी ऐसी अस्वस्थता या मेडिकल कंडीशन, जो मानव जाति के लिए ख़तरा बन चुकी हो या फिर जिसमें ख़तरा बनने की संभावना हो. इसमें ‘बीमारी’ की उत्पत्ति पर विचार करना ज़रूरी नहीं होता. लेकिन जलवायु परिवर्तन एक घटना होने के बावजूद इस व्याख्या में साफ़ तौर पर नहीं बैठती है. इसके बावजूद WHO का आपात प्रतिक्रिया फ्रेमवर्क (ढांचा) जलवायु परिवर्तन को स्वास्थ्य आपातकाल को उत्प्रेरित करने की क्षमता वाले ‘रिस्क फैक्टर’ के रूप में ही चिन्हित करता है. लेकिन वह जलवायु परिवर्तन को ही अपने आप में आपातकाल नहीं मानता. लेकिन विद्वानों का मानना है कि इसमें मानवीय स्वास्थ्य को प्रभावित करने और मृत्यु दर में वृद्धि करने की क्षमता मौजूद है. अत: जलवायु परिवर्तन को अपने आप में संपूर्ण घटना माना जाना चाहिए.

जलवायु परिवर्तन का अलग-अलग इलाकों में विविध अभिव्यक्ति का सामाजिक-आर्थिक प्रभाव भी अलग-अलग पड़ता है. इसकी वज़ह से निर्णय लेने की प्रक्रिया पर आर्थिक और कारोबारी हित, स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं के मुकाबले भारी पड़कर इन्हें दबा सकते है.

‘सार्वजनिक स्वास्थ्य ज़ोख़िम’ की अवधारणा भी स्वास्थ्य प्रकोप प्रबंधन के समक्ष एक अस्पष्ट चुनौती पेश करती है. विशेषत: जलवायु परिवर्तन के मामले में ज़ोख़िम की अवधारणा विस्तार, अहमियत और तत्कालिकता से जुड़े सवालों को अस्पष्ट रूप में पेश करती है. और इन मुद्दों के बारे में कुछ ठोस नहीं कहा जा सकता. इमरजेंसी कमेटी, मामला-दर-मामला ज़ोख़िम का आकलन करती है, लेकिन जलवायु परिवर्तन जैसे बहुमुखी मुद्दे के साथ ज़ोख़िम को जोड़ने से कारणों का पता लगाने में ही जटिलता पैदा हो जाएगी. इतना ही नहीं जलवायु परिवर्तन से जुड़े टेम्पोरल आस्पेक्ट्स यानी समय से संबंधित पहलू भी एक नई जटिलता पेश करते है. चूंकि जलवायु परिवर्तन लघु-अवधि की चरम घटना (जैसे हीट वेव यानी लू, बाढ़ या चक्रवात) या फिर धीमे-धीमे शुरू होने वाली घटना (समुद्री जल स्तर में वृद्धि या समुद्र का एसिडिफिकेशन/अम्लीकरण) में दिखाई देता है. अत: घटनाओं की चरमता को लेकर अवधि का मसला भी जलवायु परिवर्तन को PHEIC के रूप में निर्धारण करने की राह में जटिलता की नई परत जोड़ देता है. 

जलवायु परिवर्तन को PHEIC निर्धारण करने की राह में प्रक्रियात्मक ख़ामियां है. यह इसके मूल्यांकन को और भी जटिल बनाती है. जलवायु परिवर्तन को PHEIC के रूप में निर्धारण करने के लिए घटना के महत्व की तुलना अंतरराष्ट्रीय कारोबार को संभावित रूप से प्रभावित करने की इसकी क्षमता के साथ की जाती है. लेकिन ऐतिहासिक उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि बड़े पैमाने पर तबाही के कारण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले बुरे प्रभाव के बावजूद कुछ घटनाओं को इसी वज़ह से PHEIC के रूप में वर्गीकृत नहीं किया गया. जलवायु परिवर्तन का अलग-अलग इलाकों में विविध अभिव्यक्ति का सामाजिक-आर्थिक प्रभाव भी अलग-अलग पड़ता है. इसकी वज़ह से निर्णय लेने की प्रक्रिया पर आर्थिक और कारोबारी हित, स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं के मुकाबले भारी पड़कर इन्हें दबा सकते है.

इसी प्रकार प्रक्रियात्मक तकनीकियों संबंधी चिंताओं के साथ ही जलवायु परिवर्तन को PHEIC घोषित करने को लेकर कयास भी नहीं लगाया जा सकता. इसका कारण यह है कि पूर्व में स्वास्थ्य प्रकोप का मूल्यांकन करने में देखी गई विसंगतियां हमारे सामने मौजूद ही है. विद्वानों का कहना है कि प्रकोप का मूल्यांकन करने के लिए किन मापदंडों को पूरा स्वीकारा गया और आवश्यकताओं को कैसे संतोषजनक माना गया, इस बात को न्यायोचित ठहराने के मामले में भी अधिक निरंतरता की आवश्यकता है.

 

इसके बावजूद इसे सार्वजनिक स्वास्थ्य की आपात स्थिति क्यों माना जाना चाहिए?

 

अंतर्राष्ट्रीय नियमों की ओर से लागू पाबंदी के बावजूद जलवायु परिवर्तन को एक महत्वपूर्ण सार्वजनिक स्वास्थ्य चिंता के रूप में मान्यता देना ज़रूरी है. इस दावे का समर्थन करने वाला पुख़्ता वैज्ञानिक सबूत भी मौजूद है. यह इस बात को प्रदर्शित करता है कि कैसे ग्रह के स्वास्थ्य का उसके निवासियों के स्वास्थ्य के साथ नज़दीकी संबंध होता है. विज्ञान इस बात को स्पष्ट करता है कि जलवायु परिवर्तन एक थ्रेट मल्टीप्लायर है और नागरिक इसकी कीमत अपने स्वास्थ्य से चुका रहे हैं. 2019 में लैंसेट काउंटडाउन रिपोर्ट ने गिरते स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन के बीच नज़दीकी संबंध की ओर ध्यान आकर्षित करवाया था. जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल की छठीं आकलन रिपोर्ट ने भी ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’ का अल्टीमेटम दिया था. इस रिपोर्ट ने निष्कर्ष निकाला था कि जलवायु ज़ोख़िम अब तेज होने लगे है और यह उम्मीद से पहले तीव्रता पाने लगे है. इस वज़ह से बढ़ रही ग्लोबल हीटिंग के साथ सामंजस्य बैठाना मुश्किल हो रहा है. 

जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से जुड़ी जटिलता इसे अन्य स्वास्थ्य आपात स्थितियों के चालकों के मुकाबले अलग-थलग कर देती है. एक वार्मिंग वर्ल्ड (गर्म होती दुनिया) के कारण लोग बीमार होने के नए-नए तरीकों का सामना कर रहे है. वर्तमान ‘जलवायु स्वास्थ्य संकट’ में वैश्विक स्तर पर मानवीय स्वास्थ्य में गिरावट लाकर मृत्यु दर को बढ़ाने और आने वाले वर्षों में लंबे समय तक सामाजिक और आर्थिक परेशानियां बढ़ाने की क्षमता है. एक अनुमान है कि 2050 तक जलवायु परिवर्तन के कारण 14.5 मिलियन अतिरिक्त मौतें होंगी.

ऐसा हुआ तो वर्तमान के साथ-साथ भविष्य की पीढ़ी के स्वास्थ्य की भी सुरक्षा करने में सफ़लता मिलेगी.

स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में पिछले कुछ दशकों में सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर किए गए कार्य पर भी जलवायु परिवर्तन ख़तरा बन सकता है. इसका एक स्पष्ट उदाहरण संक्रामक बीमारियों को तेजी से फ़ैलाने की जलवायु की क्षमता को माना जा सकता है. अनुसंधान से संकेत मिला है कि जलवायु परिवर्तन में ग्लोबल मैमालियन वाइरोम (स्तनधारी वाइरोम) को फिर से गढ़ने की क्षमता है. ऐसा हुआ तो ज़ूनोटिक स्पिलओवर (जानवरों से मनुष्यों में या मनुष्यों से जानवरों में फैलने वाली बीमारी) का रास्ता खुल जाएगा और इसके चलते नए प्रकोप या संभवत: भविष्य में नई महामारी भी देखी जा सकती है. इसमें बीमारी के उद्भव का सबसे अहम कारक बनने की भी संभावना है. इस मामले में यह जंगल कटाई, वन्यजीव कारोबार और औद्योगिक कृषि जैसे मुद्दों को पीछे छोड़ने की क्षमता रखता है. स्थिति को और ख़राब करने के लिए जलवायु में भविष्य की महामारियों को तेज करने या बिगाड़ने की भी क्षमता है. इस ज़ोख़िम की ओर ध्यान नहीं दिया गया तो हम वक़्त से पहले ही वैश्विक स्वास्थ्य संबंधी प्रयासों में जीत मिलने का दावा करते नज़र आएंगे.

इतना ही नहीं जलवायु परिवर्तन को सार्वजनिक स्वास्थ्य आपात स्थिति घोषित करने से हम सक्रिय जवाबी कार्रवाई को तेज करते हुए दावों और जमीन पर किए गए कार्यों के बीच की खाई को पाट सकते है. इसके स्वास्थ्य को प्रभावित करने के बढ़ते सबूतों के बावजूद जलवायु बातचीत में राजनीतिक स्तर पर निष्क्रियता और फूट बनी हुई है. WHO के पास इस राजनीतिक इच्छाशक्ति को बल देने की क्षमता है. लेकिन इसके लिए उसे जलवायु परिवर्तन को स्वास्थ्य आपातकाल के रूप में मान्यता देनी होगी. ऐसी घोषणा होने पर जलवायु संबंधित स्वास्थ्य ज़ोख़िम को कम करने के साथ ही विभिन्न देशों को अपने नीति एजेंडा में जलवायु कार्रवाई को शामिल करने पर मजबूर किया जा सकेगा. इसके साथ ही WHO का यह कदम वर्तमान जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क की ख़ामियों को उजागर करते हुए इस संकट से निपटने के लिए और भी प्रभावी नीतियों को अपनाने में सहायता करेगा.

सरल शब्दों में कहा जाए तो मानव स्वास्थ्य और उसकी ख़ैरियत पर जलवायु परिवर्तन के गंभीर परिणाम को देखते हुए इसे सार्वजनिक स्वास्थ्य आपात स्थिति के रूप में मान्यता देना ज़रूरी हो गया है. इस मुद्दे की गंभीरता को समझकर वैश्विक स्तर पर कार्रवाई की तैयारी कर नीति निर्माता, जलवायु परिवर्तन के कारण स्वास्थ्य पर हो रहे प्रभावो को कम करने का काम कर सकते हैं. ऐसा हुआ तो वर्तमान के साथ-साथ भविष्य की पीढ़ी के स्वास्थ्य की भी सुरक्षा करने में सफ़लता मिलेगी. इस ज़ोख़िम के निपटने में विफ़लता, न केवल वर्तमान स्वास्थ्य संकट को तीव्र करेगी, बल्कि विश्व स्तर पर सार्वजनिक स्वास्थ्य और ख़ैरियत को बनाए रखने की दिशा में किए गए काम पर भी पानी फेर देगी.


निशांत सिरोही, ट्रांजिशंस रिसर्च में लॉ एंड सोसायटी फेलो हैं.

लियाने डिसूज़ा, ट्रांजिशंस रिसर्च के लो कार्बन सोसायटी प्रोग्राम में रिसर्च असिस्टेंट हैं.

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Authors

Nishant Sirohi

Nishant Sirohi

Nishant Sirohi is an advocate and a legal researcher specialising in the intersection of human rights and development - particularly issues of health, climate change, ...

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Lianne D’Souza

Lianne D’Souza

Lianne is an environmental lawyer and researcher specialising in climate change law, energy transition, and international trade law. She holds a Bachelor's degree in Law ...

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