मार्च 2021 में ब्रिटिश सरकार ने ‘प्रतिस्पर्धी युग में वैश्विक ब्रिटेन: सुरक्षा, प्रतिरक्षा, विकास और विदेश नीति की एकीकृत समीक्षा’ के नाम से एक रणनीतिक दस्तावेज़ जारी किया था. इसमें यूरोपीय संघ से बाहर निकलने (ब्रेग्ज़िट) के बाद दुनिया के साथ ब्रिटेन के जुड़ावों का विस्तृत ब्योरा दिया गया था.
पश्चिमी जगत के बाक़ी देशों की तरह ही चीन के साथ ब्रिटेन के रिश्ते 2021 से बदतर होते जा रहे हैं. यही वजह है कि 2023 की समीक्षा में चीन को “युग को परिभाषित करने वाली चुनौती” क़रार दिया गया है. हालांकि इसके बावजूद खुले तौर पर चीन को “ख़तरे” की श्रेणी में रखने से हिचक दिखाई गई है.
अब दो साल बाद जब यूक्रेन संकट ने वैश्विक सुरक्षा व्यवस्था को पलटकर रख दिया है, तब ब्रिटेन ने इसी दस्तावेज़ का ताज़ातरीन अंक जारी किया है. इसे ‘एकीकृत ताज़ा समीक्षा 2023: पहले से ज़्यादा टकराव भरी और उथल-पुथल की शिकार दुनिया से जुड़ी प्रतिक्रिया’ का नाम दिया गया है. लिज़ ट्रस प्रशासन ने 2022 में इस ताज़ा संस्करण के आदेश दिए थे. 2021 में प्राथमिक दस्तावेज़ जारी होने के बाद से भूराजनीतिक परिदृश्य को बुनियादी तौर पर बदलकर रख देने वाली घटनाओं के मद्देनज़र ब्रिटिश प्राथमिकताओं का नए सिरे से आकलन करने के लिए ऐसी क़वायद की पहल की गई थी.
“ख़तरे, अव्यवस्था और विभाजन”
2023 की एकीकृत समीक्षा में अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा वातावरण में और ज़्यादा गिरावट आने की चेतावनी दी गई है. “यूक्रेन पर रूस की अवैध चढ़ाई के साथ-साथ दक्षिण चीन सागर और ताइवान जलसंधि में चीन के आक्रामक रुख़” से “दुनिया में ख़तरे, अव्यवस्था और विभाजन की छाप” के बीच ऐसी हिदायत दी गई गई है. रूस को लगातार ब्रिटेन का “सबसे विकट ख़तरा” और “सबसे गंभीर” सुरक्षा चुनौती के तौर पर पेश किया गया है. हालांकि 2023 के दस्तावेज़ में 2021 के मुक़ाबले एक बड़ा अंतर है. ताज़ा ब्योरे में सामूहिक सुरक्षा को यूक्रेन संघर्ष के परिणाम के साथ जोड़ा गया है. यूरो-अटलांटिक क्षेत्र अब भी ब्रिटेन की भौगोलिक प्राथमिकता की अहम कड़ी के तौर पर बरक़रार है. यूक्रेन को ब्रिटेन की सैन्य सहायता से ये बात प्रमाणित भी होती है. इस मद में यूक्रेन को 2.3 अरब यूरो की मदद पहुंचाकर ब्रिटिश सरकार, अमेरिका के बाद उसकी दूसरी सबसे बड़ी मददगार बनकर उभरी है.
अहम बात ये है कि इस दस्तावेज़ में यूरो-अटलांटिक क्षेत्र की समृद्धि को हिंद-प्रशांत की सुरक्षा के साथ जोड़ा गया है. साथ ही इन दोनों क्षेत्रों के विकास को आपस में सम्मिलित कर दिया गया है. कई मायनों में ये पूरी क़वायद हिंद-प्रशांत में सहयोग से जुड़ी यूरोपीय संघ की रणनीति से मिलती-जुलती है. इसमें यूरोपीय महाद्वीप के स्थायित्व को हिंद-प्रशांत क्षेत्र की स्थिरता के साथ जोड़ा गया है. इस संदर्भ में इस दस्तावेज़ में साझा हितों के साथ “अटलांटिक-प्रशांत भागीदारियों के एक नए नेटवर्क” का ज़िक्र किया गया है.
पूरी रणनीति में समान सोच वाले साथियों के साथ नज़दीकी सहयोग पर लगातार ज़ोर दिया गया है. इसमें अमेरिका को ब्रिटेन का “सबसे अहम” साथी बताया गया है. जबकि ऑस्ट्रेलिया को दूसरा सबसे अहम भागीदार क़रार दिया गया है. साथ ही यूरोपीय गठबंधन के हिस्सेदारों के साथ मज़बूत रिश्तों की वक़ालत की गई है.
2021 की एकीकृत रणनीति में हिंद-प्रशांत के प्रति झुकाव को अहम स्थान दिया गया. इसमें “हिंद-प्रशांत में सबसे व्यापक और सबसे एकीकृत उपस्थिति वाला यूरोपीय हिस्सेदार” बनकर उभरने के ब्रिटिश मंसूबों का ऐलान किया गया है. 2023 की रणनीति में इस झुकाव को दोहराते हुए इसे ब्रिटिश विदेश नीति का ‘स्थायी स्तंभ’ क़रार दिया गया है. साथ ही ये स्वीकार किया गया है कि “हिंद-प्रशांत में टकराव के वैश्विक प्रभाव यूक्रेन संघर्ष से भी ज़्यादा संगीन हो सकते हैं”. यहां ग़ौरतलब बात ये है कि कुछ अन्य यूरोपीय देशों के विपरीत ब्रिटेन ने औपचारिक तौर पर हिंद-प्रशांत रणनीति का ख़ुलासा नहीं किया है.
हालांकि, हिंद-प्रशांत की ओर इस झुकाव के प्रमाण के तौर पर और यहां अपनी क्षेत्रीय मौजूदगी दर्शाने के लिए ब्रिटेन ने कई कार्यक्रमों पर प्रतिबद्धता जताई है. इनमें आसियान का संवाद सहयोगी बनना, इलाक़े में अपने कैरियर स्ट्राइक ग्रुप युद्धपोत की तैनाती करना, जापान के साथ रक्षा क़रार पर दस्तख़त करने के साथ-साथ “वैश्विक युद्धक हवाई कार्यक्रम” के नाम से इटली-जापान-ब्रिटेन रक्षा भागीदारी से जुड़ने की क़वायद शामिल है. इसके अलावा ब्रिटेन ने ट्रांस-पेसिफ़िक सहयोग व्यापार क़रार के लिए समग्र और प्रगतिशील समझौते में शामिल होने के लिए आवेदन भी दे दिया है. ब्रिटिश सरकार ने हाल ही में हिंद-प्रशांत के लिए एक मंत्री की भी नियुक्ति की है. इसके साथ ही इस क्षेत्र में ‘प्रौद्योगिकी से जुड़े दूत’ की नियुक्ति करने से जुड़ी अतिरिक्त योजनाओं का भी ख़ुलासा किया है.
पश्चिमी जगत के बाक़ी देशों की तरह ही चीन के साथ ब्रिटेन के रिश्ते 2021 से बदतर होते जा रहे हैं. यही वजह है कि 2023 की समीक्षा में चीन को “युग को परिभाषित करने वाली चुनौती” क़रार दिया गया है. हालांकि इसके बावजूद खुले तौर पर चीन को “ख़तरे” की श्रेणी में रखने से हिचक दिखाई गई है.
सबसे ग़ौरतलब बात ये है कि 2023 की एकीकृत समीक्षा जारी किए जाने के साथ ही प्रधानमंत्री सुनक ने अमेरिका का दौरा भी किया. इस यात्रा का मक़सद ऑकस (ऑस्ट्रेलिया, यूके और अमेरिका के बीच त्रिस्तरीय सुरक्षा भागीदारी और प्रतिरक्षा समझौता) को प्रगति के रास्ते पर और आगे ले जाना है. इसके तहत ऑस्ट्रेलिया को अत्याधुनिक ब्रिटिश प्रौद्योगिकी वाली परमाणु-शक्ति संपन्न पनडुब्बियों से लैस करने का लक्ष्य रखा गया है. साथ ही हिंद-प्रशांत में चीनी आक्रामकता की काट के लिए अमेरिकी मदद से साझा क्षमताओं के विकास का इरादा भी जताया गया है. हाल ही में सैन डिएगो में त्रिपक्षीय प्रेस वार्ता में सुनक ने ऑकस को “बहुपक्षीय प्रतिरक्षा के क्षेत्र में कई पीढ़ियों की सबसे अहम भागीदारी” क़रार दिया. इससे हिंद-प्रशांत में स्थायित्व लाने को लेकर तीन देशों के साझा दृष्टिकोण में ब्रिटेन की केंद्रीय भूमिका का इज़हार होता है.
ये रणनीति “ताइवान जलसंधि में स्थिरता” का समर्थन करते हुए “यथास्थिति में एकतरफ़ा रूप से किसी भी प्रकार के परिवर्तन” का विरोध करती है. ऑकस और अन्य तमाम कारकों के चलते फ़्रांस के साथ ब्रिटेन के रिश्तों में कड़वाहट आ गई थी. हालांकि हाल ही में दोनों देशों के रिश्तों में जमी बर्फ़ पिघलने लगी है. हिंद-प्रशांत में यूरोप के केंद्रीय किरदार के तौर पर फ़्रांस के दर्जे के मद्देनज़र ये एक और अहम घटनाक्रम है.
पश्चिमी जगत के बाक़ी देशों की तरह ही चीन के साथ ब्रिटेन के रिश्ते 2021 से बदतर होते जा रहे हैं. यही वजह है कि 2023 की समीक्षा में चीन को “युग को परिभाषित करने वाली चुनौती” क़रार दिया गया है. हालांकि इसके बावजूद खुले तौर पर चीन को “ख़तरे” की श्रेणी में रखने से हिचक दिखाई गई है. इससे सुनक की कंज़रवेटिव पार्टी के कठोरतावादी तत्व निराश हुए हैं. रणनीति में चीन पर नपी-तुली भाषा का इस्तेमाल किया गया है. ब्रेग्ज़िट के बाद चीन के साथ आर्थिक रिश्तों पर ज़ोर देते हुए जलवायु परिवर्तन जैसे साझा मसलों पर जुड़ावों की बात कही गई है. हालांकि ज़ोर-ज़बरदस्ती के उपायों के ख़िलाफ़ रुख़ साफ़ कर दिया गया है. बहरहाल, ब्रिटेन का ये अंदाज़ यूरोपीय संघ के रुख़ से ज़्यादा अलग नहीं है, जिसने चीन को एक साथ “व्यवस्थागत प्रतिद्वंदी, प्रतिस्पर्धी और साथी” क़रार दिया है. ब्रिटिश रणनीतिक दस्तावेज़ में ज़ोर देकर कहा गया है कि चीन के साथ ब्रिटेन के रिश्ते अपरिहार्य रूप से शत्रुतापूर्ण नहीं है और ना ही ये संबंध “पूर्वनिर्धारित ढर्रे” के हिसाब से तय हैं.
पिछले दो सालों में वैश्विक स्तर पर आए ज़बरदस्त बदलावों के चलते नीतिगत मोर्चे पर नए रुझानों की झलक मिलती है. हिंद-प्रशांत की ओर ब्रिटेन के झुकाव को दोहराने के साथ-साथ यूरो-अटलांटिक के प्रति प्रतिबद्धता भी जताई गई है.
इसके बावजूद ब्रिटेन की ख़ुफ़िया एजेंसी MI5 ने स्वीकार किया है कि “चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की गतिविधियां यूके के सामने सबसे परिवर्तनकारी सामरिक चुनौतियां पेश करती हैं”. रणनीति में ख़ासतौर से “रूस के साथ चीन की गहराती साझेदारी और ईरान के साथ रूस के बढ़ते सहयोग” को चिंताजनक माना गया है. इसमें साफ़ किया गया है कि सहयोग की क़वायद “चीन द्वारा चुने गए विकल्पों” पर निर्भर करेगी. हालांकि इस कड़ी में वार्ता के अहम मंच के तौर पर G20 की भूमिका को भी रेखांकित किया गया है.
दस्तावेज़ में “मध्यवर्ती शक्तियों” के साथ मिलकर काम करने की अहमियत बताते हुए कई बार भारत का ज़िक्र किया गया है. G7 के साथ भारत के नज़दीकी सहयोग की चर्चा करते हुए G4 देशों को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता दिलाने की दिशा में ब्रिटेन के समर्थन को दोहराया गया है. 2021 की एकीकृत समीक्षा के अनुरूप मुक्त व्यापार समझौते और द्विपक्षीय रिश्तों को और गहरा करने की दिशा में काम करने की बात कही गई है. इस सिलसिले में 2021 में जारी 2030 रोडमैप का ज़िक्र किया गया है.
संसाधनों का सवाल
ऑकस की घोषणाओं के अलावा ताज़ा दस्तावेज़ में ब्रिटेन ने अपने रक्षा बजट को बढ़ाकर अपनी GDP का 2.25 प्रतिशत करने की प्रतिबद्धता जताई है. फ़िलहाल नेटो की वचनबद्धता के मुताबिक देश का रक्षा बजट GDP के 2 प्रतिशत के स्तर पर है. हालांकि ब्रिटिश सेना के आला अधिकारियों के मुताबिक देश के सामने पेश ख़तरों में ज़बरदस्त इज़ाफ़े के मद्देनज़र बजट में की गई ताज़ा बढ़ोतरी भी नाकाफ़ी है.
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के पूर्वानुमान के मुताबिक 2023 में मंदी की चपेट में आने वाली G7 की इकलौती संभावित अर्थव्यवस्था ब्रिटेन की हो सकती है. ऐसे में घरेलू आर्थिक चिंताओं के साथ महत्वाकांक्षी विदेश नीति का तालमेल बिठाना चुनौतियों भरा सबब साबित हो सकता है. प्रस्तावित विदेश नीति में यूरो-अटलांटिक के साथ-साथ हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सतत रूप से जुड़ाव की वचनबद्धता जताई गई है. विश्लेषकों को चिंता है कि सीमित सैन्य संसाधनों के साथ-साथ यूक्रेन को मदद दिए जाने के चलते ब्रिटेन के भंडार घट रहे हैं. इस संदर्भ में हिंद-प्रशांत में सुरक्षा प्रदाता के रूप में योगदान करने की ब्रिटेन की कोशिशों से यूरो-अटलांटिक (जहां उसकी सबसे ज़्यादा अहमियत है) में उसकी भूमिका लचर पड़ जाएगी. वैसे तो ब्रिटेन में 2025 से पहले आम चुनाव नहीं होने वाले, लेकिन चुनावी सर्वेक्षणों में लेबर पार्टी की संभावित जीत का इशारा मिलने से लगता है कि भविष्य में ब्रिटिश विदेश नीति की वरीयता सूची में हिंद-प्रशांत का दर्जा नीचे रहने वाला है. ग़ौरतलब है कि लेबर पार्टी नेटो का समर्थन करने पर ज़्यादा ज़ोर देती रही है.
बदलाव से ज़्यादा निरंतरता
कुल मिलाकर 2023 की एकीकृत समीक्षा में 2021 के दस्तावेज़ की तरह ही व्यापक दिशा और प्राथमिकताएं जारी रखने की बात कही गई है. इसमें किसी बुनियादी परिवर्तन या नए सिरे से आकलनों का ज़िक्र नहीं है. हालांकि, दस्तावेज़ में निश्चित रूप से मौलिक क़वायदों पर ज़ोर दिया गया है जो साफ़ तौर से ब्रिटेन की सोच को दर्शाता है. पिछले दो सालों में वैश्विक स्तर पर आए ज़बरदस्त बदलावों के चलते नीतिगत मोर्चे पर नए रुझानों की झलक मिलती है. हिंद-प्रशांत की ओर ब्रिटेन के झुकाव को दोहराने के साथ-साथ यूरो-अटलांटिक के प्रति प्रतिबद्धता भी जताई गई है. दस्तावेज़ में सैन्य और अन्य संसाधनों पर पहले से ज़्यादा ज़ोर दिया गया है. दरअसल हाल के अर्से में हिंद-प्रशांत की ओर ब्रिटेन के झुकाव का असलियत में इज़हार करने वाली कुछ परियोजनाएं और गतिविधियां सामने आई थीं. इस समीक्षा दस्तावेज़ को इन्हीं कामयाबियों के बाद जारी किया गया है.
यूक्रेन को ब्रिटिश समर्थन से वैश्विक मामलों में ब्रिटेन की निरंतर जारी प्रासंगिकता का ख़ुलासा हुआ है. ब्रेग्ज़िट के बावजूद अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को आकार देने की उसकी क़ाबिलियत सामने आई है. सैद्धांतिक रूप से 2023 की एकीकृत समीक्षा से इस बात के संकेत मिलते हैं कि उथल-पुथल भरे परिदृश्य में आगे बढ़ते हुए ब्रिटिश सरकार निश्चित रूप से “वैश्विक” सोच रखती है. ये तो समय ही बताएगा कि वो अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा कर पाने में कामयाब होगी या नहीं.
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