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जैसे क़ुदरत के साथ छेड़खानी को बुद्धिमानी नहीं कहा जाता है. उसी तरह, प्राकृतिक जीवों को हथियार बनाकर उनकी मदद से युद्ध लड़ना भी अक़्लमंदी नहीं कही जा सकती है. क्योंकि, इसके नतीजे उस महामारी से भी भयानक हो सकते हैं, जिसकी गिरफ़्त में आज पूरी दुनिया है.
कोविड-19 की महामारी ने पिछले क़रीब डेढ़ साल से पूरी दुनिया में उथल पुथल मचा रखी है. और, इस महामारी की शुरुआत से ही, लोगों ने ये सवाल पूछने शुरू कर दिए थे कि दुनिया में तबाही मचाने वाला ये वायरस आख़िर आया कहां से. इस समय कोरोना वायरस की उत्पत्ति को लेकर दो थ्योरी सबसे ज़्यादा चर्चा में हैं. पहली तो ये कि ये वायरस प्राकृतिक रूप से उत्पन्न हुआ और किसी अन्य जानवर से होते हुए इंसानों तक पहुंचा और महामारी की शक्ल ले ली. दूसरी परिकल्पना ये है कि नए कोरोना वायरस को किसी लैब में बनाया गया था और प्रयोगशाला में ही इसमें ऐसी ख़ूबियां डाली गईं, जिससे ये इंसानों को संक्रमित कर सके. कम से कम अब तक तो इनमें से किसी भी विचार को पक्के तौर पर साबित करने के सबूत नहीं मिले हैं. वायरस की उत्पत्ति को लेकर विवाद के बीच हाल ही में एक ऐसा दस्तावेज़ सामने आया है, जिसने कोरोना वायरस की उत्पत्ति को लेकर बहस को नए सिरे से भड़का दिया है. इस बहस के साथ ही जैविक हथियारों पर अनुसंधान और उनके विकास की परिचर्चा भी नए सिरे से छिड़ गई है.
ये दस्तावेज़ असल में एक वैज्ञानिक रिसर्च पेपर है, जिसे वर्ष 2015 में चीन के 18 सैन्य वैज्ञानिकों और हथियारों के विशेषज्ञों ने मिलकर तैयार किया था. इसका शीर्षक है, ‘अननेचुरल ओरिजिन ऑफ़ सार्स ऐंड न्यू स्पीशीज़ ऑफ़ मैन मेड वायरसेज़ ऐस जेनेटिक बायोवेपंस’ या दूसरे शब्दों में कहें तो इस शीर्षक का मतलब है कि ये पेपर सार्स और कोरोना वायरस की अप्राकृतिक तरीक़े से उपजी नई प्रजातियां और उनकी मदद से जैविक हथियार बनाने की संभावनाओं पर तैयार किया गया था. इन वैज्ञानिकों ने लिखा था कि कोरोना वायरस नाम के वायरस परिवार में, ‘कृत्रिम रूप से बदलाव करके इंसानों की बीमारी वाले वायरस तैयार किए जा सकते हैं और फिर इन्हें हथियार बनाकर इनका इस तरह से इस्तेमाल हो सकता है, जैसा कभी पहले देखा नहीं गया.’ यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि कोविड-19 महामारी के लिए ज़िम्मेदार वायरस भी एक कोरोना वायरस ही है, जो सबसे पहले चीन के वुहान शहर में सामने आया था और इसका नाम SARS-CoV-2 रखा गया था. इस दस्तावेज़ में इस बात पर भी ज़ोर दिया गया था कि, लैब में तैयार कोरोना वायरस की नई प्रजातियां, ‘जेनिटक हथियारों के नए युग’ की शुरुआत करेंगे. ये लेख लिखने वालों ने जैविक हथियारों के एक ऐसे हमले का ख़्वाब देखा था, जिससे ‘दुश्मन की स्वास्थ्य व्यवस्था को तबाह किया जा सकता था.’
वैज्ञानिकों ने लिखा था कि कोरोना वायरस नाम के वायरस परिवार में, ‘कृत्रिम रूप से बदलाव करके इंसानों की बीमारी वाले वायरस तैयार किए जा सकते हैं और फिर इन्हें हथियार बनाकर इनका इस तरह से इस्तेमाल हो सकता है, जैसा कभी पहले देखा नहीं गया.
इस दस्तावेज़ और अन्य ख़ुफ़िया जानकारियों के आधार पर ही अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अपनी ख़ुफ़िया एजेंसियों को निर्देश दिया है कि वो कोरोना वायरस की उत्पत्ति के बारे में जांच करके 90 दिनों में अपनी रिपोर्ट दें. अब जबकि इस जांच की रिपोर्ट का इंतज़ार किया जा रहा है, तो इस बीच हम चीन की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं और आक्रामकता के हवाले से जैविक युद्ध को लेकर चीन के विचारों और उसकी क्षमताओं पर एक नज़र डाल लेते हैं.
जैविक तकनीक के बहुत से सैन्य उपयोगों में से जैविक हथियार बनाने का विकल्प सबसे घातक और नुक़सान पहुंचाने वाला है. दुनिया के सत्रह देशों के बारे में माना जाता है कि, या तो उनके पास जैविक हथियार हैं या फिर वो जैविक हथियार बनाने का कोई कार्यक्रम चला रहे हैं. इन देशों में अमेरिका, कनाडा, चीन, क्यूबा, फ्रांस, जर्मनी, ईरान, इराक़, इज़राइल, जापान, लीबिया, उत्तर कोरिया, रूस, दक्षिण अफ्रीका, सीरिया, ताइवान और ब्रिटेन शामिल हैं.
जैविक हथियारों के साथ चीन का पहला अनुभव दूसरे विश्व युद्ध के दौरान का रहा है. तब जापान ने चीन के ख़िलाफ़ जैविक हथियारों का इस्तेमाल किया था. उन हमलों में जापान ने प्लेग से ग्रस्त कीड़ों की चीन के नागरिकों पर बरसात की थी. जापान का जैविक हमला झेलने के बाद 1984 में चीन ने जैविक हथियारों से जुड़ी संधि में शामिल होने की घोषणा की थी. जैविक हथियारों की इस संधि (BWC) में, ‘जैविक और ज़हरीले हथियारों के विकास, उत्पादन, हासिल करने, किसी को देने, जमा करने और इस्तेमाल करने पर प्रभावी ढंग से रोक लगाई गई है’. सार्वजनिक रूप से तो चीन यही कहता है कि, उसने जैविक हथियारों की संधि में ख़ुद ही शामिल होने का फ़ैसला करके अपनी अच्छी नीयत’ की मिसाल पेश की थी. चीन का ये दावा भी है कि वो न तो जैविक हथियारों का विकास करता है, न उनका उत्पादन करता है, न जमा करता है और न ही उसके पास कोई जैविक हथियार हैं. इसके अलावा, चीन ने हमेशा इस बात से भी इनकार किया है कि उसके पास जैविक हथियार या इनके प्रयोग का कोई ज़रिया या डिलिवरी सिस्टम है.
जैविक तकनीक के बहुत से सैन्य उपयोगों में से जैविक हथियार बनाने का विकल्प सबसे घातक और नुक़सान पहुंचाने वाला है. दुनिया के सत्रह देशों के बारे में माना जाता है कि, या तो उनके पास जैविक हथियार हैं या फिर वो जैविक हथियार बनाने का कोई कार्यक्रम चला रहे हैं.
1993 में अमेरिका की ख़ुफ़िया एजेंसियों ने चीन के दो असैन्य जैविक अनुसंधान केंद्रों आकलन किया था. जैविक अनुसंधान की इन प्रयोगशालाओं के बारे में माना जाता है, इनमें जैविक हथियारों का उत्पादन करके उन्हें जमा किया गया था और इन पर चीन की सेना का नियंत्रण था. उसी साल अमेरिका ने पहली बार सार्वजनिक रूप से कहा था कि, ‘इस बात की संभावना प्रबल है कि चीन ने जैविक हथियारों संबंधी समझौते पर दस्तख़त के बावजूद, जैविक हथियारों के अपने कार्यक्रम को ख़त्म नहीं किया है’. उसके बाद से ही चीन द्वारा जैविक हथियारों से जुड़े समझौते की शर्तें मानने को लेकर शक और चिंता भरे सवाल बने हुए है.
बाद में, 1999 की एक रिपोर्ट में अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसियों ने अपनी ये राय ज़ाहिर की थी कि चीन ‘अपने पास जैविक और रासायनिक हथियारों के एक छोटे से भंडार या फिर ऐसे हथियार बनाने के लिए ज़रूरी संसाधनों को जमा करके रखने के विचार को मूल्यवान मानता है. चीन का मानना है कि अगर उसके पास जैविक हथियारों का ये भंडार होगा तो, ये किसी भी दुश्मन की ओर से उसके ऊपर संभावित रासायनिक ख़तरे या हमले से बचाव करेगा.’ ये रिपोर्ट तैयार करने वाले अमेरिकी ख़ुफ़िया अधिकारियों ने ये भी कहा था कि इस बात की संभावना काफ़ी अधिक है, क्योंकि चीन को लगता है कि पहले भी महाशक्तियों ने उसके ऊपर हमला करने के लिए जैविक हथियारों का इस्तेमाल किया है. अमेरिका पर आरोप लगते हैं कि उसने कोरियाई युद्ध के दौरान जैविक हथियारों- जिसमें चेचक, प्लेग, टाइफस और एंथ्रैक्स जैसी बीमारियों के रोगाणु शामिल हैं- का इस्तेमाल किया था. चीन की सेना इन आरोपों को सच मानकर ही चलती है.
जब चीन अपने यहां किसी जैविक हथियार कार्यक्रम के होने से इनकार नहीं करता है, तो उसका तर्क ये होता है कि इस संबंध में उसके सैन्य रिसर्च आत्मरक्षा के लिए हैं. 1994 में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की जैविक हथियार निरोधक इकाई के प्रमुख फू जेनमिंग ने कहा था कि, ‘पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के पास किसी अन्य देश पर हमले के लिए जैविक हथियारों की टुकड़ी नहीं है. लेकिन, हमारे पास जैविक हथियारों का युद्ध लड़ने की क्षमता रखने वाली टुकड़ी ज़रूर है.’ आधिकारिक रूप से पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की इस इकाई को मिलिट्री मेडिकल रिसर्च यूनिट ऑफ़ बीजिंग मिलिट्री रीजन के नाम से जाना जाता है. इसका दूसरा नाम इंस्टीट्यूट ऑफ़ मिलिट्री मेडिसिन है और इसकी ज़िम्मेदारी संक्रामक रोगों का अध्ययन करने की है.
इन बातों से इतर, चीन पर ये आरोप लगते रहे हैं कि उसने हमला करने की तैयारी के लिहाज़ से जैविक हथियारों पर ऐसे रिसर्च किए हैं, जिनके नतीजे घातक हो सकते हैं. सोवियत संघ की बायोप्रिपेयराट के प्रथम उप निदेशक केन एलिबेक ने दावा किया था कि 1980 के दशक के आख़िर में चीन के शिंजियाग सूबे में-चीन के परमाणु परीक्षण वाली जगह लोप नोर के पास ख़ूनी बुख़ार की दो महामारियां फैली थीं. केन एलिबेक का दावा था कि ये बीमारियां, ‘एक लैब में हादसे की वजह से फैली थीं, जहां पर चीन के वैज्ञानिक वायरस से होने वाली बीमारियों को हथियार बनाने का काम कर रहे थे.’
1999 की एक रिपोर्ट में अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसियों ने अपनी ये राय ज़ाहिर की थी कि चीन ‘अपने पास जैविक और रासायनिक हथियारों के एक छोटे से भंडार या फिर ऐसे हथियार बनाने के लिए ज़रूरी संसाधनों को जमा करके रखने के विचार को मूल्यवान मानता है. चीन का मानना है कि अगर उसके पास जैविक हथियारों का ये भंडार होगा तो, ये किसी भी दुश्मन की ओर से उसके ऊपर संभावित रासायनिक ख़तरे या हमले से बचाव करेगा.
हाल ही में चीन ने अपने ‘मेड इन चाइना 2025’ कार्यक्रम और ताज़ा पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत जैविक तकनीक पर काफ़ी ज़ोर दिया है. ये बात ऊपरी तौर पर तो संदेह से परे लगती है. लेकिन, अगर हम जैविक तकनीक को बढ़ावा देने की चीन की इस कोशिश को वहां हो रहे अन्य बदलावों के साथ जोड़कर देखें, तो जैविक तकनीक के सैन्य इस्तेमाल की संभावनाएं एकदम स्पष्ट हो जाती हैं. जैसा कि एक ख़ुफ़िया रिपोर्ट में अमेरिका ने कहा था कि, चीन का नेशनल जीनबैंक डेटाबेस (CNGBdb) जेनेटिक जानकारियों के दुनिया के सबसे बड़े ख़ज़ानों में से एक है. रोगाणुओँ की इस जानकारी का प्रयोग महामारियों का और अधिक असरदार इलाज और सटीक दवाओं के विकास के लिए किया जा सकता है. लेकिन, इन्हीं संसाधनों का विकास बेहद सटीक निशाना लगाने वाले जैविक हथियार बनाने में भी किया जा सकता है. इसके अलावा चीन का राष्ट्रीय ख़ुफ़िया क़ानून और उसकी सैन्य असैन्य संस्थाओं को एक साथ मिलाकर चलने की रणनीति से चीन की सेना को हर असैनिक अनुसंधान और मूलभूत ढांचे का इस्तेमाल करने की खुली छूट मिल जाती है. इसका मतलब सैद्धांतिक तौर पर चीन के पास जैविक तकनीक के सैन्य इस्तेमाल के सारे विकल्प खुले हुए हैं.
वर्ष 1999 में अमेरिका के रक्षा विभाग (DOD) ने ये अनुमान लगाया था कि चीन के पास बैलिस्टिक और क्रूज़ मिसाइलों के अलावा, ऐसे ‘बमवर्षक और लड़ाकू विमान, हेलीकॉप्टर, गोलीबारी के हथियार, रॉकेट, मोर्टार और स्प्रेयर हैं, जिनका इस्तेमाल वो परमाणु, जैविक और रासायनिक हमले के लिए भी कर सकता है.’ वर्ष 2001 की एक रिपोर्ट में अमेरिका के रक्षा विभाग ने ये भी कहा था कि, ‘चीन के पास जैविक तकनीक का एक उन्नत मूलभूत ढांचा और ऐसे ज़रूरी संसाधनों वाली क्षमताएं मौजूद हैं, जिनसे जैविक हथियारों का विकास, उनका उत्पादन और हथियारों के रूप में इस्तेमाल करने का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है.’
ऐसा माना जाता है कि पिछले कई वर्षों के दौरान चीन ने संभावित जैविक हथियारों के रोगाणुओं पर काफ़ी रिसर्च की है. इनमें टुलारेमिया, क्यू बुख़ार, प्लेग, एंथ्रैक्स, ईस्टर्न इक़्वीन एंसेफेलाइटिस और सिट्टाकोसिस जैसी बीमारियों के रोगाणु शामिल हैं. ये भी माना जाता है कि चीन के पास ऐसी तकनीक उपलब्ध है, जिससे वो पारंपरिक जैविक हथियार बनाए जा सकते वाले रोगाणुओं जैसे कि एंथ्रैक्स, टुलारेमिया और बोटुलिज़्म के लिए ज़िम्मेदार जीवों का बड़े पैमाने पर उत्पादन कर सकता है. संभावना इस बात की भी है कि चीन ने राइसिन, बॉटुलिनम, टॉक्सिन और एंथ्रैक्स, कॉलरा, प्लेग और टुलारेमिया के रोगाणुओं का बड़ा भंडार तैयार कर लिया हो. अनुमान है कि चीन ने वुहान के बेहद बदनाम हो चुके वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ़ वायरोलॉजी में बेहद संक्रामक वायरस जैसे कि SARS, H5N1 फ्लू, जापानी एंसेफेलाइटिस और डेंगी पर भी अध्ययन कर लिया है.
ऐसा लगता है कि चीन एरोबायोलॉजी में भी काफ़ी दिलचस्पी रखता है. ख़बर है कि कीटाणुओं और विषाणुओं पर चीन की प्रयोगशालाओं के भीतर ऐसे प्रयोग हो चुके हैं, जिनसे हवा के ज़रिए उनके फैलने की संभावनाओं का पता लगाया जा सके. चीन ने जैविक हथियारों की संधि के तहत विश्वास बढ़ाने वाले क़दम के तौर पर ये बताया है कि उसने जैविक एरोसॉल पर रिसर्च की है. चीन के जैविक हथियारों के एक विशेषज्ञ ली यिमिन, जैविक हथियारों का हवा के ज़रिए प्रसार करने वाले एरोसॉल के एक बड़े इलाक़े में बेहद प्रभावी होने के गुण की काफ़ी तारीफ़ कर चुके हैं.
ऐसा माना जाता है कि पिछले कई वर्षों के दौरान चीन ने संभावित जैविक हथियारों के रोगाणुओं पर काफ़ी रिसर्च की है. इनमें टुलारेमिया, क्यू बुख़ार, प्लेग, एंथ्रैक्स, ईस्टर्न इक़्वीन एंसेफेलाइटिस और सिट्टाकोसिस जैसी बीमारियों के रोगाणु शामिल हैं.
दिलचस्प बात ये है कि 1993 में चीन ने स्वयं से ये घोषणा की थी कि, उसके आठ अनुसंधान केंद्रों में, ‘जैविक हथियार संबंधी राष्ट्रीय आत्मरक्षात्मक अनुसंधान एवं विकास के कार्यक्रम’ चल रहे हैं. इनमें वैक्सीन बनाने वाले केंद्र जैसे कि वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ़ बायोलॉजिकल प्रोडक्ट भी शामिल है. चीन की सिनोफार्म कंपनी अपनी कोरोना वैक्सीन बनाने के लिए इसी केंद्र की सुविधाओं का प्रयोग करती है. उसके बाद से वर्ष 2015 के एक अध्ययन में पाया गया है कि चीन की सरकार के रक्षा प्रतिष्ठानों से जुड़े 12 केंद्र और पीपुल्स लिबरेशन आर्मी से जुड़े 30 सुविधाएं ऐसीं हैं जो जैविक हथियारों पर रिसर्च, उनके विकास, उत्पादन, परीक्षण या भंडारण के काम से जुड़ी हुई हैं. इनमें वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ़ वायरोलॉजी शामिल नहीं था. हालांकि, अमेरिका ने हाल ही में ये पता लगाया है कि, ‘वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ़ वायरोलॉजी ने चीन की सेना के साथ मिलकर गोपनीय प्रोजेक्ट पर काम किया है, और उनकी रिपोर्ट का प्रकाशन भी किया है.’ यही नहीं, चीन का ये संस्थान, ‘उसकी सेना की ओर से 2017 से ही ऐसे गोपनीय रिसर्च में भी शामिल रहा है, जिसमें जानवरों पर प्रयोग किए गए हैं.’
वैसे तो ये बात कुख्यात है कि चीन की सैन्य क्षमताओं का पता लगा पाना बेहद मुश्किल है. कारण यही है कि चीन के संस्थानों में पारदर्शिता का भारी अभाव है और वो गोपनीयता के माहौल में काम करती हैं. ऐसे में कुछ ऐतिहासिक रिकॉर्ड, मूल्यांकनों और अध्ययनों के ज़रिए ही हमें ये पता चल पाता है कि चीन की दीवार के पीछे क्या चल रहा है. जब बात चीन के जैविक हथियारों की आती है, तो जो तस्वीर नज़र आती है, वो बेहद परेशान करने वाली है. हालांकि, आने वाला समय जैविक हथियारों को विश्व स्तर पर फैलने से रोकने का नहीं है. हमें आने वाले समय में जैविक हथियारों को विश्व स्तर पर नष्ट करने का अभियान चलाना होगा. जैसे क़ुदरत के साथ छेड़खानी को बुद्धिमानी नहीं कहा जाता है. उसी तरह, प्राकृतिक जीवों को हथियार बनाकर उनकी मदद से युद्ध लड़ना भी अक़्लमंदी नहीं कही जा सकती है. क्योंकि, इसके नतीजे उस महामारी से भी भयानक हो सकते हैं, जिसकी गिरफ़्त में आज पूरी दुनिया है.
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Javin was Research Assistant with ORFs Strategic Studies Programme. His work focuses on military national and international security and Indian foreign and defence policy.
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